प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने \’मढ़ी का दीवा\’ उपन्यास की तुलना तोल्स्तोय के उपन्यास ‘युद्ध और शांति’ से करते हुये अपने एक लेख में लिखा कि उन्नीसवीं शताब्दी में जब यूरोप में उपन्यास पतन की ओर जाने लगा तभी एक पिछड़े देश तथा पिछड़ी कही जाती भाषा के एक उपन्यास ने इसे चढ़त की ओर मोड दिया. यह उपन्यास था तोल्स्तोय की रचना ‘युद्ध और शांति‘ और भाषा थी रूसी. ऐसा ही कुछ भारतीय साहित्य के गद्य क्षेत्र में घटा जब भारतीय उपन्यास अपने शिखर से पतन की ओर जाने लगा तो बीसवीं सदी के छटे दशक में एक पिछड़ी कही जाने वाली भाषा ने इसे चढ़त की ओर मोड दिया. वह उपन्यास था ‘मढ़ी का दीवा’ और उसकी भाषा थी पंजाबी. रूसी भाषा में भी इस उपन्यास का अनुवाद हुआ और लगभग 10 लाख प्रतियाँ प्रकाशित हुई. राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम द्वारा निर्मित इसी उपन्यास पर आधारित फिल्म को राष्ट्रीय अवार्ड मिला. 2012 में उनके एक और उपन्यास ‘अंधे घोड़े का दान‘ पर बनी फिल्म पर भी सर्वोतम पंजाबी फिल्म नेशनल अवार्ड मिल चुका है.
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प्रो. चमन लाल के साथ गुरदयाल सिंह |
गुरदयाल सिंह के उपन्यास भारतीय जन–जीवन की एक सच्ची तस्वीर हैं. उनके उपन्यासों में हरे भरे खेत खलियानों, कुओं , तलाबों, ऊबड़ खाबड़ गलियों, कच्चे मकानों, पक्के चौबारों और जीते जागते घर आँगनों का यथार्थपरक ढंग से चित्रण हुआ है. गुरदयाल सिंह के लेखन की ताकत इस बात में थी कि उन्होने उन आम लोगों का पक्ष लिया है जिन्हें सदियों से ‘नीच’ कह कर तिरस्कृत किया जाता रहा है वह जगसीर, बिशना, रौनकी, साधू , मुंदर ,भानी, नंदी और सती जैसे पात्रों के संगी साथी हैं. यही किसी साहित्यकार कि मानवता कि कसौटी है. गुरदयाल सिंह मलवे के ग्रामीण परिवेश के सांस्कृतिक विवेक से जुड़े उपन्यासकार थे. उनके सभी उपन्यासों में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक प्रभावों को प्रमुख रूप से देखा जा सकता है. दलित जातियों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ, पाखंड, झूठ और परम्पराओं के नकार में उनकी लेखनी की आवाज़ मुखर थी.
गुरदयाल सिंह स्वतंत्र भारत के एक प्रतिनिधि उपन्यासकार थे. उनसे मिलना और उनके रचना संसार से होकर गुजरना दोनों ही अपने आप में अनूठे अनुभव थे. गुरदयाल सिंह के रचना संसार में विचारने का मौका उनके पहले उपन्यास ‘मढ़ी का दीवा’ से मिला. बाद में ‘अध चाँदनी रात’ पढ़ने को मिला और कुछ कहानियाँ. ‘परसा’ पंजाबी में प्रकाशित होते ही खूब चर्चित हुआ और उसे पहले पंजाबी में ही पढ़ा.
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वे नाराज़ भी होते. कोई एक सप्ताह पहले ही उनका फोन आया तो उन्होने पूछा कि अभी कितना काम बचा है. जल्दी करो अब मेरे पास समय नहीं है. लेकिन अपनी सीमाओं को तो हम ही जानते थे जिनके रहते यह काम उनके जीते जी संभव नहीं हो पाया. सच में मेरे अंदर यह अपराध बोध हमेशा रहेगा कि मैं उनकी यह अंतिम इच्छा उनके रहते पूरी नहीं कर पाया.
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