• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » भूमंडलोत्तर कहानी (३) : नाकोहस (पुरुषोत्तम अग्रवाल) : राकेश बिहारी

भूमंडलोत्तर कहानी (३) : नाकोहस (पुरुषोत्तम अग्रवाल) : राकेश बिहारी

कहानी कहने की दुविधा और मजबूरी के बीच... (संदर्भ : पुरुषोत्तम अग्रवाल की कहानी ‘नाकोहस’) राकेश बिहारी  वरिष्ठ आलोचक और नवोदित कथाकार पुरुषोत्तम अग्रवाल की कहानी ‘नाकोहस’ (पाखी, अगस्त 2014)  पर बात करना जरूरी नहीं होता यदि इसके साथ एक खास संपादकीय टिप्पणी नहीं छपी होती. चूंकि इस कहानी पर बात करने के लिए मुझे […]

by arun dev
September 11, 2014
in आलेख
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें









कहानी कहने की दुविधा और मजबूरी के बीच...
(संदर्भ : पुरुषोत्तम अग्रवाल की कहानी ‘नाकोहस’)



राकेश बिहारी 
वरिष्ठ आलोचक और नवोदित कथाकार पुरुषोत्तम अग्रवाल की कहानी ‘नाकोहस’ (पाखी, अगस्त 2014)  पर बात करना जरूरी नहीं होता यदि इसके साथ एक खास संपादकीय टिप्पणी नहीं छपी होती. चूंकि इस कहानी पर बात करने के लिए मुझे  ‘कहानी’ से ज्यादा कहानी के साथ प्रकाशित उस संपादकीय टिप्पणी ने उकसाया है,इसलिए उस टिप्पणी को उद्धृत करना चाहता हूँ – “प्रस्तुत कहानी हमारे जटिल समय की भयावहता को हमारे भीतर तक उतारती है. भावनाओं के नाम पर जैसे संवेदनहीन सत्तातंत्र और विमर्श रचे जा रहे हैं, उनकी डरावनी निष्पत्तियों को गल्प के अंदाज़ में कहती, हौलनाक सच्चाईयों को फैंटेसी के शिल्प मेंरचती यह सचमुच खतरनाक खबर की कहानी है. खतरों और जटिलताओं के बयान के लिए सपनों, मौलिक प्रतीकों और बिंबों का उपयोग करती इस कहानी का शीर्षक और अन्य गढ़े गए शब्द विषय की सशक्त अभिव्यंजना करने के साथ पाठकों को चकित करते हैं.“  किसी पत्रिका के किसी खास अंक में प्रकाशित छ: कहानियों में से किसी एक के साथ इस तरह की विशेष टिप्पणी दिये जाने के दो कारण हो सकते हैं–  उक्त कहानी का सचमुच विशिष्ट समझा जाना या फिर कहानी के न  समझे जाने की आशंका को भाँपते हुये पाठकों के लिए ‘राजा का कपड़ा तो बहुत खूबसूरत है, पर यह उसी को दिखता है जो बहुत समझदारहो’की तर्ज पर एक खास तरह का चश्मा मुहैया कराया जाना. कुछ लोग रचना के मुक़ाबले रचनाकार के बहुत बड़े कद को भी इसका एक कारण मान सकते हैं. खैर,कारण जो भी हो, संपादकीय दृष्टि और नीति पर यह एक स्वतंत्र विमर्श का विषय हो सकता है. फिलहाल उपर्युक्त टिप्पणी के बहाने कुछ बातें इस ‘कहानी’ पर. हाँ, कहानी – बक़ौल संपादक – शब्दांकन’नाकोहस एक कहानी के रूप में पाखी में प्रकाशित हुई है, विधा चूंकि कहानी की है इसलिए प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल की इस कृति नाकोहस को कहानी कहना पड़ रहा है.“ कहने की जरूरत नहीं कि अभी इस कृति को कहानी कहने की दुविधा और मजबूरी की कुछ ऐसी ही मनःस्थितियोंसे मैं भी गुजर रहा हूँ.

‘नाकोहस’ ने मुझे प्रश्नों के बीहड़ में ला खड़ा किया है. इन प्रश्नों की मौलिकता का दावा तो नहीं किया जा सकता, पर हाँ इसमें कोई संदेह नहीं कि ये प्रश्न बुनियादी हैं. मसलन- कहानी क्या है – विचार या प्रतीक? शिल्प या समाचार? अभिव्यक्ति या सम्प्रेषण? बहस या कुछ और? आखिर वे कौन से कारक हैं जो विधाओं के बीच का अंतर तय करते हैं? थोड़ी देर को बिना किसी अकादमिक बहस में उलझे सिर्फ इस बात पर गौर करें कि बिना किसी खास विधा केलेबल से युक्तअलग-अलग रचनाओं को पढ़ते हुये हमारा पाठक मन कैसे यह तय कर लेता है कि अमुक रचना कहानी है या कविता, लेख या नाटक या कि कुछ और? पाठकीय विवेक की वह अदृश्य लेकिन आस्वादयुक्तकसौटी आखिर क्या है– विचार? राजनैतिक प्रतिबद्धता? समसामयिकता? शायद इनमें से कोई नहीं. कारण यह कि ये सारेतत्व अलग-अलग या कि समवेत रूप में हर विधा की रचनाओं में स्वाभाविक रूप से अंतर्निहितहोते हैं. यही वह बिंदु है जहां कथा-तत्व, कविता-तत्व, नाटकीयता या विश्लेषणपरकताजैसे शब्द अपनी महत्ता के साथ विधाओं के बीच सहज ही लकीर खींच जाते हैं. 

प्रस्तुत कहानी‘नाकोहस’की सबसे बड़ी दिक्कत कथा-तत्व या कहानीपन का अभाव है. यहाँ विचारों से भरा एक कथ्य तो है, लेकिन कथानक सिरे से गायब. ऐसा कहते हुये मैं कहानीपन शब्द को सरलीकृत करके महज किस्सागोई तक सीमित नहीं करना चाहता. कहानीपन से मेरा मतलब घटनाओं का एकरैखिक गुंफन भी नहीं. यथार्थ को कहानी मेंबदलने की कलात्मक सामर्थ्य घटनाविहीनता में भी कथारस उत्पन्न कर सकती है, लेकिन विशुद्ध बौद्धिक विश्लेषण और लगभग एकतरफा संवाद कथा-तत्त्व को क्षतिग्रस्त करते हैं.  अपेक्षित कथा-कौशल के अभाव में कथ्य को कथानक में  विस्तारित न कर पाने के कारण ‘नाकोहस’ एक खास तरह की अभावग्रस्तता का शिकार है.

पिछले कुछ वर्षों में प्रतिक्रियावादी राजनीति के विस्तार ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बहुत बड़ा आघात पहुंचाया है. धर्मांधता एक सुनियोजित व्यूहरचना के साथ साम-दाम-दंड–भेद की चौतरफा रणनीति के सहारे लगातार अपना साम्राज्य विस्तार कर रही है. दूसरों की भावना को ठेंगे पर रख कर चलने वाली मानसिकता कदम-दर-कदम भावनाओं के आहत होने की बात कर रही है. और इन भयावहताओं के बीच मनुष्य और मनुष्यता के रक्षक चक्रव्यूह में घिरे हैं. यही  वह केंद्रीय विचार है जिसे यह ‘कहानी’ स्वप्न और फैंटेसीकी तकनीक के सहारे एक बड़े रूपक की तरह उठाना चाहती है. संक्षेप में कहानीबस इतनी भर है कि तीन मित्र लेखकों सुकेत, खुर्शीद और रघुको कुछ प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ अपने यहाँ बुलाकर डराती धमकाती हैं कि वे अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर लोगों की भावनाओं को आहात करने का काम बंद करें  अन्यथा इसका अंजाम बुरा होगा. जिस तरह भावनाओं के वे ठेकेदार इन प्रगतीशील बुद्धिजीवियों को मानसिक रूप से प्रताड़ित करते हैं उसने इन्हें बहुत असुरक्षित, असहाय और निरीह बना दिया है. चूंकि कहानी’ में कोई प्रवाहमान कथानक नहीं है, लेखक की सारी ऊर्जा बिम्ब और प्रतीक निर्माण के द्वारा पाठकों को चौंकाने की कोशिश में ही खर्च हुई है.  इसलिए इस कहानी पर बात करना कहीं न कहीं उन्हींबिंबों, प्रतीकों और युक्तियों की युक्तिसंगतता पर बात करना है जिनका उपयोग कथाकार ने कहानी लिखने और बक़ौल ‘पाखी’पाठकोंको चकित करने के लिए किया है. प्रश्नों का सिलसिला अब भी मेरा पीछा नहीं छोडना चाहता– क्या इस ‘कहानी’ में प्रयुक्त बिम्ब और प्रतीक सचमुच मौलिक हैं? किसी रचना की सफलता नए बिम्ब निर्माण में निहित है या बिंबो-प्रतीकों के प्रभावी निरूपण में?

उल्लेखनीय है कि स्वप्न और फैंटेसीके शिल्प में रची गई यह ‘कहानी’ `गज-ग्राह’के पौराणिक मिथक को एक बड़े प्रतीक की तरह स्थापित करना चाहती है, जिसमें हाथी को प्रगतिशीलता, अभिव्यक्ति के अधिकार या एक लोकतान्त्रिक राष्ट्र का तथा मगरमच्छ को प्रतिक्रियावादी, सांप्रदायिक और प्रगतिविरोधी हिंसक पुरातनपंथियों का प्रतीक माना जा सकता है. बहुकोणीय भयावहताओं के व्यूह में फंसे राष्ट्र का यह रूपक यदि सिर्फ मगरमच्छ और हाथी तक सीमित रहते हुये कथ्य के भीतर निहित यथार्थों को अभिव्यंजित करता तो शायद ‘निकोहास’  एक बेहतर कहानी हो सकती थी. लेकिन इस बिम्ब-योजना की सबसे बड़ी दिक्कत है गज-ग्राह की पौराणिक कथा को परिस्थितियों के अनुरूप पुनर्सृजित करने की बजाय ज्यों का त्यों आज के यथार्थ के समानान्तर रख देना. कहानीकार की यह बिम्ब-योजना उक्त पौराणिक मिथक के  तीसरे कोण ‘नारायण’ की अनुपस्थित उपस्थिती के कारण कहानी को अपने गंतव्य तक नहीं पहुँचने देती. गौर किया जाना चाहिए कि सांप्रदायिक शक्तियों से जूझते राष्ट्र की भयावह विकल्पहीनता को एक हिन्दू मिथक की प्रतीकात्मकता के सहारे रखने की कोशिश कहानीकार के वैचारिक निहितार्थों के प्रतिकूल जा बैठती है.  प्रगतिशील और सेक्यूलर जनमानस का किसी नारायण या यम की प्रतीक्षा में दुबला होते जाना कैसे तर्कसंगत हो सकता है?  प्रगतिशीलता के पक्ष में किसी धार्मिक मिथक का उपयोग हर बार अनुचित या कि विरोधाभासी ही हो जरूरी नहीं, लेकिन जब किसी नारायण का आना कर्म या संघर्ष के बजाय प्रार्थना या आर्तनाद का प्रतिफल हो तो इस रूपक पर सहज ही प्रश्नचिह्णखड़े हो जाते हैं. 

रेखांकित किया जाना चाहिए कि कहानी की शुरुआत से लेकर अंत तक एकाधिक बार यह कहा गया है कि मगरमच्छों से घिरा हाथी बैकुंठवासी नारायण को ही पुकार रहा है और उसकी चीख नारायण तक पहुँच नहीं रही. नारायण तो नहीं सुन रहे काश यमलोक के देवता तक ही उसकी आर्तनाद पहुँच जाती! ‘गज ग्राह के इस मिथकीय रूपक से गुजरते हुये हर बार तुलसी याद आते हैं – ‘कादर मन कह एक आधारा, दैव-दैव आलसी पुकारा…’मतलब यह कि कहानी जिस रूपक के सहारे अपने कथ्य को संप्रेषित करना चाहतीहै वह अपनी वैचारिकता में कथ्य के प्रतिकूल है. कहानी के  केंद्र में निहित वैचारिकी और कहानी में प्रयुक्त प्रतीकोंके विरोधाभासी संबंध का एक और  उदाहरण है– कहानी के एक ईसाई पात्र का नाम ‘रघु’होना. कहानी की पंक्तियाँ देखिये – “रघु तो अपने नाम से ही भावनाएं आहत करने का अपराधीथा, क्योंकि यह दुष्टईसाई होकर भी हिन्दूनाम धारण करता है, सो भी भगवान राम के पूर्वपुरुष का. रघु क्या बताता कि उसके ईसाई पिता कोहिन्दू परम्पराओं की कितनी महत्वपूर्ण जानकारी थी, रघु के चरित्र से वह कितने प्रभावित थे, अपने बेटे का नाम रघु रखकर कितना सुख अनुभव करते थे… बताने से होना भी क्या था?”गौरतलब है कि कहानी में उल्लिखित ‘नाकोहस’ यानी नेशनल कमीशन ऑफ हार्ट सेंटीमेंट्स’ यानी ‘आहत भावना आयोग’ फासिस्ट और सांप्रदायिक सत्ता प्रतिष्ठानों का प्रतीक है. दूसरों की भावनाओ का ख्याल न रखने वालों का बात बात-बात में आहत होना भावनाओं का एक ऐसा लंपट व्यापार है जिसका उद्देश्य येन केन प्रकारेण दूसरे मतावलंबियों की अस्मिता और पहचान का अतिक्रमण कर अपने धर्म की सत्ता बहाल करना होता है. इन तथाकथित आहत मतावलंबियों के जिस कार्य-व्यापार का कहानीमें जिक्र है उसमें इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि लेखक हाल के वर्षों में उभरे बहुसंख्यक सांप्रदायिकता कीबात कर रहा है.  

ऐसे में एक अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति का नाम हिन्दू मिथकीय चरित्रके नाम पर होना कहीं न कहीं फासिस्ट शक्तियों के प्रभाव को स्वीकार करने जैसा है. दूसरे समुदाय की  पहचान और अस्मिता को नकारते हुये ईसाई को ‘हिन्दू-ईसाई’ और मुसलमान को ‘हिन्दू-मुसलमान’ के नाम से संबोधित करने की राजनीति यही तो है. यदि थोड़ीदेर को एक ईसाई  व्यक्ति का हिन्दू नाम होने की इस घटना को धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक भी मान लेंतो यह उस दिखावे से आगे नहीं जाता जहां किसी खास काट की टोपी धारण कर लोग खुद के धर्मनिरपेक्ष होने का स्वांग करते हैं. धर्मनिरपेक्षता का मतलब अपनी पहचान भूल कर या भुलाकर दूसरे की पहचान को अंगीकार करना नहीं बल्कि अपनी अस्मिता और पहचान में विश्वास कायम रखते  हुये दूसरोंकी पहचान का सम्मान करना है.

‘नाकोहस’ पर की गई यह टिप्पणी अधूरी होगी यदि कहानी के शीर्षक और उसके लिए प्रयुक्त लेखकीय युक्ति पर बात न की जाये. इस संदर्भ में यह कहना जरूरी है कि ‘गज-ग्राह’ के मिथकीय बिंब की तरह कुछ शब्दों के प्रथमाक्षर के सहमेल से एक नया शब्द गढ़ने की यह प्रविधि या युक्ति भी हिन्दी कहानी मेंपहली बार नहीं आई है.  कई कहानीकारों ने इसका बहुत हीप्रभावोत्पादक उपयोग पहले भी किया है. प्रसंगवश इस युक्ति के सफल उपयोग केलिहाज से मुझे नीलाक्षी सिंह कीकहानी ‘परिंदे का इंतज़ार सा कुछ’की याद आ रही है, जिसमें कुछ युवक-युवतियों के नाम के प्रथमाक्षरोंको जोड़ कर युवाओंके एक समूह को ‘नासमझ’ नाम दिया गया है. रेखांकित किया जाना चाहिए कि प्रथमाक्षरों के संयोग से बना यह शब्द न सिर्फ अर्थवान है बल्कि उस मंडली कीविशेषताओं को भी बारीकी से अभिव्यंजित करता है. संदर्भ वहाँ भी सांप्रदायिकताके भयावह स्वरूप का हीहै जहां नासमझ मंडली के सदस्य घृणा के वातावरण में प्रेम का दिया जलाने की कोशिश में लगे हैं.‘नासमझ’ शब्द उनकी समझदारी की समसामयिकताको बहुत गहराई से अभिव्यंजित करता है . बक़ौल निदा फाजली – ‘दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है, सोच समझ वालों को  थोड़ी नादानी दे मौला’. इसके उलट विवेच्य कहानी में इसी प्रविधि से गढ़े गए नए शब्द यथा ‘नाकोहस’, आभाआ’ और ‘बौनोसर’ न सिर्फ अर्थहीन हैंबल्कि कहानी में अभिव्यक्त विडम्बनाओं को भी ठीक से संप्रेषित नहींकर पाते. स्थिति तब और दयनीय हो जाती है जब कथाकार को कहानी में एकाधिक बार इन शब्दों के नियोजित प्रतीकार्थों की व्याख्या करनी पड़ती है.  परिणामत: ये शब्द विषय की सशक्त अभिव्यंजना करने की बजाय ‘डीडीएलजे’ और ‘केबीसी’ की तर्ज पर कुछ शब्द समूहों के संक्षिप्तीकरण का ‘कमर्शियल’टोटका भर हो कर रह जाते हैं.

कुल मिलाकर कहानी का जो सबसे सबल पक्ष है वह है कथ्य की समसामयिकता. लेकिन एकतरफा संवादों और बौद्धिक टिप्पणियों के रूप में जिस तरह यहाँ समकालीन भयावहताओं की निर्मिति हुई है उसमें किसी कथाकार की सहजता नहीं, एक आलोचक की विश्लेषणपरकता का हाथ है जो पाठक के मर्म को छूने के बजाये उसे उबाता है, आतंकित करता है. यह इस कारण भी है कि लेखक समकालीन विद्रूपताओं से खुद को जोड़ते हुये समय-सत्यों की पुनर्रचना के बजाय समसामयिकता का महज शाब्दिक रूप से पीछा करने में रह गया है. परिणामत: समय- सत्यऔर कहानी में रचे गए सत्यके भावनात्मक सहमेल से उत्पन्न होने वाली कलात्मक ऊंचाई  कहानी की पहुँच से बहुत पीछे छूट गई है. प्रख्यात कथालोचक सुरेन्द्र चौधरीइसे ही  ‘समसामयिकता का पीछा करते हुये दिशाहारा हो जाना’ कहते हैं. गौर किया जाना चाहिए कि कहानी जिस भयावह और हौलनाक सच्चाई की बात करती है, हमारे समय का सच उससे कहीं ज्यादा भयावह है. निकट अतीत की कई घटनाएँ तथा टेलीविज़न और अखबारों में प्रसारित/प्रकाशित खबरें फैंटेसी के शिल्प में गढ़ी गई इन भयावहताओं से कहीं अधिक खतरनाक हैं. ऐसे में इस कहानी को पढ़ते हुये फैंटेसी जैसे व्यंजनामूलक तकनीक के बेजा और चुके हुये इस्तेमाल से भी निराशा होती है.
रचना का कोई भी पाठ आखिरी नहीं  होता. न ही आलोचना किसी न्यायाधीश का निर्णय या फतवा होती है. लेकिन रचनाकार के नाम के प्रभाव से मुक्त होकर पाठक किसी रचना का स्वतंत्र  पाठ तैयार कर सकें इसके लिए रचना के साथ थ्री डीफिल्मोंकीतर्ज पर प्रायोजित संपादकीय टिप्पणियों का चशमा मुहैया कराने से बचा जाना चाहिए.  वरना बेवकूफ समझे जाने के भय से कोई यह नहीं कह पाएगा कि ‘राजा नंगा है.’यही कारण है कि इसटिप्पणी को लिखते हुये मुझे बचपन से सुनी उस कहानी का वह बच्चा बार-बार याद आता रहा जिसने खुद को बेवकूफ और नासमझ कहे जाने की परवाह किए बिना राजा के दरबार में वही कहा था जो उसने देखा था.    
___________

राकेश बिहारी
11 अक्टूबर 1973, शिवहर (बिहार)
ए. सी. एम. ए. (कॉस्ट अकाउन्टेंसी), एम. बी. ए. (फाइनान्स)
प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में कहानियां एवं लेख प्रकाशित
वह सपने बेचता था (कहानी-संग्रह),केन्द्र में कहानी (आलोचना),भूमंडलोत्तर समय में उपन्यास  (शीघ्र प्रकाश्य आलोचना पुस्तक),(सम्पादन) स्वप्न में वसंत (स्त्री यौनिकता की कहानियाँ),अंतस के अनेकांत (स्त्री कथाकारों की कहानियाँ; शीघ्र प्रकाश्य),पहली कहानी : पीढ़ियाँ साथ-साथ (‘निकट’ पत्रिका का विशेषांक),समय, समाज और भूमंडलोत्तर कहानी (‘संवेद’ पत्रिका का विशेषांक)
संप्रति:   एनटीपीसी लि. में कार्यरत
एन एच 3 / सी 76/एनटीपीसी विंध्याचल, विंध्यनगर
सिंगरौली 486885 (म. प्र.)/ 9425823033/  biharirakesh@rediffmail.
________
कहानी नाकोहस यहाँ पढ़ें.
शिल्प की कैद से बाहर : अशोक कुमार पाण्डेय 

Tags: पुरुषोत्तम अग्रवाल
ShareTweetSend
Previous Post

Next Post

शिल्प की कैद से बाहर : अशोक कुमार पाण्डेय

Related Posts

कबीर ग्रन्थावली का परिमार्जित पाठ: दलपत सिंह राजपुरोहित
समीक्षा

कबीर ग्रन्थावली का परिमार्जित पाठ: दलपत सिंह राजपुरोहित

शिल्प की कैद से बाहर : अशोक कुमार पाण्डेय
बहसतलब

शिल्प की कैद से बाहर : अशोक कुमार पाण्डेय

कथा

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक