अंजू शर्मा की कविताओं का मुख्य स्वर नारीवादी है. सभ्यतागत छल-प्रपंच के बीच स्त्री की अस्मिता और अस्तित्व के अनेक आरोह अवरोह इन कविताओं में है. साहित्यिक- सामाजिक आयोजनों में भी अंजू शर्मा सक्रिय हैं.
अंजू शर्मा
जन्म और शिक्षा दिल्ली में
विभिन्न पत्र – पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित
बोधि प्रकाशन से प्रकाशित \”स्त्री होकर सवाल करती है\” तथा \”लिखनी ही होगी एक कविता\” में कवितायेँ सम्मिलित
अकादमी ऑफ़ फाइन आर्ट्स एंड लिटरेचर के कार्यक्रम \’डायलाग\’ तथा लिखावट\’ से सक्रिय जुडाव
इलाहाबाद बैंक द्वारा \’इला त्रिवेणी सम्मान 2012\’ से सम्मानित, साहित्य के क्षेत्र में लेखन एवं सक्रियता के लिए \’राजीव गाँधी एक्सेलेंस अवार्ड 2013\’ दिए जाने की घोषणा.
anjuvsharma2011@gmail.com
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पेंटिग ; कुंवर रवीन्द्र |
मुआवजा
कविता के बदले
मुआवज़े का अगर चलन हो तो
संभव है मैं मांग बैठूं
मधुमक्खियों से
ताज़ा शहद
कि भिगो सकूँ
कुछ शब्दों को इसमें,
ताकि विदा कर सकूँ कविताओं से
कम-से -कम थोड़ी सी तो तल्खी,
या मैं मांग सकती हूँ कुछ नए शब्द भी
जिन्हें मैं प्रयोग कर सकूँ,
अपनी कविताओं में
दुःख,
छलावे,
प्रतिकार
या प्रतिरोध के बदले,
आपके लिए यह हैरत का सबब होगा
अगर मैं मांग रख दूँ कुछ डिब्बों की
जिनमें कैद कर सकूँ उन स्त्रियों के आंसू
जो गाहे-बगाहे
सुबक उठती हैं मेरी कविताओं में
हाँ, मुझे उनकी खामोश,
घुटी चीखों वाले डिब्बे को
दफ़्न करने के लिए एक माकूल
जगह की दरकार है.
बेटी के लिए
दर्द के तपते माथे पर शीतल ठंडक सी
मेरी बेटी
मैं ओढा देना चाहती हूँ तुम्हे
अपने अनुभवों की चादर
माथे पर देते हुए एक स्नेहिल बोसा
मैं चुपके से थमा देती हूँ
तुम्हारे हाथ में
कुछ चेतावनियों भरी पर्चियां,
साथ ही कर देना चाहती हूँ
आगाह गिरगिटों की आहट से
तुम जानती हो मेरे सारे राज,
बक्से में छिपाए गहने ,
चाय के डिब्बे में
रखे घर खर्च से बचाए चंद नोट,
अलमारी के अंदर के खाने में रखी
लाल कवर वाली डायरी,
और डोरमेट के नीचे दबाई गयी चाबियां
पर नहीं जानती हो कि सीने की गहराइयों में
तुम्हारे लिए अथाह प्यार के साथ साथ
पल रही हैं
कितनी ही चिंताएँ,
मैं सौंप देती हूँ तुम्हे पसंदीदा गहने कपडे,
भर देती हूँ संस्कारों से तुम्हारी झोली,
पर बचा लेती हूँ चुपके से सारे दुःख और संताप
तब मैं खुद बदल जाना चाहती हूँ एक चरखड़ी में
और अपने अनुभव के मांजे को तराशकर
उड़ा देना चाहती हूँ
तुम्हारे सभी दुखों को बनाकर पतंग
कि कट कर गिर जाएँ ये
काली पतंगे सुदूर किसी लोक में,
चुरा लेना चाहती हूँ
ख़ामोशी से सभी दु:स्वप्न
तुम्हारी सुकून भरी गाढ़ी नींद से
ताकि करा सकूँ उनका रिजर्वेशन
ब्रहमांड के अंतिम छोर का,
इस निश्चिंतता के साथ
कि वापसी की कोई टिकट न हो,
वर्तमान से भयाक्रांत मैं बचा लेना चाहती हूँ
तुम्हे भविष्य की परेशानियों से,
उलट पलट करते मन्नतों के सारे ताबीज़
मेरी चाहत हैं कि सभी परीकथाओं से विलुप्त हो जाएँ
डरावने राक्षस,
और भेजने की कामना है तुम्हारी सभी चिंताओं को,
बनाकर हरकारा, किसी ऐसे पते का
जो दुनिया में कहीं मौजूद ही नहीं है,
पल पल बढ़ती तुम्हारी लंबाई के
मेरे कंधों को छूने की इस बेला में,
आज बिना किसी हिचक कहना चाहती हूँ
संस्कार और रुढियों के छाते तले
जब भी घुटने लगे तुम्हारी सांस
मैं मुक्त कर दूंगी तुम्हे उन बेड़ियों से
फेंक देना उस छाते को जिसके नीचे
रह पाओगी सिर्फ तुम या तुम्हारा सुकून
मेरी बेटी ………..
प्रेम कविता
ये सच है
तमाम कोशिशों के बावजूद
कि मैंने नहीं लिखी है
एक भी प्रेम कविता
बस लिखा है
राशन के बिल के साथ
साथ बिताये
लम्हों का हिसाब ,
लिखी हैं डायरी में
दवाइयों के साथ,
तमाम असहमतियों की
भी एक्सपायरी डेट
लिखे हैं कुछ मासूम झूठ
और कुछ सहमे हुए सच
एकाध बेईमानी
और बहुत सारे समझौते,
कब से कोशिश मैं हूँ
कि आंख बंद होते ही
सामने आये तुम्हारे चेहरे
से ध्यान हटा
लिख पाऊँ
मैं भी
एक अदद प्रेम कविता ………….
बड़े लोग
वे बड़े थे,
बहुत बड़े,
वे बहुत ज्ञानी थे,
बड़े होने के लिए जरूरी हैं
कितनी सीढियाँ
वे गिनती जानते थे,
वे केवल बड़े बनने से
संतुष्ट नहीं थे,
उन्हें बखूबी आता था
बड़े बने रहने का भी हुनर,
वे सिद्धहस्त थे
आंकने में
अनुमानित मूल्य
इस समीकरण का,
कि कितना नीचे गिरने पर
कोई बन सकता है
कितना अधिक बड़ा …………
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