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Home » बहसतलब : रचना और आलोचना का सवाल :२ :

बहसतलब : रचना और आलोचना का सवाल :२ :

रचना और आलोचना के सवाल पर संवाद को आगे बड़ा रहे हैं जनसंचार की सैद्धान्तिकी के विशेषज्ञ और प्रसिद्ध आलोचक जगदीश्वर चतुर्वेदी. आलोचना में पाठ को देखने की उतर आधुनिक प्रविधि और स्त्री चेतना की आवश्यकता पर ज़ोर है. यह आलेख इस लिए भी पढ़ा जाना चाहिए कि इसमें इस विषय पर सहजता और स्पष्टता […]

by arun dev
December 30, 2011
in Uncategorized
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रचना और आलोचना के सवाल पर संवाद को आगे बड़ा रहे हैं जनसंचार की सैद्धान्तिकी के विशेषज्ञ और प्रसिद्ध आलोचक जगदीश्वर चतुर्वेदी. आलोचना में पाठ को देखने की उतर आधुनिक प्रविधि और स्त्री चेतना की आवश्यकता पर ज़ोर है. यह आलेख इस लिए भी पढ़ा जाना चाहिए कि इसमें इस विषय पर सहजता और स्पष्टता के अब लगभग दुर्लभ लेखकीय उत्तरदायित्व का भी निर्वहन किया गया है.


      
  आलोचना के कॉमनसेंस के प्रतिवाद में   
 जगदीश्वर चतुर्वेदी




हिंदी आलोचना में इन दिनों एकदम सन्नाटा है. इस सन्नाटे का प्रधान कारण है.आलोचना सैद्धांतिकी, समसामयिक वास्तविकता और सही मुद्दे की समझ का अभाव. यह स्थिति  सामाजिक यथार्थ और आलोचना सिद्धांतों के साथ अलगाव से पैदा हुई है. लेखक-आलोचक लिख रहे हैं लेकिन वे क्या लिख रहे हैं, क्यों लिख रहे हैं और जो लिख  रहे हैं उसके साथ सामाजिक सच्चाई के साथ कोई मेल भी है या नहीं इस पर वे थोड़ा देर ठहरकर सोचने या सुनने के लिए तैयार नहीं हैं. एक खासकिस्म की मानसिक व्याधि में लेखक और आलोचक दोनों फंस गए हैं. वे अपनी कह रहे हैं अन्य की सुन नहीं रहे हैं. वे सिर्फ अनुकूल को देख रहे हैं.

दूसरी बड़ी समस्या यह है कि आलोचकों ने अपडेटिंग बंद कर दी है. अधिकांश आलोचना निबंधों में आलोचना सैद्धांतिकी के नए प्रयोग नजर नहीं आते. लोग लिखने के नाम पर लिख रहे हैं. यह आलोचना में आया तदर्थभाव है. सारी दुनिया में आलोचना में जो लिखा-पढ़ा जा रहा है उसके साथ संवाद-विवाद,ग्रहण और अस्वीकार बंद है. सवाल उठता है हमारे आलोचक और लेखक यह क्यों कर रहे हैं ? वे किसी मसले पर बहस कर रहे हैं तो बहस के नाम पर बहस कर रहे हैं. वे किसी साहित्य सैद्धांतिकी के मानकों के आधार पर बहस नहीं कर रहे.

मैं यहां सुविधा के लिए स्त्री साहित्य के प्रसंग में कुछ नई बातों की ओर ध्यान खींचना चाहता हूँ. हमारे यहांस्त्री को विलक्षण और औचक भाव से देखा जाता है. यहां तक कि अकादमिक जगत में भी उन्हें दूसरे लोक  का प्राणी मानकर व्यवहार किया जाता है. साहित्य की स्नातक और उससे ऊपर की कक्षाओं में \’फेमिनिज्म\’ या स्त्रीवादी साहित्य सिद्धांत नहीं पढ़ाए जाते. अकादमिक जगत में हम स्त्री के बारे में बात करते हैं लेकिन उसके शास्त्र को पढ़ाने से परहेज करते हैं. युवा लड़कियां भी फेमिनिस्ट कहलाना पसंद नहीं करतीं. क्या फेमिनिज्म के बिना औरत की स्वायत्त सत्ता संभव है ? क्या फेमिनिस्ट कहलाना गलत है? हिंदी में फेमिनिज्म गाली है. यह हमारे स्त्रीविरोधी सोच की अभिव्यंजना है.

आज औरतों के पास जितने अधिकार हैं उन्हें दिलाने में फेमिनिज्म और महिला आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. लेकिन अधिकतर औरतें और आलोचक,फेमिनिज्म के इस कर्ज के प्रति कृतज्ञता से पेश नहीं आते. वे स्त्री की उन परिस्थितियों को अस्वीकार नहीं करते जिनमें औरतें कष्ट और अपमान में रह रही हैं, और अपनी वास्तव स्त्रीचेतना से वंचित है. इस क्रम में औरतें समाज में हाशिए पर चली गयी हैं. अधिकतर औरतें अदृश्य रहना चाहती हैं. वे परिवार के निर्माण में अपनी भूमिका निभाना चाहती हैं लेकिन सामाजिक वातावरण में अपनी भूमिका नहीं निभाना चाहतीं. उनके व्यक्तित्व से नागरिक आयाम एकसिरे से गायब है. यह भी कह सकते हैं औरत की घरेलू अस्मिता ने उसकी नागरिकअस्मिता का अपहरण कर लिया है.

फेमिनिज्म की खूबी है कि वह औरत के आसपास बने हुए परंपरागत माहौल को खत्म करता है. उसके अंदर नागरिक अधिकारों की चेतना पैदा करता है. खासकर लोकतंत्र में फेमिनिज्म तो स्त्रीरक्षा का प्रभावशाली हथियार है. उल्लेखनीय है विभिन्न रंगत का फेमिनिज्म प्रचलन में है स्त्री अपनी सुविधा और समझ के आधार पर चुन सकती है कि वह किस तरह के फेमिनिस्ट नजरिए का पालन करे. फेमिनिज्म के बिना स्त्री अपनी अस्मिता का निर्माण नहीं कर सकती. स्त्री के लिए फेमिनिज्म एक नजरिया है और सामाजिक विकास की दिशा में उठाया गया बड़ा कदम है. हिन्दी की आयरनी है कि हमारे यहां स्त्री साहित्य है लेकिन फेमिनिस्ट कोई नहीं है. उलटे फेमिनिज्म से नफरत करनेवाले लेखक- लेखिकाएं -आलोचक मिल जाएंगे.
          
लोकतंत्र में स्त्री अधिकार की आधारशिला है उसका स्वायत्त अस्तित्व. स्त्री को जब तक स्वायत्तता नहीं मिलती, स्वायत्त वातावरण नहीं मिलता. सारी कवायद बेकार है. स्त्री का अस्तित्व और स्वायत्तता ये उसके दो बुनियादी हक हैं. अभी औरत को हम महज सेवा करने वाली और बच्चा पैदा करने वाली के रूप में ही देखते हैं. हिन्दी की आलोचना में स्त्री को मातहत मानने का भाव जड़ें जमाए हुए है. स्त्री-पुरूष संबंधों में लोकतंत्र नहीं आया है. लेखिका और आलोचक के बीच के रिश्ते में भी लोकतंत्र दाखिल नहीं हुआ है. इन सब स्थानों पर पितृसत्ता का कब्जा बरकरार है. स्त्री को हम पुरूष की पूरक मानते हैं. उसकी स्वायत्त सत्ता को नहीं मानते. कुछ लोग स्त्री की स्वायत्त सत्ता मानते हैं तो उसे नागरिकचेतना और नागरिक अधिकारों के साथ जोड़ नहीं पाए हैं. स्त्री महज स्त्री नहीं है. वह नागरिक है. स्त्री को स्त्री की पहचान के साथ नागरिक की पहचान के रूप में देखने की आवश्यकता है. वह जेण्डर भी है और नागरिक भी है. लोकतंत्र में नागरिक की पहचान हासिल करना प्रधान लक्ष्य है.
    
इसके अलावा विभिन्न संस्थानों को भी लोकतंत्र का पाठ नए सिरे से पढ़ाने की आवश्यकता है. जिससे वे नागरिक अधिकारों और नागरिक चेतना के प्रति परिपक्वता से पेश आएं. नागरिक परिपक्वता पैदा करने के लिए नागरिक कानूनों की नए सिरे से पड़ताल की जानी चाहिए. जजों से लेकर सांसदो-विधायकों को नागरिकता का गहन प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए. वे जानें कि नागरिक अधिकारों का मतलब क्या है? सीमाएं क्या हैं? प्राकृतिक नियम विधान और कानूनी नियम विधान की सीमाएं क्या हैं ? इस दिशा में पहले कदम के तौर पर स्त्री की इच्छा और अधिकारों का हम सम्मान करना सीखें, उस पर थोपना बंद करें.
     
स्त्री-पुरूष ये दोनों समाज में स्वायत्त इकाई हैं. इस बात को बुनियादी तौर पर मानें. लोकतंत्र का आरंभ नागरिक संबंधों से होता है और नागरिक संबंधों को नागरिक अधिकारों के जरिए संरक्षण प्राप्त है. ये नागरिक अधिकार पुरूष की तरह स्त्री को भी प्राप्त हैं. स्त्री-पुरूष के बीच में प्रेम रहे. दोनों एक-दूसरे की संवेदना, अनुभूति, शरीर और मूल्यों का सम्मान करें. 
   
हमारे देश में लोकतंत्र है, संविधान में हक भी मिले हैं. लेकिन स्त्री-पुरूष एक-दूसरे का सम्मान नहीं करते. नागरिकता का उदय तब होता है, जब हम सम्मान करते हैं. भिन्नता को स्वीकार करते हैं. भिन्न किस्म की धार्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक भावनाओं को स्वीकार करते हैं.  नागरिक भावबोध पैदा करने लिए हमें स्त्री-पुरूष के प्राकृतिक अंतर को भी मानना पड़ेगा. इन दोनों की स्वायत्तता को भी मानना पड़ेगा.
    
लोकतंत्र में हक मिलते नहीं हैं. उनको हासिल करना पड़ता है. यह स्त्रीविवेक पर निर्भर करता है कि वह अपने अधिकारों के प्रति कितनी सजग है. स्त्री की सजगता के आधार पर यह भी देख सकते हैं कि वह अपने को दासता से किस हद तक मुक्त करना चाहती है. इसके लिए स्त्री को लिंग के दायरे से बाहर निकलकर नागरिक के दायरे में आना होगा. लिंगबोध का नागरिकबोध में रूपान्तरण करना होगा.
      
लिंगबोध, स्त्रीदासता बनाए रखता है. जबकि नागरिकता का दायरा इस दासता से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है. इससे स्त्री को अपनी प्राकृतिक पहचान को नागरिक अस्मिता में रूपान्तरित करने में मदद मिलती है. स्त्री  जब तक  स्त्री की इमेज में बंधी रहेगी उसे नागरिक समाज और नागरिक अधिकारों के साथ सामंजस्य बिठाने में असुविधा होगी. यह भी संभव है स्त्री अपनी प्राकृतिक जिंदगी को पूरी तरह त्यागे बिना नागरिक जिंदगी में प्रवेश करे. जिस तरह स्त्री के लिए वस्त्र जरूरी हैं वैसे ही नागरिक अधिकार भी जरूरी हैं.  यहां तक कि नागरिक अधिकार भी अर्थहीन हैं. परंपरा और धर्म भी अर्थहीन है. स्त्री की स्वायत्तता बचे इसके लिए स्त्री-पुरूष में प्रेम जरूरी है. स्त्रियों में आपसी प्रेम जरूरी है.
           
स्त्री के प्रति रवैय्या बदले इसके लिए जरूरी है कि हम उसे देखने का तरीका बदलें. स्त्रीचेतना का सामाजिक स्रोत हैं संस्थान. स्त्री के बारे में जब भी किसी विषय पर बात की जाए उसे संस्थान के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए. स्त्रीचेतना का निर्धारण स्त्री कम और सामाजिक संस्थान ज्यादा करते हैं. मसलन् ,मध्यकाल में स्त्री पर विचार करना है तो मध्यकालीन संस्थानों से जोड़कर देखें. आधुनिक औरत पर बात करनी है तो आधुनिक संस्थानों की भूमिका के संदर्भ में विश्लेषित करें.  संस्थान के चरित्र उदघाटन के बिना स्त्री अस्मिता का रहस्योदघाटन संभव नहीं है.
  
सवाल उठता है संस्थान किसे कहते हैं? उनका काम क्या है? संस्थान की केन्द्रीय भूमिका है शिरकत पैदा करने की. जैसे न्यायालय,संसद,विधानसभा आदि ये संस्थान हैं. इनमें कोई भी शिरकत कर सकता है. स्त्रीसाहित्य को संस्थानों की शिरकत वाली भूमिका से जोड़ने की जरूरत है. उसे संस्थान बनाने की जरूरत है. आज हमारे यहां साहित्य या स्त्रीसाहित्य को संस्थान के रूप में विश्लेषित नहीं करते बल्कि महज कम्युनिकेशन के रूप में विश्लेषित करते हैं. संस्थान के रूप में विश्लेषित करते तो फेमिनिज्म के प्रति अछूतभाव न होता.
      
सामान्यतौर पर स्त्री पर बात करते समय, उसके लिखे पर बात करते समय हम स्त्री को लिंग की तरह नहीं देखते, उसकी राय को लिंग की राय के रूप में ग्रहण नहीं करते. बल्कि व्यक्तिगत राय के रूप में देखते हैं. इस तरह देखने का दुष्परिणाम यह निकला है कि स्त्री को,उसके विचारों को हाशिए पर डाल देते हैं. उसके स्वायत्त अस्तित्व और उसकी उपलब्धियों या सामाजिक भूमिका को सीमित करके पुंस वर्चस्व के अधीन बना देते हैं.
    
उल्लेखनीय है लिंगरहित पहचान की जितनी भी धारणाएं या संबंध हमारे समाज में प्रचलन में हैं उनके आधार पर स्त्री की सही समझ नहीं बनती. मसलन्, स्त्री को मनुष्य, निजी, व्यक्ति, बीबी, बहू, बेटी, बहन आदि के आधार पर नहीं समझा जा सकता. इस तरह के सारे पदबंध स्त्री की लिंग की पहचान को छिपाते हैं,या उसकी उपेक्षा करते हैं. स्त्री को न्यूनतम स्पेस देते हैं. साथ ही इनमें किसी न किसी रूप में पुंसवादी संदर्भ निहित है और वह निर्णायक भूमिका अदा करता है. ये सभी पदबंध पुरूषसंहिता में निर्मित हैं. कायदे से हमें मर्द के सॉचे में ढ़लकर आई अवधारणाओं और स्त्री के साँचे में ढलकर आई अवधारणाओं में अंतर करना चाहिए.
   
बुनियादी बात यह है कि स्त्री को आज फेमिनिज्म के साथ अपना अलगाव या अछूतभाव खत्म करना होगा. पाठ्यक्रमों में फेमिनिज्म को सम्मानजनक दर्जा देना होगा. स्त्री को स्त्री अस्मिता के बाहर ले जाकर नागरिक की पहचान के रूप में स्थापित करना होगा. नागरिक अधिकार ही हैं जो अस्मिता के अधिकारों को विस्तार देते हैं. ये बातें दलित अस्मिता की राजनीति पर भी लागू होती हैं.

एक अन्य सवाल है कि लेखक को कैसे पढ़ें ? इन दिनों लेखक को पढ़ने की पद्धति बदल गयी है. लेकिन हिन्दी में अधिकांश आलोचक अभी भी पुरानी शैली में पढते हैं. पाठ में अनेक जटिलताएं होती हैं. इसकी परिभाषा को लेकर भी व्यापक मतभेद हैं. इसके बावजूद सवाल यह है कि पाठ किसे कहते हैं ? पाठ अनेक संकेतों का समूह है.  इको का मानना है शब्द ही पाठ है और पाठ ही शब्द है. लेकिन इनका असुरक्षित इतिहास है. पाठ के शब्दसंसार पर प्रतिक्रिया देने का अर्थ है नए अर्थ की खोज करना. सवाल यह नहीं है कि रचना को आप कृति कहते हैं या पाठ कहते हैं. सवाल यह है उसका क्या निश्चित अर्थ होता है ? क्या उसमें अनेक संभावित अर्थ होते हैं ? अथवा कोई अर्थ ही नहीं होता?

इन दिनों पाठक के पास अपने समाज, संस्कृति, राजनीति आदि की व्यापक जानकारी है और वह इसके आधार पर विभिन्न पाठों को नए सिरे से खोलता है. पाठ के संदर्भ में बुनियादी मसला क्या है? यहां पर स्त्री का पाठ बुनियादी मसला है. अतः पाठ को स्त्री के संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए. उसी संदर्भ में पाठ के अर्थ की खोज की जानी चाहिए. साथ ही यह भी देखना चाहिए कि कौन पढ़ रहा है ? स्त्री पढ़ रही है या मर्द पढ़ रहा है ? इससे यह भी पता चलेगा कि पाठ का अर्थ कौन ग्रहण कर रहा है? कौन रोक रहा है ? कौन प्रतिवाद कर रहा है ? या कौन अर्थ को समायोजित कर रहा है. यानी पाठक की अस्मिता का पाठ के मूल्यांकन में महत्व होता है.  अपनी अस्मिता के आधार पर ही वह अर्थ की खोज करता है.
       
पाठ का पाठक पर विखंडित असर पड़ता है जिसके आधार पर वह राय बनाता है. पाठ का पाठक पर असर ही नहीं पड़ता बल्कि मूल्यों और विचारधारा का भी असर पड़ता है. इसका भी असर पड़ेगा कि आखिरकार पाठक निजी तौर पर स्त्री, लिंग, सेक्स, कामुकता, नस्ल, रक्तसंबंध, वर्ग ,जातीयता आदि के बारे में किस तरह के मूल्यों को जानता  और महसूस करता है. उसमें वह किन मूल्यों को घातक मानता है. यह भी संभव है किसी कृति या फिल्म में ऐसे मूल्यों का चित्रण किया गया हो जिनका पाठक की मूल्य संरचना के साथ अन्तर्विरोध हो, विवाद हो, पंगा हो, ऐसे में वह पाठ से असहमत भी हो सकता है. उल्लेखनीय है फिल्म का पाठ नहीं संकेत की धारणा के आधार पर मूल्यांकन किया जाना चाहिए. यह भी देखें संकेत को किन तत्वों के साथ सजाकर पेश किया है. 
   
मसलन् आप किसी शिक्षक के पढ़ाने को ले सकते हैं. कक्षा में विभिन्न किस्म के छात्र होते हैं. इनकी मनोदशा भी भिन्न किस्म की होती है. वे पाठ और शिक्षक को एक ही तरह से ग्रहण नहीं करते. उनके ग्रहण का आधार होता है, उनकी अपनी चेतना और रीडिंग आदतें होती हैं. जिस छात्र की किताब पढ़ने की आदत नहीं है और नोटस से काम चला लेता है, उसके लिए वह शिक्षक मूल्यवान है जो नोटस लिखाता है या नोटस देता है. लेकिन जो छात्र किताब पढ़ने में दिलचस्पी रखता है उसके लिए वह शिक्षक मूल्यवान है जो किताब के सवालों को विभिन्न तरीकों से खोलकर पढ़ाता है. यानी छात्र की अस्मिता और चेतना यहां मूलतः निर्धारण का काम कर रही है.
   
एस.हाल ने रेखांकित किया है पाठ की रीडिंग में शरीर की अवस्थिति की बड़ी भूमिका होती है. मसलन् कब, कहां, किस समय, किस अवस्था में शरीर है. इसका पाठ की रीडिंग पर सीधा असर पड़ेगा. इसी प्रसंग में मिशेल फूको ने व्यक्ति के शरीर के नियमन और अनुशासित करने की प्रक्रियाओं को विस्तार से बताया है कि आधुनिककाल आने के बाद व्यक्ति के शरीर को किस तरह नए किस्म के अनुशासन  ,आदतों, संस्कार और नियमों में बांधा गया.
   
एस. हाल का मानना है अस्मिता आंतरिक तत्वों से बनती है, बाह्य रिप्रजेंटेशन से नहीं. प्रत्येक व्यक्ति अपना आख्यान एवं प्रस्तुति स्वयं बनाता है. जिसमें उसका समाज झांकता है. वह समाज के सांस्कृतिक तत्वों के जरिए ही अस्मिता बनाता है फलतः व्यक्ति की अस्मिता सांस्कृतिक निर्मित होती है. उसमें बहुस्तरीय सामयिक विषय तैरते रहते हैं. जो चीज उसके सांस्कृतिक संदर्भ में आ जाती है उसका वह रूपान्तरण कर लेता है.

पाठ की व्याख्या की कई परंपराएं हैं. खासकर रैनेसां के साथ पाठ की सार्वभौम व्याख्याओं का जन्म होता है. सार्वभौम तुलनाओं का किया जाता है. सार्वभौम तुलना का अर्थ है कि प्रत्येक चीज, बात, व्यक्ति, घटना, विचार आदि अन्य से जुड़ा है. यानी अन्य तत्व उस तत्व की अभिव्यंजना है या अन्य किसी चीज की अंतर्वस्तु है. जब आप दो चीजों में तुलना करेंगे, एक-दूसरे के साथ जोड़कर देखेंगे तो व्याख्या के अनियंत्रित होने की संभावनाएं भी रहेगी.यहां अर्थ से अर्थ की ओर रूपान्तरण होगा. समानता से समानता की ओर स्थानान्तरण होगा. इस छोर का उस छोर के साथ संपर्क बनेगा. यानी एक से दूसरे की ओर स्थान्तरण होगा. यहां कोई कदम सुनिश्चित नहीं हो सकता. हिन्दी में अभी तक रैनेसांकालीन आलोचना पद्धति प्रचलन में है. इस पद्धति में अर्थ और तुलना दोनों के ही असीमित रूपों के उदय की संभावना निहित है. रैनेसांकालीन आलोचना की सीमा यह है कि वह किसी चीज की अनुपस्थिति या रूपान्तरणकारी अर्थ के बारे में नहीं बताती. यही वजह है हमारे यहां भारतेन्दु से लेकर छायावाद तक रैनेसांकालीन आलोचना को अपने रूपान्तरण के अर्थ का पता नहीं है. वे तो यह देखते हैं कि हर चीज एक-दूसरे से जुड़ी है और उसके आधार पर ही आलोचना के सारे मानक बने हैं.
   
रैनेसां जब आया तो स्थिति यह थी कि व्याख्याओं का ढ़ेर लग गया. गद्य की बाढ़ आ गयी. वस्तु, घटना, व्यक्ति, संवृत्ति, प्रवृत्ति आदि के बारे में हम ज्यादा जानने लगे. हम ज्यादा जानते हैं इसका अर्थ नहीं है कि हम सब कुछ जानते हैं. यही हाल रैनेसाकालीन लेखकों का था. वे जिन चीजों को जानते थे ,साथ में उनके कुछ आधार को भी जानते थे. वे जिस संदर्भ में लिख रहे थे उसकी क्षमता भी जानते थे. नयी आधुनिक व्यवस्था के संदर्भ में वे असीमित जान सकते थे. लेकिन प्रक्रियाएं सीमित ही थीं,उनका असीमित ज्ञान संभव नहीं था.
    
रैनेसां में आलोचना की जो पद्धति अपनायी गयी उसमें अर्थ की जडों को जानने का भाव है. उसके आधार पर व्याख्या करने की प्रवृत्ति मिलती है. लेकिन एक अवस्था या समय गुजर जाने के बाद लेखक और आलोचक यथास्थितिवाद में बंध जाता है, रूढ़िवाद में बंध जाता है और फिर उससे निकलने की छटपटाहट आरंभ हो जाती है. अभिव्यक्ति के फॉर्म और अंतर्वस्तु को बदलने की छटपटाहट आरंभ हो जाती है. फलतः एक ही समय में अनेक किस्म की प्रवृत्तियां और शैलियां सक्रिय नजर आती हैं. अब हर किस्म का संदर्भ और हर चीज से संबंध प्रासंगिक नजर आता है. प्रत्येक वस्तु के साथ संबंध स्वीकार्य हो जाता है.
     
मसलन्, भारतेन्दु के साहित्य के साथ सन् 1857 का संपर्क ,संबंध और असर मान लिया गया. नयी पूंजीवादी सभ्यता के विभिन्न रूपों के साथ संपर्क-संबंध भी मान लिया गया.प्रेस से संबंध मान लिया, धार्मिक-समाजसुधार आंदोलन, पुनरूत्थानवाद, ब्रजभाषा, खड़ीबोली हिन्दी, उर्दू, पुराने भक्ति आंदोलन आदि जो भी चीजें मिलती गयीं उससे संबंध जोड़ते चले गए. इनमें से प्रत्येक चीज को अन्य के साथ जोड़ा,अभिव्यक्ति रूपों के साथ जोड़ा. एक अभिव्यक्ति रूप को दूसरे के साथ जोड़ा. यानी प्रत्येक अंतर्वस्तु को अन्य अंतर्वस्तु की अभिव्यक्ति माना. ग्लोबल अंतर्वस्तु का भी विकास होता रहा.
     
रैनेसांकाल से आरंभ हुई अनंत समीक्षा की संभावनाओं ने अवधारणा और अर्थ की अनंत संभावनाओं के द्वार खोले हैं. इसे आलोचना की भाषा में विस्थापन कहते हैं. जब आप आलोचना करते हैं तो अनुगमन करते हैं ,विस्थापन करते हैं. देरिदा ने \”ऑफ ग्रामोटॉलॉजी \”में लिखा , पाठ तो मशीन है उसमें अनंत विस्थापन निहित हैं.इसकी प्रकृति वसीयत के मर्म को समेटे होती है. यानी इसमें वसीयती भाव है . यही वजह है  इतिहास,परंपरा आदि की खोज का काम आधुनिककाल में ज्यादा हुआ है. लेखक अपने को भक्ति आंदोलन,रैनेसां आदि के वारिस के रूप में पेश करने लगे हैं.
   
यह ऐसा दौर है जिसमें पाठ का आनंद लें या कष्ट उठाएं, उससे आगे निकलें,या उसे छोड़ें.प्रत्येक क्षण का अध्ययन करें. प्रत्येक संकेत या पाठ या प्रवृत्ति  के उदय की प्रक्रिया पढ़ने लायक होती है साथ ही वो एक समय के बाद खो जाती है या नष्ट हो जाती है. वह अपने समय से संबंध बनाती है और एक अवस्था के बाद संबंध विच्छिन्न कर लेती है. देरिदा के नजरिए से यही बुनियादी तौर पर \”ड्रिफ्ट\” है.
    
पाठ की आलोचना में मंशा की अवधारणा की महत्वपूर्ण भूमिका है. अम्ब्रेतो इको ने इसी संदर्भ में लिखा है पाठ के पीछे निहित आत्मगत मंशा को जब अस्वीकार कर दिया जाता है तो पाठक की पाठ के प्रति वफादारी खत्म हो जाती है. फलतः उसकी भाषा बहुस्तरीय खेलों का आधार बन जाती है.यही वजह है पाठ में अंतिम अर्थ को शामिल नहीं किया जा सकता. यहां कोई रूपान्तरणकारी संकेतित अर्थ नहीं रह जाता. प्रत्येक संकेतक अन्य संकेतक के साथ युक्त नजर आता है. कोई भी चीज प्रासंगिकता के दायरे के बाहर नजर नहीं आती. आलोचना का काम है पाठ में अंतर्निहित अर्थ की खोज करना . उसे भिन्न लक्ष्य के साथ पेश करना. इस क्रम में आलोचना कॉमनसेंस के दायरे का अतिक्रमण कर जाती है.

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