प्रचण्ड प्रवीर के ‘उत्तरायण’ में मकर, कुम्भ, मीन, मेष, वृष, मिथुन तथा ‘दक्षिणायन’ में कर्क, सिंह,कन्या, वृश्चिक संक्रांति तथा धनु शीर्षक से कहानियां संकलित है. इधर प्रवीर ने उपनिषदों को आधार बनाकर कहानियाँ लिखनी शुरू की हैं जिनमें से कुछ आप समालोचन पर भी पढ़ सकते हैं. इस लेखक के विषय में स्वर्गीय विष्णु खरे का मानना था कि ‘प्रचण्ड प्रवीर हिंदी कहानी के इतिहास में सबसे बीहड़ प्रतिभा हैं.’
प्रवीर के संग्रह ‘उत्तरायण’ ख़ासकर कहानी ‘मकर’ पर यह लेख आनन्द वर्धन द्विवेदी ने लिखा हैं जो पेशे से चिकित्सक और संस्कृत परम्परा के अध्येता हैं. इस बीहड़ रचनाकार पर शायद इस सघन ढंग से ही लिखा जा सकता है.
ऋजुता का ही विस्तार हैं सारी वक्रताएँ
(सन्दर्भ: \’उत्तरायण\’ का \’मकर\’)
आनन्द वर्धन द्विवेदी
|
हिन्दी भाषा के एक दुर्द्धर्ष और अपनी तरह के एक अप्रतिम लेखक हैं प्रचण्ड प्रवीर. उनके ज्ञान, बल्कि सम्यक ज्ञान का क्षेत्र बहुत विराट है, एक समुद्र सरीखी विशाल नदी के विपुल-सुदीर्घ पाटों की तरह प्रशस्त और कई बार आतंकित कर देने की सीमा तक अतिव्याप्त. उनके ज्ञान का उत्स यदि भारतीय मनीषा के आर्ष ग्रन्थों– उपनिषद, आरण्यकों, ब्राह्मण-ग्रन्थों, पुराणों आदि की अव्याहत ज्ञान-राशि को सर्वांग संपूर्णता में अपनी जड़ों के लिए आधेय और पाथेय बनाता है, तो उसके ज्ञान की परिधि पर अधुनातन ज्ञान-विज्ञान की नवीनतम उपलब्धियाँ अपनी समूची प्रगल्भता से दिपदिपाती हैं, जिसके केन्द्र से परिधि तक की अगण्य-अगणित त्रिज्याओं पर भारतीय ज्योतिष, पाश्चात्य ज्योतिष, भारतीय तन्त्र-मन्त्र शास्त्र, प्राच्य और पश्चिमी मनीषाएं, अपने-अपने अनेकानेक बहुरंगी-बहुवर्णी ज्ञान-विज्ञान तथा दार्शनिक प्रत्ययों की अतिशय विवेकपूर्ण आभा के साथ बहुत स्पष्ट रूप से देखी-सुनी जा सकती हैं. लेखक स्वयं आई आई टी का स्नातक-परास्नातक है जिससे उसके ज्ञान की नव्यता और अधुनातनता स्वयंसिद्ध है, लेकिन उसकी चमत्कृत कर देने वाली विलक्षणता यह है कि ज्ञान-विज्ञान कि शताब्दियों-सहस्राब्दियों पुरानी भारतीय उपलब्धियों के प्रति लेखक के मन में एक दुर्लभ क़िस्म कि संसक्ति है जिसे यदि आसक्ति भी कह दिया जाए तो यह अभिकथन सच्चाई को अतिक्रमित करता हुआ नहीं माना जाना चाहिए. वह अपने अनुभव की प्रामाणिकता के लिए उथले-उथले जाल डालने वाला मछुवारा नहीं है, बल्कि मूल्यवान की चाह-अभीप्सा में वह बहुत गहेरे, अतल-तल में उतरने वाले गोताखोर की नाईं ख़तरा उठाने वाले मछुवारे हैं, और सही मायनों में \’उत्तरायण\’ की कहानियों विशेषतः \’मकर\’ का \’सहानुभूतिपूर्ण-सम्यक पाठ\’ हिन्दी के पाठक को एक सर्वथा नवीन, लगभग \’अनाघ्रातं पुष्पं\’ सरीखे अनुभव और विचार-सम्पदा से सम्पन्न करता है.
\’उत्तरायण\’ के फ्लैप पर हिन्दी के वरिष्ठतम और यशजीवी कवि विष्णु खरे (स्व०) ने लेखक को \’हिन्दी कहानी के इतिहास की सबसे बीहड़ प्रतिभा\’ यूँ ही नहीं कहा है. \’तेजसां नहि वयः समीक्ष्यते\’ ही वह बात रही होगी जिसके कारण विष्णु जी प्रवीर जी के \’वयस्क\’ होने की उद्विग्न प्रतीक्षा करने लगते हैं, कि वयस्क या संपूर्णतः परिपक्व यह लेखक हिन्दी को कितनी-कितनी दुर्लभ और श्लाघनीय रचनाओं से समृद्ध-सम्पन्न कर जाता है, कि हिन्दी अपनी रचनात्मकता में विश्व-साहित्य से श्रेष्ठतर स्तर या कम-से-कम समकक्षता के स्तर पर तो स्थापित दिख ही सके. विष्णु जी ने लेखक के विषय में यह जो टिप्पणी की है कि लेखक अपनी हर अगली कहानी का स्तर अपनी हर पिछली कहानी के स्तर से उच्च से उच्चतर करता जाता है– जैसा कि ऊँची कूद के खेल में श्रेष्ठतम खिलाड़ी की तलाश में कूदी जाने वाली ऊँचाई का \’बार\’ हर बार बढ़ाये जाते रहना एक अपरिहार्य सी प्रक्रिया है. विष्णु खरे के हर शब्द, हर पंक्ति की लेखक को लेकर की गई टीपों का भाष्य एक अलग तरह के आलेख की माँग करता है, किन्तु वह इस निबन्ध का अभिप्रेत नहीं है. फ़िलहाल तो अभी लेखक की कहानी \’मकर\’ पर ही एकाग्र होना ज़रूरी है.
\’मकर\’ कहानी लेखक के कहानी संग्रह \’उत्तरायण\’ की पहली कहानी है. \’उत्तरायण\’ शीर्षक की सिद्धि के लिए लेखक ने महाभारत के भीष्म पर्व के जिस श्लोक को उद्धृत किया है, वह है:
धारयिष्याम्यहं प्रणानुत्तरायणकांक्षया .
ऐश्वर्यभूत: प्राणनामुत्सर्गो हि यतो मम॥
स्पष्ट है कि लोक में प्रचलित \’भीष्म-प्रतिज्ञा\’ के गहन-गह्वर अर्थ को पकड़कर उसकी अर्थवत्ता को एक चालू मुहावरे में अवमूल्यित (Reduce) से हो चुके कीचड़-सने स्वरूप से लेखक ने उसे फिर से उसकी समूची भास्वरता से सम्पन्न करने की चेष्टा है. लेखक की पहली कहानी \’मकर\’ को समनस्कभाव से पढ़ चुकने के बाद यह कोई तिलिस्म या रहस्यलोक नहीं रह जाता कि इस कहानी के सन्दर्भ में \’उत्तरायण\’ शीर्षक की संगति क्या है? वस्तुतस्तु यह भीष्म-प्रतिज्ञा लेखक की स्वयं की कठोर प्रतिज्ञा है कि जैसे बिना उत्तरायण के आए भीष्म अपना शरीर नहीं छोडते, उसके लिए उन्हें चाहे 6 महीने की अपार-अकथनीय पीड़ा झेलते हुए शर-शय्या पर ही क्यों न बिताना पड़े, लेखक भी अपने अभीष्ट की सिद्धि के लिए पीड़ा की कितनी हि दुर्निवारता को पार-परास्त करने को तत्पर है. यहाँ प्रश्न यह है कि लेखक का अभीष्ट क्या है, वह क्या कहने के लिए व्याकुल है, वह समझाना-बताना क्या चाहता है?
\’मकर\’ का पाठ आपको ऐसे झंझोड़ने की ताक़त रखता है, और वह बलपूर्वक आपको व्यथित भी करता है, जैसे कि कोई अलस्सुबह जग गया व्यक्ति अपने घर में सोये पड़े नाक बजाते लोगों को देखकर झुंझलाहट से भर उठता है और तब तक चैन नहीं पाता जब तक कि वह सोये हुओं को वह जगा न ले. जागा हुआ व्यक्ति अकारण ही जैसे सोये हुओं का \’दुश्मन\’ सा होता है, बिना जगाए मानता ही नहीं. बहुत कुछ वही स्थिति हमारे \’मकर\’ के लेखक की भी है. वह क्योंकि स्वयं जागृत है, जीवन्त है, इसलिए उसे सुषुप्ति से, म्रियमाणता से चिढ़ है. यह ज़रूर है कि उसकी यह चिढ़ अव्याख्येय क़िस्म की चिढ़ है. इसे ठीक से समझने के लिए शायद \’जागरण\’ की \’सुषुप्ति\’ के प्रति विद्रोह की प्राकृतिकता और उसकी प्रतीकात्मकता के रूप में समझना होगा.
\’मकर\’ को प्रचण्ड प्रवीर ने प्रख्यात इतालवी लेखक-दार्शनिक अंबरतो ईको को समर्पित किया है, और ऐसा करते हुए उन्होनें भर्तृहरि के उस श्लोक को उद्धृत किया है जिसका आशय है कि असम्भव की सीमा तक के दुरतिक्रम कार्यों को भी कदाचित कर लिया जा सके, परन्तु दुराग्रह और मूढ़ता से आक्रान्त व्यक्ति को सहमत-सन्तुष्ट कर पाना लगभग असम्भव ही है. \’उत्तरायण\’ की कहानियाँ, जैसा कि पहले संकेत किया जा चुका है, भारतीय वाङ्मय में ज्योतिष के क्षेत्र में राशियों की घटनाओं की भवितव्यता और उनकी कारणभूतता की मान्यताओं की समसमय तथा समकाल के परिप्रेक्ष्य में जानने-समझने, व्याख्यायित करने की चेष्टा का एक विचारशील परिणमन है. \’मकर\’ कहने को तो एक कहानी है, किन्तु इसमें एक औपन्यासिक प्रबन्धमयता विराजती है.
इसके उपखण्डों या उपस्तम्भों में काली, तारा, त्रिपुरसुन्दरी (षोडसी), भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, भैरवी (त्रिपुरभैरवी), धूमावती, बगलामुखी, मातङ्गी और कमलात्मिका (लक्ष्मी)– ये दश देवियाँ (भारतीय वाङ्मय की प्रसिद्ध दश महाविद्यायें) हैं जिनके माध्यम से कथा-प्रवाह को रचने-विरचने की चेष्टा की गई है. \’मकर\’ की कथा के सूत्रों के इन दश महाविद्याओं के बीच से ही नहीं, उनके आश्रय तथा परिष्कार से आकार ग्रहण करने के कारण पाठक चौंक पड़ता है कि लेखक तान्त्रिक रहस्यों कि किन अबूझ, रहस्यमयी और किंचित आतंकित कर देने वाले तन्त्र-मन्त्र के गोपनीय जगत की आकस्मिक घटने वाली घटनाओं को जिस शिल्प और अभिनव-अद्वितीय युक्तियों द्वारा अपने पाठक से कहता-सुनता है, वह न केवल अचंभित करने वाला है, वह जैसे मोहाविष्ट भी करता है. \’मकर\’ को पढ़ता हुआ पाठक, लगता है एक हाई वोल्टेज करेंट के आवेश में सनसनाती हुई भावमयता के साथ किसी अलौकिक लोक में घटित हो रही घटनाओं का प्रत्यक्षदर्शी है जिसमें एक धूसरवर्णी, धुंधला-धुंधला अस्पष्ट सा अंधेरा है, जिसमें चीज़ें मटमैली सी रौशनी में भूतकाल के गहन-गह्वर कोटर में घटित होती हुई वर्तमान में बहुत कुछ अस्पष्ट, अनवगम्य और कई बार अतार्किक, अवैज्ञानिक, असत्य सी– बस कहीं कुछ हो रहा है, कुछ घटित होने के अनुमान भर सा अनुभव में आता है. लेखक की यही कथा-शैली, उसका अबूझपन, उसकी द्वन्द्वात्मक अवस्थिति– न इस पार पूरा, न उस पार पूरा, न इधर कुछ साफ, न उधर कुछ साफ, सहज-सरल कुछ भी नहीं-, यही गल्पमयता लेखक की सबसे बड़ी सीमा या बाधा है तथा इसी के नाते सामान्य-साधारण पाठक के लिए कई बार ऊब और उकताहट जैसे सशरीर आ खड़े होते हैं. लेकिन एक रसज्ञ जागृतचेता पाठक इसके रसावगाहन में इतनी उमंग और हुलास की अनुभूति करता है कि उसके रचना पाठ का सुख शब्दातीत हो जाता है, अनिर्वचनीय जैसा कुछ.
\’मकर\’ की कथा की वाचिका है \’भैरवी\’. बीसवीं-इक्कीसवीं सदी में भैरवी, लोपामुद्रा, दिङनाग, महाप्राण, कुमारिल भट्ट, मंडन मिश्र, भर्तृहरि, धनिष्ठा, पाणिनि आदि प्रागैतिहासिक नामार्थक संज्ञायें वर्तमान में नाम की हैसियत कहाँ पाती हैं? हममें से किसने इन नामों वाले जीवित व्यक्तियों को देखा है? स्पष्ट है, लेखक इन नामों वाले पात्रों के माध्यम से कुछ ख़ास तरह की प्रवृत्तियों , मानसिकताओं और परस्पर गड्डमड्ड होती संभावनाओं-असंभावनाओं के किसी विशिष्ट अभिज्ञानात्मक समवाय का निरूपण कर रहा है. \’मकर\’ के पहले उपस्तम्भ काली में भैरवी \’मकर\’ के साक्षात स्वरूप का वर्णन प्रस्तुत करती है– उसका यह विवरण भारतीय ज्योतिष के मकर राशि की अवधारणा के अत्यन्त निकट है. \’मकर\’ के मेटाफर का उपयोग लेखक बहुत सोद्देश्यपरक ढंग से करता है जो लगभग एक सर्वशक्तिमान भौतिक सत्ता और सत्ता के शक्ति संस्थान में रूपांतरण की एक आस्तित्विक स्थिति है : सर्वशक्तिमयता ऐसी कि उसे कितने ही हिस्सों में काट कर नष्ट कर दिए जाने का उपक्रम किया जाए, वह कटे हुए हर छोटे से छोटे न्यूनतम अंश में भी अपने अस्तित्व और वस्तुवत्ता के साथ ही नहीं, अपनी सम्पूर्ण क्षमता के साथ भी उपस्थित और प्राणवान बना रहता है. \’मकर\’ के दूसरे उपस्तम्भ तारा में भैरवी कहती है कि मकर के तीनों प्रमुख पात्र दिङनाग, महाप्राण और वह स्वयं (भैरवी) एक-दूसरे से अलहदा प्राणी थे, तीनों की अभिरुचियां भले ही भिन्न थीं, तीनों की अप्रिय और अरुचिकर चीज़ थी– अविद्या. तीनों ही सोशल मीडिया से घृणा करने वाले और अविद्या से मुक्ति और त्राण की अभीप्सा लिए जीवित थे.
ग़ौर से देखें तो \’मकर\’ की सारी रहस्यमयता और उसकी दुरभिसंधियों का ताला खोलने, उसे अनावृत करने की चाबी इसी एक वाक्य में है. \’मकर\’ के यही तीनों पात्र कथा के मेरुदण्ड हैं जिनसे समूची कथा की टहनियां, शाखाएं- प्रशाखाएं, पत्तियां, फल-फूल : यानी कि सभी कुछ इन्हीं से भीतर की ओर जुड़े हुए और बाहर की ओर निकले हुए हैं, ठीक वैसे जैसे शरीर के सभी अंग-उपांग मेरुदण्ड से जुड़ी और निकली हड्डियों के ताने-बाने पर उगे उगे और कार्यशील होते हैं.
\’मकर\’ के यह तीनों पात्र मिलकर आपसी सहमति और एक अवयस्क व्यूहरचना के आधार पर अपने योगक्षेम के लिए त्रिपुरसुन्दरी नामक प्रकाशन संस्थान खोलते हैं जिसका उद्देश्य और विधेय दोनों ही मूल्यत: और अन्ततः अविद्या से मुक्ति ही है. वैसे उन्हें यह दुनियावी बात पता है कि उनके प्रकाशन त्रिपुरसुन्दरी का काम इसलिए चल निकलेगा क्योंकि आज की तारीख़ में हर कोई लेखक, विचारक, समाज सुधारक है. \’मकर\’ का यह वाक्य हमारे आज के समय के मानसिक दिवालियापन पर एक मनोरंजक टिप्पणी भी है, जिसमें आज हर अधपढ़ व्यक्ति विचारवेत्ता होने के मुगालते में व्यस्त और मस्त है. \’मकर\’ का कथा-वितान उद्धरणीय और स्मरणीय सूक्तियों-सुभाषितों से पाठक को कई स्थानों पर ठिठका-ठहरा देता है : \’अज्ञान के प्रति निर्मम होना जिज्ञासु के लिए सबसे पहला धारण करने योग्य गुण है\’– इस तथा इस जैसे ढेरों वाक्यों को पढ़कर कौन सा पाठक चमत्कृत और सम्मोहित नहीं हो उठेगा !
\’मकर\’ के मेटाफर का निहितार्थ यह है कि कैसे भारत की स्वतन्त्रता के बाद जब नेहरू युग अवसान पर था, नेहरूवियन मॉडल के मोहभंग से कैलाश वाजपेई जैसे कभी लिख रहे थे : सिल सी गिरी है स्वतन्त्रता और पिचक गया है पूरा देश\’ अथवा धूमिल \’देश की संसद के मौन\’ होने की (दुरवस्था की) की मुनादी कर रहे थे, तब बीसवीं सदी के लगभग उसी 7वें दशक की शुरुआत में \’इन्दौर आजकल\’ नाम का अखबार अपने मालिक मकरंद मलानी और स्वतन्त्रता तथा गांधीवादी मूल्यों के नैतिक आग्रहों-दुराग्रहों से श्लथ उसके सम्पादक रघुनन्दन प्रसाद के विचार वैभिन्यमें पिस्ता हुआ हांफ-डांफ रहा था.
\’मकर\’ इस विडम्बना और विरोधाभास को बहुत मोटे हर्फ़ में लिखता-बाँचता है, कि कैसे मकरंद मलानी कि पूँजी स्वयं को सत्ता के एक अभेद्य दुर्ग में परिणत करती है जिसमें विद्वान, अपरिग्रही, सत्यान्वेषी और जीवन के श्रेष्ठ मूल्यों के आग्रही तथा जड़ता-मूढ़ता के खिलाफ़ लामबन्द रघुनन्दन प्रसाद का लिहाज-सम्मान करने बावजूद उन्हें निरन्तर हेय, दयनीय और अप्रासंगिक बनाते चले जाने के कुचक्र में लगी-बझी रहती है. यही \’मकर\’ है जो अपनी निर्मिति की प्रक्रिया से गुज़र रहा है. सत्ता या की शक्ति संस्थान की केन्द्रीयता जो पूँजी के पशुबल के सम्मुख नतशिर और श्रीहीन, निस्तेज खड़ी है, वही \’मकर\’ है. और \’मकर\’ क्योंकि औपन्यासिक काया की कहानी है जिसमें घटनाओं और घटनाक्रमों को इस प्रकार विन्यस्त किया गया है कि लेखक की शिल्पगत विशेषता ज़रा भी शिथिल और स्खलित न होने पाए, इसलिए क्रमशः आगे आने वाले उपस्तम्भों में दश महाविद्या की शेष देवियों— भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, भैरवी (त्रिपुरभैरवी), धूमावती, बगलामुखी, मातङ्गी तथा कमलात्मिका (लक्ष्मी) के माध्यम से \’मकर\’ की कहानी कही गई है. इस कहानी में मकरंद मलानी \’इंदौर आजकल\’ में बहैसियत मालिक जब स्थापित हो जाता है तो संपादक रघुनंदन का जो लिहाज और उनकी विद्वत्ता के कारण जो सम्मान था, वह क्रमशः धीरे-धीरे समाप्त होता जाता है और रघुनन्दन उपेक्षा, अपमान, हीनता ग्रन्थि, क्षोभ, निरुपायता और दैन्य की जैसे जीवन्त प्रतिमूर्ति बन जाते हैं.
वह अखबार में हैं, वेतन भी पाते हैं परन्तु क्षण-प्रतिक्षण अवांछित अतिथि के से तिरस्कार से प्रताड़ित होते हैं. अखबार में उनके मन का कुछ नहीं होता और इंतेहा तो तब हो जाती है जब एक जनसभा में प्रदेश का मुख्यमन्त्री जो किसी ज़माने में रघुनन्दन का घनिष्ठ मित्र हुआ करता था, उनकी एक अप्रिय टिप्पणी पर उनका इतना सार्वजनिक अपमान करता है कि वह इस आत्मधिक्कार और आत्मदया के बोझ को अधिक दिनों तक ढो नहीं हो पाते और इस घटना के 9 महीने के बाद दिवंगत हो जाते हैं. यह घटना मुख्यमन्त्री नाम के प्राणी में मकर के प्रवेश के बाद उसके द्वारा रघुनन्दन जो कि ज्ञान, गरिमा, विद्वत्ता के प्रतीक हैं, जैसे उनके वध की पूर्वपीठिका तैयार हो जाती है.
क्या यह वाकई आकस्मिक है कि मकरंद मलानी की तीन संताने हैं अभिजीत, श्रवण और धनिष्ठा. यहाँ यह स्वाभाविक जिज्ञासा होती है या कि यह प्रश्न बना रहता है कि मकरंद मलानी ही यदि मकर है, जो कि है, तो फिर मकर राशि के 4 नक्षत्रों को दृष्टिगत रखते हुए उसकी चौथी संतान उत्तराषाढ़ा क्यों नहीं है ? या कि \’मकर\’ की कथा की कठपुतली के सारे धागे जिस धनिष्ठा नाम की मकर की पुत्री या कि नक्षत्र के हाथ में हैं, तथा जो इसके समस्त क्रिया-व्यापारों की प्रत्यक्ष या परोक्ष नियन्ता और नियामिका है, क्या उसी में लेखक द्वारा उत्तराषाढ़ा का भी अंतर्भाव कर लिया गया है ? पाठक, सजग पाठक बहुत सुगमता से यह नोट करता है कि मकरंद के प्रथम पुत्र अभिजीत का नाम भर ही इस कहानी में लिया गया है, जैसे कोई निरपेक्ष सूचना दी गई हो, \’मकर\’ की कथा में उसका योगदान या हस्तक्षेप बिल्कुल भी क्यों नहीं है ? वह एक निश्चेष्ट द्रष्टा भर है सब कुछ का, या वह वीतराग संन्यासी होकर देश-काल और घटनासंकुल भवितव्यता से निस्पृह एकान्त में ऐसा लुप्त हो गया हो मानो कोई अशरीरी संज्ञा भर है ? लगता है, इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने के लिए लेखक अपने पाठक को अपनी मेधा और कलपनशीलता का उपयोग करने के लिए उसे खुले आकाश में छोड़ दिया है.
\’मकर\’ की चर्चा करते समय इन दो बिन्दुओं पर यदि बात न की जाये तो यह लेखक, रचना की निर्मिति और रचना में रचे गए संसार के साथ अन्याय सा होगा. पहली बात– \’मकर\’ के विभिन्न उपस्तम्भों में व्यवहृत, विचारित और परिशीलित किए गए दार्शनिक प्रतीतियों, आशयों और उसके प्रत्ययों की. \’मकर\’ के पात्रों–महाप्राण शल्य, दिङ्नाग, कुमारिल भट्ट, प्रभाकर मिश्र, मंडन मिश्र, वाचस्पति मिश्र के माध्यम से भारत की भूमि से उपजे पर विभिन्न दर्शनों उनकी प्रत्यभिज्ञाओं और उनके उपस्कर्ता मूल्यों, जैसे सत्य-असत्य, सुन्दर-कुरूप, प्रिय-अप्रिय, जिज्ञासा- आत्मजिज्ञासा, मूल्यचेतना- मूल्यविमर्श, जगद्भाव-शेषभाव, प्रत्ययवाद-अध्यात्मवाद, भौतिकवाद, ज्ञान मीमांसा- तत्व मीमांसा, भातिवाद-अस्तित्ववाद आदि आदि दार्शनिक तत्व चिन्तन की ऐसी ऐसी बीहड़ सरणियों की प्रस्तावना, व्याख्या, तर्क-वितर्क, विमर्श की गहनतम प्रविधियों का संभाषणात्मक ही नहीं बड़े-बड़े प्रस्तर (पैराग्राफ्स) में दार्शनिक पदावलियों (टर्मिनोलॉजी) का भूरिश: उपयोग किया गया है कि यह सारा कुछ अपनी दुरुहता और दुर्गम्यता के कारण साधारण- सामान्य पाठक के लिए ऊब, उकताहट, खीझ और क्षोभ का भी शायद कारण बन जाए तो यह न तो असम्भव है, न ही अतार्किक. यद्यपि कि यह भी एक वास्तविकता है कि \’मकर\’ के पाठकों में बहुतों को इसका दार्शनिक तत्वचिन्तन एक बौद्धिक विलासिता भी लग सकता है क्योंकि उनकी नज़र में यह \’मकर\’ की कथा का अपरिहार्य संघटक तत्व नहीं भी हो सकता है, यह उन्हें कथारस को भंग करने वाले क्षेपक की भांति एक अनावश्यक प्रपञ्च भी लग सकता है.
फिर भी जैसे बाणभट्ट की कादम्बरी के पाठक और विद्यार्थी को संस्कृत भाषा की कैसी वाग्मिता और उसमें संतरण का कितना अमोघ कौशल चाहिए कि वह उसका सम्यक रसास्वादन कर सके, यह कोई रहस्य की बात नहीं है. यदि वह पाठ्यक्रम का अंश और परीक्षा में प्रश्न बनकर न आए तो बहुत सारे संस्कृत-हिन्दी के महान धुरंधर भी उस धनुष को उठाने की चेष्टा में पसीने-पसीने होना पसन्द नहीं करेंगे. लेकिन इससे भी अधिक सच्ची बात यह है कि जिसे बाणभट्ट की कादम्बरी का स्वाद मिल जाएगा, वह एक जुनूनी मतवाले की तरह उसी के पीछे भागता फिरेगा. वह कादम्बरी केचषक के बिना सदैव पिपसित, बुभुक्षित ही रहेगा. बहुत कुछ ऐसा ही अपने श्रेयांश और सत्वांश स्वरूप \’मकर\’ के इन विमर्शों के साथ भी है. जिस पाठक को इसका चस्का लग गया, जो इसके \’नशे\’ से वाकिफ़ हो गया, उसके लिए \’मकर एक ऐसी अनूठी कृति है जो उसकी स्मृति और मूर्धा का एक चिरन्तन तत्व बनी रहेगी.
\’मकर\’ की दूसरी अपरिहार्य चिन्ता और चिन्तन का कारण है- भाषा को लेकर समाज जीवन में आई जड़ता और उपेक्षा. भाषा की वर्तनी ही नहीं उसके व्याकरण के साथ भी की जा रही हिंसा लेखक को बहुत भीतर तक आहत करती है. भाषा के प्रति बरते जा रहे इस अनाचार और दुर्व्यवहार से लेखक का अन्तःकरण क्षत-विक्षत है. वह भाषा, उसके व्याकरण और उसके उपयोग की शुद्धता को लेकर इतना आग्रही है कि उसके \’मकर\’ की सारे बुद्धिशाली पात्र भाषा की प्रतिकूल स्थिति के लिए इस पर गम्भीर चिन्तन और बहस-मुबाहसे करते रहते हैं. ग़नीमत है कि हमारा लेखक निराशावादिता के गर्त में डूबकर वैचारिक अवसान का वरण नहीं कर लेता. \’मकर\’ के आख़िरी, उपसंहार की ओर बढ़ते पृष्ठों में, बगलामुखी के उपस्तम्भ में \’मकर\’ की सशरीर उपस्थिति के रूप में श्रवण के कुत्सित, कुचाली षड्यन्त्र के दण्डस्वरूप धनिष्ठा जो वास्तविक अर्थों में मकर की असली सूत्रधार है, अपने पिता मकरंद (जो \’मकर\’ का प्राग्रूप है) की इच्छा के सम्मान में श्रवण का प्राण तो नहीं लेती परन्तु उसे श्रीहत और नख-दन्त विहीन, विषहीन, लिजलिजी और दयनीय ज़िन्दगी की भीख दे देती है.
\’मकर\’ के लेखक के आशावादी मानस का प्रमाण तब भी मिलता है जब \’मकर\’ की कथावाचिका भैरवी दूसरी बार माँ बनती है और उसे पुत्र सन्तान पैदा होता है, लोपामुद्रा का छोटा भाई, तो वह उसका नाम व्याकरण शास्त्र के अनन्य प्रणेता और प्रवर्तक अष्टाध्यायीकार के नाम पर पाणिनि रखती है. सजग पाठक यह संकेत भी बड़ी सरलता से पकड़ लेता है कि लेखक को भाषा की दुरवस्था को लेकर जो अप्रतिहत चिन्ता उसे म्लान किए हुए है, उसका भी समाधान पाणिनि के पुनरवतरण और आविर्भाव से संभव-संपन्न हो जाता है. कहते हैं, और कदाचित ठीक ही कहते हैं, कि हर रचना अपने लेखक, रचनाकार की आत्मकथा ही होती है. और लेखक जैसा बहुरूपिया तो कोई होता नहीं. वह हज़ार-हज़ार भेस धरता है, हर पात्र के भीतर परकाया-प्रवेश की अपनी मायाविता और प्रकृति प्रदत्त कौशल से प्रवेश करता है और उन्हीं की बोली-बानी में अभिव्यक्त कर संसार के सम्मुख संसार का एक प्रति चित्र, मूल संरचना से भी कहीं अधिक रोचक, प्रामाणिक, अनुभूति संपन्न और चित्ताकर्षक चित्र उकेर कर रख देता है. इस दृष्टि से यदि सतर्क निगाह से देखें तो हमारा लेखक \’मकर\’ के सभी पात्रों में कमोबेश स्वयं उपस्थित है ही, परन्तु बहुलांश में वह दिङ्नाग, महाप्राण शल्य और भर्तृहरि सहाय में प्रकट हुआ है.
\’मकर\’ में दार्शनिक व्याप्तियों की गहन चिन्ता और चर्चा की गई है, लेकिन यहाँ यह कहना समीचीन होगा कि जैसे वक्र से वक्र रेखा भी स्वयं वक्र नहीं होती, वह ऋजुता का ही विस्तारित प्रचलन होती है, देखने में भले ही वह लकीर कितनी टेढ़ी-मेढ़ी हो, गणितज्ञ बताएंगे और सिद्ध कर देंगे कि हर लकीर सीधी और सिर्फ सीधी होती है, क्योंकि रेखा बिन्दु से निष्पन्न होती है और कोई भी बिन्दु सीधा ही होता है, वह प्रकृतित: टेढ़ा हो ही नहीं सकता. इसी तर्क को \’मकर\’ पर गठित करें तो \’मकर\’ की दार्शनिक गवेषणा और विमर्श भी न केवल सहज स्वीकार्य हैं, बल्कि \’मकर\’ की कथा में अपने अन्यतम योगदान के कारण अकाट्य और अपरिहार्य भी हैं. \’मकर\’ को यदि एक वाक्य में समेकित करना हो तो कहना होगा कि यह हमारे समसामयिक साहित्यिक प्रयत्नों का एक ऐसा उज्ज्वल चमत्कार है जिसके रचनाकार हर काल और हर समय में उपलब्ध नहीं रहते. इस अर्थ में \’मकर\’ एक विरल कृति है जिसके पाठक के रूप में कोई भी सजग और सक्रिय पाठक स्वयं को बड़भागी मान सकता है.
उत्तरायण : प्रचण्ड प्रवीर
नित्य प्रकाशन, बापू नगर, जयपुर –302 015
मूल्य : 295 रुपये
__________________
(वागीश शुक्ल की भूमिका के लिए यहाँ देखें.)
डा. आनन्द वर्धन द्विवेदी पेशे से चिकित्सक और
हिन्दी के सुधी कवि, समीक्षक तथा साहित्य विवेचक हैं.