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समालोचन

Home » मंगलाचार : सुदर्शन शर्मा

मंगलाचार : सुदर्शन शर्मा

बोधि प्रकाशन की कवि ‘दीपक अरोड़ा स्‍मृति पांडुलिपि प्रकाशन योजना’ के अंतर्गत इस वर्ष के चयनित कवि हैं, अखिलेश श्रीवास्तव और सुदर्शन शर्मा. अखिलेश की कविताएँ आप समालोचन पर पढ़ चुके हैं. सुदर्शन शर्मा की कविताएँ आपके लिए. आज ही दोनों कविता संग्रहों का लोकार्पण भी है. बधाई कवि-द्वय को और माया मृग को भी […]

by arun dev
September 15, 2018
in Uncategorized
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बोधि प्रकाशन की कवि ‘दीपक अरोड़ा स्‍मृति पांडुलिपि प्रकाशन योजना’ के अंतर्गत इस वर्ष के चयनित कवि हैं, अखिलेश श्रीवास्तव और सुदर्शन शर्मा. अखिलेश की कविताएँ आप समालोचन पर पढ़ चुके हैं. सुदर्शन शर्मा की कविताएँ आपके लिए.
आज ही दोनों कविता संग्रहों का लोकार्पण भी है. बधाई कवि-द्वय को और माया मृग को भी जिन्होंने दीपक अरोड़ा की स्मृति में यह सार्थक परम्परा चला रखी है.
सुदर्शन शर्मा की कविताएँ                 





पिता के मौन पर

तुम्हारे लिए निश्चित ही सुखद रहा होगा
हज़ारों बार मेरे कूप मौन का अनुवाद करना.
सैंकड़ों बार मैंने कहा होगा
पानी को हवा,
हवा को पत्ती,
पत्ती को रोटी
और रोटी को पानी,
और एक बार भी नहीं चूके होगे तुम.
पचासों बार मैंने कहा होगा, \”राहत\”
और तुम जान गए होगे दर्द.
बीसियों बार मेरी मुस्कान ने कहा होगा, \”हल्का ही है\”,
और तुमने अपने कंधे पर ले लिया होगा बोझ.
आँख सूखी रख
जतन से जब मैंने कहा होगा, \”ठीक हूँ\”,
मेरा एक आँसू तुम्हारे ही भीतर टपका होगा, कहीं.
मेरे पास नहीं है
तुम्हारी चुप का अनुवाद.
क्योंकि मैं तुम नहीं हूँ.
मैं पिता नहीं हूँ.
इससे पहले कि बधिर हो जाए मेरी संवेदना
मौन नहीं रहो,
बोलो पिता!!

मध्यम मार्ग

उसके जाने के बाद
लंबे समय तक
मैं उन चीज़ों से मिलती रही
जो उस से बावस्ता थीं
जैसे उसके शहर जाकर थम जाने वाली रेल,
उसके शहर को चीर कर
आगे निकल जाने वाली नदी,
उसके शहर से उड़ कर
मेरे शहर आ उतरे
परिंदों के झुंड,
अखबार की बेस्वाद ख़बरें,
उधर से इधर आती खाली मानसूनी हवाएं,
इधर से उधर जाते
भरे-भरे मावठ के मेघ
मुझे लगता था,
अब भी लगता है
कि वो सब पहचानते थे
मेरे स्पर्श में उसके
स्पर्श की गंध
इनमें से किसी को भी चुन कर
मैं कभी भी पहुंच सकती थी
उसके शहर
और धीरे से पीठ पर धौल जमा कर
कह सकती थी,
थप्पा
अब तुम्हारी डाईं
मगर मैंने हमेशा नदी को चुना
और सोचती रही
नदी के देह पर यदि सभ्यता के बांध न बने होते
तो मैं डूब कर पहुंच सकती थी
वहां तक
जहां नारंगी जाल डाले
वो करता है प्रतीक्षा
बड़ी सी रोहू के फंस जाने की
प्रेम हो या जीवन
मैं कभी नहीं चुन पायी
मध्यम मार्ग !!

गिलोटिन

वादा रहा
कि ज़िन्दगी से पहली फुर्सत पाते ही
एक प्याली चाय ज़रूर पीऊँगी
तुम्हारे साथ
और सुनूंगी तुम्हारी कहानी
जो छूट गई है अधूरी आज
याद रखना
जहाँ नायिका बिना कुछ कहे
सर रख देती है
गिलोटिन के नीचे
वहाँ से आगे शुरू करना है तुम्हें
हो सकता है तब तक
मैं भूल भी जाऊँ
पीछे की कहानी
मगर उस से कोई फर्क नहीं पड़ता
नायिका के गिलोटिन पर सर रखने तक
एक जैसी होती हैं
सभी कहानियाँ
दिलचस्पी तो आगे बनती है
कि नायिका का निर्दोष होना जान कर
क्या मना कर देगा गिलोटिन
कलम करने को
सर उसका
अथवा मेरी तरह
वो भी सोचेगा
कि उसका काम है सर कलम करना
निर्दोष भी
और
सदोष भी
सस्पेंस यही है
कि कौन ज़्यादा ज़िन्दा है
मैं
या
तुम्हारी कहानी का गिलोटिन
ख्याल रखना
जहाँ नायिका बिना कुछ कहे
सर रख देती है
गिलोटिन के नीचे
वहाँ से शुरू
करना है
तुम्हें.

डेटाबेस

आंकड़ों में शुमार नहीं होतीं
ख़ुदक़ुशी कर चुकीं
बहुत सी औरतें
औरतें
जो ख़ुद को मार कर
सजा देती हैं बिस्तर पर
पूरे सोलह सुहाग चिन्हों के साथ
औरतें
जो जला कर मार डालती हैं ख़ुद को
रसोईघर में
और बेआवाज़ पकाती रहती हैं
सबकी फरमाइश के पकवान
औरतें
जो लांघ गई थीं कभी
खींची गई रेखाएँ सभी
प्रेम के अतिरेक में ….
और डूब मरी थीं
रवायतों के चुल्लु भर पानी में
अब भी तैरती रहती हैं
घूरती आँखों के समंदर में
सुबह से शाम तक
मुर्दा रूहों पर
तेजाब से झुलसे
चेहरे चढ़ाए औरतें
कीमत की तख्ती थामे
मण्डी में खड़ी
कलबूत औरतें
बहुत-बहुत सारी
आत्महत्यारिन औरतें
जिनकी कभी कोई गणना नहीं हुई
मुकदमे दर्ज हुए
पर सुनवाई नहीं हुई
सज़ा हुई
पर रिहाई नहीं हुई
शायद रेल की पटरी पर लेटी,
दरिया के किनारे खड़ी
या
माचिस घिसने को तैयार
औरत के पास है
इनका डेटाबेस!!

तंग घरों की औरतें

मेरे आसपास कुछ बेहद तंग घर हैं
जिनमें चलते चलाते
दीवारों से भिड़ जाती हैं औरतें
या शायद औरतों से भिड़ जाती हैं दीवारें
ज़ख़्मी औरतें छुपाती हैं
चेहरे, पीठ और बाजू पर उभरे
नील के निशान
कहती हैं
घर तो बहुत खुले हैं
उन्हें ही नहीं है
चलने का शऊर
मैं कहती हूँ
हौसले का एक धक्का लगाओ
खिसकेंगी दीवारें
औरतों के पांवों के नीचे नहीं है पर
टुकड़ा भर ज़मीन,
जिस पर पैर जमा
धकेल सकें
दीवारों को,
सांस लेने भर अंतर तक
मर्द हंसते हैं
जब मैं छोटी अंगुली के नख से खुरचती हूँ,
मर्दों के जूतों के तलों से चिपकी
घरों की ज़मीन
मैं कहती हूँ
सुनो!
इसमें एक हिस्सा औरतों का भी है.

गोपनीय सूचनाएं

मुझ पर आरोप है
कि मैंने सार्वजनिक की हैं
ईश्वर से संबंधित
कुछ अति संवेदनशील
और गोपनीय सूचनाएँ
मसलन मैंने लोगों को इत्तला दी
कि अर्से से
किसी जानलेवा रोग से ग्रस्त है ईश्वर,
और अपनी आख़िरी साँस से पहले चाहता है
तमाम इबादतगाहों को
तालीमी इदारों में तब्दील करना,
जहाँ मुहैया हो
सबक आदमियत का
जाने से पहले
ईश्वर बदलना चाहता है
परिभाषा
जायज और नाजायज की,
और करना चाहता है
अदला बदली
कुछ तयशुदा किरदारों की
ईश्वर घिरा है अपने नुमाइंदों से
जो चाहते हैं
शीघ्र मर जाए ईश्वर
इस लिए बंद कर दिए गए हैं
सभी रास्ते \’उसके\’ घर तक,
तुम्हारे साथ साथ
वैद्यों हकीमों के लिए भी
संभव है
आरोपों के चलते
जलावतन कर दिया जाऊँ मैं,
और सिद्ध होने पर
वंचित कर दिया जाऊँ
अपने नाम और उपनाम से भी
दोस्तो!
मेरी कलम से रखना तुम
पहचान मेरी.



जिजीविषा

हिम प्रलय के बाद बर्फ से झाँकती ख़ुश्क सी नम
डाली पर जो पहला पत्ता निकलेगा,
निश्चित तौर पर
वो स्त्री होगा.

________________
sudarshan.darshan.sharma@gmail.com

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