अस्मिता पाठक की कविताएँ
वह सडक शांत हो चुकी है
तम और कोहरे में घुटकर
अब तुम अकेले
अपने घर तक का रास्ता कैसे नापोगी?
दरख्तों के पीछे छिपे जानवरों की आँखों की तरह
इनसानों की आँखें !
तुम्हें देखकर चमक सकती हैं
हवा के साथ उड़ते तुम्हारे लंबे बालों में
झलक रही तुम्हारी आज़ादी
तुम्हारी जैसी हर लडकी,
तुम्हारी जैसी हर औरत को ये आँखें चुभ सकती हैं
तुम रातों को,
इस तरह घूमोगी,
अकेले होकर,
अपने-आपको सबके आगे निडर साबित कर !
तुम हज़ारों घटनाओं की शिकार बन सकती हो !
बतियाने का विषय बन सकती हो !
वो सडक शांत हो चुकी है
अब तुम अपने घर का रास्ता कैसे नापोगी ?
तुम निडर नहीं बनोगी,
तुम आज़ाद नही होगी,
तुम खोटी रोशनी में खडे होकर,
भाई और पिता के आने का इंतज़ार करोगी.
अरे पहाड,
ज़रा सुनो तो!
तुम्हें याद तो है ना ?
आज मुझे लौटना है
तुमने अपने हर कोने से आने वाली,
ठंडी हवाओं को
राज़ी तो कर लिया है न
महानगर के मेरे छोटे से कमरे में
रहने के लिए?
तुम्हारे भीतर वह जो झील समाई है,
उसकी चुल-बुल, नाज़ुक हँसी को,
पोटलियों में बाँध देना
उन्हें अपनी बालकनी में सजाऊंगी
उसे कहना कि उदास न हो,
मैंने बरसातों से कहा है,
इस बार उसे फिर लबा-लब भर देंगी
और मुझे तुम्हारे आसमान से,
थोडा रंग दिलवा दोगे?
मैं अपनी सोई सी दीवारों को
फिर से जगाना चाहती हूँ !
वह गौरया,
जो तुम्हारे पेडों की टहनियों पर,
हर वक्त फुदकती है !
कहना तो उसे,
मेरे पास बहुत सा बाजरा है,
मेरे साथ चले
मैं फिर से चहचाहट का संगीत,
अपने कानों में भर लूँगी
अब देर हो रही है,
मैं चलती हूँ…
नाराज़ न होना,
तुम से इतना कुछ जो,
माँग रही हूँ.
सपना तो ,
रात की फैलाई काली स्याही में
विचारों की घनघोर उथल-पुथल में भी
मुझे खोज लेगा,
ताकि कह सके,
चलो उडने चलते हैं
मैं तुम्हें दिखाना चाहता हूँ
चाँद पर फुदकते छोटे-छोटे खरगोश
और बताना चाहता हूँ
कि सूरज पर खुशियों की ठंड भी है !
आओ उस मैदान में चलते हैं,
जहाँ कल्पनाओं की बरसात हो रही है,
तुम भीगना और देखना
कि हर बूँद कितनी नयी, कितनी
सुंदर है
और
इंद्रधनुष तो इन्हीं से मिलकर बना है !
क्यों न तुम सीखो कि
कैसे सफेद आसमान के हर कोने में,
थोडी लाली छिडकी जा सकती है,
और उल्लास को कुछ लम्हों के साथ मिलाकर,
धूप, चिडिया और बादल बनाए जा सकते हैं !
तुम झरने के पीछे की गुफाएँ या
लकडी का पुराना दरवाज़ा
न खोजना !
दूसरी दुनिया गुफा-दरवाज़ों से नहीं बनी,
जो हर किसी के लिए खुल जाए,
तुम बस आँखों से कहकर देखना,
वह तुम्हें सब कुछ दिखा देंगी.
तुम्हें पता है ?
बारिश बोल रही थी !
फीके रंग की एक दोपहर को,
गीली हवाओं को
चीरते हुए
तभी मेरी खिडकी के आगे
खडा पेड मुस्कराया था !
दो शब्दों की एक प्यास
कुछ डालियों की…
कुछ पत्तियों की ;
बुझाने को…
जो पिछले मौसम से अधूरी थी
तुमने देखा है ?
बारिश जादू करती है !
खाली सडकों को,
कुछ पल की
मीठी धडकन देने के लिए,
ताकि
तुम चलते-चलते
उसके ख्वाबों को न गुमा दो !
बस
यही वह भाषा है !
जिसमें बारिश कुछ कहती है
और मुझे सीखनी है यह भाषा.
ज़रा ठहर जाओ, नींद !
उजाला हो गया है
पर,
सूरज को आने में वक्त है अभी,
अभी-अभी तो चाँद बादलों पर,
रवाना हुआ है.
देखो,
कागज़ पर खींची गई
काली लकीरों की निगाहें,
मुझ पर नहीं है
बस, तब तक
कुछ देर,
मेरी पलकों के नीचे तुम छिप जाओ
समय रात-भर पहरा दे रहा था,
उसकी आँख लग जाने दो..
मुझे पता है,
यह गलत है,
पर…
आज परछाईयों से लडकर,
हवाओं की नज़रों से बचकर,
कुछ देर ठहर जाने दो
आलस को.
ठीक यहाँ,
तुम्हारी
और मेरी
आँखों में.
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अस्मिता पाठक
कक्षा – ११
एस. एस. चिल्ड्रेन अकाडमी
कांठ रोड, मुरादाबाद
२४४००१
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