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Home » प्रवास में कविताएँ : सीरज सक्सेना

प्रवास में कविताएँ : सीरज सक्सेना

हिंदी के कई महत्वपूर्ण कवि पेंटिग और अन्य ललित कलाओं में रूचि रखते हैं.  उनकी कविताओं में ललित कलाओं के प्रभाव देखे जा सकते हैं. ऐसे कवियों की इस तरह की कविताओं के संकलन का विचार बुरा नहीं है. कई प्रसिद्ध चित्रकार, आर्टिस्ट हिंदी में कविताएँ लिखते हैं. इसे भी रेखांकित किया जाना चाहिए. समालोचन […]

by arun dev
August 17, 2017
in Uncategorized
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हिंदी के कई महत्वपूर्ण कवि पेंटिग और अन्य ललित कलाओं में रूचि रखते हैं.  उनकी कविताओं में ललित कलाओं के प्रभाव देखे जा सकते हैं. ऐसे कवियों की इस तरह की कविताओं के संकलन का विचार बुरा नहीं है.
कई प्रसिद्ध चित्रकार, आर्टिस्ट हिंदी में कविताएँ लिखते हैं. इसे भी रेखांकित किया जाना चाहिए. समालोचन में ही आपने जगदीश स्वामीनाथन की कविताएँ और अखिलेश के गद्य पढ़े हैं. 

आज चित्रकार और सिरेमिक आर्टिस्ट सीरज सक्सेना की कविताएँ ख़ास आपके लिए, सीरज सक्सेना पोलैंड प्रवास पर हैं और ये कविताएँ वहीं से अंकुरित हुई हैं. ललित कलाकारों की कविताओं के संकलन का विचार भी अच्छा है.
___________
“अमूमन यात्रा के दौरान या यात्रा पर लिखना होता है. इस बार यूरोप में यह प्रवास कुछ लम्बा है. बतौर कलाकार यहाँ कुछ नये माध्यमों में रचने व प्रयोग करने का सुखद अवसर मिल रहा है. यहाँ के गाँव और छोटे शहरों व उनका स्थापत्य देखना, दृष्टि और कल्पनाशक्ति को विस्तार देने वाला अनुभव है. नये कलाकार मित्रों के चित्र एवं शिल्प देखना और लगभग हर शाम कला, जीवन पर चर्चा करते हुए पोलिश लोक संगीत व पेय का आनन्द रोमांचित करता है. इसी रोमांच को अपने सीमित शब्दकोश में कुछ सहेजने व अपनी भाषा के साथ में बने रहने की कोशिश है ये कविताएँ .”

सीरज सक्सेना 


प्रवास में कविताएँ                     
सीरज सक्सेना


शहर बेलेस्वावियत्स – 1

ज़मीन से उठ रही फ़व्वारों की बूँदों से
कुछ बच्चे भीग चुके हैं
कुछ उछल-उछल कर भीगने में मग्न हैं
पानी का यह रेखा रूप
आकर्षित करता है उन्हें
वे उसे छूते हैं पर
उनकी पकड़ में नहीं आता पानी
खिलौने की तरह बह रहा है
शहर के मध्य यह खिलौना-पानी
गिरिजाघर के पास रेस्त्रॉ में
बैठा निहार रहा हूँ
दूर से शहर का मानचित्र
समय पर बज उठती है
प्रार्थना की घण्टी :
अनवरत
बहती प्रार्थना
भाषा और समय से

शहर बेलेस्वावियत्स – 2

फिर लौटता है वह
तुम्हारे पास
दूर तक फैले
हरे
पीले
खेतों को पार कर
खुले नीले आकाश में अब भी
बादलों के गुच्छ ठहरे हैं
द्वितीय विश्वयुद्ध की चिंगारी
अब चुप हो चुकी है
लौट आया है तुम्हारा देश
फिर मानचित्र पर
राख अब भी
मिट्टी को सम्भाले है
ऊँचे तापमान पर पक चुके चीनी मिट्टी के बर्तन
हैं तुम्हारा श्रृंगार
तुम्हारे नीले बिन्दु
पा चुके हैं ख्याति
अधेड़ तुम्हारी देह
अब भी चमक रही है
बुब्र के किनारे
अभी अभी खिले
पीले फूल सी
तुम्हारी प्रतीक्षा में ही ठहरता है
प्रेम उसका
मिट्टी, अग्नि
देह और भाषा
अपने मौन में
बाँटते हैं अपना एकान्त
घूमते चाक पर बढ़त लेता है एक संवाद
प्रेम की जगह दूर नहीं

शहर बोलेस्वावियत्स – 3

बारिश आज यहॉ ख़ूब रुकी.
तेज़ बौछारों से धुल चुका है शहर
चमक उठी है गिरिजाघर की
ऊँची मीनार और छत.
बूँदों से गुज़रता प्रकाश
धुँधला रहा है
शहर का मुख्य चौक.
कारों की पारदर्शी सतह पर
बूँदें अब भी ठहरी हैं.
ख़त्म होने के बाद भी
वृक्षों पर देर तक
ठहरी है बारिश.
ताजा़ हो गए हैं
चौराहों पर रखे
चीनी मिट्टी के
बड़े पात्र.
ठंडी हो चुकी है भट्टी.
पक चुके है फिर नए
मिट्टी के बर्तन.
शहर और देश के
मानचित्र के बाहर
बिखरेगी
ये सौंघी ख़ुशबू.

पोलैण्ड की दोपहर

तेज़ चमकते सूरज की तरह चुभते हैं
खुले नीले आकाश में
यहाँ-वहाँ बिखरे बादल
अपने एकान्त में तो कभी समूह में
यहाँ प्रेम भाषा में नहीं बल्कि
परिपक्व स्पर्शों से गुँथा है
हरा अपनी भाषा
पीले में लिखता है
नीला आकाश प्रेम-भाषा की इबारत है

बुब्र के किनारे

इस पतली नदी के किनारे बच्चे खेल रहे हैं
कुम्हार माँ अपनी बच्ची को सिखा रही है भाषा और चलना
बैंच पर बैठा एक विदेशी चित्रकार पढ़ रहा है लम्बी कहानी
छोटे पक्षी इधर-उधर फुदकते व्याकुल हैं
चीनी मिट्टी के शिल्प सूख कर
पा चुके हैं त्वचा
भट्टी में पक रहा है कोई पात्र
दूध, सब्जियाँ और बीयर ले कर तुम
अभी-अभी आयी हो
तुम्हारे चश्मे के पार से नीली नेत्र भेद रहे हैं
यहाँ पसरा मौन
गिरिजाघर से प्रार्थना की घण्टी समय पर बज उठती है
यहाँ शाम देर रात तक ठहरती है
यहाँ सुबह जल्दी होती है
कहीं पल भर का भी चैन नहीं
जल्दी होती सुबह और देर से आती शाम के बीच
बुब्र के किनारे
तुम्हारे आँगन में रखे मेरे सफ़ेद शिल्प छूते हैं
मिवोश के कुछ शब्द

रेल यात्रा

गंतव्य आते-आते उतर चुके हैं कई लोग
अब तक बारी बारी
यात्रा के आरम्भ में हुई हड़बड़ी
अब इस लगभग ख़ाली से डिब्बे में
घुल कर अपना उत्साह खो चुकी है
टिकट देखने के बाद
कन्डक्टर स्त्री कुछ लिख रही है
अभी पिछले स्टेशन से चढ़ा सायकल सवार
हुक पर अपनी सवारी टाँगे
नींद में एक डुबकी लगा चुका है
कोई संदेश पढ़ मंद मंद हँस रही है
पास बैठी युवती
अपने गन्तव्य से बेख़बर दूर धीरे-धीरे चलती
पवन चक्कियों को देख रहा हूँ
— खिड़की के पास बैठा
तुम्हारे चलने की आहट और तुम्हारे
होने की ख़ुशबू अब मेरे समीप है
बुब्र पर बने सेतु पर रेंगती है रेल और
फिर रुक जाती है
अपना सामान उठाये उतरता हूँ
एक यात्री कलाकार
तुम्हारे
भूगोल में

स्पर्श का समय

कुछ देर तक ठहरने के बाद विलीन हो जाते हैं
मेरी उँगलियों के निशान पलक झपकते ही
तुम्हारी पीठ पर
स्पर्श के बाद ही मिट्टी में
उपजता है आकार
प्रेम
     का ताप पा कर
ठहर जाता है समय
वीथिका के प्रकाश में जैसे है 
शिल्प अविराम प्रकाशमान
तुम्हारी थिरकन में
फिर जीवित होता है
समय

गरबात्का काष्ठकला शिविर

बीज याद आता है
फिर वृक्ष :
कितनी बार ओढ़ी होगी इस वृक्ष ने बर्फ़ की चादर
कौन लाया है इसे यहाँ वन से
मशीनों के शोर और कानों को सुन्न कर देने वाली
कर्कश ध्वनि के बीच
शिल्पकार छील रहे हैं
छाँट रहे हैं
काट रहे हैं
अनचाही लकड़ी
अपनी ऊर्जा और विधि से दे रहे हैं
कुछ मनचाहा, कुछ मनमाना रूप
याद आते हैं बस्तर के वे आदिवासी
और उनके स्मृति-खम्ब
उसी परिपक्व दृष्टि के भार से
अपनी छैनी और लकड़ी की हथौड़ी से छील रहा हूँ
देह सी पसरी सपाट, सीधी और सफ़ेद लम्बी लकड़ी
जो बीज, पौध और वृक्ष का लम्बा सफ़र तय कर एक
कला माध्यम के रूप में अपने पवित्र कौमार्य के साथ मौन है
अपनी रूप-स्मृति में बिसर गये आकारों को
एक नया अर्थ दे रहा हूँ
लकड़ी के लम्बे और चौकोर खम्बे रच रहा हूँ
आठों दिशाओं में अपनी छोटी देह से घूम कर
इस जीवन में मिली सीधी-टेढ़ी रेखाओं और
ज्यामितीय आकारों से उकेर रहा हूँ अपना होना
टाँक रहा हूँ अवकाश छिद्रों में चिर परिचित विचार
भूलता नहीं हूँ—
वृक्ष हर हाल में जीवित रहते हैं
पूर्वजों की तरह : मेरे शिल्प
वृक्ष देह पर गोदना हैं
siirajsaxena@gmail.com
______________________________
कवि संपादक पीयूष दईया के सौजन्य से कविताएँ मिली हैं.  चित्र पोलैंड के जाने माने चित्रकार और शिल्पकार सिल्वेस्टर के कैमरे से हैं.

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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