भक्ति का लोकवृत्त
पुरुषोत्तम अग्रवाल द्वारा परिमार्जित कबीर ग्रंथावलीदलपत सिंह राजपुरोहित
पुरुषोत्तम अग्रवाल ने श्यामसुंदरदास की कबीर ग्रंथावली के अपने परिमार्जित संस्करण (राजकमल प्रकाशन, 2023) की भूमिका में कबीर की कविता के साथ देशज आधुनिकता और भक्ति के लोकवृत्त पर फिर चर्चा शुरू की है. ये चिंताएँ कबीर ग्रंथावली की उनकी विस्तृत भूमिका में समाहित हैं. इस समीक्षा का उद्देश्य भारतीय इतिहास में आधुनिकता की अवधारणा और भक्ति के लोकवृत्त संबंधी पुरुषोत्तम अग्रवाल के चिंतन के कुछ मूल पहलुओं की चर्चा करना है और इस विमर्श में उन संभावनाओं की तलाश करना है जिनसे हिन्दी साहित्य का आरम्भिक आधुनिक काल व्यापक रूप से समझा जा सके.
सोलहवीं सदी के मध्य में जब से ही भक्ति कविता की पांडुलिपियाँ मिलना शुरू होती हैं कबीर की कविता को तब से ही उनमें प्रमुख स्थान मिल जाता है. इस सदी के अंत तक वैष्णव और निर्गुण संप्रदायों द्वारा कबीर को आदरसहित याद किया जाता है. साथ ही अकबर के फ़ारसी इतिहासों में कबीर की एक ‘मुवाहिद’ (सर्वेश्वरवादी) के रूप में उपस्थिति उनको अपने समय की हाशिये की आवाज़ नहीं बल्कि भक्ति के बन रहे ‘लोकवृत्त’ का सर्वाधिक प्रभावी स्वर बनाती है.
सोलहवीं सदी में संग्रहीत भक्ति कविता की भाषिक संरचना यह दिखाती है कि इन प्राचीन संग्रहों के लिए मौखिक परंपरा के अलावा उन ‘विलुप्त’ पाण्डुलिपियों का सहारा लिया जा रहा था जो अब उपलब्ध नहीं हैं. मतलब यह कि भक्ति कविता की प्राचीनतम पांडुलिपियाँ, जिनमें गोइंदवाल पोथी या मोहन पोथी (1570-72 ई.) और फ़तेहपुर पांडुलिपि (1582 ई.) प्रमुख हैं, अपने से पहले की पाण्डुलिपियों का सहारा ले रही थीं जो आज देखने को नहीं मिलतीं. इसलिए पुरुषोत्तम अग्रवाल ठीक ही कहते हैं कि हम कबीर के पदों और साखियों द्वारा उनके भाव और तर्क तक तो पहुँच सकते हैं लेकिन कबीर ने स्वयं अपने मुख से क्या कहा होगा शब्दशः उस तक पहुँचना मुश्किल है.
कबीर की कविता के आज उपलब्ध अनेक संग्रहों में श्यामसुंदरदास द्वारा संपादित कबीर ग्रंथावली का ही परिमार्जन आवश्यक था क्योंकि अव्वल तो इस ग्रंथावली के पाठ से कबीर की पुरानी पाण्डुलिपियों में ज़बरदस्त समानता है.
यह ग्रंथावली स्वयं 1504 ई. की मानी जाने वाली प्राचीनतम पांडुलिपि पर आधारित है जिसके समय पर विवाद होते हुए भी वह 1620 ई. के आस-पास की तो ठहरती ही है. दूसरा इस ग्रंथावली के प्रकाशन के बाद कबीर की कविता की कुछ पुरानी पांडुलिपियाँ सामने आई हैं जिन्हें नकारकर कबीर की कविता का अध्ययन नहीं किया जा सकता. इन नई खोजों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण 1582 ई. में राजस्थान में लिपिबद्ध हुई फ़तेहपुर पांडुलिपि है जिसे पद सूरदास का भी कहा जाता है. यह पांडुलिपि 1982 ई० में प्रकाशित हुई.
इसके अलावा दादूदयाल के शिष्य रज्जब द्वारा 1603-1613 ई. के बीच संकलित सर्वंगी और दादू के प्रशिष्य गोपालदास द्वारा 1627 ई. में संकलित एक और सर्वंगी भी है, जिनका प्रकाशन पिछले दशकों में हुआ है.
इन दोनों संकलनों में दादू के बाद कबीर की कविता को ही प्रमुख स्थान मिला है. इनके साथ ही 1614-1621 ई. में संकलित दादूपंथ का पंचवाणी संकलन भी है जो कबीर की कविता के प्राचीन रूप को संग्रहित करने में बड़ी भूमिका निभाता है. कबीर की कविता पर आधारित इन पाण्डुलिपियों पर पिछले कुछ दशकों में हुए शोध का गहराई से अध्ययन करते हुए पुरुषोत्तम अग्रवाल इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि श्यामसुन्दरदास द्वारा संपादित कबीर ग्रंथावली सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में स्वीकृत कबीर पाठ का सर्वाधिक प्रामाणिक रूप प्रस्तुत करती है.
कबीर ग्रंथावली की तुलना में कबीरपंथ के प्रधान ग्रंथ बीजक को उतना महत्व नहीं मिलने के दो मुख्य कारण रहे हैं. एक तो ‘बीजक’ की कोई भी पांडुलिपि उन्नीसवीं सदी के पहले की नहीं है और दूसरा उसमें पंथ की ज़रूरतों के मुताबिक़ कबीर की कविता का पाठ संकलित हुआ है.
वहीं प्राचीन पाण्डुलिपियों पर आधारित कबीर ग्रंथावली का पाठ कबीर की संवेदना के तेवर व मिज़ाज या उनके पूरे व्यक्तित्व को विश्वसनीय रूप से धारण करता है. इसीलिए पुरुषोत्तम अग्रवाल ने सोलहवीं-सत्रहवीं सदी की उपर्युक्त पाण्डुलिपियों से मिलान करके श्यामसुंदरदास की ग्रंथावली में हुईं छापे की त्रुटियों का परिष्कार किया है.
इसके अलावा उन्होंने मोहनपोथी में आये कबीर पदों के शुद्ध पाठ और ‘फ़तेहपुर पांडुलिपि’ में आये कबीर के पदों को यथावत अपने परिमार्जित संस्करण में रखा है. पुरुषोत्तम अग्रवाल का यह काम बहुप्रतीक्षित तो था ही आवश्यक भी उतना ही था.
कबीर ग्रंथावली की लंबी भूमिका में परिमार्जन पर चर्चा करके पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कबीर के जीवन व कविता, कबीर का रामानन्द से संबंध और देशज आधुनिकता व भक्ति के लोकवृत्त पर विस्तृत चर्चा की है. पब्लिक स्फ़ीयर के लिए हिन्दी में लोकवृत्त शब्द का प्रयोग पुरुषोत्तम अग्रवाल ने पहले पहल फ़्रेंचेस्का ऑर्सीनी की किताब ‘हिन्दी पब्लिक स्फ़ीयर’ पर लिखे अपने समीक्षा लेख में 2003 ई० में किया था. उससे पहले ‘सार्वजनिक क्षेत्र’ या ‘जनपद’ आदि शब्दों का व्यवहार ‘पब्लिक स्फ़ीयर’ के लिए होता था.
भक्ति के लोकवृत्त से ही जुड़ी उनकी भारत की देशज आधुनिकता की अवधारणा है जो काफ़ी प्रभावी रही है. फ़्रैंकफ़र्ट स्कूल के विचारक युर्गन हाबरमास ने पहले पहल ‘पब्लिक स्फ़ीयर’ की अवधारणा का प्रयोग किया था, जो अठारहवीं सदी के यूरोप में विकसित हो रही ऐतिहासिक प्रक्रिया थी. हाबरमास के अनुसार ‘पब्लिक स्फ़ियर’ वह शर्त है जब लोग अपने निजी जीवन से परे जाकर सार्वजनिक रूप से जन-कल्याण के मुद्दों पर बात करते हैं और उससे एक ‘पब्लिक ओपिनियन’ का निर्माण करते हैं.
अख़बार, पत्रिकाएँ, रेडियो, टीवी इस लोकवृत्त में मीडिया की भूमिका निभाते हैं. कॉफ़ी हाउस, साहित्यिक गोष्ठियाँ, सार्वजनिक स्थल आदि वे संस्थाएँ होती हैं जहाँ शिक्षित जनता जन कल्याण के मुद्दों पर चर्चा करती है और पब्लिक ओपिनियन का निर्माण करती है. जनता द्वारा विकसित यह ‘लोकवृत्त’ एक तरफ़ सत्ता-तंत्र व दूसरी तरफ़ समाज या ‘सिविल सोसायटी’ की मध्यस्तता करता है. राज्य की सरकारें इस ‘पब्लिक ओपिनियन’ को नकार नहीं सकती क्योंकि आम जनता उसी के अनुसार सरकार का चुनाव करती है.
जनता द्वारा जन-कल्याण के उद्देश्य के लिए विकसित यह लोकवृत्त जब सत्ता की भाषा बोलता है और सत्ता के हित की बात करता है तो इसका महत्व ख़त्म हो जाता है. इसलिए हाबरमास की किताब का शीर्षक ही लोकवृत्त का संरचनात्मक रूपांतरण है.
यूरोप में विकसित हुआ लोकवृत्त वहाँ चल रहे आधुनिकीकरण का आंतरिक हिस्सा था, जिस ऐतिहासिक अवधारणा के मुख्य प्रवर्तक मैक्स वेबर रहे हैं. अपनी पुस्तक ‘द प्रोटेस्टेंट ऐथिक एंड द स्पिरिट ऑफ़ कैपिटलिस्म’ लिखते समय मैक्स वेबर के सामने यह सवाल प्रमुख था कि यूरोप का नव-पूँजीपति वर्ग बहुसंख्यक रूप से प्रोटेस्टेंट धर्म का ही अनुयायी क्यों था?
इस सवाल के जवाब में मैक्स वेबर पूँजी निर्माण के पीछे काम कर रही प्रोटेस्टेंट धार्मिक विचारधारा की चर्चा करते हैं. प्रोटेस्टेंट धार्मिक विश्वास में पूँजी के निर्माण को ईश्वरकृपा तथा सफल आदर्श जीवन से जोड़ा जाता है.
मैक्स वेबर यह दिखाते हैं कि सोलहवीं सदी से यूरोप में तर्कमूलकता (रेशनलिटी), सोच-विचार की शक्ति (रिफ़्लेक्सिविटी), और तर्कबद्ध सैद्धांतिक व्यवहार (मेथोडोलॉजिकल बिहेवियर) विकसित हो रहे थे. तर्कबद्ध सैद्धांतिक व्यवहार से ही मशीन का विकास जुड़ा हुआ है जिससे बाद में औद्योगिक क्रांति संभव होती है. वेबर के अनुसार आधुनिकीकरण के केंद्र में प्रोटेस्टेंट धार्मिक विश्वास थे जो कैथोलिक चर्च के विरोध में मार्टिन लूथर के धर्म सुधार आंदोलन से उपजे थे.
यूरोप के इतिहास में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया की चर्चा करते हुए मैक्स वेबर को चिंता थी कि तर्कबद्ध सैद्धांतिक व्यवहार पर अत्यधिक निर्भर समाज अंततः मशीनीकृत होता चला जाएगा. आधुनिक समाज के संवेदनाविहीन होकर मशीनीकृत हो जाने की वेबर की चिंता की परिणति को हम चार्ली चैपलिन की फ़िल्मों में देख सकते हैं.
हाबरमास और मैक्स वेबर की उपर्युक्त अवधारणाओं को पुरुषोत्तम अग्रवाल ने न केवल भारतीय संदर्भ दिया है बल्कि इनमें मूलगामी बदलाव भी किए हैं. हाबरमास ने लोकवृत्त को अठारहवीं सदी में उदित तथा यूरोप तक सीमित प्रक्रिया माना था लेकिन उसी ऐतिहासिक प्रक्रिया को पुरुषोत्तम अग्रवाल 15-16 वीं सदी के भारत में देखते हैं. वे भारत में लोकवृत के विकास को भक्ति के उदय से जोड़ते हैं. साथ ही वेबर की यूरोपीय आधुनिकता के बरक्स वे भारत की देशज आधुनिकता की चर्चा करते हैं.
भारतीय देशज आधुनिकता बहुसांस्कृतिक संवाद पर आधारित थी जो यूरोप के मुक़ाबले ज़्यादा उदार और तर्कमूलक थी. औपनिवेशिक आधुनिकता के बरक्स भारत की आधुनिकता पर अन्य इतिहासकारों ने भी काम किया है जिनका हवाला पुरुषोत्तम अग्रवाल देते हैं लेकिन भक्ति के लोकवृत्त पर बात करने वाले वे विश्व के अग्रणी विचारक हैं.
औपनिवेशिक आधुनिकता के आने से पहले भारत में स्थित देशज आधुनिकता पर पुरुषोत्तम अग्रवाल के तर्कों को तत्कालीन समाज में चल रही चार प्रमुख प्रक्रियाओं में बाँटकर समझा जा सकता है.
१.
पहली प्रक्रिया भारत में ब्रिटिशकाल के पूर्व व्यापारिक पूँजीवाद का प्रचलन और उससे समाज में आ रहे नये रुझान हैं. ब्रिटिश-काल के पूर्व भारत के आर्थिक इतिहास पर रामविलास शर्मा, इरफ़ान हबीब, जयरस बानाजी आदि विद्वानों के शोध को साहित्यिक-सांस्कृतिक रूप देते हुए पुरुषोत्तम अग्रवाल कबीर की कविता के उन अंशों की व्याख्या करते हैं जिनसे यहाँ व्यापार की ज़बरदस्त उपस्थिति सामने आती है. साथ ही वे मुज़फ़्फ़र आलम और संजय सुब्रह्मण्यम के दिलचस्प शोध-कार्य की चर्चा करते हैं जो 1400 से 1800 के बीच के सफ़रनामों पर है.
ज़मीनी व्यापारिक मार्गों और वैश्विक समुद्री मार्गों की खोज के साथ इन सफ़रनामों की संख्या में अभूतपूर्व बढ़ाव होता है. भारत उस समय आंतरिक और समुद्री व्यापार के ज़रिये विश्व-भर से जुड़ा था. कबीर के यहाँ दलाल, ब्याज आदि शब्द ही नहीं मिलते बल्कि पारिभाषिक अर्थ में पूँजी (कैपिटल), मुनाफ़ा, निवेश और ब्याज की अवधारणाएँ भी मिलती हैं. समाज में दलाल या बिचौलियों का उद्भव व्यापार में अतिशय बढ़ाव से ही संभव है.
पुरुषोत्तम अग्रवाल यह महत्त्वपूर्ण तर्क रखते हैं कबीर की कविता में आये व्यापार और पूँजी निवेश के रूपक किसी समाज के कवि या श्रोता के चित्त में उतर ही नहीं सकते जिसमें बड़े पैमाने पर व्यापार न होता हो. इस समय भक्ति के जो संप्रदाय उठ खड़े होते हैं उनके अधिकांश कवियों का संबंध व्यापार, दस्तकारी और खेती के कारोबारों से था. 18वीं सदी के भारत में जब ब्रिटिश प्रभुत्व बढ़ रहा था उस समय भारत विश्व की चुनिंदा बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में एक था.
औरंगज़ेब की मृत्यु के समय वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में भारत का हिस्सा लगभग एक-चौथाई था जो औपनिवेशिक लूट के दो सौ बरस बाद आई आज़ादी के समय घटकर चार फ़ीसद रह गया. व्यापार के बढ़ाव की जो चर्चा मैक्स वेबर सोलहवीं सदी के यूरोप के संदर्भ में करते हैं वह प्रक्रिया भारत में भी ठीक उसी समय सशक्त रूप से उपस्थित थी.
२.
व्यापारिक पूँजीवाद के बढ़ाव से जुड़ी जो दूसरी प्रक्रिया तत्कालीन भारत में चल रही थी वह थी नगरों का विकास और नगरीय जनसंख्या का अभूतपूर्व बढ़ाव. ब्रिटिशकाल के पूर्व का भारत केवल देहातों में बसा सामंती जड़ता वाला समाज नहीं था बल्कि इस समय भारत की पंद्रह प्रतिशत आबादी नगरों में रहती थी. यह प्रतिशत उस समय के यूरोप में नगरीय जनसंख्या से तो अधिक था ही उन्नीसवीं सदी के भारत में स्थिति नगरीय जनसंख्या से भी अधिक था. भारत में उस समय ढाई से दस लाख की आबादी वाले कई नगर थे.
आगरा, ढाका, बनारस, दिल्ली, विजयनगर, मुर्शिदाबाद आदि केवल दरबार या तीर्थस्थल वाले नगर नहीं बल्कि व्यापार के प्रमुख केंद्र भी थे. नगर व्यापारिक गतिविधि के केंद्र होते हैं इसलिए नगरीकरण का बढ़ना भारत की देशज आधुनिकता का ही लक्षण था. दरअसल बाद की औपनिवेशिक लूट ही वह कारण था जिससे ब्रिटिश काल में भारत का विनगरीकरण और विऔद्योगीकरण होता है.
औपनिवेशिक लूट की भयावहता का अनुमान हम ब्रिटिश काल में बढ़ी मानव-निर्मित अकालों की संख्या से लगा सकते हैं जिससे भारतीय आबादी का बड़ा हिस्सा काल-कवलित हो गया. औपनिवेशिक लूट और भारत के विनगरीकरण की वजह से ब्रिटेन के शहर बड़े होते गये और भारत देहातों में तब्दील होता गया.
३.
व्यापारिक पूंजीवाद और नगरीकरण से जुड़ी जो तीसरी प्रक्रिया ब्रिटिश-पूर्व भारत में चल रही थी वह थी एक ऐसी आध्यात्मिकता या ज्ञानमीमांसा का उद्भव जो बहुधार्मिक, बहुसांस्कृतिक व बहुभाषिक थी. पुरुषोत्तम अग्रवाल के अनुसार इस प्रक्रिया में ही भक्ति का विकास हो रहा था. भारत की यह बहुलतावादी आधुनिकता धार्मिक-संस्कृतिक और भाषाई धरातल पर यूरोप से उदार थी. इस समय देशभाषाएँ अपना स्वायत्त बौद्धिक विमर्श रच रही थीं. जायसी यह कहते हैं कि आकाश में जितने नक्षत्र हैं या शरीर में जितने रोएँ हैं परमात्मा को जानने के मार्ग भी उतने ही हैं. कबीर जैसे साधक वैदिक-पौराणिक धर्म के बरक्स अपना नया पंथ नहीं चला रहे थे बल्कि धर्म मात्र का विकल्प खोज रहे थे. कबीर की कविता और समय का अध्ययन दिखाता है कि सूफ़ियों, नाथों, वैष्णवों, और शैवों का आपसी संवाद किस प्रकार का था.
कबीर जैसे साधक कैसे वैष्णवों, सूफ़ियों, वैरागियों, और यहाँ तक कि मुग़लों के ‘सुलहे कुल’ या ‘वैश्विक सहिष्णुता’ जैसे धार्मिक-राजनीतिक आदर्श को एक साथ साध रहे थे. निर्गुण भक्ति के केंद्र में ‘व्यक्तित्व’ का जो बोध है उसे उत्तर भारत ही नहीं महाराष्ट्र व दक्षिण भारत के संतों की कविता में भी देखा जा सकता है. व्यक्तित्व के इसी बोध के ज़रिये निर्गुण संत व्यक्तिगत साधना के साथ-साथ सामाजिक व्यवस्था से जिरह करते हैं और वैकल्पिक ज्ञान मीमांसा का निर्माण करते हैं.
यहाँ पुरुषोत्तम अग्रवाल निर्गुण संतों के ‘अनुभवसम्मत विवेकवाद’ की चर्चा करते हैं जो नामवर सिंह द्वारा बनाया पदबंध है. इसी ज्ञान मीमांसा को आधार बनाकर पुरुषोत्तम अग्रवाल अपना महत्वपूर्ण तर्क रखते हैं कि इससे संतों द्वारा उस सैद्धांतिक और आभासी अवकाश (वर्चुअल स्पेस) का निर्माण हो रहा है जिसे “भक्ति का लोकवृत्त” कहा जा सकता है. इस लोकवृत्त में केवल शाश्वत और पारलौकिक चर्चाएँ ही नहीं हैं बल्कि इहलौकिक और तात्कालिक समस्याओं पर भी संवाद और तीखा वाद-विवाद है.
मठ, मंदिर, अस्थान, नामघर या सत्संग स्थल इस लोकवृत्त की संस्थाएँ हैं. तथा भक्तमालों, परचइयों, जन्मलीलाओं, व संतों-भक्तों की संवाद गोष्ठियों में हमें इस लोकवृत्त का दस्तावेज़ी रूप मिलता है. भक्ति के इस लोकवृत्त का संज्ञान उस समय का मुग़ल-राजपूत दरबारी वर्ग भी ले रहा था या कहें तो वह इसमें प्रभावी भूमिका निभा रहा था.
४.
भक्ति के लोकवृत्त में उपजी इस संवादधर्मी आध्यात्मिकता से चौथी और अंतिम प्रक्रिया जुड़ी हुई है जिसे हम जाति व वर्णाश्रम के बंधनों के विरुद्ध न्याय की सहजात चेतना के विकास में देखते हैं. ‘बर्थ डिटरमिनिज़्म’ यानी जन्मजात सामाजिक पहचान के आधार पर किसी को उच्च या निम्न मानना कबीर आदि संतों को स्वीकार्य नहीं था. न ही जन्म के आधार पर किसी पर कोई धार्मिक पहचान थोपना. पुरुषोत्तम अग्रवाल के अनुसार नामदेव के बाद भक्ति केवल उपासना पद्धति नहीं रह गई थी वह जीवन दृष्टि बन गई थी. कबीर के यहाँ कविता उनके अनुभव प्रमाण को लेकर उपजी थी जो प्रेम और मृत्यु, शाश्वतता और नश्वरता, बाहर और भीतर के निरंतर संवाद पर क़ायम थी. जिज्ञासु कबीर ने शक्ति उपासकों, नाथों और सूफ़ीयों से संवाद करके सम्प्रदाय निरपेक्ष लोक-वैष्णवता का विकास किया था.
इस वैष्णवता का तात्पर्य विष्णु (और उनके अवतारों) के उपासक वैष्णवों से अलग एक विवेकपूर्ण रुझान का होना था. कबीर के जीवन तथा उनकी मृत्यु सम्बंधी किंवदंतियाँ यह दिखाती हैं कि उन जनश्रुतियों को कहने वाला समाज यह मान चुका था कि कबीर को हिंदू-मुस्लिम खाँचों में नहीं बाँटा जा सकता. कबीर हिंदू-मुस्लिम एकता की भी बात नहीं कर रहे थे बल्कि वे दोनों धर्मों के आडम्बरों की कटु आलोचना करने का साहस रखते थे भले ही इसके लिए उनको अपनी माँ से लेकर ब्राह्मण-क़ाज़ी तथा राजनीतिक सत्ता से टकराना पड़ा.
अपने समय में प्रतिष्ठा पा रहे कबीर एकांत की तलाश करते हैं ताकि वे स्वयं से संवाद कर सकें. दरअसल कबीर की आध्यात्मिक खोज तथा उनकी जाति व वर्णाश्रम विरोधी सामाजिक आलोचना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. समाज में पदानुक्रम होता है लेकिन कबीर के अनुसार इस पदानुक्रम को जन्म आधारित ही होना है यह ज़रूरी नहीं है. इसलिए कबीर की कविता मनुष्य की सहज न्याय-चेतना का भावोन्मेष करती है. कबीर आदि संतों की यह ज्ञान मीमांसा शुक्ल जी जैसे भक्ति के आलोचकों की समझ में नहीं आई जो यह मानते थे कि ज्ञान या सिद्धांत प्रतिपादन करना भक्त का काम नहीं है.
कबीर न तो स्वयं को हिंदू या मुसलमान कहते हैं न ही नाथपंथी योगी. वे स्वयं को जुलाहा या कोरी कहते हैं. पुरुषोत्तम अग्रवाल के अनुसार कबीर की वैचारिकता और संवेदना के ताने बाने में इस्लाम, वैष्णव परम्परा और नाथपंथी योगियों का बराबर प्रभाव था. लेकिन इसका कारण उनका वंश नहीं बल्कि उनका व्यक्तित्व था जो इन परंपराओं से विवेकसम्मत संवाद कर रहा था.
कबीर के इस संवाद का कारण उनकी वंश परंपरा में खोजना एक तरफ़ कबीर के अपने समय और समाज में व्यक्तित्व के बोध को तो नकारना है ही वहीं दूसरी तरफ़ धर्म, जाति या वंश से स्वायत्त अस्तित्व और स्वयं के निर्णय की गुंजाइश को नकारना भी है.
भक्ति संप्रदायों में विकसित गुरु-शिष्य संबंध भी जन्म आधारित जातिगत पहचान और धार्मिक पहचान के आरोपण का विरोध करते हैं. इस पहलू का विस्तृत अध्ययन पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कबीर-रामानन्द संबंध में किया है. रामानन्द कबीर के गुरु थे इस बात का उल्लेख सोलहवीं-सत्रहवीं सदी के भक्ति स्रोत करते हैं लेकिन इतिहासकारों का कहना है कि ये सारे स्रोत वैष्णव परंपरा से आते हैं. यानी वे वैष्णव परम्पराएँ जो कबीर को अपनी परम्परा में दीक्षित हुआ दिखाना चाहती थीं. इस दावे की पड़ताल में पुरुषोत्तम अग्रवाल दारा शुकोह के सूफ़ी संतों, सन्यासियों और वैरागियों से हुए दिलचस्प संवाद को हमारे सामने रखते हैं.
दारा शुकोह का यह चिंतन उनके हसनात उल आरफ़ीन (संत वाणी) ग्रंथ में संकलित हैं जिसकी रचना द्वारा वे सभी धर्मों में एकत्व को खोज रहे थे. दारा शुकोह रामानन्द को कबीर का गुरु तो बताते ही हैं वे साथ में कबीर की कविता की मिसालें भी देते हैं. यानी वैष्णवों के अलावा सूफ़ी स्रोत भी यही सिद्ध करते हैं कि भक्तों और सूफ़ी संतों के लोकवृत्त में कबीर के साथ रामानन्द का संबंध सर्व-स्वीकार्य था. इन देशज आधुनिक स्रोतों ने कबीर को ब्राह्मण रामानन्द का शिष्य तो बताया लेकिन कबीर को ब्राह्मण सर्वोच्चता का समर्थक नहीं. यानी रामानन्द का शिष्यत्व ग्रहण करके भी कबीर की व्यक्तिगत विशिष्टता सुरक्षित रही.
स्वयं रामानन्द वर्णव्यवस्था के दोनों सिरों को छूते हैं. वे संस्कृत ज्ञान संपन्न पंडित और निर्गुण कवियों के बीच में स्थित थे. 1600 ई. के आस पास लिख रहे नाभादास के अनुसार रामानन्द भारतीय समाज के विभिन्न तबकों के बीच संवाद के पुल बनाने वाले व्यक्ति थे. इन्हीं रामानन्द के शिष्य कबीर संवादी थे, ‘अंधभक्त’ नहीं.
रामानंदी संप्रदाय के बारे में रिचर्ड बर्गहार्ट ने 1978 ई. में किए अपने शोध में दिखाया है कि कैसे इस संप्रदाय में द्विज हिंदू जातियों के साथ अस्पृश्य समुदाय के व्यक्ति और बहुत हद तक मुसलमान भी दीक्षित किए जाते थे. बहु-धार्मिक संवाद पर टिका यह आरंभिक आधुनिक परिवेश औपनिवेशिक आधुनिकता के आने से सीमित होता चला जाता है. औपनिवेशिक आधुनिकता के समय ही भक्ति और सूफ़ी समुदायों की संप्रदायगत विभिन्नता को हिंदू या मुस्लिम धार्मिक अस्मिताओं में ‘रिड्यूस्ड’ कर दिया जाता है जिससे भक्ति के लोकवृत्त की तस्वीर धुंधली हो जाती है. इसलिए भारत की देशज आधुनिकता को व्यापकता में जानने-परखने और सहेजने में पुरुषोत्तम अग्रवाल का चिंतन और उनके द्वारा परिमार्जित कबीर ग्रंथावली निःसंदेह एक उपयोगी पुस्तक साबित होगी.
देशज आधुनिकता और भक्ति के लोकवृत्त की इस अवधारणा को जब उत्तर भारत में पन्द्रहवीं सदी से लेकर उन्नीसवीं सदी के विस्तृत काल और उसमें रचे गये वृहत्तर साहित्य पर लागू करते हैं तो कुछ सवाल निःसंदेह उठते हैं.
एक तो देशज आधुनिकता में उन कवियों की क्या भूमिका थी जो दरबारों में रहते थे और रीति-कविता करते थे?
दूसरा आरंभिक आधुनिक काल में राजपूत दरबारी वर्ग की स्थिति को कैसे समझेंगे जो एक तरफ़ वृंदावन जैसे भक्ति के केंद्रों को विकसित कर रहा था, वहीं दूसरी तरफ़ रीति कविता भी लिखवा रहा था और एक नई बनती हुई वैष्णव पहचान धारण कर रहा था?
तीसरा सवाल है कि व्यापारी समुदायों द्वारा भक्ति के कुछ ख़ास संप्रदायों को प्रश्रय देने के पीछे क्या कारण रहे होंगे? क्या भक्ति हमेशा ‘पब्लिक ओपिनियन’ का निर्माण करती थी या शक्ति और सत्ता अर्जित करने का माध्यम भी बनती थी?
चौथा और आख़िरी सवाल आरंभिक आधुनिक काल में वर्ण व्यवस्था के जातियों में बदलने की प्रक्रिया (जैसे राजपूत जातियाँ) और उनमें जन्म आधारित पहचान तथा वंश परंपरा की प्रतिष्ठा को कैसे समझा जाए? क्या ये प्रक्रियाएँ आरम्भिक आधुनिकता की द्वंद्वात्मकता को दिखा रही थी या इसे किसी और तरीक़े से समझा जाए?
इन सवालों के जवाब देने में सबसे समर्थ विचारक पुरुषोत्तम अग्रवाल हैं जिन पर उनका लेखन बहु-प्रतीक्षित है.
यह पुस्तक यहाँ से प्राप्त करें.
![]() दलपत सिंह राजपुरोहित, टेक्सस विश्वविद्यालय, ऑस्टिन (अमेरिका) में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं. ‘सुंदर के स्वप्न’ इनकी बहुचर्चित आलोचना कृति है. राजस्थान के संतों पर हाइडलबर्ग, जर्मनी से मोनिका हॉर्स्टमैन के साथ लिखी ‘इन द श्राइन ऑफ़ द हार्ट’ इनकी दूसरी पुस्तक है. आजकल ये रीति काल के कवि पद्माकर की हिम्मतबहादुर बिरदावली पर अपनी तीसरी पुस्तक पर काम कर रहे हैं जो हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस की ‘मूर्ति क्लासिकल लाइब्रेरी’ से आने वाली है. drajpurohit@austin.utexas.edu |
बहुत गंभीर, विचारोत्तेजक लेख, जिससे संभवतः पहली बार सही मायने में आधुनिक सोच वाले, एक आधुनिक समाज के निर्माण में कबीर की बेहद महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक भूमिका स्पष्ट होती है, जिसे दुर्भाग्य से भुला दिया गया है। कुछ कबीर की भक्ति भावना में ही मगन हो जाते हैं, और कुछ उनके समाज सुधार के पद और दोहों आदि में ही उन्हें देख पाते हैं। पर कबीर के ये दोनों पक्ष अलग-अलग नहीं, एक ही हैं, और वे उनके उस विराट महास्वप्न का हिस्सा हैं, जिससे इस देश में सही मायने में आधुनिकता की नींव रखी जा रही थी, एक बिल्कुल अनोखी शख्सियत वाले युगांतरकारी औघड़ कवि द्वारा, लेख बहुत करीने से इसे स्पष्ट करता है।
भाई पुरुषोत्तम अग्रवाल जी की इस विचारोत्तेजक पुस्तक की चर्चा करके भाई दलपत सिंह राजपुरोहित और ‘समालोचन’ दोनों ने ही, एक बार फिर से कबीर की ओर ध्यान आकृष्ट किया। इस नाते, भाई अरुण जी और दलपत जी, दोनों का ही आभार!
स्नेह,
प्रकाश मनु
सारगर्भित और सघन विचार-दीप्त आलेख! बधाई।
कबीर के मर्म को जानने के लिए अद्भुत लेख है, बहुत सी भ्रांतियां तोड़ कर सत्य से साक्षात्कार हुआ, बहुत बहुत बधाई।
यह आलेख निश्चय ही एक नये सोच की खिड़की खोलता है। कबीर को समझने की अपेक्षा पुरुषोत्तम अग्रवाल के उस दृष्टिकोण के साथ हमारा साक्षात्कार कराता है जो हिंदी में किसी बड़े रचनाकार को समझने की कतई मौलिक समझ से जुड़ा है। कहना न होगा, पुरुषोत्तम यहाँ भारतीय लोकवृत्त को फ्रेचेस्का के पब्लिक स्फेयर वाले यूरोपीय जुमले के समानांतर व्याख्यायित करते हैं। पुरुषोत्तम जी की नयी किताब मैंने अभी नहीं पढ़ी हालांकि कबीर वाली पहली पढ़ी है, मेरे संग्रह में है। चूँकि फ्रेंचेस्का-माॅडल आज के अंग्रेज़ीदा पाठक का सर्वाधिक प्रिय डिस्कोर्स है, हिंदी पाठक तो उससे आतंक की हद तक प्रभावित है, मगर इसे कबीर की भक्ति-संवेदना के साथ जोड़ना मुझे न्यायसंगत नहीं लगता। फिर भी सोच के दरवाजे खटखटाता है। समालोचन ने इस टिप्पणी के प्रकाशन के साथ ही उन सबसे परिचय कराया, जिन्होंने पुरुषोत्तम जी की इस मूल्यवान किताब की समझ के दरवाजे खोले, हार्दिक धन्यवाद देना चहता हूँ।
15- 16 वी सदी के आस- पास भारतीय वर्ण व्यवस्था के तहत निम्न जातियों के समाज सुधारकों द्वारा चलाए जा रहे ,समाज सुधार आंदोलन का असर खत्म करने के उद्देश्य से उच्च जातियों द्वारा सुधारक लोगों को संत घोषित कर दिया गया,ऐसा मुझे लगता है। समाज सुधार आंदोलन को रोकने हेतु समाज सुधार को धर्म से जोड़कर उसे भक्ति आंदोलन या संत आंदोलन नाम दिया गया होगा या विषमता मूलक धार्मिक व्यवस्था के लिए शायद ऐसा किया गया हो या सत्ता अर्जित करने के लिए या उच्च जातियों द्वारा धर्म की ओट लेकर निम्न जातियों पर वर्चस्व कायम रखने का सुनियोजित तरीका हो।
बहर-हाल दलपत सिंह जी के चार सवाल बेहद महत्वपूर्ण है। आशा करती हूँ पुरुषोत्तम सर शीघ्र ही उत्तर देंगे। महत्वपूर्ण आलेख पढ़वाने के लिए अरुण सर आपका बहुत- बहुत धन्यवाद !