• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » मंगलाचार : दर्पण साह

मंगलाचार : दर्पण साह

पिथौडागढ़ (उत्तराखण्ड) के दर्पण साह (जन्म : 3-09-1981) की कविताएँ देखें. लोकल और ग्लोबल के बीच हमारी युवा पीढ़ी की सहज आवाजाही है. इन युवा कविताओं में हिंदी कविता का नया मुहावरा आकार लेता दिखता है.      दर्पण साह की कवितायेँ                डॉक्टर ज़िवांगो को पढ़ते हुए (१) जब विश्व समाज […]

by arun dev
October 29, 2014
in Uncategorized
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें















पिथौडागढ़ (उत्तराखण्ड) के दर्पण साह (जन्म : 3-09-1981) की कविताएँ देखें. लोकल और ग्लोबल के बीच हमारी युवा पीढ़ी की सहज आवाजाही है. इन युवा कविताओं में हिंदी कविता का नया मुहावरा आकार लेता दिखता है. 
  

 दर्पण साह की कवितायेँ               

डॉक्टर ज़िवांगो को पढ़ते हुए
(१)
जब विश्व समाज सुधार की बात कर रहा था
जब पूरे संसार में क्रांतियाँ हो रहीं थीं
जब सारे देश जल रहे थे
और जब
एक अनंत काल तक चलने वाले युद्ध की तैयारियाँ चल रही थीं
तब मैं प्रेम में था.
वो सब मुझे धिक्कार रहे थे
मेरे इस कुकृत्य के लिए.
मुझे तब भी लगा
प्रेम सारी समस्याओं का हल है.
मैंने एक वैश्या के होठों को चूमा
और एक सैनिक की चिता में दो फूल चढ़ाए.
मैंने एक भिखारी के लिए दो आँसूं बहाए
और फिर,
मैं एक अस्सी साल के बूढ़े के बगल में बैठकर बाँसूरी बजाने लग गया.
न मैं कृष्ण था न नीरो.
(२)
अगर वादा करते हो कि ये क्रांति अंतिम है
तो भी मैं प्रस्तुत नहीं हूँ इसके लिए
क्यूँकि मुझ देखने हैं इसके दीर्घकालिक परिणाम
अगर कहते हो
ये चैन से बैठने का समय नहीं
और सारे राजनेताओं,कार्परेटों ने छीन ली तुम्हारी रोटी
तो बताओ कहाँ से खरीदे तुमने हथियार ?
जो तुम्हारी आत्महत्याओं के जिम्मेवार थे
तुम बन रहे उनकी हत्याओं के जिम्मेवार
सत्ता में जब तुम आओग
तो क्या एक और क्रांति नहीं होगी
तुम्हारे खिलाफ?
अगर तुम धर्म की खातिर लड़ रहे हो
तो बोलो
तुम्हारे ईश्वर ने क्यूँ बनाए अन्य धर्म
तुम जैसे अच्छे लोगों को ड्रग्स की डोज़ दी है तुम्हारे ईश्वर ने
बोलो कहाँ लड़ा जा रहा है संपूर्ण विश्व के लिए युद्ध
ऑल इन्कलूज़िव
सर्वजन हिताय
है एक ऐसी जगह
लेकिन उसके लिए पहले
बाँसूरी बजाना सीखना होगा
३.
फ्री विल
अगस्त का महिना हमेशा जुलाई के बाद आता है,
ये साइबेरियन पक्षियों को नहीं मालूम
मैं कोई निश्चित समय-अंतराल नहीं रखता दो सिगरेटों के बीच
खाना ठीक समय पर खाता हूँ
और सोता भी अपने निश्चित समय पर हूँ
अपने निश्चित समय पर
क्रमशः जब नींद आती है और जब भूख लगती है
इससे ज़्यादा ठीक समय का ज्ञान नहीं मुझे
जब चीटियों की मौत आती है, तब उनके पंख उगते हैं
और जब मेरी इच्छा होती है तब दिल्ली में बारिश होती है
कई बार मैंने अपनी घड़ी में तीस भी बजाए हैं
मेरे कैलेंडर के कई महीने चालीस दिन के भी गये हैं
मैं यहाँ पर लीप ईयर की बात नहीं करूँगा
मुक्ति और आज़ादी में अंतस और वाह्य का अंतर होता है.

४.
कैफ़े कैपेचिनो
तेरा लम्स ऐ तवील कि जैसे कैफ़े कैपचीनो
ऊपरी तौर पर
ज़ाहिर है जो उसका
वो कितना फैनिल
कितना मखमली
यूँ कि होठों से लगे पहली बार वो चॉकलेटी स्वाद कभी
तो यकीं ही न हो
कुछ छुआ भी था
क्या कुछ हुआ भी था?
जुबां को अपने ही होठों से फ़िराकर
उस छुअन की तसल्ली करता रहा था दफ़\’तन
कुछ नहीं और कुछ-कुछ के बीच का कुछ
एक जाज़िब सा तसव्वुफ़
तेरा लम्स ऐ तवील
और उसकी पिन्हाँ गर्माहट
जुबां जला लिया करता था
उस न\’ईम त\’अज्जुब से कितनी ही दफ़े
जब भी होती थी
पहली बार में कहाँ नुमायाँ होती थी वो
तेरा लम्स ऐ तवील
जिसका ज़ायका उसके मीठेपन से न था कभी
उम्मीदों की कड़वी तासीर हमेशा रही थी
बहुत देर तक
आज तक चिपकी हुई है रूह से जो
तेरा लम्स ऐ तवील
बेशक माज़ी की नीम बेहोशी का चस्मक
मगर जिसने ख्वाबों के हवाले किया हर बार
बस इख़्तियार नहीं रहता
इसलिए, उसे जज़्ब कर लिया
आख़िरी घूँट तक
वरना यूँ तो न था कि तिश्नगी कमतर हुई हो उससे
तेरा लम्स ऐ तवील
कि जैसे कैफ़े कैपचीनो
(लम्स-ऐ-तवील: दीर्घ स्पर्श, तिश्नगी: प्यास, तसव्वुफ़: mystical, त\’अज्जुब: आश्चर्य, न\’ईम: आनंद, चस्मक: Disillusion, जाज़िब-मनमोहक)

५.
फेसबुक भी उतना ही वर्च्युअल है जितना जिंदगी
जब से तुम जानते हो तभी से उस चीज़ का अस्तित्व होता है
दर्पण में बनने वाला प्रतिबिम्ब
वहाँ हमेशा ही होता है
कभी कनखियों से देखना
धीरे धीरे दबे पाँव जाकर
उसकी चोरी पकड़ लोगे तुम
तुम पहले से ही मौजूद थे वहाँ
आंसू की पहली बूंद इसलिए मीठी होती है
क्यूंकि उसका स्वाद होठों तक नहीं पहुंच पाता
कभी बस एक बूँद रोकर देखना
तुम जब घर में ताला लगा के घुमने जाते हो
गायब हो जाता है सारा सामान भी
कभी चुपके से बिन बताये आना
कुछ नहीं मिलेगा वहाँ
घर भी नहीं
कभी हुआ है ऐसा कि अनजाने में
तुमने दूसरी ही चाबी से खोल डाला ताला
कितनी ही बार तो हुआ है कि
तुम सोये घर में उठे ट्रेन की किसी बर्थ में
तुमने पूछा फिर तुम कैसे आये यहाँ
और किसी बहाने ने बनाई रखी कंटीन्यूटी
लॉकर में रखा सामान इतनी सिक्युरिटी के बावज़ूद
वहाँ तुम्हारे देखने के बाद ही उपस्थित होता है
तुम जानते हो कि तुम पचासवीं मंजिल से कूद नहीं सकते
इसलिए वहाँ से केवल मरने के वास्ते कूदते हो
वरना लियोनार्डो को कभी चोट न लगती
वरना कीड़े खाकर उड़ने लगती
न्यूटन की बहन
तुमने जाना है समय को
जैसा उन्होंने तुम्हें बताया
वरना तुम्हारे पास जीने के अनंत क्षण होते
तुमने जाना है रंग
वरना कोई लाल भी कभी लाल होता है भला
तुमने जाने हैं शब्द
इसलिए तुम्हें फूलों की नस्ल जाननी है
और उच्चारित करना है \’अवसाद\’
तुम्हारे कोंस्पेट, तुम्हारा विज्ञान बड़ा रुढ़िवादी है
जैसे फेसबुक में कोई लाइक का बटन दबाये
और तुम आनन्दित होते हो
वैसा ही है तुम्हारा प्रेम
और ये बुरा नहीं
फेसबुक भी उतना ही वर्च्युअल है जितना जिंदगी
पानी का गीला होना ज़ादू नहीं अगर
तो हवा में लटके रहना भी असम्भव नहीं.
_________________
darpansah@gmail.com/+91 955-553 (2559)
ShareTweetSend
Previous Post

सनी लिओने: विष्णु खरे

Next Post

सबद – भेद : स्थानीयता-बोध : सतीश जायसवाल

Related Posts

पुरुरवा उर्वशी की समय यात्रा:  शरद कोकास
कविता

पुरुरवा उर्वशी की समय यात्रा: शरद कोकास

शब्दों की अनुपस्थिति में:  शम्पा शाह
आलेख

शब्दों की अनुपस्थिति में: शम्पा शाह

चर्यापद: शिरीष कुमार मौर्य
कविता

चर्यापद: शिरीष कुमार मौर्य

अपनी टिप्पणी दर्ज करें Cancel reply

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2022 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक