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Home » बोली हमरी पूरबी : नेपाली कविताएँ

बोली हमरी पूरबी : नेपाली कविताएँ

नेपाल के पांच महत्वपूर्ण कवि एक साथ हिंदी में. इन कविताओं का चयन और अनुवाद किया है- नेपाली और हिंदी साहित्य  के बीच सेतु का महत्वपूर्ण कार्य कर रहे कवि चन्द्र गुरुंग ने. नेपाल वैचारिक, राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन के संक्रमण  से गुजर रहा है. इसकी पहचान ये कविताएँ भी कराती हैं. शिल्प और कथ्य को लेकर इन […]

by arun dev
December 6, 2012
in Uncategorized
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नेपाल के पांच महत्वपूर्ण कवि एक साथ हिंदी में. इन कविताओं का चयन और अनुवाद किया है- नेपाली और हिंदी साहित्य  के बीच सेतु का महत्वपूर्ण कार्य कर रहे कवि चन्द्र गुरुंग ने. 

नेपाल वैचारिक, राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन के संक्रमण  से गुजर रहा है. इसकी पहचान ये कविताएँ भी कराती हैं. शिल्प और कथ्य को लेकर इन कविताओं में साहसिक प्रयोग है, ये कविताएँ वतर्मान नेपाल की नब्ज पर हाथ रखती हैं. 
समालोचन की  ख़ास प्रस्तुति . 





भूपिन व्याकुल
बागलुङ, १५ मार्च १९७४
दो कविता संग्रह प्रकाशित

बौद्धिकता, कला और विचार को समान रुप से रखने मे माहिर कवि व्याकुल की कविताएँ कुरीतियों, भ्रष्टाचार, अनैतिकता के विरुद्ध मोर्चा तैयार करती हैं 

एक बदसूरत कविता

अकेली कब तक
सुंदर बनी बैठी रहेगी कविता.
अकेली कब तब
सौन्दर्य की एक तरफा प्रेमिका बनी रहेगी कविता.
आज तुम्हें
बदसूरत बनाने का मन हो रहा है.
सबसे भद्दी राजसत्ता में भी
सबसे सुन्दर दिखाई देती है कविता.
सबसे घिनौने
हिंसा के समुद्र में नहाकर
सबसे साफ निकल आती हो कविता.
आज तुम्हें
बदसूरत बनाने का मन हो रहा है .
आओ प्रिय कवियों
इस बार कविता को
सुंदरता की गुलामी से मुक्त करते हैं
कला के अनन्त बँधन से मुक्त करते हैं
और देखते हैं
कविता की बत्ती बुझने के बाद
और कितना अँधेरा दीखता है दुनियाँ में
और कितना खाली  है खालीपन.
क्या फर्क है
मन्दिर और वेश्यालय की नग्नता में ?
क्या फर्क है
संसद भवन और श्मशानघाट की दुर्गन्ध में ?
क्या फर्क है
न्यायालय और कसाईखाने की क्रूरता में ?
इनकी दीवार के उस पार
सबसे ईमानदार बनकर खडी रहती है कविता.
आओ प्रिय कवियों
आज ही  कविता की मृत्यु की घोषणा करते हैं
और देखते हैं
और कितनी जीवंत दीखती है
कविता की लाश पर जन्मी कविताएँ.
देखते हैं
कविता की मौत पर खुशी से
किस हद तक पागल बनती है बन्दूक
कितनी दूर तक सुनाई देता है सत्ता का अट्टहास
और कितना उदास दिखेगा कला का चेहरा.
सुन्दर कविताएँ लिखने के लिए तो
सुन्दर समय बाकी है ही.
आज क्यों लिखने का मन कर रहा है
समय की आखिरी लहर तक न लिखी गई
सबसे बदसूरत कविता ?
जैसे बन्दूक लिखती है
शहीद की छाती पर  हिँसा की बदसूरत कविता ….
अकेली कब तक
बदसूरत बनी बैठी रहेगी कविता .


हेमन यात्री
मोरङ, २४ सन् १९७८.
पहला कविता संग्रह ‘पहाड मसित यात्रा गर्छ’ (२०१२) रत्न पुस्तक भण्डार से
संवेदनशील और भावुक कवि के रूप में विख्यात

मेरे आँखों में बहती नारायणी

बिना बताए
समय असंख्य प्रश्नों को छोड़ गया है इस वक्त.
उन दिनों माँ सुनाया करती थी–
“बादल मायके जाए तो
उजला-उजला रहता है दिन”
क्या पता
कल की तरह आकाश में
बादल की बारात, पश्चिम जाएगी या नहीं ?
कैसे कहूँ 
वर्षा में कानाफूसी करते हुए
पेड़ की शाखोँ पर बैठे परिंदे
कल फिर, मुलाकात करते हैं या नहीं ?
उधर लडाई को निकले प्रियजन
सकुशल लौटेंगे या नहीं ?

कैसे कहूँ
अपनी ही आँखों के आँगन से गुजरा चाँद
इन्हीं आँखों में, फिर आएगा या नहीं.
बेखबर झूलाते हुए मन के बाग़
इस तरह क्यों दिल्लगी करती है आँधी ?
बोलो भगवान !
किनारों से बहना छोड नारायणी
क्यों मेरे आँखों में उमड़ती है ऐसे ? 
कैसे जवाब ढूँढू मैं इस वक्त
अनुत्तरित हैं प्रश्न खुद ही.
बल्कि बताओ
ऐसे मेरी आँखों से कब तक बहती रहोगी नारायणी ?
गाँव  में मेरे सिसकियों का इन्तजार करते होंगे
उदास राहों के चौपाल,
वर्षा की छुट्टियों का गृहकार्य खत्म कर इंतजार करते होंगे
स्कूल के बच्चे.
यदि
मेरी आँखों मे ऐसे ही बहती रहे नारायणी !
उन का इंतजार और खुशियाँ
यहीँ, आँखों में डूब जाएँगी .


उमेश राई “अकिञ्चन”

अनुभूति और संवेदना के बीच से निकला हुआ  संवाद ही उमेश राई ‘अकिञ्चन’ की कविताएं हैं. उमेश राई ‘अकिञ्चन’ आधुनिक नेपाली गद्य कविता की परम्परा के  अनुरुप ही कविताएँ लिखते हैं परन्तु उनकी कविताओं में प्रयुक्त हुए बिम्ब, प्रतीक  और अलंकार  उनके  अपने  हैं.


इस वक्त का आखिरी साक्षात्कार

फिर से पहुँचना है मुझे
न पहुँच सके गंतव्य तक
मत पूछो मुझसे
कितनी लम्बी है
प्रधानमन्त्री की मूँछ
या
अभी अभी पेट्रोल पम्प पर लगी
गाडियों की लाईन .
मत पूछो मुझसे
कितना खतरनाक हो सकता है इंतजार ?
बल्कि पूछो
इस हवा और पानी के लिए
पडे हैँ कितने
पुलिस के डण्डे
अश्रु गैस
और
सोया हूँ कितनी बार
हवालात के ठण्डे फर्श पर .
मत कहो मुझसे
तुम्हारी छोटी आँखों में
नहीं जँचता
इस
कुर्सी का सपना .
मैं
रोप–वे के पैरों से
चढना चाहता हूँ
ऊंचे, बहुत ऊंचे
पहाड जैसा नाम .
भादों की धूप
और
बेरोजगार होने की पीडा से
उसी तरह जलते रहते
कभी कभी यूँ लगता है
मानो
धन सम्पत्ति विहीन प्रेमी
और
देश विहीन शरणार्थी
दोनों
हूँ
मैं.
जहाँ तहाँ
बज रहा है इस वक्त
संघीय शासनप्रणाली का संगीत
और
गणतन्त्रका गीत.
आखिरी बार
फिर से
मत पूछो
गणतन्त्र बेहतर है
या राजतन्त्र ?
अभी-अभी ऑफ–लाइन हुई
प्रेमिका
और
देश के नाम सम्बोधन कर चुके
राष्ट्रपति के चेहरे
उतने ही
प्यारे लगते हैँ मुझे .
श्रवण मुकारुङ

भोजपुर, ११ जून १९६८
देश खोज्दै’ (१९९२), ‘जीवनको लय (२००३) और ‘बिसे नगर्चीको बयान (२०१०) कविता संग्रह प्रकाशित 
देश, समाज और सरकार प्रति असंतोष उनकी कविताओं मे स्पष्ट दिखाई देता है.  

प्रोफेसर शर्मा के लिए

प्रोफेसर शर्मा के चश्मे का शीशा चटक गया है
प्रोफेसर शर्मा के चप्पल के अन्दर पैर पके कुम्हडा जैसे हैं
प्रोफेसर शर्मा की कमीज से बटन लगभग गिर चुके हैं
ब्लेकबोर्ड पर
प्रोफेसर शर्मा के हाथ थरथर कांपते हैं
प्रोफेसर शर्मा को दमे का रोग है .
सर के साथ
हम इस तरह गप्प हाँकते थे
कैंटीन में
ग्राउण्ड में
रेस्ट्रराँ में
या किसी अलसाए सभा समारोह की पिछली सीटों पर.
शहर के लाल पीले अखबार
उदासीन ज्यापू * के आलू के दाम पर घूर रहे हैं
पजेरो, आचार संहिता और निर्वाचन आयोग पर क्रुद्ध है
पानी,बिजली, बकरे के माँस और रसोई गैस के मूल्यादि पर
स्वयं सत्ताभोगियों की तरह ही गिडगिडा रहे हैं – हिनहिना रहे हैं
अफ़सोस
कहीं नही है प्रोफेसर शर्मा की असामयिक मृत्यु की खबर !
किस को मालूम है
प्रोफेसर शर्मा को मिसेज शर्मा नें किन कारणों से छोडा ?
मकान बदलते समय
प्रोफेसर शर्मा नें एक ट्रक पुस्तकें क्यों बेचीं ?
जाते वक्त–
फुटकर दूकानदार को क्यों बार बार प्रणाम किया ?
प्रोफेसर शर्मा–
जिन्होंने मुझे एक कवि बनाया, अच्छा कवि .
आज भी
मैं याद कर रहा हूँ
लगातार याद कर रहा हूँ
कामरेड का गुप्त …प्रेमपूर्ण प्रीतिभोज
और
प्रोफेसर शर्मा का दमे का दीर्घरोग .

*नेपाल की राजधानी काठमांडो  में सदियों से रह रहा एक समुदाय जो मुख्यतः खेती का काम करता  है

उपेन्द्र सुब्बा
उपेन्द्र सुब्बा की कविताएँ नेपाली कवितावृत्त में बिल्कुल अलग विषय, शिल्प और शैली के रुप में स्थापित हैं. किराँत (नेपाल के एक आदिवासी समुदाय) जाति के मिथक, संस्कार और  भाषा के प्रयोग से उपेन्द्र की कविताएँ अपनी अलग पहिचान पाती है. नेपाली साहित्य में  ख़ास चेतना  के साथ उठे आन्दोलन ‘सिर्जनशील अराजक’ के एक अभियंता भी हैं कवि उपेन्द्र सुब्बा. उस आन्दोलन के दौरान लिखी कविताएँ उनके दो कवितासंग्रहओं में आ गई हैं.    

रास्ता

मैं तो अपने ही रास्ते जा रहा था
पता नहीं ! कहाँ से आई, और तुम ने
मेरा रास्ता रोका.

अपरिचिता (?)
मैं तो बात न करने की सोच रहा था
कि, तुम ने पूछा–“यह रास्ता किधर जाता है ?”
और बताना ही पडा
कि–“यह रास्ता मेरे आँगन से होकर दूर दू…र तक जाता है.”
जब,
तुम गईं –
मेरे घर के आँगन नजदीक से होकर गईं
आखिर, मेरे दिलोदिमाग को छू कर गईं .
तब,
एकाएक बेचैनी बढ़ी
बस यूँ ही
दोराहे में इंतजार करने का मन हुआ
कहीं फिर,
हो सकता है घूम फिरकर इसी रास्ते आओगी
(क्योंकि पृथ्वी गोल है– ऐसा सोचता रहा)
और, फिर पूछोगी–“यह रास्ता किधर जाता है ?”
कहूँगा –“यह रास्ता मेरे दिल तक आता है .”
इस तरह का ख्याल आया.
इस समय,
तम्हारे आँगन तक पहुँचने का रास्ता
मैँ किस से पूछूँ ?
_______________________________________________

Chandra Gurung
5 august,1976
Graduation in Commerce BBS
कविताओं का अंगेजी सहित कई भाषाओँ में अनुवाद. 
First anthology titled उसको मुटुभित्र देशको नक्सा नै थिएन,  2007.
पेंटिंग -विख्यात चित्रकार कुंवर रविन्द्र  .
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