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समालोचन

Home » तैत्तिरीय: प्रचण्ड प्रवीर

तैत्तिरीय: प्रचण्ड प्रवीर

प्रचण्ड प्रवीर हिंदी कथा परम्परा में अलग ही तरह के कथाकार हैं. उन्होंने राशियों को आधार बनाकर कहानियाँ लिखीं हैं. उपनिषदों को आधार बनाकर कहानियाँ लिख रहें हैं. यह कहानी तैत्तिरीय उपनिषद पर आधारित है. प्रस्तुत है.

by arun dev
February 6, 2024
in कथा
A A
तैत्तिरीय: प्रचण्ड प्रवीर
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तैत्तिरीय
प्रचण्ड प्रवीर

संक्षेप में यह कहानी तित्तिरी के बारे में हैं. तित्तिरी के बारे में कुछ का कहना है कि वे बड़ी संत थी, ज्ञानी थी, तांत्रिक थी, मांत्रिक थी, घुमक्कड़ थी आदि आदि. किन्तु इस तरह के संज्ञा से तित्तिरी के बारे में बहुत कुछ पता नहीं चलता. ठीक वैसे ही कि जैसे किसी भी व्यक्ति विषय में सब कुछ कह देने के बाद भी यह शेष रह जाता है कि आने वाले समय में वह किस समय क्या करेगा. न तो हम स्वभाव को पूरी तरह समझ सकते हैं न ही उससे कर्म को पूरी तरह निर्धारित कर सकते हैं. फिर भी हम जानना चाहते हैं. बहुधा हमारे जानने का विषय अजीब से आन्तरिक द्वन्द्व को सामने लाता है.

 

शिक्षा वल्ली

जानने के क्रम में शिक्षा आवश्यक है. बात हम तित्तिरी की कर रहे थे. वह शिक्षा का विषय नहीं. मतलब विचारिए, कोई आदमी कैसा है क्या यह शिक्षा का विषय हो सकता है? महापुरुषों का जीवन भी कुछ मूल्यों व सत्यों की बात करता है. शिक्षा का विषय बोल कर समझाया जाता है. छोटा सा उदाहरण है. हम तो धन्य हो गए. इस वाक्य को ध्यान से पढ़िए. अलग-अलग शब्दों पर बल देने से इसका मतलब कृतार्थता, व्यङ्ग्य, कटुक्ति, कटाक्ष जैसे निकलेंगे.

फिलहाल यह विषयांतर हो गया.

तित्तिरी के बारे में जानने के लिए हम नीलिमा और विभा की बातों को सहारा ले सकते हैं. नीलिमा और विभा हमउम्र पड़ोसन थीं. जहाँ नीलिमा का जीवन सुखमय चल रहा था, वहीं विभा का जीवन बड़ा कष्टमय था. गरीब विभा की शादी अर्द्धविक्षिप्त वरुण से कर दी गयी थी. बाप के पास पैसे नहीं थे. सोचा कि प्रोफेसर के आधे पागल बेटे से शादी कर देने के बाद कम से कम खाने-पीने की कमी नहीं होगी. विभा भी बेचारी क्या करती? बाप को तीन और बेटियाँ बियाहनी थी, इसलिए हाँ कर दी.

नीलिमा के पति दूर देश में काम करते थे. यह बात नीलिमा को तंग करती थी. बहुत मंदिर के चक्कर लगे पर कोई फायदा न हुआ. विभा ससुराल आयी और काम में जोत दी गयी. घर का सारा काम, बहुत हुआ तो उसके बाद मंदिर जाना. वहाँ विभा और नीलिमा की मुलाकात हुई.

नीलिमा के शब्दों में – “उस रात मुझे जले हुए दूध का सपना आया था. बड़ी अजीब-सी बात थी. चूल्हे पर दो बरतनों में दूध था, जो उफन कर बह चुका था और बहुत देर तक आग में तपने पर जल चुका था. एक बड़ा पतीला था और दूसरा तवेनुमा प्याली जैसा कोई बरतन. दूध जल जाने पर कलेजे में हूक-सी उठी थी. कुछ अनिश्चित अनिष्ट की आशंका से दिल बैठा जा रहा था. उस दिन विभा मुझे पहली बार मिली थी.“

मंदिर में पहली मुलाकात में नीलिमा ने विभा को अपना मनहूस सपना बताया. विभा ने अपनी समझ से कहा कि यह घाटे का सपना है. अच्छा हो कि उनके पति वापस उनके पास आ जाएँ. नीलिमा ने विभा और उसकी खूबसूरती के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था. सुन्दर होने की बड़ी कीमत विभा ऐसी शादी करके चुका रही थी, जहाँ वह कोल्हू के बैल की तरह खट रही थी. नीलिमा ने विभा को तब पहली बार में ही कंसार के बारे में बताया.

कंसार भड़भूजा भूँजने की जगह को कहा जाता है. गाँव में और शहर में कहीं-कहीं, एकान्त में मिट्टी के बड़े चूल्हों पर लोहे की कड़ाहियों पर रेत में अनाज भूँजे जाते हैं. ईंधन में सूखी लकड़ियाँ और झाड़ियाँ इस्तेमाल की जाती है. नीलिमा जिस कंसार की बात कर रही थी, उसे औरतें चलाया करती थीं और ग्राहक भी घरेलु औरतें हुआ करती थीं. वह तित्तिरी का कंसार कहा जाता था.

तित्तिरी कभी-कभी कंसार में आती और वहाँ इकट्ठी ग्राहकों की बात सुनती. कहते हैं कि तित्तिरी के पास हर-कुछ का इलाज था. वह बहुत कम बोलती थी. उसके कहे अनुसार लोग को सलाह देने के लिए तीन औरतें हमेशा मौजूद रहतीं. तित्तिरी का चेहरा झुर्रियों से भरा था. मोटी रस्सियों जैसे काले-सफेद बाल की चोटियाँ, कान में तीन कुण्डल, नाक में बड़ी नथ, गले में मोटी माला, हाथों में मोटी-मोटी धातु की चूड़ियाँ, बाँह तथा कलाईयों पर गोदने की कलाकारी – तित्तिरी को देख लेने के बाद उसका चेहरा भुलाये नहीं भूला जाता. लोग अनुमान लगाते थे कि तित्तिरी अस्सी से ऊपर की होगी. कितने गाँव पैदल घूमती. कभी बनारस, कभी हरिद्वार चली जाती. उसके आने-जाने का कोई ठिकाना न था.

नीलिमा ने विभा को बताया कि सुना है तित्तिरी तांत्रिक है. वह किसी को अपनी चेली बना ले, फिर उसके सारे दुख-दर्द दूर हो जा सकते हैं. पर तित्तिरी का मिलना बहुत मुश्किल है. विभा ने पूछा कि तित्तिरी से मिलने से क्या फायदा होगा? नीलिमा का मंतव्य था कि ज्ञान से सबकुछ सम्भव है. सारे दुखों का नाश, श्री की प्राप्ति. इसके लिए शिक्षा लेनी पड़ेगी, भले ही वह तंत्र की क्यों न हो. तित्तिरी की शिष्याएँ जो कंसार चलाती हैं, किसी-किसी को अपने समूह में जगह देती हैं.

दैवयोग से कंसार में नीलिमा और विभा की व्यथा सुन ली गयी. उनकी विधिवत शिक्षा के लिए अंतिम निर्णय तित्तिरी का होना था, लेकिन तब तक कुछ छोटी बातें सीखी गयीं जैसे शिक्षा का विषय है दो भिन्न चीजों को पास लाना और उनका सम्बन्ध समझना. जो कुछ भी दिख सकता है, धरती से सूरज तक, तथा सूरज से दूरस्थ तारे तक, ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी है वे सब कुछ एक पिण्ड में हैं.

कंसार की औरतें कुछ बातें कहतीं वह सच निकलती जैसे कि नीलिमा को आने वाले सोमवार को उसके पति का संदेश मिलेगा. ठीक ऐसा ही होता था. ऐसे छोटी-मोटी बातों से दो-तीन महीने गुज़र गए.

एक दिन नीलिमा और विभा कंसार गयीं और वहाँ पहली बार उन्हें तित्तिरी के दर्शन हुए. झुर्रियों भरा चेहरा लिए तित्तिरी ने दोनों को पाँव छूने पर मना भी किया. ऐसे पेश आयी जैसे इतने सत्कार और आदर की आवश्यकता नहीं. जैसे वह कुछ जानती ही नहीं. किसी ज्ञान का कोई अभिमान नहीं. जहाँ तक नीलिमा और विभा का प्रश्न हैं, उनके लिए तित्तिरी मुक्ति का सोपान थी. इस बात को भाँप कर तित्तिरी ने पहला पाठ पढ़ाया, “सत्य को, ज्ञान को, अनन्त जानो. वही जानने योग्य है. वही ब्रह्म है.“

दूसरे पाठ कुछ महीने बाद सिखाया गया. इस तरह हफ्तों में कुछ तंत्र क्रियाएँ सीखने पर नीलिमा के पति अचानक वापस आ गए और उसकी शिक्षा का फल उसे बहुत ही जल्द मिल गया.

 

आनन्द वल्ली

विभा के जीवन में जो कष्ट था, वह बहुस्तरीय और विविध था. एक तो प्रत्यक्ष कष्ट कि पति की मानसिक अवस्था ठीक नहीं. सास-ससुर की तरफ से प्रेम नहीं. घर का सारा काम करना और किसी तरह का मान-सत्कार नहीं. इन सबके अलावा उसकी समस्या कुछ और भी थी. नवीनता की कमी, दोहराव, ऊब, निरर्थकता का बोध.
कंसार में तांत्रिक क्रियाओं को सीखते हुए विभा ने अपना इष्ट रखा – पुत्र की प्राप्ति.

अन्न को भूँजते हुए, आग में सूखी लकड़ियाँ झोंकते हुए, चने को पानी में उबाल कर, सुखा कर फिर भूँजते हुए- तरह तरह के मंत्र दोहराते हुए विभा ने आशा का दामन पकड़ा कि जल्दी ही उसे पुत्र होगा और वह सभी दुखों से मुक्त हो जाएगी. नीलिमा विभा के प्रयत्न की साक्षी थी.

ऐसे ही जलती आग के सामने एक दिन तित्तिरी ने सीख दी- “माता-पिता का आदर करो. अतिथि का आदर करो. माता-पिता देवता हैं. अतिथि देवता हैं.“

विभा को इसका मतलब नहीं समझ आया था. एक दिन पता चला कि तित्तिरी कंसार से चली गयी है. कहाँ, वह पता नहीं. कब आएगी, वह भी पता नहीं. विभा का सहारा जैसे छिन गया हो. उसके लिए दिन-रात आग बरसाने वाले हो गए. नीलिमा से कभी-कभी मिलना होता जो उसे ढाँढस बँधाती रहती.

जैसे पेड़ पुष्पित होता है और फिर फलित होता है, विभा ने हँस कर एक दिन नीलिमा को गर्भवती होने की सूचना दी. “यह तित्तिरी का आशीर्वाद है.“ विभा के सास-ससुर भी इससे बेहद प्रसन्न हुए जैसे तपती गर्मी के बाद बारिश के काले बादल की आहट. किन्तु यह दिन बड़े सुखमय नहीं थे. विभा पर घर के काम का बोझ था और दिन गुजर रहे थे. डॉक्टर ने रुटीन चेकअप में बताया कि हालात सामान्य नहीं है. विभा इससे घबरा गयी थी. नीलिमा ने उसे हिम्मत देते हुए तित्तिरी के दिए मंत्रों का पाठ करने कहा. सवाल यह था कि ऐसे नाजुक समय में सास-ससुर कभी विभा की मदद करेंगे भी या नहीं.

नौवें महीने में एक दिन विभा के घर के बाहर संन्यासिनियों की टोली आयी. विभा की सास ने संन्यासिनियों को पैसे दे कर विदा करना चाहा, पर विभा अड़ गयी कि वह सबको कुछ खिला कर विदा करेगी. इस निश्चय के बाद विभा ने देखा कि उस टोली में तित्तिरी भी थी, निर्लिप्त और खोयी सी. विभा ने तित्तिरी के पाँव छुए. संन्यासिनियों को भूँजा अन्न खिलाया गया. विभा ने तित्तिरी से कहा, “अतिथि देवता होते हैं. देवता वरदान देते हैं. मुझे भी पुत्र का वरदान दीजिए.“ तित्तिरी ने मुस्कुरा कर विभा के सिर पर हाथ फेरा.
इस तरह वरुण और विभा को स्वस्थ बेटा हुआ जिसका नाम भृगु रखा गया.

कुछ सालों बाद तित्तिरी फिर कंसार में आयी. नीलिमा ने यह खबर विभा को दी और दोनों कंसार पहुँची. विभा ने तित्तिरी से पूछा, “मुझे जो असंभव लगता था, वह मुझे प्राप्त हुआ. मुझे यह लगता था कि पुत्र होने पर मेरे सारे दु:खों का अंत हो जाएगा, पर मेरा ऐसा सोचना गलत था. मेरा आनन्द क्षणिक था. मैं क्या करूँ जिससे यह हर दिन की निरर्थकता समाप्त हो जाए?”

तित्तिरी ने कहा, “यह शरीर पाँच कोशों से बना है. पहला स्थूल कोश है – अन्नमय शरीर. सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं और अन्न से ही बढ़ते हैं. यह सभी प्राणियों द्वारा खाया जाता है तथा यह भी सभी प्राणियों को अपने में विलीन कर लेता है. दूसरा कोश है – प्राणमय शरीर. प्राण सभी प्राणियों की आयु है. इससे भिन्न एक और कोश है जो स्थूल शरीर के आकार का ही है – मनोमय शरीर. इससे भी अधिक विज्ञानमय शरीर और आनन्दमय शरीर हैं. हर मनुष्य में यह पाँच कोश होते हैं. जिस दिन तुम आनन्द में जीना सीख लोगी, आनन्दमय शरीर में स्थित हो जाओगी, उस दिन सारे कष्टों से मुक्ति हो जाएगी.“

भृगु बड़ा होने लगा. नीलिमा विभा की उथल-पुथल की साक्षी रही. विभा को धीरे-धीरे संसार से विरक्ति होने लगी. सास-ससुर के ताने उससे सहे नहीं जाते. उनका स्नेह पोते पर भी नहीं उतर सका. अर्द्ध विक्षिप्त वरुण और उसके बेटे की देखभाल करते हुए विभा ने तय किया कि भृगु के आठ साल के हो जाने पर वह घर छोड़ कर चली जाएगी.

“कहाँ?” नीलिमा ने पूछा.

“पता नहीं!” विभा ने लम्बी साँस छोड़ी.

इस कल्पना से घबरा कर नीलिमा ने तित्तिरी को जा कर विभा की योजना बतायी. तित्तिरी ने सुन कर कुछ नहीं कहा.

 

भृगु वल्ली

दिन-महीने, साल गुजर गए. भृगु नाम का युवक यौवन को पा कर प्रफुल्लित हुआ. बीस साल हुए उसकी माँ उसे छोड़ कर न जाने कहाँ चली गयी. अपने अर्द्ध विक्षिप्त पिता वरुण की सेवा करते हुए, अपने दादा-दादी की देखभाल करते हुए वह अट्ठाइस बरस का हो गया. विवाह योग्य वह हो चुका था किन्तु उसकी रुचि इसमें नहीं थी.
कुछ दिनों से उसका पूरा ध्यान अपनी माँ का ढूँढ़ निकालने को हुआ. इतने सालों के बाद कहाँ से सुराग मिलता? ननिहाल में माँ नहीं लौटी. कहते हैं शायद साध्वी बन गयी होगी. दादा-दादी की बातों में एकबार नीलिमा का जिक्र आया कि वही विभा की सहेली हुआ करती थी. उसी ने शायद विभा को घर से भागने के लिए भड़काया होगा.

भृगु ने नीलिमा का पता ढूँढ निकाला. वह शहर में अभी भी अपने पति के साथ दिन गुजार रही थी. एक दोपहर जब भृगु अनायास उसके पास पहुँचा तब नीलिमा को याद आया कि सालों पहले एक रात उसे जले हुए दूध का सपना आया था. बड़ी अजीब-सी बात थी. चूल्हे पर दो बरतनों में दूध था, जो उफन कर बह चुका था और बहुत देर तक आग में तपने पर जल चुका था. इस सपने का क्या अर्थ लगाया जाय?

भृगु ने नीलिमा से कहा, “मैंने प्रतिज्ञा की है कि मैं विवाह तब तक नहीं करूँगा जब तक माँ से बात नहीं हो जाती.“

“और अगर तुम्हारी माँ जीवित ही न हो तो?” नीलिमा ने प्रश्न किया.
“तो मैं विवाह ही नहीं करूँगा.“

“ऐसी प्रतिज्ञा नहीं करते जिसको निभाना धर्म स्वरूप न हो. मान लो ऐसा न हो पाया, तुम्हारी प्रतिज्ञा अगर भंग हो गयी तो तुम झूठे कहलाओगे. संसार में नहीं, कम से कम अपनी नज़रों में दोषी हो जाओगे.“

भृगु ने याचना की, “मुझे माँ के विषय में बताइए.“

नीलिमा ने भृगु पर तरस खा कर धीरे-धीरे उसे कंसार के विषय में बताया. फिर ‘तित्तिरी’ के विषय में बताया. हालाँकि जब से विभा गयी, नीलिमा ने दुखी हो कर कंसार जाना छोड़ दिया. तित्तिरी से संपर्क नहीं रखा. अब वह कंसार भी नहीं रहा. कहते हैं आस-पास के किसी कंसार में अभी भी तित्तिरी यदा-कदा आती है.

कुछ महीनों के मेहनत के बाद भृगु ने वह कंसार ढूँढ निकाला जहाँ तित्तिरी कभी-कभी आया करती थी. पहले तो वहाँ काम करने वाली औरतों ने उसे बहुत दुत्कारा, पर भृगु अपने निश्चय से टस से मस न हुआ. अंत में उसे यह वचन प्राप्त हुआ कि जब भी तित्तिरी आएगी, भृगु को अवश्य सूचित किया जाएगा.

सावन में जब कंसार पर आफत आती है, जब सूखी लकड़ियों को बरसात से बचाना मुश्किल होता है, ऐसे में भृगु को तित्तिरी के आने की सूचना मिली. ऐसी ही बरसात में गीली लकड़ियों और सिली आग के बीच भृगु ने कंसार में तित्तिरी के दर्शन किए और चरणों को छू कर प्रणाम किया. फिर अपनी मंशा और प्रतिज्ञा सुनाई.

तित्तिरी ने भी भृगु से यही कहा, “इस प्रतिज्ञा का क्या लाभ? जीवन में सभी आनन्द चाहते हैं. आनन्द की अलग-अगल कोटियाँ होती हैं. कोई आनन्द दूसरे तरह के आनन्द से सौ गुना बड़ा हो सकता है. तुम्हारी माँ की खोज तुम्हें इतना बड़ा सुख नहीं देगी.“

भृगु ने कहा, ”अपना जीवन होम कर देने के लिए मैं स्वतंत्र तो हूँ.“

तित्तिरी ने कहा, “इसमें कौन सी बड़ी बात होगी? यहीं नितांत मूर्खता है. तुम किसी श्रेष्ठ व्यक्ति से जा कर मिलो, जो परामर्श देने में निपुण हो, तपस्वी हो. यह बातें किसी से बातचीत करने पर सुलझ जा सकती हैं.“

भृगु पर तित्तिरी के कहे का बड़ा असर हुआ. यही बात उससे औरों ने भी कही थी, पर न जाने क्यों तित्तिरी से सुन कर उसे ऐसा लगा जैसे कि वह सत्य कह रही हो और उसकी बात मानना ही ठीक होगा. फिर भी उसने अनुनय किया, “किन्तु माँ से बात हो जाती तो अच्छा रहता.“

भृगु ने ऐसा बार-बार तित्तिरी से कहा. अंत में तित्तिरी ने कहा, “अरहर, उड़द और मसूर की दाल मिला कर पकाओ. याद रखो कि हम ‘अन्नाद’ हैं. अन्न से बने हुए अन्नयमय शरीर में निवास करने वाली प्राणी. जब तुम अरहर, उड़द और मसूर की दाल को हल्दी और नमक मिला कर खाओगे, तब तुम्हें कोई रास्ता मिलेगा. अन्न को भूँजने से वह बाँझ हो जाता है. उसी तरह कंसार से बहुत आस लगाने से तुम निरउपयोगी हो जाओगे.“

भृगु ने तित्तिरी से विदा ली और कई दिनों तक अरहर, उड़द और मसूर की मिली-जुली दाल बना कर खाने लगा. एक दिन उसकी प्रेयसी कामिनी भृगु से अनायास मिलने आयी, जो भृगु से विवाह को इच्छुक थी. भृगु ने उसे सारा हाल बताया.

“कामिनी, इस दाल को खाने से मेरी मनोदशा बदल गयी है. मुझे लगता है माँ ने अपना जीवन जिया. कष्ट झेल कर मुझे बड़ा किया. अंत में जब वह और कष्ट न झेल सकी तब आनन्दमय हो कर चली गयी.“ कामिनी ने भृगु के गालों पर उतर गए आँसूओं को अपने आँचल से पोछा और कुछ न बोली. भृगु बहुत देर तक रोता रहा.

कामिनी से मुलाकात के चार दिनों के बाद भृगु ने एक मनोरम स्वप्न देखा.

एक अद्भुत सुन्दरी श्वेत साड़ी में नदी के तट पर विराजमान थी और नदी में भृगु खड़ा था. मंद हवा चल रही थी. जैसे अगल-बगल फूलों की भीनी खुशबू आ रही हो और हवा बसंती हो. भृगु ने ऐसा दृश्य पहले कभी न देखा था. उसने भावातिरेक में पूछा, “क्या आप मेरी माँ हैं?”

“मैं तुम्हारी माँ हूँ. मैं ही विभा हूँ. कहो.“
भृगु ने पूछा, “माँ, मुझे छोड़ कर क्यों चली गयी?”
“तुम इसका उत्तर जानते हो.“ विभा ने कहा.
“आप कहाँ हैं?” भृगु ने पूछा.
“मैं उस लोक में हूँ जहाँ सर्वत्र आनन्द है.“ विभा का यह वाक्य मानों कई दिशाओं में प्रतिध्वनित हुआ.

भृगु का स्वप्न टूट गया. अब उसे विभा की प्रतीक्षा नहीं थी. उसने संकल्प लिया कि बिना पूर्व सूचना के आई अतिथि कामिनी का वह सत्कार करेगा. उसके लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर देगा. अन्न का निरादर नहीं करेगा. आनन्दमय होने की विधि तलाशेगा.

ॐ शान्ति शान्ति शान्ति!
इति श्री.

प्रचण्ड प्रवीर  बिहार के मुंगेर जिले में जन्मे और पले बढ़े हैं. इन्होंने सन् २००५ में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली से रासायनिक अभियांत्रिकी में प्रौद्योगिकी स्नातक की उपाधि ग्रहण की. सन् २०१० में प्रकाशित इनके पहले उपन्यास ‘अल्पाहारी गृहत्यागी: आई आई टी से पहले‘ ने कई युवा हिन्दी लेखकों को प्रेरित किया. सन् २०१६ में प्रकाशित इनकी दूसरी पुस्तक, ‘अभिनव सिनेमा: रस सिद्धांत के आलोक में विश्व सिनेमा का परिचय‘, हिन्दी के वरिष्ठ आलोचकों द्वारा बेहद सराही गई. सन् २०१६ में ही इनका पहला कथा संग्रह ‘जाना नहीं दिल से दूर‘ प्रकाशित हुआ. इनका पहला अंग्रेजी कहानी संग्रह ‘Bhootnath Meets Bhairavi (भूतनाथ मीट्स भैरवी)’ सन् २०१७ में प्रकाशित हुआ था.  कहानियों के दो संग्रह उत्तरायण और दक्षिणायन सन २०१९ में  तथा लघु कथा संग्रह ‘कल की बात’ के तीन संकलन षड्ज, ऋषभ व गान्धार नवम्बर २०२१ में सेतु प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुए हैं. इन दिनों प्रचण्ड प्रवीर गुड़गाँव में एक वित्त प्रौद्योगिकी संस्थान में काम करते हैं.  आदि
prachand@gmail.com
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Comments 9

  1. Akhilesh says:
    1 year ago

    एक बढ़िया कहानी

    Reply
  2. Ladda Ram says:
    1 year ago

    बहुत ही उम्दा

    Reply
  3. वन्दना गुप्ता says:
    1 year ago

    जीवन दर्शन को बयां करती कहानी है। यूँ लगेगा जैसे फैंटेसी है लेकिन इसी के माध्यम से जीवन के सत्य भी परिभाषित कर दिए। जीवन कैसे जीना चाहिये उसका दर्शन करा दिया।

    Reply
  4. निवेदिता झा says:
    1 year ago

    इन्हें पढ़ा है । बहुत बढ़िया लिखते हैं। इनकी कहानियों के रंग अनोखे हैं। यहां हमलोगों ने उनकी कहानियों पाठ भी किया। वरिष्ट अभिनेता जावेद अख्तर ने इनकी कहानियों का बहुत सुंदर पाठ किया था। शुक्रिया साझा करने के लिए अरुण देव

    Reply
  5. Swati says:
    1 year ago

    मैंने आपकी पहले भी किताबें पढ़ी हैं, आप एक महान लेखक हैं। आपकी कहानियाँ हर किसी को एक सीख देती हैं।

    Reply
    • RAMA SHANKER SINGH says:
      1 year ago

      पढ़ी। मिथ का पुनरुत्पादन। औसत कहानी

      Reply
  6. Poonam manu says:
    1 year ago

    जीवन दर्शन से भरी एक अदभुत कहानी। प्रचंड प्रवीर को मैने पढ़ा है । और हर बार विस्मित हुई हूं। हार्दिक बधाई उन्हें एक बढ़िया कहानी के लिए। आपका शुक्रिया, आपने अच्छी कहानी पटल पर रखी।

    Reply
  7. Anonymous says:
    1 year ago

    प्रबीर जी नमस्कार मैंने आपकी कहानी तेतरी पहली कहानी पड़ी सामान्य भाषा शिल्प लेकिन एक दृश्य की तरह चलती हुई कहानी ऐसा लग रहा है सारी कहानी लेखन की नजरों के सामने से गुजर रही है कहानी में अनेकों संदेश मिले जिसमें भारतीय संस्कृति की झलक भी दिखाई दी एक सन्यासिनी के जीवन पर और इस सोच को भी आपने रखा और अंत में जीवन का उद्देश्य क्या हो …. एक सुखद और आनंद में जीवन के रूप में कहानी का अंत हुआ एक विचार पूर्ण कहानी के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं विद्या गुप्ता दुर्ग छत्तीसगढ़ मोबाइल नंबर 96170001 222

    Reply
  8. प्रज्ञा says:
    1 year ago

    जीवन दर्शन को अभिव्यक्त करती एक बढ़िया कहानी।

    Reply

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समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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