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Home » मति का धीर : चंद्रकांत देवताले

मति का धीर : चंद्रकांत देवताले

फोटो संदीप नायक के कैमरे से  २०१२ का साहित्य अकादेमी पुरस्कार वरिष्ठ कवि चंद्रकांत देवताले को उनके कविता संग्रह ‘पत्थर फेंक रहा हूँ’ के लिए दिया गया है. समालोचन की ओर से बधाई. कवि प्रेमचंद गांधी का देवताले के व्यक्तित्व और कृतित्व पर सारगर्भित आलेख, साथ में देवताले की कुछ प्रसिद्ध कविताएँ भी.   चंद्रकांत देवताले 7 […]

by arun dev
December 26, 2012
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फोटो संदीप नायक के कैमरे से 






२०१२ का साहित्य अकादेमी पुरस्कार वरिष्ठ कवि चंद्रकांत देवताले को उनके कविता संग्रह ‘पत्थर फेंक रहा हूँ’ के लिए दिया गया है. समालोचन की ओर से बधाई.
कवि प्रेमचंद गांधी का देवताले के व्यक्तित्व और कृतित्व पर सारगर्भित आलेख, साथ में देवताले की कुछ प्रसिद्ध कविताएँ भी.  





चंद्रकांत देवताले
7 नवंबर 1936, जौलखेड़ा, बैतूल (मध्य प्रदेश)
मध्यप्रदेश के विभिन्न राजकीय कालेजों में अध्यापन

कविता संग्रह-  हड्डियों में छिपा ज्वर (१९७३), दीवारों पर खून से (१९७५), लकड़बग्घा हँस रहा है (१९८०), रोशनी के मैदान की तरफ(१९८२), भूखंड तप रहा है(१९८२), आग हर चीज में बताई गई थी (१९८७), पत्थर की बैंच (१९९६), इतनी पत्थर रोशनी (२००२ ), उसके सपने (१९९७), बदला बेहद महँगा सौदा (१९९५), उजाड में संग्रहालय (२००३), जहां थोड़ा सा सूर्योदय होगा (२००८), पत्थर फेंक रहा हूँ (२०११)

आलोचना – मुक्तिबोध : कविता और जीवन विवेक
संपादन – दूसरे-दूसरे आकाश, डबरे पर सूरज का बिम्ब

अनुवाद – पिसाटी का बुर्ज (दिलीप चित्रे की कविताएँ, मराठी से अनुवाद)
सम्मान – मुक्तिबोध फेलोशिप, माखनलाल चतुर्वेदी कविता पुरस्कार, मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान, सृजन भारती सम्मान, कविता समय पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, पहल सम्मान,साहित्य अकादेमी पुरस्कार आदि.

कविताओं का सभी भारतीय भाषाओँ और कई विदेशी भाषाओँ में अनुवाद.
संपर्क –
एफ -२/७, शक्ति नगर, उज्जैन -४५६०१० 
09826619360
________________________________________

कुछ नहीं छूटता उनकी कविता से                                 
प्रेमचन्‍द गांधी

जिन बड़े कवियों को पढ़कर हम बड़े होते हैं, उनके प्रति एक किस्‍म का श्रद्धा भाव हमेशा के लिए मन में बहुत गहरे पैबस्‍त हो जाता है. मेरे लिए चंद्रकांत देवताले ऐसे ही कवि हैं. जब आप उन्‍हें पढ़ते हैं तो बारंबार चकित होते हैं और कई बार श्रद्धा के साथ रश्‍क़ भी पैदा हो जाता है कि काश हम भी इस तरह सोच पाते, लिख सकते. देवताले ऐसे कवि हैं जिनसे मिलकर आप जिंदगी से  भर जाते हैं. हिंदी में उन जैसा निश्‍छल और सरल कवि उनकी वय में मैंने नरेश सक्‍सेना को ही देखा है, हालांकिे दोनों में बहुत अंतर भी है, लेकिन मिलने पर प्रफुल्‍लता दोनों में बराबर देखने को मिलती है. करीब 25 बरस पहले देवताले जी की कविता से पहला परिचय हुआ था. तब तक मैं मुक्तिबोध जैसे अत्‍यंत कठिन कवि को पढ़ चुका था और सच कहूं तो उस वय में मुक्तिबोध को समझना तो क्‍या था, बस पाठ या कि पारायण करना था, जैसे अवधी जाने बिना भी देश भर में लोग तुलसी को पढ़ते रहते हैं. लेकिन मुक्तिबोध जैसी सघनता, बिंबों की लगातार आवाजाही और उस सबके बीच कवि की जिजीविषा के बावजूद देवताले जी की कविता में मेरे जैसे सामान्‍य कविता प्रेमी के लिए ऐसा बहुत कुछ था, जो सीखने, सोचने और समझने के लिए लगातार उनकी कविता को पढ़े जाने की मांग करता था.

देवताले जी की पहली किताब जो पढ़ी वह ‘लकड़बग्‍घा हंस रहा है’ थी.  मेरे पिताजी सूत मिल में काम करते थे. वे अक्‍सर बताया करते थे कि रात की पाली में काम करने वाले लोग मिल से अकेले नहीं आते हैं. वे भी कई बार अकेले होने पर मिल से सुबह होने पर ही आते थे. तब यह जयपुर इतना बसा नहीं था और पिताजी के अनुसार रात में लकड़बग्‍घा मिलने की संभावना रहती थी. उस लकड़बग्‍घे के डर से मेरे बाल-मन में एक अजीब दहशत बैठ गई थी. उपन्‍यासों और शायरी की दीवानगी वाले दिनों में हंसते हुए लकड़बग्‍घे का कविता में चित्रण पहली बार पढ़ते हुए महसूस किया कि कविता में कितने तरह के प्रतीकों से बात कही जा सकती है कि लकड़बग्‍घा रात में ही नहीं दिन के उजाले में  भी मनुष्‍य समाज में दहशत पैदा कर सकता है और हंसते हुए, लोगों का जीवन तबाह कर सकता है.
बहरहाल अकविता के उस दौर की कविताओं में मुझे सिर्फ देवताले जी की ही कविताओं ने प्रभावित किया. उनकी कविता में मुझे आश्‍चर्य होता है कि आज तक भी अकविता के दौर के कवियों की तरह कोई बदलाव नहीं आया, फिर वह बदलाव चाहे भाषा के स्‍तर पर हो या शिल्‍प और कला के स्‍तर पर. इसका मेरे लिए सीधा सा अर्थ है कि वे अपनी कविता के लिहाज से बिल्‍कुल भी नहीं बदले, जैसे कि कई कवि समय या कि चलन के लिहाज से बदलते रहे हैं. पर देवताले अपने आप को अकविता आंदोलन से नहीं जोड़ते हाँ उनकी एक कविता अकविता पत्रिका में जरूर छपी थी. जो गुस्‍सा, खीज, आक्रोश और गहरा मानवीय-राजनैतिक सरोकारी-स्‍वर उनकी कविता में दिखाई देता है, वह लगता है जैसे भारतीय आम आदमी का स्‍वर है, जो मुक्तिबोध की परंपरा में अपनी नई आवाज़ में व्‍यक्‍त होता है. देवताले जी की कविता आपको बेहद बेचैन कर देती है, उनके यहां मनुष्‍य की गरिमा का, मानवीय संबंधों के महात्‍म्‍य और देश के वंचितों के प्रति एक कवि के गहरे प्रेम का ऐसा अद्भुत और विरल चित्रण देखने को मिलता है कि आप कवि के साथ उन शब्‍दों पर भी गर्व करने लगते हैं, जिनमें कवि का अंतस साक्षात हो उठता है. वाह… ऐसी कविता हमारी भाषा में ही संभव है.
मेरी देवताले जी से पहली मुलाकात बहुत दिलचस्‍प ढंग से उस बस में हुई थी, जिससे हम 25 लोग सज्‍जाद ज़हीर जन्‍मशताब्‍दी के सिलसिले में पाकिस्‍तान जाने के लिए दिल्‍ली से वाघा जा रहे थे. दिसंबर की ऐसी ही कड़कड़ाती, हाड़ कंपाती सरदी थी. रात की गफ़लत में मैं भूल चुका था कि मेरा सामान बस में रखा भी गया कि नहीं. तब सुबह-सुबह देवताले जी ने ही आश्‍वस्‍त किया कि सामान सबके साथ तुम्‍हारा भी रखा गया होगा और नहीं भी हो तो वहां खरीद लेना, दस दिन के लिए चाहिये ही कितना. उन दस दिनों के दौरान मैंने देवताले जी को जितनी नज़दीकी और गहराई से जाना समझा, उससे उनके व्‍यक्तित्‍व और कवि को समझने में बहुत सहायता मिली. वे सिर से पांव तक निश्‍छलता की साक्षात प्रतिमूर्ति हैं. उनके व्‍यक्तित्‍व में कहीं भी कोई दुराव-छिपाव नहीं है, वे जितने बाहर से आपके प्रति आत्‍मीय दिखते हैं, भीतर इससे अधिक स्‍नेह आपके लिए भरा होगा. नाराज़गी और गुस्‍सा उन्‍हें व्‍यवस्‍था और दुष्‍ट जनों के प्रति होता है, जो उनकी कविता में भरपूर व्‍यक्‍त होता है. वे इस कदर मासूमियत से भरे हैं कि उनके सामने किसी बच्‍चे की मासूमियत भी कम लगे. उनसे आप बरसों बाद भी मिलेंगे तो नहीं लगेगा कि बीच में इतना अंतराल आ गया है, वे ऐसे मिलेंगे जैसे रोज़ की मुलाकात हो. मैं उनसे पाकिस्‍तान यात्रा के बाद सिर्फ छिंदवाड़ा में मिला था, लेकिन कभी नहीं लगा कि हम दो ही बार मिले हैं. उनसे फोन पर अक्‍सर बात होती है और वे कहते हैं कि हम सपनों में हर रोज मिलते हैं. उनसे कविता सुनना एक विरल अनुभव है. कविता सुनाते हुए वे इस कदर कविता में खो जाते हैं कि पूरी कविता जैसे उनके व्‍यक्तित्‍व से फूटने लगती है. उनकी आवाज़ का उतार-चढ़ाव और भाव-भंगिमाएं शब्‍दों और भावों के अनुरूप इस तरह क्रियाशील हो उठते हैं कि कविता साक्षात हो जाती है. अपनी कविता का ऐसा पाठ करने वाले वे हमारे समय के सबसे दुर्लभ कवियों में हैं.
उनकी कविता सुनते हुए ही नहीं पढ़ते हुए भी आपके रोंगटे खड़े हो जाते हैं. मेरे लिए उनकी कविता मुक्तिबोध की काव्‍य-चेतना का ही नहीं काव्‍य-चिंता का भी एक गहरा निजी विस्‍तार है. देवताले जी की कविताओं में आप यह नहीं तय कर पाएंगे कि इस विपुल सृष्टि की ऐसी कौनसी चीज़ है, जो कविता से बाहर रह गई है. पृथ्‍वी, नदी, समुद्र, रेगिस्‍तान, जंगल, पहाड़, पठार, खदान, धातुएं, वनस्‍पति, ग्रह, नक्षत्र, चांद, तारे और समूची कायनात मनुष्‍य की चिंताओं में इस कदर शामिल हो जाती हैं कि लगता है जैसे समूची सृष्टि ही देवताले जी की कविताओं के कथ्‍य को बयान करने के लिए कम पड़ने वाली हो. इसलिए उनकी सामान्‍य से सामान्‍य कविता में भी आपको बिंबों और क्रियाओं का ऐसा विराट संगुंफन दिखाई देता है कि कविता माथे में टन्‍न सी जाकर लगती है. हिंदी कविता में बिंबों की ऐसी सघनता मुक्तिबोध के बाद मेरे विचार से सिर्फ देवताले जी के यहां ही देखने को मिलती है. उनके जैसा सतत क्रियाशील कवि मेरी नज़र में हिंदी में नरेश सक्‍सेना के बाद कोई नहीं है. उनकी कविता की हर पंक्ति में क्रियाएं ऐसे नर्तन करती हैं जैसे बिना उनके नृत्‍य के कविता का यह संगीत बेमज़ा हो जाएगा. हर बिंब को क्रिया के साथ इस कदर एकमेक कर देना कि बिल्‍कुल नई ही छवि पाठक-श्रोता के मन में पैबस्त हो जाए. उनकी कविता में बेहद मामूली विषयों से लेकर बिल्‍कुल सामान्‍य-सी दिखने वाली चीजों पर बहुत गहरी और सार्थक कविताएं हैं. नीबू, प्‍याज सरीखी चीज़ों पर बात करते हएु वे अपनी कविता से ऐसा हाहाकारी दृश्‍य रच सकते हैं कि पढ़ने-सुनने वालों के दिमाग के परदे फट जाएं. पारिवारिक संबंध हों या सामाजिक संबंध, उनकी कविता में तमाम रिश्‍ते अपनी समूची गरिमा और अर्थवत्‍ता के साथ इस तरह आकार पाते हैं कि पाठक को हर रिश्‍ता कुछ और आत्‍मीय लगने लगता है.
संबंधों का ऐसा विपुल खज़ाना उनकी कविता में भरा हुआ है कि आश्‍चर्य होता है… कैसे एक साधारण से चरित्र को लेकर इतनी बड़ी कविता संभव हो सकती है. और मनुष्‍य की गरिमा को, समाज की व्‍यवस्‍था को, देश-दुनिया की संपदा को नष्‍ट-भ्रष्‍ट करने वालों पर उनकी कविता की गाज़ ऐसे गिरती है, जैसे कोई बलवान मज़दूर अपने मज़बूत घन से पहाड़ तोड़ रहा हो. मुक्तिबोध की कविता के डोमाजी उस्‍तादजैसे खलनायकों को तलाशने, गरियाने और उनसे जनता को सावधान करने की जैसी उत्‍कटता देवताले जी की कविता में दिखाई देती है, वह हिंदी कविता की अपनी थाती है और इस पर देवताले जी का जैसा कॉपीराइट है, उसे कोई चुनौती नहीं दे सकता. ये हमारे समय में सिर्फ देवताले ही हैं, जो जॉर्ज बुश के आगमन पर कविता की सीधी कार्यवाही को अकेले दम अंजाम देते हैं. सच कहूं तो उनकी कविता शुरु से अंत तक कार्यवाही, क्रियाशीलता और चेतना को झकझोर देने की कविता है. उनका होना हमारे लिए बहुत गर्व की बात है कि हम एक ऐसे कवि के समय में रह रहे हैं जो सत्‍ता, व्‍यवस्‍था, पूंजी, माफिया और दुष्‍टजनों के गठजोड़ के बीच अपनी आर्तनाद करती विवश जनता की वाणी को मुखर कर रहा है. उनकी कविता मेरे लिए तो सच में संघर्षों की कविता है, ऐसे संघर्षों की जो जनता को उसके सुंदर-सुनहले स्‍वप्‍नों की ओर ले जाने वाले हैं. 

________________________

चंद्रकांत देवताले की कुछ कविताएं

लकड़बग्‍घा हंस रहा है                             


फिर से तपते हुए दिनों की शुरुआत

हवा में अजीब-सी गंध है

और डोमों की चिता

अभी भी दहक रही है

वे कह रहे हैं

एक माह तक मुफ्त राशन

मृतकों के परिवार को

और लकड़बग्‍घा हंस रहा है…


हत्‍यारे सिर्फ मुअत्तिल आज
और घुस गए हैं न्‍याय की लंबी सुरंग में
वे कभी भी निकल सकते हैं
और किसी दूसरे मुकाम पर
तैनात ख़ुद मुख्‍त्‍यार
कड़कड़ाते अस्‍पृश्‍य हड्डियों को
हंस सकते हैं अपनी स्‍वर्णिम हंसी
उनकी कल की हंसी के समर्थन में
अभी लकड़बग्‍घा हंस रहा है
जुल्‍म के पहाड़ों को
पुख्‍ता कर रहे हैं
कमज़ोर अस्थिपंजर
अनपढ़ आखों में थरथराते
इतिहास के भयभीत साये
जबकि यह गांव में
विलाप की रात है
और चारों औरतें
अपने तेरह बच्‍चों के साथ
छाती कूटती
फोड़ती हुईं चूडि़यां
अपने रूदन से
भय की छाया को गाढ़ा करती हुई…
और पागल कुत्‍तों के दांत
अंधेरे के भीतर
वक्‍त की पिंडली पर
तभी वह आता है
आकाश और हवा से होता हुआ
सूक्ष्‍म राजदूत
और देश-भर के कान में
सगर्व करता है घोषणा
चारों रांडों को बच्‍चों समेत
एक माह मुफ्त राशन
तीस दिन दोनों जून
बिना चुकाए भकोस लेंगे तेरह धन चार
और दश के नाभि केंद्र में
गांवों की सरहदों के पास
बच्‍चों के सपनों को आतंकित करता
लकड़बग्‍घा हंस रहा है…
घिग्‍घी बंध गई थी जो नदियों की
खुल गई
दिल का दौरा पड़ा था देश के पहाड़ों को
हुआ दुरुस्‍त
कितनी बड़ी राहत की सांस ली
अवसन्‍न पड़े पठारों ने…
लाशों की राख को ठिकाने पहुंचा
अब इस सगर्व राहत उपचार के बाद
प्रश्‍न उठा क्‍या विलायत के गोरों को
हरा देंगे हॉकी में भारत के शूरवीर?
और मैं…
फिर से खड़ा हूं
इस अंधेरी रात की नब्‍ज़ को थामे हुए
कह रहा हूं
ये तीमारदार नहीं
हत्‍यारे हैं
और वह आवाज़
खाने की मेज़ पर
बच्‍चों की नहीं  
लकड़बग्‍घे की हंसी है
सुनो…
यह दहशत तो है
चुनौती भी
लकड़बग्‍घा हंस रहा है…

मां पर नहीं लिख सकता कविता                         

माँ के लिए सम्भव नहीं होगी मुझसे कविता
अमर चिऊँटियों का एक दस्ता मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है
माँ वहाँ हर रोज़ चुटकी-दो-चुटकी आटा डाल देती है
मैं जब भी सोचना शुरू करता हूँ
यह किस तरह होता होगा
घट्टी पीसने की आवाज़ मुझे घेरने लगती है
और मैं बैठे-बैठे दूसरी दुनिया में ऊँघने लगता हूँ
जब कोई भी माँ छिलके उतार कर
चने, मूँगफली या मटर के दाने नन्हीं हथेलियों पर रख देती है
तब मेरे हाथ अपनी जगह पर थरथराने लगते हैं
माँ ने हर चीज़ के छिलके उतारे मेरे लिए
देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे
और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया
मैंने धरती पर कविता लिखी है
चन्द्रमा को गिटार में बदला है
समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया
सूरज पर कभी भी कविता लिख दूँगा
माँ पर नहीं लिख सकता कविता !

यमराज की दिशा                                         


माँ की ईश्वर से मुलाकात हुई या नहीं
कहना मुश्किल है
पर वह जताती थी जैसे ईश्वर से उसकी बातचीत होते रहती है
और उससे प्राप्त सलाहों के अनुसार
जिंदगी जीने और दुःख बर्दास्त करने का रास्ता खोज लेती है
माँ ने एक बार मुझसे कहा था 
दक्षिण की तरफ़ पैर कर के मत सोना
वह मृत्यु की दिशा है
और यमराज को क्रुद्ध करना
बुद्धिमानी की बात नही है


तब मैं छोटा था
और मैंने यमराज के घर का पता पूछा था
उसने बताया था
तुम जहाँ भी हो वहाँ से हमेशा दक्षिण में


माँ की समझाइश के बाद
दक्षिण दिशा में पैर करके मैं कभी नही सोया
और इससे इतना फायदा जरुर हुआ
दक्षिण दिशा पहचानने में
मुझे कभी मुश्किल का सामना नही करना पड़ा

मैं दक्षिण में दूर-दूर तक गया
और हमेशा मुझे माँ याद आई
दक्षिण को लाँघ लेना सम्भव नहीं था
होता छोर तक पहुँच पाना
तो यमराज का घर देख लेता

पर आज जिधर पैर करके सोओं
वही दक्षिण दिशा हो जाती है
सभी दिशाओं में यमराज के आलीशान महल हैं
और वे सभी में एक साथ
अपनी दहकती आखों सहित विराजते हैं

माँ अब नही है
और यमराज की दिशा भी अब वह नहीं रही
जो माँ जानती थी.

अंतिम प्रेम                                              


हर कुछ कभी न कभी सुन्दर हो जाता है 
बसन्त और हमारे बीच अब बेमाप फासला है
तुम पतझड़ के उस पेड़ की तरह सुन्दर हो
जो बिना पछतावे के
पत्तियों को विदा कर चुका है
थकी हुई और पस्त चीजों के बीच
पानी की आवाज जिस विकलता के साथ
जीवन की याद दिलाती है
तुम इसी आवाज और इसी याद की तरह 
मुझे उत्तेजित कर देती हो
जैसे कभी- कभी मरने के ठीक पहले या मरने के तुरन्त बाद
कोई अन्तिम प्रेम के लिए तैयार खड़ा हो जाता है
मैं इस उजाड़ में इसी तरह खड़ा हूँ
मेरे शब्द मेरा साथ नहीं दे पा रहे 
और तुम सूखे पेड़ की तरह सुन्दर
मेरे इस जनम का अंतिम प्रेम हो.

मेरी किस्‍मत में यही अच्‍छा रहा                               

मैं मरने से नहीं डरता हूं
न बेवजह मरने की चाहत संजोए रखता हूं
एक जासूस अपनी तहकीकात बखूबी करे
यही उसकी नियामत है
किराये की दुनिया और उधार के समय की
कैंची से आज़ाद हूं पूरी तरह
मुग्‍ध नहीं करना चाहता किसी को
मेरे आड़े नहीं आ सकती सस्‍ती और सतही मुस्‍कुराहटें
मैं वेश्‍याओं की इज्‍जत कर सकता हूं
पर सम्‍मानितों की वेश्‍याओं जैसी हरकतें देख
भड़क उठता हूं पिकासो के सांड की तरह
मैं बीस बार विस्‍थापित हुआ हूं
और ज़ख्‍मों की भाषा और उनके गूंगेपन को
अच्‍छी तरह समझता हूं
उन फीतों को मैं कूड़ेदान में फेंक चुका हूं
जिनमें भद्र लोग जिंदगी और कविता की नापजोख करते हैं
मेरी किस्‍मत में यही अच्‍छा रहा
कि आग और गुस्‍से ने मेरा साथ कभी नही छोड़ा
और मैंने उन लोगों पर यकीन कभी नहीं किया
जो घृणित युद्ध में शामिल हैं
और सुभाषितों से रौंद रहे हैं
अजन्‍मी और नन्‍ही खुशियों को
मेरी यही कोशिश रही
पत्‍थरों की तरह हवा में टकराएं मेरे शब्‍द
और बीमार की डूबती नब्‍ज़ को थामकर
ताज़ा पत्तियों की सांस बन जाएं
मैं अच्‍छी तरह जानता हूं
तीन बांस चार आदमी और मुट्ठी भर आग
बहुत होगी अंतिम अभिषेक के लिए
इसीलिये न तो मैं मरने से डरता हूं
न बेवजह शहीद होने का सपना देखता हूं
ऐसे जिंदा रहने से नफ़रत है मुझे
जिसमें हर कोई आए और मुझे अच्‍छा कहे
मैं हर किसी की तारीफ करता भटकता रहूं
मेरे दुश्‍मन न हों
और इसे मैं अपने हक़ में बड़ी बात मानूं… 

दुनिया का सबसे ग़रीब आदमी                                


दुनिया का सबसे गरीब आदमी

दुनिया का सबसे गैब इनसान
कौन होगा
सोच रहा हूँ उसकी माली हालत के बारे में
नहीं! नहीं!! सोच नहीं
कल्पना कर रहा हूँ
मुझे चक्कर आने लगे हैं
गरीब दुनिया के गंदगी से पटे
विशाल दरिद्र मीना बाजार का सर्वे करते हुए
देवियों और सज्जनों
\’
चक्कर आने लगे हैं\’
यह कविता की पंक्ति नहीं
जीवनकंप है जिससे जूझ रहा इस वक्त
झनझना रही है रीढ़ की हड्डी
टूट रहे हैं वाक्य
शब्दों के मलबे में दबी-फँसी मनुजता को
बचा नहीं पा रहा
और वह अभिशप्त, पथरी छायाओं की भीड़ में                                    
सबसे पीछे गुमसुम धब्बे-जैसा
कौन-सा नंबर बताऊँ उसका
मुझे तो विश्व जनसंख्या के आँकड़े भी
याद नही आ रहे फिलवक्त
फेहरिस्तसाजों को
दुनिया के कम-से-कम एक लाख एक
सबसे अंतिम गरीबों की
अपटुडेट सूची बनाना चाहिए
नाम, उम्र, गाँव, मुल्क और उनकी
डूबी-गहरी कुछ नहीं-जैसी संपति के तमाम ब्यौरों सहित
हमारे मुल्क के एक कवि के बेटे के पास
ग्यारह गाड़ियाँ जिसमें एक देसी भी
जिसके सिर्फ चारों पहियों के दाम दस लाख
बताए थे उसके ऐश्वर्य-शानो-शौकत के एक
शोधकर्ता ने
तब भी विश्व के धन्नासेठों में शायद ही
जगह मिले
और दमड़ीबाई को जानता हूँ मैं
गरीबी के साम्राज्य के विरत रूप का दर्शन
उसके पास कह नहीं पाऊँगा जुबान गल जाएगी
पर इतना तो कह सकता हूँ वह दुनिया की
सबसे गरीब नहीं
दुनिया के सत्यापित सबसे धनी बिल गेट्स
का फोटो
अखबारों के पहले पन्ने पर
उसी के बगल में जो होता
दुनिया का सबसे गरीब का फोटू
तो सूरज टूट कर बरस पड़ता भूमंडलीकरण
की तुलनात्मक हकीकत पर रोशनी डालने के
लिए
पर कौन खींचकर लाएगा
उस निर्धनतम आदमी का फोटू
सातों समुंदरों के कंकड़ों के बीच से
सबसे छोटा-घिसा-पिटा-चपटा कंकड़
यानी वह जिसे बापू ने अंतिम आदमी कहा था
हैरत होती है
क्या सोचकर कहा होगा
उसके आँसू पोंछने के बारे में
और वे आँसू जो अदृश्य सूखने पर भी बहते
ही रहते हैं
क्या कोई देख सकेगा उन्हें
और मेरी स्थिति कितनी शर्मनाक
न अमीरों की न गरीबों की गिनती में
और मेरी स्थिति कितनी शर्मनाक
न अमीरों की न गरीबों की गिनती में
मैं धोबी का कुत्ता प्रगतिशील
नीचे नहीं जा सका जिसके लिए
लगातार संघर्षरत रहे मुक्तिबोध
पाँच रुपए महीने की ट्यूशन से चलकर
आज सत्तर की उमर में
नौ हजार पाँच सौ वाली पेंशन तक
ऊपर आ गया
फिर क्यों यह जीवनकंप
क्यों यह अग्निकांड
की दुनिया का सबसे गरीब आदमी
किस मुल्क में मिलेगा
क्या होगी उसकी देह-संपदा
उसकी रोशनी, उसकी आवाज-जुबान और
हड्डियाँ उसकी
उसके कुचले सपनों की मुट्ठीभर राख
किस हंडिया में होगी या अथवा
और रोजमर्रा की चीजें
लता होगा कितना जर्जर पारदर्शी शरीर पर
पेट में होंगे कितने दाने
या घास-पत्तियाँ
उसके इर्द-गिर्द कितना घुप्प होगा
कितना जंगल में छिपा हुआ जंगल
मृत्यु से कितनी दुरी पर या नजदीक होगी
उसकी पता नहीं कौन-सी साँस
किन-किन की फटी आँखों और
बुझे चेहरों के बीच वह
बुदबुदा या चुगला रहा होगा
पता नहीं कौन-सा दृश्य, किसका नाम
कोई कैसे जान पाएगा कहाँ
किस अक्षांश-देशांश पर
क्या सोच रहा है अभी इस वक्त
क्या बेहोशी में लिख रहा होगा गूँगी वसीयत
दुनिया का सबसे गरीब आदमी
यानि बिल गेट्स की जात का नही 
उसके ठीक विपरीत छोर के
अंतिम बिंदु पर खासता हुआ
महाश्वेता दीदी के पास भी
असंभव होगा उसका फोटू
जिसे छपवा देते दुनिया के सबसे बड़े
धन्नासेठ के साथ
और उसका नाम
मेरी क्या बिसात जो सोच पाऊँ
जो होते अपने निराला-प्रेमचंद-नागार्जुन-मुक्तिबोध
या नेरुदा तो संभव है बता पाते
उसका सटीक कोई काल्पनिक नाम
वैसे मुझे पता है आग का दरिया है गरीबी
ज्वालामुखी है
आँधियों की आँधी
उसके झपट्टे-थपेड़े और बवंडर
ढहा सकते हैं
नए-से-नए साम्राज्यवाद और पाखंड को
बड़े-से-बड़े गढ़-शिखर
उडा सकते पूँजी बाजार के
सोने-चाँदी-इस्पात के पुख्ता टीन-टप्पर
पर इस वक्त इतना उजाला
इतनी आँख-फोड़ चकाचौंध
दुश्मनों के फरेबों में फँसी पत्थर भूख
उन्हीं की जय-जयकार में शामिल
धड़ंग जुबानें
गाफिल गफलत में
गुणगान-कीर्तन में गूँगी
और मैं तरक्की की आकाशगंगा में
जगमगाती इक्कीसवीं सदी की छाती पर
एक हास्यास्पद दृश्य
हलकान दुनिया के सबसे गरीब आदमी के वास्ते.

बाई दरद ले                                        

तेरे पास और नसीब में जो नहीं था
और थे जो पत्थर तोड़ने वाले दिन
उस सबके बाद
इस वक्त तेरे बदन में धरती की हलचल है                                
घास की जमीन पर लेटी,
तू एक भरी पूरी औरत
आँखों को मींच कर
काया को चट्टान क्यों बना रही है

बाई! तुझे दरद लेना है


जिंदगी भर पहाड़ ढोए तूने
मुश्किल नहीं है तेरे लिए
दरद लेना


जल्दी कर होश में आ
वरना उसके सिर पर जोर पड़ेगा
पता नहीं कितनी देर बाद रोए
या ना भी रोए
फटी आँख से मत देख
भूल जा जोर जबरदस्ती की रात
अँधेरे के हमले को भूल जा बाई
याद कर खेत और पानी का रिश्ता
सब कुछ सहते रहने के बाद भी
कितना दरद लेती है धरती
किस किस हिस्से में कहाँ कहाँ
तभी तो जनम लेती हैं फसलें
नहीं लेती तो सूख जाती सारी हरियाली
कोयला हो जाते जंगल
पत्थर हो जाता कोख तक का पानी


याद मत कर अपने दुःखों को
आने को बेचैन है धरती पर जीव
आकाश पाताल में भी अट नहीं सकता
इतना है औरत जात का दुःख
धरती का सारा पानी भी
धो नहीं सकता
इतने हैं आँसुओं के सूखे धब्बे


सीता ने कहा था – फट जा धरती
ना जाने कब से चल रही है ये कहानी
फिर भी रुकी नहीं है दुनिया


बाई दरद ले!
सुन बहते पानी की आवाज
हाँ! ऐसे ही देख ऊपर हरी पत्तियाँ
सुन ले उसके रोने की आवाज
जो अभी होने को है
जिंदा हो जाएगी तेरी देह
झरने लगेगा दूध दो नन्हें होठों के लिए

बुद्ध के देश में बुश                      

अपने खतरनाक इरादों से
दुनिया को तबाह करने वाला सौदागर
पता नहीं कौन -सा मुखौटा लगाकर
प्रवेश करेगा बुद्ध के जेतवन वाले देश में
उसके लिए स्वागत द्वार -बंदनवार
बनाने-लगाने में जुटे हैं
जो लार टपकाते सत्ता-पूँजी के
भूखे-खाए-अघाए मुट्ठी-भर लोग
उनकी उदारता दर्ज की जायेगी रक्तरंजित इतिहास में
अपने मुनाफे के लिए महाजनों का हितैषी
मंडियों को आज़ाद करने वाला
अब इस आज़ादी में नए प्राण फूंकने आ रहा है
उसके अभिनंदन में सजा दो संसद और फूलों से पाट दो बड़े बाजारों को
हाँ,अधपेट खाए रबते -खटते लोगों
जूठन बटोरते बच्चों
और अन्नदाताओं की आत्महत्याओं पर
देश जितना बड़ा चमकदार पर्दा डाल देना
मिटा देना गरीबी की सभी रेखाएं
कह चुका है दुनिया के मंच पर
हमारा एक मंद दृष्टि वाला वित्त पुरोहित
कि \’पिछड़ा नहीं है मुल्क हमारा\’
और इससे कुबेरपतियों! सत्ताधीशों!!
इक्कीसवीं सदी के सबसे काले इतिहास में
अमर हो जाएगा आतिथ्य तुम्हारा
सोचो तो, बताओ क्या होगा? उसके मुखौटे के पीछे
इंसानी चेहरा,सत्य,धर्म,प्रेम,करुणा
नहीं!नहीं!!इनमें से एक भी नहीं
सिर्फ वर्चस्व का बाहुबली तेवर,
विध्वंसक शक्ति का अहंकार
शर्म,झूठ,फर्ज़ी हंसी
और समृद्धि के कीचड़ में मददगार
दिखने की कोशिश करता नकली धन्नासेठ विश्वविजयी चेहरा
जिसके तरह-तरह के साम्राज्यवादी इरादों के
खतरनाक वायरसों ने
सद्भाव और रक्तपात,युद्ध और शांति
के बीच का फासला मिटा दिया है
क्या कोई चाहेगा ऐसी दुनिया
जिसमें कोई आत्मा ही न हो
दुनिया के सबसे अमीर देश के पहले आदमी
दोजख़ साबित हो रही है
तुहारी तरक्की और आज़ादी की कारगुज़ारी
मर रही है हमारे जीवन और जनपद के
बाहर और भीतर की खुशबू
तुम्हें फांसीघरों, कसाईखानों,
कालकोठरियों और यातना शिविरों की यात्रा पर जाना था
कालापानी नाम सुना होगा
कालाहांडी जानते हो क्या
हिरोशिमा का इतिहास कोई दूसरा तुम्हें क्या बताएगा
और ईरान?
तुम्हरे विश्व-शांति अभियान के चलते
वहां मारे गए लाखों
जिनमें अबोध बच्चे भी शामिल
फटी पत्थर आँखों से देखते
पूछ रहे हमसे-
किस कारण बूचड़ को इतना आदर-सत्कार
तुम सब तो जिंदा हो
जो इस सदी के सबसे वी.आई.पी.
युद्ध-अपराधी की शिनाख्त में पारंगत होंगे हमारे
जासूस खोजी कुत्ते
तो तुम्हारा हुलिया,तामझाम आड़े नहीं आएगा
भौंक के महादृश्य के बीच
तुम उतरोगे इस मुल्क की धरती पर
और सूंघ लेंगे आसानी से तुम्हारे डॉग अफसर
कि सख्त नफरत और शर्मिंदगी बिखरी हुई है
इस मेहमान के लिए चारों तरफ हवा में
कहीं भी जाओ
बस गाँधी की समाधि के इर्द-गिर्द
तुम्हारी छाया तक न पड़े
या उधर जहाँ बोधि और शांति के दरख्त
और बच्चों के बगीचे और स्कूल हैं
हमारी आवाज़ बाज़ार में नहीं बैठी
कोई खरीद नहीं सकता
हम विरोध करते हैं तुम्हारा
देश-भर की समुद्रों जैसी भाषाओँ वाली
कविताओं की काली ज़ुबानें दिखाते हैं
और इन ज़ुबानों में
क्षितिज तक प्रतिध्वनित होता
कठोर वक्तव्य है हमारा तुम्हारी यात्रा के खिलाफ
जो हर लिहाज़ से एक खतरनाक छलावा है .
______________________

प्रेमचंद गांधी
२६ मार्च, १९६७,जयपुर
कविता संग्रह :  इस सिंफनी में
निबंध संग्रह : संस्‍कृति का समकाल
कविता के लिए लक्ष्‍मण प्रसाद मण्‍डलोई और राजेंद्र बोहरा सम्‍मान
कुछ नाटक लिखे, टीवी और सिनेमा के लिए भी काम
दो बार पाकिस्‍तान की सांस्‍कृतिक यात्रा.
विभिन्‍न सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी.
ई पता : prempoet@gmail.com
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