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समालोचन

Home » मंगलेश डबराल : दिस नंबर दज़ नॉट एग्ज़िस्ट : धीरेन्द्र कुमार

मंगलेश डबराल : दिस नंबर दज़ नॉट एग्ज़िस्ट : धीरेन्द्र कुमार

इधर की कविता में सक्रिय युवा पीढ़ी को मंगलेश डबराल ने बहुत प्रभावित किया है. देखने में शांत, संयमित, बोलने में संकोच के साथ हिचक का सादापन लिए मंगलेश खुलने पर उतने ही गम्भीर, सतर्क और सख्त मिलते थे. राजनीति और धर्म के खतरनाक गठजोड़ की शातिर चालाकियों पर वह लगभग रोज ही गद्य में […]

by arun dev
December 11, 2020
in आलेख
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इधर की कविता में सक्रिय युवा पीढ़ी को मंगलेश डबराल ने बहुत प्रभावित किया है. देखने में शांत, संयमित, बोलने में संकोच के साथ हिचक का सादापन लिए मंगलेश खुलने पर उतने ही गम्भीर, सतर्क और सख्त मिलते थे. राजनीति और धर्म के खतरनाक गठजोड़ की शातिर चालाकियों पर वह लगभग रोज ही गद्य में भी लिखते थे. उनकी कविता में तो समय का क्षण-क्षण विद्रूप और बनैला होना दिखता ही था. निराश और असहाय होने की धुंध सी छाई रहती थी. अभी वह लिख ही रहे थे.

हिन्दी का साहित्य वंचित और फक्कड़ लोगों द्वारा लिखा गया अधिकतर है. इसकी गहरी नींव भारतेन्दु ने घर फूँककर डाल दी थी. इसमें लेखक खुद को धीरे-धीरे जलाता रहता है. खड़ी बोली को भाषा में बदलने की असल कीमत इसके लेखक चुका रहें हैं.

अब जब वह नहीं हैं, उनकी ही कविता की एक पंक्ति के सहारे कहूँ कि ‘‘दिस नंबर दज़ नॉट एग्ज़िस्ट’तब कविताएं अस्तित्व में रहेंगी, उनपर सोच विचार का सिलसिला इस तरह से  मंगलेश डबराल को भी जिंदा रखेगा.

समालोचन की तरफ से श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए युवा लेखक  धीरेन्द्र कुमार को पढ़ते हैं कि  युवा कैसे कवि मंगलेश डबराल को देखते हैं. 

 

 

मंगलेश डबराल
वह जो कवि है, पहाड़ से मैदान में आया था                           
धीरेन्द्र कुमार

 


पहाड़ हो या मैदान, कविता में मनुष्य विरोधी वातावरण के विभिन्न अनुभव संसार को बिना चीखे, चिल्लाये सधी जबान में दर्ज करने का नाम है, मंगलेश डबराल. समकालीन कविता का एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर, जिसके बगैर समकालीन कविता पर की गयी हर बहस अधूरी होगी! मंगलेश डबराल की कविता सत्तर के दशक के बाद के भारतीय समाज का एक अनिवार्य पाठ है.

अपने लम्बे कवि–कर्म के दरम्यान इनकी निगाह हर उस परिघटना पर रही, जिसने हमारे जीवन को, समाज को परोक्ष–अपरोक्ष प्रभावित किया. वह नक्सलवादी आन्दोलन के बाद बदला सामाजिक राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवेश हो या इमरजेंसी के दौरान बंधक बने जुम्हूरियत की कराह. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद संप्रदाय विशेष का कत्लेआम हो या बाबरी विध्वंश की घटना, जिसने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच फासले बढ़ा दिए. भारत में भूमंडलीकरण की संसदीय स्वीकृति हो या आत्मनिर्भर किन्तु अकेली और डरी पीढ़ी का अभिशप्त जीवन. पीछे छूट गये गांव–घर और अपने परिचितों की स्मृति की दुखती रग हो या समाज में हर तरफ फैला विश्वास का संकट. मंगलेश डबराल की कविताओं में इन सब की गूँज सुनी जा सकती है.

पहाड़ से उतरा यह कवि अपनी कविताओं के माध्यम से मानवता की आखिरी सीढ़ी चढ़ना चाहता है. पहाड़ से कई रचनाकार हुए हैं लेकिन उनकी रचनाओं में आया पहाड़ अलग–अलग है. सुमित्रानंदन पन्त का पहाड़ ‘पल–पल परिवर्तित प्रकृति वेश’ है. उनके लिए पहाड़ का मतलब प्रकृति है, वहां का जनजीवन नहीं. जनजीवन अगर आया भी तो ‘अहा! ग्राम्य–जीवन’ के रूप में. ऐसी रूमानियत के मारे अन्य रचनाकार भी हुए हैं, जिन्होंने पहाड़ की खूबसूरती को ही देखा, गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी, जीविका का अभाव, विस्थापन, शोषण आदि पैबंद के रूप में पहाड़ के जीवन से जो चिपके हुए हैं, वो उनकी निगाहों से ओझल रहा. पहाड़ के इस कुरूप चेहरे को सामने लाने का काम मंगलेश डबराल ने किया. पहाड़ में बेपनाह सौन्दर्य है लेकिन सिर्फ उस सौन्दर्य की बात करना अधूरे पहाड़ को समझना है. अपने पहले के रचनाकारों से मंगलेश डबराल इस अर्थ में अलहदा हो जाते है कि उन्होंने पहाड़ को आधा–अधूरा नहीं, पूरा उभारा है. पहाड़ का वह स्वरुप उनकी कविताओं में यूं दर्ज हुआ है–

“पहाड़ पर चढ़ते हुए
तुम्हारी साँस फूल जाती है
आवाज़ भर्राने लगती है
तुम्हारा कद भी घिसने लगता है
पहाड़ तब भी है जब तुम नहीं हो.”

(पहाड़ पर लालटेन पृ .42)


विस्थापन जबरदस्ती ही नहीं होता. जीविका की मजबूरी में यह चुना भी जाता है. मंगलेश डबराल का शहर आकर अपना ठिकाना खोजना एक ऐसा ही विस्थापन है. शहर जगह नहीं एक मूल्य है, एक संस्कृति है, एक नजरिया है. मंगलेश अपनी पुस्तक‘लेखक की रोटी’ में लिखते हैं कि  

“1970के आसपास जब मैं अपने जैसे कई लोगो की तरह लगभग भागा हुआ, लगभग विस्थापित दिल्ली शहर में रोजी–रोटी और एक ज्यादा बड़ी दुनियाँ की तलाश में आया तो वह पहाड़ की यातनाओं का पीछे छूटना और मैदानों की यातनाओं का शुरू होना था.”(पृ.144)

आठवें दसक में हिंदी कविता के कथ्य और शिल्प के स्तर पर एक बड़ा बदलाव देखा गया. घर, परिवार, चिड़िया, पेड़, फूल, आदि विषयों पर कविताएँ लिखी जाने लगीं. व्यक्ति के दुःख-सुख को कविता के केंद्र में लाया गया. दरअसल अस्सी के दशक में अन्य कवियों के भावबोध में भी बदलाव देखा गया. इन कवियों की कविता में रोजमर्रा की ज़िन्दगी से जुड़े सवाल गूंजने लगे. ये मानवीय संवेदना को बचाने के लिए घर-परिवार, स्त्री-बच्चे, पास-पड़ोस, पर्यावरण सुरक्षा एवं संघर्ष आदि का राग अलापने लगे. अब कविता में असीम के प्रति जिज्ञासा का भाव और ईश्वरीय तत्व बिल्कुल गायब था और इसकी जगह मेहनतकश व्यक्ति ने ले ली. मंगलेश ने निम्नवर्ग प्रति सहानुभूति ही नहीं अपितु मनुष्य और मनुष्य के बीच के जीवंत रिश्तों की तलाश की. 

मंगलेश की कविता साधारण वाक्यों में असाधारण अर्थ भरने की एक विनम्र कोशिश है. उनकी कविता पहाड़, नदी, नाले, वृक्षों की हरियाली, बादल, बरसात आदि के प्राकृतिक सौंदर्य की वकालत नहीं बल्कि पहाड़ की गरीबी, लोगों की ख़स्ता हालत, भयावह सुनसान, अंधकारमय जीवन, परछाइयों की विभिन्न सूरत, आँखों में तैरते सपने, व्यर्थ जाती श्रमशील देह में भी अपना सौंदर्य ढूंढ लेती है. इनकी कविताओं में जंगल से लकड़ी के गट्ठर लाती, मगर उन गट्ठर के नीचे बेहोश पड़ी औरतें हैं, जंगलों में हर रोज चलती हुई कुल्हाड़ियाँ हैं, जहाँ शांति नहीं रक्त सोया हुआ है, हजारों चिड़ियों की चहचहाहट से बनी स्मृतियाँ हैं, पत्थरों पर जंगली पशुओं के डरावने चेहरे हैं, पत्थरों के पीछे सिसकती हुई जवान औरतें हैं, प्रेम करती लड़कियां हैं, अपना अस्तित्व खोती हुई नदियाँ हैं, धरती और आकाश के बीच स्थित छायादार पेड़ हैं, झुर्रियों से भरी धीरे-धीरे सिकुड़ती आत्माएं हैं, असमय दफनाये गए बच्चे हैं, दोस्तों के पते ठिकाने एवं पुरानी चिट्ठियां हैं, दीमक लगे घर के दरवाजे हैं, आंधी में कांपते हुए मिट्टी के जर्जर कच्चे घर हैं, परदेश गए बेटे के लौट आने की अंधेरे में मदद मांगते पिता हैं, उदासी में डूबी माँ है, जीवन के संघर्ष में साथ न छोड़ने वाली पत्नी है, पाठशाला जाते हुए छोटे-छोटे बच्चे हैं आदि ऐसे न जाने कितने दृश्य एंव बिम्ब देखने को मिलते हैं, जिनसे मिलकर पहाड़ी जीवन हमारे सामने साकार होने लगता है. 

‘पहाड़ पर लालटेन’ शीर्षक एक ऐसी कविता है जो अपने अंदर पहाड़ के लोगों के दुख-दर्द को न केवल बयां करती है बल्कि पाठक का उससे सीधे साक्षात्कार कराती है. पहाड़ को देखने और वहां कुछ दिन लोगों की रहने की चाहत के विरूद्ध यह कविता वहां के यथार्थ से हमें अवगत कराती है. कविता पाठक की चेतना को झकझोर देती है. पहाड़ के विषय में व्यक्ति के अंदर जो सुन्दर स्वप्नों का भंडार है, यह कविता उस भ्रम से भी हमें मुक्त करती है. वहां के लोगों के जीवन में झाँकने का अवसर प्रदान करती है. मंगलेश लिखते हैं-

“दूर एक लालटेन जलती है पहाड़ पर
एक तेज़ आँख की तरह
टिमटिमाती धीरे-धीरे आग बनती हुई
देखो अपने गिरवी रखे हुए खेत
बिलखती स्त्रियों के उतारे गये गहने
देखो भूख से बाढ़ से महामारी से मरे हुए
सारे लोग उभर आये हैं चट्टानों से
दोनों हाथों से बेशुमार बर्फ झाड़कर
अपनी भूख को देखो
जो एक मुस्तैद पंजे में बदल रही है
जंगल से लगातार एक दहाड़ आ रही है
और इच्छाएँ दांत पैने कर रही हैं
पत्थरों पर.”

 (पहाड़ पर लालटेन पृ.65)


मंगलेश के यहाँ पहाड़, पहाड़ भर नहीं है. वह पहाड़ में भी व्यक्ति के अक्सको खोजते हैं. पहले वह इच्छाओं के दांत पैने किये हुए था, पेड़ों, झरनों, चट्टानों, नदियों तथा पशु-पक्षियों से भरा हुआ था. जहाँ भूख थी, कंकड़-पत्थर थे मगर अब उस पहाड़ी जीवन का यथार्थ बदल रहा है. वहां की जमीन दिन-प्रतिदिन कठिन होती जा रही है-

“यह ज़मीन हर साल
और कठोर होती जाती है
पेड़ हर साल कुछ कम फल देते हैं
बच्चे दिखते हैं और भी दुबले
उनके माँ-बाप कुछ और कातर
मौसम बदल रहा है
रात किसी जानवर की तरह
गाँव को दबोचे हुए है
और नंगे पहाड़ पर चाँद चमक रहा है
अंधेरे में पिता मांगते हैं थोड़ी-सी मदद
अपने बुढ़ापे की शुरुआत में.”

(घर का रास्ता पृ.37)

 

मंगलेश के कविकर्म के सम्बन्ध में अरविन्द त्रिपाठी ने उचित ही लिखा है,

“मंगलेश के कविकर्म के साथ यह एक सुखद स्थिति है कि वे दिल्ली में रहते हुए भी दिल्ली से बाहर हैं. उनका कवि पहाड़ की कठिन ज़िन्दगी से अभी तक जुड़ा है, इसीलिए उनकी कविता एक कवि के अपने परिवेश से सीधे जुड़े रहने का आस्वाद देती है. उनकी कविता एक ओर अपने परिवेश का समग्र साक्षात्कार कराती है तो दूसरी ओर वहां के लोगों की संघर्षशील ज़िन्दगी, व्यवस्था के भयावह शोषण, प्रकृति के साथ वहां के जनजीवन की कठिन मुठभेड़ उनकी कविता को गहरी ऊर्जा देती है.”(अरविन्द त्रिपाठी- कवियों की पृथ्वी पृ.176-77)

दरअसल मंगलेश के प्रथम दो काव्य-संग्रहों में पहाड़ी जीवन के चित्र अधिक हैं लेकिन साथ ही साथ उनमें पहाड़ से शहर की ओर जो विस्थापन हुआ है, उसकी आहट भी सुनाई पड़ती है. सन 1969 में कवि शहर में रोजगार की तलाश में आता है. कवि के मन में शहर की जहालत भरी ज़िन्दगी को देखकर जो भाव उभरता है, उसी का चित्र ‘शहर-1’ कविता में दृष्टिगोचर होता है. यह कविता कवि के पूरी तरह नगरवासी हो जाने और पहाड़ अर्थात् गाँव वापस न लौट पाने की विवश स्वीकारोक्ति है-

“मैंने शहर को देखा और मैं मुस्कराया
वहां कोई कैसे रह सकता है
यह जानने मैं गया
और वापस न आया.”

(पहाड़ पर लालटेन पृ.43)

 

मंगलेश के प्रत्येक काव्य-संग्रह में शहर की गंध महसूस होती है लेकिन पहाड़ की गंध ‘पहाड़ पर लालटेन’ और ‘घर का रास्ता’ काव्य-संग्रहों को छोड़ दें तो बाद के संग्रहों में न के बराबर है. त्रिलोचन शास्त्री ने एक बार मंगलेश से कहा था कि

“तुम पहाड़ के अनुभव लेकर आये थे, लेकिन उन पर लिखना तुमने बंद कर दिया है. लगता है कि तुमने कोई अपना पहाड़ बना लिया है, एक बाधा की तरह.” (उपकथन पृ.69)

‘हम जो देखते हैं’ काव्य-संग्रह में पहाड़ न के बराबर है. यह पूरी तरह शहर को समर्पित है. लगता है यहाँ से कवि की पुरानी जमीन छूट रही है और नागर जीवन की कविता उसके कवि-कर्म के केंद्र में पहली बार दिखाई पड़ती है. इस संग्रह में पहाड़ कम और शहर की समस्याएँ अधिक हैं. 

मंगलेश की कविता शहरी जीवन के चकाचौंध में नहीं फंसती अपितु शहर के दुःख-दर्द और लोगों की सामाजिक दशा का यथार्थ चित्रण करती हैं. शहर में ऊब है, थकान है, अकेलापन है, औरतों के मुंह छिपाये हुए चेहरे हैं, सनसनीखेज़ ख़बरें हैं, टूटते रिश्ते हैं, अश्लीलता से भरी रातें हैं, चिल्लाते पागल हैं, गुमशुदा बच्चे हैं, खामोश किताबें हैं, मनचाही शक्लों में ढलते हुए लोग हैं. यही कारण है कि मंगलेश अपने पहाड़ और अपने लोक को बार-बार याद करते हैं-

“अच्छे-खासे तुम क्यों चले आये इस शहर
तुम जैसों के रहने की नहीं है यह जगह.”

(घर का रास्ता पृ.13)     


समकालीन हिन्दी कविता में मंगलेश का स्वर एकदम अलग है. उनका स्वभाव शांत, शालीन लेकिन अंदर से उतना ही बेचैन है. उनकी कविता शहर और उसकी प्रकृति को आसान शब्दों में व्यक्त करती है. वह शहर की प्रकृति, संस्कृति और ख़त्म होते मानवीय रिश्तों की आवाज को धीमे स्वर से उठाती है-

“तमाम संबंधों को विदा कर देने के बाद
मैं यहां उगा हूँ
जहाँ सारी ऋतुएँ समाप्त हो गयी हैं
धूप और समुद्र समाप्त हो गये हैं
थोड़ी देर के लिए मैं उगा हूँ यहां
जहाँ उजाला जाले की तरह चिपटता है
और समस्याएँ मेरी भूख के आगे
डाल देती हैं मेरा ही शरीर.”

(पहाड़ पर लालटेन पृ.28)


यह शहर की भयानक सच्चाई की कविता है. जहाँ मानवीय रिश्तों से लेकर प्रकृति को अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है. उजाला और भूख अपने स्वाभाविक अंदाज में न आकर शहर की गिरफ्त में जकड़े हैं. शहर सीटी बजाता है, लोगों को मनचाही शक्लों में ढालता है. वह व्यक्ति को अकेलेपन में रहने को बाध्य करता है. यहाँ हर रोज न जाने कितनी मनुष्यताओं का कत्ल किया जाता है. कवि हत्यारों से कड़े शब्दों में कहता है- 

“हत्यारों से कहा जाना चाहिए
कि एक भी मनुष्यता का मरना पूरी मनुष्यता की मृत्यु है.”

 (नये युग में शत्रु पृ.29) 


मंगलेश की कविता पहाड़ और मैदान(खासकर शहर) के जीवन संघर्ष की अद्भुत गाथा है. वह पहाड़ी जीवन का सशक्त दस्तावेज़ है. पहाड़ से शहर आए व्यक्ति के जीवन की विकट अकुलाहट का आख्यान है. वह मानवीय सरोकार और मूल्य रहित व्यवस्था का काव्य है और साथ ही स्वप्न, स्मृति, संगीत और मानवीयता की महीन आवाज़ के विभिन्न स्वरों का भण्डार है.

 _______



धीरेन्द्र कुमार की उच्च शिक्षा जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय नई दिल्ली से पूर्ण हुई है.  

संप्रति : असिस्टेंट प्रोफेसर/अमिटी विश्वविद्यालय, नॉएडा

मोबाइल नं : 7053817725

Tags: आलेखमंगलेश डबराल
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