नामवर सिंह ने अपने संबंध में लिखा है \”मेरा कोई भी काम बिना बाधाओं के होता ही नहीं, कहने को तो मैं भी प्रेमचंद की तरह कह सकता हूँ कि मेरा जीवन सरल सपाट है. उसमें न ऊँचे पहाड़ हैं न घाटियाँ हैं. वह समतल मैदान है. लेकिन औरों की तरह मैं भी जानता हूँ कि प्रेमचंद का जीवन सरल सपाट नहीं था. अपने जीवन के बारे में भी मैं नहीं कह सकता कि यह सरल सपाट है. भले ही इसमें बड़े ऊँचे पहाड़ न हों, बड़ी गहरी घाटियाँ न हों. मैंने जिन्दगी में बहुत जोखिम न उठाये हों.ब्रेख्त के एक नाटक गैलीलियो का एक वाक्य अकसर याद आता रहा है कि बाधाओं को देखते हुए दो बिन्दुओं के बीच की सबसे छोटी रेखा टेढ़ी ही होगी. मेरे जीवन की रेखा भी कहीं-कहीं टेढ़ी हो गयी है. जहाँ टेढ़ी हुई है, उसका जिक्र करूँगा.\”
\”मैं यह कह रहा हूँ कि मेरी जिन्दगी भी एक हद तक ऊसर है और एक हद तक उसमें उगने वाली नागफनी है जिसमें काँटे होते हैं और सीधे तड़ंगे बाँस होते हैं. यदि प्रकृति कहीं न कहीं परिवेश को प्रभावित करती है तो शायद मेरे व्यक्तित्व को- मेरे जीवन को उसने प्रभावित किया हो.\”
\”मैं अभागा हूँ कि माँ की मृत्यु हुई तो जोधपुर में था. काशी ने तार भेजा तो तार दिल्ली होते हुए जोधपुर गया. पिता जी की मृत्यु हुई तो मैं दिल्ली में था. उनका मुँह भी नहीं देख सका. इस मामले में काशी भाग्यशाली है. अंतिम दिनों में माँ की सेवा की और पिता की भी सेवा की. मैंने तो कोई जिम्मेदारी निभायी नहीं उन दोनों के प्रति लेकिन उन्होंने अपने आशीष का हाथ बराबर मेरे सिर पर रखा. \”
\”अभी भी हमारा संयुक्त परिवार है. अपने को बहुत सौभाग्यशाली मानता हूँ कि मुझे अनमोल दो भाई मिले. गाँव में ही नहीं, आस-पास के पूरे क्षेत्र में मिसाल दी जाती है हमारी. मुझे खुशी है कि मेरे दोनों भाई आज भी मेरे साथ हैं. मैं कहना चाहता हूँ कि भाइयों का प्यार मैंने जाना. मेरे भाई अगर न होते, तो मेरे जैसा आदमी जो बनारस छोड़ कर जगह-जगह द्घूमता रहा, दिल्ली आया, जोधपुर गया, सागर गया, फिर दिल्ली आया, परिवार कभी साथ नहीं रहा, कैसे कुछ कर पाता. जब मैं बनारस में था तब भी मैंने नहीं जाना कि राशन की दुकान कौन सी है, सब्जी कहाँ मिलती है, कैसे घर का खर्च चलता है. सारा का सारा काम काशी करते थे जो हमारे साथ रहते थे. हाईस्कूल करके गाँव से आये थे काशी और सारी जिम्मेदारी ले ली थी. कभी-कभी मुझे बहुत अफसोस होता है कि यदि काशी पर वह बोझ न होता तो वह और जाने क्या बन गये होते. लेकिन मैं तो लाचार था. मैं निश्चिन्त हो गया था काशी पर सब कुछ छोड़कर के. माँ साथ रहती थी, मेरी पत्नी थी घर में. मेरा बेटा आ गया था, पिता जी भी आया करते थे गाँव से, मझले भाई भी आते थे. उनका भी परिवार था. इन तमाम चीजों को बरसों तक काशी ने संभाला. इसीलिए काशी के लिए एक स्नेह तो अनुभव करता हूँ लेकिन एक आँण भी है जो बराबर महसूस करता रहा हूँ. इसे कभी नहीं भूल सकता, हालांकि कभी कहा नहीं, कभी लिखा नहीं.\”
\”पिता जी ने मेरी इच्छा के विरुद्ध मेरा विवाह किया था, सही है लेकिन उसका दंड मेरी पत्नी भोगे यह उचित नहीं, यह मैं जानता था. और जानता हूँ लेकिन जाने क्यों मन में ऐसी गाँठ थी कि मैं पत्नी को पति का सुख नहीं दे सका.\”
\” मैंने कभी अपने गुरुदेव हजारी प्रसाद द्विवेदी से पूछा था, \’सबसे बड़ा दुख क्या है?\’ बोले, \’न समझा जाना.\’ और सबसे बड़ा सुख ? मैंने पूछा. फिर बोले, \’ठीक उलटा! समझा जाना.\’ अगर लगे कि दुनिया में सभी गलत समझ रहे हैं लेकिन एक भी आदमी ऐसा है जिसके बारे में तुम आश्वस्त हो कि वह तुझे समझता है तो फिर उसके बाद किसी और चीज की कमी नहीं रह जाती.\”
\” मैं जन्मकुंडली, हस्तरेखा, ज्योतिष किसी में विश्वास नहीं करता और न मृत्युबोध का विलास पालने की कामना है मेरी. दरअसल बीमारियाँ मेरे लिए इसलिए दुखद हैं कि वे पर निर्भर बनाती हैं.\”
\”एक चीज याद रखो, विरोध उसी का होता है जिसमें तेज होता है. विरोध से ही शक्ति नापी जाती है. जब छोटी सी चिन्गारी दिखाई पड़ती है तो लोग घी नहीं पानी डालते हैं.\”
\”दरअसल हम लेखक लोग मध्यवर्ग के हैं और मध्यवर्ग में जो कुछ ऊपर ठीक-ठाक जगह पर पहुँच जाता है तो लोग अचानक उसको सत्ता और प्रतिष्ठान के प्रतीक के रूप में देखने लगते हैं. वस्तुतः हम लोग विशाल तंत्र के पुर्जे हैं. कोई छोटा है तो कोई बड़ा है.\”
\”मैंने किसी के हाथ के नीचे तो अपना हाथ नहीं रखा. रखा है तो किसी के हाथ पर हाथ रखा है. और रखा है तो उसके बदले में कुछ लिया नहीं है.\”
\”मैं पुरस्कारों के मामले में प्रूपफरीडर हूँ जो भूल सुधार का काम करता है. जो लोकमत है, साधुमत है मैंने उसी के अनुसार काम करने की कोशिश की है. इसके बाद भी यदि मुझे अपयश मिलता है तो अपयश भी शिरोधार्य.
शमशेर जी से मैंने किसी का यह शेर सुना थाः
न हंसना ही सलीके का, न रोना ही सलीके का.
परेशानी में कोई काम जी से हो नहीं सकता
जो हो सकता है इससे वह किसी से हो नहीं सकता
मगर देखो तो फिर कुछ आदमी से हो नहीं सकता.
मैं इतना निराशावादी नहीं हूँ कि यह कहूँ कि कुछ आदमी से हो नहीं सकता. क्योंकि \’जो हो सकता है इससे, वह किसी से हो नहीं सकता.\’ रही बात सलीके की, तो मैंने जो बातें की हैं, चाहता था कि सलीके से कहूँ. क्योंकि एक साहित्यकार, कलाकार के हँसने में, रोने में एक सलीका तो होना ही चाहिए. पता नहीं मेरा यह काम सलीके से हो सका या नहीं! आश्वस्त नहीं हूँ.अंत में पीछे मुड़कर अपने पूरे जीवन का सिंहावलोकन करता हूँ तो अंदर-अंदर वहीं प्रश्न उठता है जिससे मुक्तिबोध बेचैन रहते थेः
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया?\”
नामवरसिंह ने कभी प्यार नहीं किया, लेकिन प्यार की हिमायत में खूब लिखा है, वे प्यार के सवालों पर खूब जमकर बोलते भी हैं, लेकिन वे प्यार करने के मामले में जोखिम उठाने से कतराते रहे हैं या उनके अंदर एक कायर मन भी रहा है जो उनको प्यार नहीं करने देता. उनके प्रेम संबंधी नजरिए पर गालिब, एरिक फ्रॉम और हजारीप्रसाद द्विवेदी का गहरा प्रभाव है. हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास \”अनामदास दास का पोथा\” के बहाने लिखा है,\” प्रेम पाप नहीं है, बल्कि मनुष्य का \’स्वभाव\’ है और इस स्वभाव को स्वीकार करके ही चरम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है.\” प्रेम हो तो क्या होता है ? नया जन्म होता है. प्रेम को वह सबसे बड़ा पुरूषार्थ मानते हैं.
\’\’मानव देह केवल दंड भोगने के लिए नहीं बनी है, आर्य! यह विधाता की सर्वोत्तम सृष्टि है. यह नारायण का पवित्र मन्दिर है. पहले इस बात को समझ गई होती, तो इतना परिताप नहीं भोगना पड़ता. गुरु ने मुझे अब यह रहस्य समझा दिया है. मैं जिसे अपने जीवन का सबसे बड़ा कलुष समझती थी, वही मेरा सबसे बड़ा सत्य है. क्यों नहीं मनुष्य अपने सत्य को देवता समझ लेता आर्य?\’\’ प्रेम में बार बार बंदिशें परेशान करती हैं. सामाजिक विकास में बंदिशें वैसे भी बड़ी बाधा हैं.
नामवरसिंह बंदिशों के विरोधी हैं. इस मामले में उनके विचार और कर्म में बहुत कम अंतर है. सामान्यतौर पर प्रेमविवाह करने वालों से वे बड़े खुश होते हैं और यदि उनके किसी शिष्य ने प्रेमविवाह किया है और दावत –आशीर्वाद पर बुलाया है तो वे जरूर जाते हैं. सामंती बंदिशों को तोड़ने में वे अपने शिष्यों की मदद भी करते रहे हैं. प्रेम को वे कमजोरी नहीं मानते. उनका मानना है \”मानवीय प्रवृत्तियों का दमन सामन्ती दमन का ही एक अंग है. अमानवीकरण की यह प्रक्रिया शासक वर्गों के दमन का प्रमुख अस्त्र रही है. सामन्ती युग में इस दमन-कार्य के लिए शासक वर्ग धर्म का सहारा लेता था और आधुनिक पूंजीवादी युग में धर्म के अतिरिक्त वैज्ञानिक-तार्किक-व्यावहारिक नीतिशास्त्र का भी.\” \” कहने की आवश्यकता नहीं कि हिन्दी में सूरदास आदि का भक्तिकाव्य इस सामन्ती दमन के विरुद्ध मानवीय विद्रोह था.\” \”इस पाप-बोध जगाने वाले वर्ग से निपटने के लिए भक्तों के पास सबसे अमोद्घ अस्त्र था- प्रेम. आश्चर्य नहीं कि पुरोहिती हितों के पोषक पंडितों ने सबसे अधिक कोप इस \’प्रेम\’ पर ही प्रकट किया. कोप का एक रूप तो यह है कि इसे अभारतीय कहकर अग्राह्य बना दिया जाय.\”
आचार्य पुरगोभिल ने कहा है,\’\’अगर निरन्तर व्यवस्थाओं का संस्कार और परिमार्जन नहीं होता रहेगा, तो एक दिन व्यवस्थाएँ तो टूटेंगी ही, अपने साथ धर्म को भी तोड़ देंगी.\’\’
नामवरसिंह के अनुसार मध्यकालीन भक्ति आंदोलन में, खासकर,सूरदास के यहां \’\’ १. प्रेम ही परम पुरुषार्थ है २. भगवान के प्रति प्रेम कौलीन्य से बड़ी चीज है ३. भक्ति के बिना शास्त्र ज्ञान और पांडित्य व्यर्थ है और ४. भक्त भगवान से बड़ा है.\’\’ \’\’इसका मतलब यह नहीं कि सूरदास स्मार्त पन्थ के विरोधी हैं. वे भक्ति को सर्वोपरि समझते हैं. अगर भक्ति है तो तीर्थ-व्रत की जरूरत नहीं, अगर भक्ति नहीं है तो तीर्थ-व्रत से कुछ बड़ी चीज की प्राप्ति नहीं होगी. भगवान की दृष्टि में जाति-पांति, कुल -शील आदि कोई चीज नहीं है. केवल प्रेम चाहिए, प्रेम से ही वे मिलते हैं.\’\’
नामवर सिंह के ही शब्दों में \”सवाल यह है कि एक भारतीय लेखक के लिए भारतीयता आज समस्या क्यों है? कहीं यह हमारे मध्यवर्गीय अपराधबोध का प्रक्षेपण तो नहीं? भारतीयता की समस्या को लेकर सबसे ज्यादा परेशान वह लेखक दिखते हैं जो इस अपराधबोध से सबसे ज्यादा ग्रस्त हैं. शायद मूल पाप वह है जब भारत ने पहले पहल पश्चिम के ज्ञान का फल चखा. भारत को एकाएक यह एहसास हुआ कि वह पूर्व है पश्चिम से भिन्न है और एक भारतीय को पहली बार यह महसूस करना पड़ा कि वह वस्तुतः भारतीय होना है. भारतीयता अचानक एक समस्या हो गई. अब सहज रूप से भारतीय होना सम्भव न रहा. एक जमाना था जब हर कलाकार को सहज रूप से भारतीय होने की स्वतंत्राता थी. रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने यह कहा था तो वह अतीत की एक मधुर स्मृति होने के साथ ही वर्तमान की कटु अनुभूति भी थी.\”
\”इतिहास की यह भी एक विडंबना ही है कि जिस पश्चिम ने पुरातन भारत को मारकर उसे दपफन किया उसी ने बाद में अस्थि-पंजर की खुदाई करके इतिहास से परिचित कराने का दम भी भरा. समस्यामूलक भारतीयता, वस्तुतः इसी उपनिवेशवाद की सन्तान है और इसी कारण मूलतः उपनिवेशवादी विचारप्रणाली का एक अंग भी-एक ऐसी मिथ्या चेतना जिसकी अभिव्यक्ति बंकिमचन्द्र से अब तक अनेक रूपों में हुई है. पश्चिम के द्वारा भारत जैसे भारतीय होने के लिए अभिशप्त था. पश्चिम की चुनौती के सम्मुख भारतीय होने का हर संभव प्रयत्न एक प्रकार की मिथ्या चेतना बनता गया, क्योंकि भारतीय होने की हर अदा पश्चिम द्वारा निर्धारित थी. स्वर्णिम अतीत का गौरवबोध हो या फिर भविष्य में उस अतीत के प्रत्यावर्तन की आशा, पश्चिम के भौतिकवाद के विरुद्ध भारत के अध्यात्मवाद का औचित्य स्थापन हो या पाश्चात्य परिवर्तनशीलता के विपरीत अपनी स्थिरता का आत्मतोष- भारतीय मनीषा द्वारा निर्मित सारे सुरक्षा कवच, वस्तुनिष्ठ रूप से उपनिवेशवादी विचारप्रणाली के ही अस्त्रा साबित हुए. विडंबना यह है कि जातीय अस्मिता के ये सारे प्रयत्न आत्मोपार्जित प्रतीत होते थे जबकि सचमुच वे पश्चिम प्रदत्त थे. दृष्टि इस बात की ओर नहीं गई कि स्वयं पश्चिम और पूर्व की इस द्वैधता में ही मिथ्या चेतना अन्तर्निहित है.\”