• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » मंगलाचार : पल्लवी शर्मा

मंगलाचार : पल्लवी शर्मा

पल्लवी शर्मा प्रक्टिसिंग आर्टिस्ट हैं और कैलिफ़ोर्निया में विगत १८ वर्षों से रह रहीं  हैं. उनकी  कृतियां राष्ट्रीय – अंतर्राष्ट्रीय  स्तर पर प्रदर्शित हुई हैं और पसंद की गयी हैं. संत्रास, व्यर्थता बोध, अवसाद, खालीपन  और इस तरह की तमाम अनुभूतियों के बीच आज हम जी रहे हैं. पल्लवी शर्मा  की इन कवितायेँ में सघन अनुभव के अछूते […]

by arun dev
December 8, 2015
in Uncategorized
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें





पल्लवी शर्मा प्रक्टिसिंग आर्टिस्ट हैं और कैलिफ़ोर्निया में विगत १८ वर्षों से रह रहीं  हैं. उनकी  कृतियां राष्ट्रीय – अंतर्राष्ट्रीय  स्तर पर प्रदर्शित हुई हैं और पसंद की गयी हैं.
संत्रास, व्यर्थता बोध, अवसाद, खालीपन  और इस तरह की तमाम अनुभूतियों के बीच आज हम जी रहे हैं. पल्लवी शर्मा  की इन कवितायेँ में सघन अनुभव के अछूते बिम्ब आपको दिखेंगे.
पल्लवी शर्मा की कविताएँ                               
_________________________________
ll सजावटी सामान ll 

जी लेती है वह थोड़ा पानी पी पी कर
लाल सुर्ख होठ, नकली मुस्कान
दवा के असर से
धुंधलका है आँखों के सामने
कैसे देख पाती
स्याह सफ़ेद सच्चाई को
जानवर के नाखुनो से भी सख्त
लम्बे प्लास्टिकी रंगीन नाखूनों से
रिझाती अपने आप को 
पल्लवी शर्मा 


शरमा जाती अपने खालीपन पर
सिसकती जाती
थोड़ा पानी पी पी कर
साँझ सवेरे नुकीली ऐड़ी वाली
सैन्डल  पर सवार
घुमती दिन-दिन भर
जीवन की तलाश में 


हड्डियों के निकल जाते दम
और रोगग्रस्त शारीर को
रात में दफ़न कर देती बिस्तर में
अविकसित, अर्धविकसित
अनकही, अनचाही
बन-बन के बिगड़ने वाले
कागज के रेखांकन हैं ये
रंग के बाद
एक घर, एक दीवार
एक देखनेवाले की तलाश
सजावटी सामान की तरह
बाज़ार में बिकने को तैयार हैं ये

जी लेती है वो थोड़ा पानी पी पी के
लाल सुर्ख होठ नकली मुस्कान.

ll परतदार अनुभव ll
एक अर्थ है 
जो शब्द ढूढ़ रहा है
गली मुहल्ले में
चारपाई के नीचे रखे पानी के लोटे में 
नीले प्लास्टिक की बोतल में जमें गोले के तेल में
जिस पर नारियल का पेड़ बना है
विदेशी सैलानियों के लालायित लम्बे थैले में
संगीत के चौंग-भौंग में
कलाकृतियों के नामाकरण में
चौराहे पर लगे बिलर्बोडस में
थक हार के परतदार अनुभव 
बैठ जाता है कोने में 
एक शब्द काफी नहीं है
उस बीते बसंत के लिए 
प्यासी फसलों 
और कम्बल में लिपटी उस सर्दी के लिए
जो मौसम के बदलने के बाद ही जाती है.

ll पोरस मन ll 
अनन्त  इच्छाएँ 
उपरी परत के सूक्ष्म छिद्रों से बहार निकल कर 
कहती हैं अंदर की आँखों देखी
हाड़-माँस 
गुर्दा मस्तिष्क और पता नहीं क्या-क्या
एक प्राण दो देह
सात समुंद्र 
नवो ग्रह
गुत्थियों के भीतर 
उलझे बैठे हम सभी 
दिमाग की नसें कस कर बंधी हैं चारपाई से
जीभ  सकपकाता है दाँतों के बीच
कंठ और तालु सभी अपनी जगह हैं
एक वैकल्पिक विचारधारा के सहारे
आयेगा बदलाव यह सोच
धमनियाँ और शिरायेँ  निरन्तर कार्यरत हैं
कायदे कानून और परम्पराओें से परे 
गिलबिली पित्त की थैली में बंद है
हरे पीले रंग
माँस पेशीयों के नीचे दबी है
कई फीट लम्बी भूख  
दिन रात धौंकनी सा धड़कता दिल
पसीने से लथपथ
नई उर्जा लिए प्रतिदिन उगता है 
पूरब से 
ढलने पश्चिम  की ओर.
पल्लवी शर्मा 

ll प्रवाही ll
मन रेशम सा होता है 
तो कीड़े सा 
कुलबुलाने लगता है
कुछ सोच कर..  रूक जाता 
तो कभी ताने बाने बुनने लगता है 
नई पुती  दिवार सा 
कील कांटियों को गाड़
छत को कंधा दे
मौन खड़ा हो जाता है
जब कचोटने लगती हैं पुरानी बातें
बिना चप्पल पगडंडियों पर 
हवा से बाते करता
मेघों से सर को ढक 
वहीं रेहट के पास 
पानी सा बह जाता है.

ll मानसी गंगा ll
बचपन से देखा है 
मानसी गंगा को
शांत 
इतना शांत …   
कि गहराई का कोइ अंदाजा न लगा सके
तल भरा पड़ा  है 
टूटी हुई चूड़ियों 
खेरीजों और कीचड़ में  धंसे 
कीमती धातु  के देवी देवताओं से
कछुओं के कई दस्ते रहतें हैं 
अपने खोल से सिर बाहर निकाल 
बेधड़क गश्त लागतें  हैं 
इस पार से उस पार तक 
आटों की गोलियों पे 
धावा बोलतें हैं एक साथ
इनमें से कई मांसहारी हैं
चन्दन तिलक लगाए
हमेशा  ताक में रहतें हैं 
बेबस और लाचारों के
भरी दुपहरिया   में 
इसका  रंग हलका 
और गहराई…  मानो  दुगनी हो जाती है
घाट के पत्थर  गर्म तवे से हो जाते  हैं  
प्यासे पक्षी 
मानसी गंगा में जा मिलने वाली 
मोरियों से गिरते पानी का आचमन करते 
कुत्ते जीभ  लटकाए मंदिर से बहते दूध का आनन्द लेते 
पाँड़े -पुरोहित दिवार की छाया में सुसताते हैं 
साँझ होते ही धुरंधर तैराक कूद पड़ते 
बुर्ज़ से पानी में
शव की तरह छहलते 
विलीन हो जाते
तो कभी चमत्कारी साधु बाबा की तरह
साक्षात प्रकट हो जाते 
अथाह जल के मघ्य में 
रात्रि में  
पानी में टिमटिमाते 
छोटी बड़ी  
रंग बिरंगी लाइटों के प्रतिबिम्ब 
सबकुछ चित्रवत प्रतीत होता है
पर अनवरत …  घंटो और घडि़यालों की नाद
झकझोर देती है 
शांत जल को
काले बालों में बिंधी हुई
एक लम्बी श्रृंखला इच्छाओं की
आँख बंद कर 
डुबकी लगाते ही
भीगे देह से सट कर खड़ी हो जाती हैं 
मनोकामनाएँ बहु बेटियों की
आंखों को मीच कर
धीमे स्वर में 
तीव्र गति से 
कह देतीं हैं..  
अपने मन-गुन की बात
विसर्जित कर देती हैं मानसी गंगा में 
पीले गेंदे के फूल 
दीपों की माला 
और…  सारे अवसाद.  

 ___________

Born in India, Pallavi immigrated to USA in 1997. She received her BFA and MFA from the Faculty of Fine Arts, Baroda, India and her Ph.D. in Art History from India\’s National Museum Institute of History of Art and Conservation.  She is a multidisciplinary artist and her research interest concerns Asian American women\’s cultural production, feminist pedagogy and activism.

She has exhibited her work nationally at various venues including the Queens Museum of Art, Aicon Gallery, NY, Bishop Museum, HI, and Women Made Gallery, IL, College of Integral Studies, CA. She is a Board member of Asian American Women Artist Association (AAWAA). Director and founder of ‘Inner Eye Art’ a non- profit Art Organization, and Art Consultant at “Art Core” an Art Consulting firm based in San Francisco Bay area.
nnereyeartsf@gmail.com
ShareTweetSend
Previous Post

विष्णु खरे : अपनी सिने-दुनिया और ‘’असहिष्णुता’’

Next Post

नामवर सिंह की पुस्तक ‘कहानी नई कहानी’: राकेश बिहारी

Related Posts

पुरुरवा उर्वशी की समय यात्रा:  शरद कोकास
कविता

पुरुरवा उर्वशी की समय यात्रा: शरद कोकास

शब्दों की अनुपस्थिति में:  शम्पा शाह
आलेख

शब्दों की अनुपस्थिति में: शम्पा शाह

चर्यापद: शिरीष कुमार मौर्य
कविता

चर्यापद: शिरीष कुमार मौर्य

अपनी टिप्पणी दर्ज करें Cancel reply

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2022 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक