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अखिल ईश की कविताएँ
कविता
एक वक्रोक्ति ने
टेढ़ी कर दी है सत्ता की जुबान
एक बिम्ब ने नंगा कर दिया है राजा को !
ढ़ोल नगाड़ो और चाक चौबंद
सैनिकों के आगे दर्प से चलते राजदंड़ को
एक हलन्त ने लंगड़ी मार कर
घूल घूसरित कर दिया है !
अलंकार उतार कर फेक दिये गये है
कसे गये है वीणा के तार
तांड़व की तैयारी में
ये जो दूध की बारिश हुई है सड़कों पर
वो राग भैरवी के कारण है
मल्हार तो पसीना निकाल लेता है
और एक बूंद तक नहीं देता पानी की !
शिल्प ने राजनीति के चेहरे पर कालिख पोत दी है
सामंती आंखो में खून उतर आया है
उससे बहते विकास के परनाले
दरिद्रता का कीचड़ पैदा कर रहे है सड़कों पर
रपट कर गिर रहे है, छटपटा रहे है,
मुक्ति मुक्ति चिल्ला रहे है अन्नदाता
एक सूखे श़जर के नीच अन्नपूर्णा
पांच मीटर लंबा कपास बट रही है !
कई चौधरियों की हड्डियां गड़ रही है
चौराहों पर
खूंटा बनकर
लार टपकाते कूकूर भोज समझ कर
इकट्ठा हो रहे है .
एक रूपक ने रामराज्य के सदरियों को
धोबी कहा हैं
बहुत दिनों के बाद एक कविता
नक्कारखानें में तूती बन गई है !
कायर
शेरवानी में दमकते सुपुत्र को पिता ने गले लगाया
सेहरा पहने बेटे की माँ ने ली बलैया
घुडचडी के पहले
मंत्रोच्चार के बीच पंडित जी ने
खानदानी तलवार
छोटे ठाकुर के कमर में बाँध दी
एक घर के सामने से गुजरी बारात
तो छत्रपति मिला नहीं पाये
छत पर खड़ी
एक लड़की से आंख
ठाकुर के बेटे को
आज फिर
एक चमार की बिटिया ने
कायर कहा .
वस्त्र
मेरे गांधी बनने मेरे तमाम अडचने हैं
फिर भी चाहता हूँ कि तुम खादी बन जाओ
मैं तुम्हें तमाम उम्र कमर के नीचे
बाँध कर रखना चाहता हूँ
और इस तरह कर लेता हूँ खुद को स्वतंत्र
घूमता हूँ सभ्यता का पहरूआ बनकर !
जबतक तुम बंधी हो
मैं उन्मुक्त हूँ
गर कभी आजाद हो
झंड़ा बन फहराने लगी
तो मै फिर नंगा हो जाऊँगा !
चरखे का चलना
समय का अतीत हो जाना है
अपनी बुनावट मे अतीत समेटे तुम
टूटे तंतुओ से जुड़ते जुड़ते थान बन जाती हो
सभ्यताओ पर चादर जैसी बिछती हो
और उसे बदल देती हो संस्कृति में
जैसे कोई जादूगर रूमाल से बदल देता है
पत्थर को फूल में !
इस खादी के झिर्री से देखो तो
तो एक बंदर, पुरुष में बदलता दिखता हैं
वस्त्र लेकर भागा है अरगनी से
बंदर के हाथ अदरक है
चखता है और थूक देता है .
घास
पाँवो तले रौदें जाने की आदत यूँ हैं
कि छूटती ही नहीं
किसी फार्म हाऊस के लान में भी उगा दिया जाँऊ
तो मन मचल ही जाता है
मालिक के जूती देख कर !
इस आदत के पार्श्व में एक पूरी यात्रा हैं
पूर्व एशिया से लेकर उत्तर यूरोप तक की
जिसे तय किया है मैने
कुछ चील कौवों के मदद से
मैं चील के चोंच से उतना नहीं डरता
जितना आदम के एक आहट से डरता हूँ
मैंने आजतक बिना दंराती लिये हुये आदमी नहीं देखा !
शेर भले रहते हो खोंहो में
पर बयां, मैना, कबूतर के घर मैंने बनाये हैं
मैंने ही पाला उन सबको
जिनके पास रीढ़ नहीं थी
मसलन सांप,बिच्छू और गोजर !
मैंने कभी नहीं चाहा
कि इतना ऊपर उठूं जितना ऊंचा है चीड़
या जड़े इतनी गहरी जमा लूं
ज्यो जमाता हैं शीशम
धरती को ताप से जितना मैंने बचाया हैं
उतना दावा देवदार के जंगल भी नहीं कर सकते
जिन्होंने छिका रखी हैं चौथाई दुनिया की जमीन !
मैं उन सब का भोजन हूँ
जिनकी गरदन लंबी नहीं हैं !
मैं उग सकता हूँ
साइबेरिया से लेकर अफ्रीका तक
मैं जितनी तेजी से फैल सकता हूँ
उससे कई गुना तेजी से
काटा और उखाड़ा जा रहा हूँ .
मैं सबसे पहला अंत हूँ
किसी भी शुरुआत का !
मैं कटने पर चीखता तक नहीं
जैसे पीपल,सागौन और दूसरे चीखते हैं
मेरे पास प्रतिरोध की वह भाषा नहीं हैं
जिसे आदमी समझता हो
जबकि उसे मालूम हैं कि मुझे बस
सूरज से हाथ मिलाने भर की देर हैं
ऐसा कोई जंगल नहीं
जो राख न कर सकूं !
मुझे काटा जा रहा है चीन में
मैं मिट रहा हूँ रूस में
रौंदा जा रहा हूँ
यूरोप से लेकर अफ्रीका तक
पर मेरे उगने के ताकत
और डटे रहने की जिजीविषा का अंदाजा नहीं है तुमको !
मैं मिलूंगा तुम्हें चांद पर
धब्बा बनकर
और हां
मंगल का रंग भी लाल हैं !
गिल्लू गिलहरी
जब झुरमुट तक नहीं होगा
और पानी वितरित होगा सिर्फ़
पहचान पत्र देखकर
बरगद,पीपल सब मृत घोषित कर दिये जायेगें
प्रकाश–संश्लेषण पर कालिख पोतते हुए
सागर सुखा दिया जायेगा
क्योंकि वो मृदुता से असहमत हैं
तो कविताओं में तुम
नीर भरी दुख की बदली
कहाँ से लाओगी महादेवी ?
जब जल विष बन जायेगा
और हर कंठ शंकर
अनुबंध पर ले लिए जायेगे सभी फेफडे
अमीर चिमनीयो के धुआं संशोधन हेतु
चींटियाँ अचेत हो जायेंगी कतारों में
चुटकी भर आटे के लिए
और तुम व्यस्त रहना
निबंधों में खूब अनाज बाँटना महादेवी !
अब मैं एक घूँट पानी नहीं पिऊँगी
न खाऊँगी एक भी काजू
जब तक तुम नदी,जंगल, जमीन
के लिए नीर नही बहाओगी !
फिक्रमंद गिल्लू गिलहरी ने
महादेवी से कहा !