आत्मकथामैंने नामवर को देखा था
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नामवर जी मुझे हिंदी के सबसे अधिक प्रखर, मेधावी और सर्जनात्मक आलोचक लगते हैं. उन्हें पढ़ते हुए हमेशा लगता है जैसे वे आगाह कर रहे हों कि चीजें हमें जिस तरह नजर आती हैं, हो सकता है कि वे ठीक वैसी न हों. बल्कि संभव है कि वे उससे उलट हों. लिहाजा एकदम बँधे-बधाए नजरिए से चीजों को देखना ठीक नहीं. हमें अपने आप और अपने नजरिए पर भी संदेह करना चाहिए. जिन बटखरों से हम चीजों को तोल रहे हैं, कभी-कभी उन पर भी संदेह करना चाहिए. बल्कि हो सके तो उन्हें भी तोलकर देखना चाहिए. यानी एक सक्षम और सतर्क आलोचक को अपने आप और अपने प्रतिमानों की भी समय-समय पर जाँच-परख करते रहना चाहिए. ताकि हम कोल्हू के बैल की तरह जिंदगी भर गोल-गोल घेरे में ही न घूमते रह जाएँ. दूसरे लफ्जों में, सच्चाई की खोज के लिए हमें वहाँ भी खतरे उठाने चाहिए, जहाँ खतरे उठाना शायद सबसे मुश्किल काम है.
इसीलिए नामवर जी हमेशा वाद-विवाद-संवाद शैली को लेकर आगे बढ़ते हैं और विचारों की लगाम को मानो खुला छोड़ देते हैं. उन्हें पढ़ें तो अकसर बहुत विरोधी लगने वाली चीजें एक-दूसरे से टकराती नजर आती हैं, और आगे चलकर उनमें से कभी-कभी तो ऐसा अकल्पनीय सत्य निकलकर आता है, जो खासा चकित, बल्कि स्तब्ध करने वाला भी होता है. बहुत से लोग उससे चौंकते भी हैं. और इस कारण नामवर जी से चिढ़ने और परेशान होने वाले लोग भी बहुत हैं. बहुत विरोधी भी उन्होंने बनाए. पर शायद हर सत्यखोजी को यह रास्ता अपनाना ही होता है, ताकि उसकी हालत ताँगे में जुते उस घोड़े सरीखी न हो जाए, जिसकी आँखों के दोनों ओर पट्टी बँधी है और उसे दौड़ना, बस दौड़ना ही है.
इस लिहाज से ‘कविता के नए प्रतिमान’ नामवर जी की ही नहीं, हिंदी आलोचना की सर्वोच्च उपलब्धियों में से है. बहुत से चिंतक और आलोचक इसमें नामवर जी को प्रगतिवाद से दूर जाते हुए देखते हैं. शायद इसलिए कि इसमें नागार्जुन, केदार और त्रिलोचन, जो सहज ही प्रगतिवाद के सबसे बड़े और मूर्धन्य कवियों के रूप में उभरे थे, केंद्र में नहीं है. इसके बजाय श्रीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय सरीखे कवि इसके केंद्र में आ जाते हैं. कुछ आलोचकों को इसमें वस्तु के बजाय कला या रूपवादी आग्रह अधिक प्रबल लगे, और इस कारण बहुत आक्षेप भी लगे. हालाँकि हमें नहीं भूलना चाहिए कि ‘कविता के नए प्रतिमान’ में सर्वाधिक प्रमुख और बड़े कवि के रूप में तो मुक्तिबोध ही उभरकर आते हैं, जिन्हें प्रगतिवाद की सर्वोच्च प्रतिभा के रूप में नामवर जी प्रस्तुत करते हैं, और आज प्रायः सभी इसे स्वीकार करते हैं.
स्वयं अपनी बात कहूँ तो नामवर जी को जानने की मेरी शुरुआत ‘कविता के नए प्रतिमान’ से ही हुई थी और उसने मेरे भीतर किस बुरी तरह हलचल मचा दी थी, इसे बता पाना आज भी मेरे लिए मुश्किल है. मैंने उसे केवल पसंद ही नहीं किया था, कुछ-कुछ शायद नापसंद भी किया था, पर इस दुर्वह आकर्षण के साथ उसने मुझे खींचा था कि जिन दिनों मैं इसे पढ़ रहा था, चौबीसों घंटे मैं नामवर जी के साथ ही रहता, बोलता और बतियाता था. कुछ-कुछ शायद बहसता भी था.
बहुत कुछ था जो इस पुस्तक को पढ़ने के साथ-साथ मेरे भीतर बन रहा था, और बहुत कुछ था जो टूट भी रहा था. खासकर पुरानी भाषा और पुरानी सोच की जकड़बंदियाँ. मुझे अपने आप से ही लड़ना पड़ रहा था. और विचारों की अपनी दुनिया में बहुत सारे जो सबल पक्ष और मोरचे नजर आते थे, वे एकाएक कमजोर और संदेहास्पद लगने लगे थे. यों कुरुक्षेत्र पहुँचने पर जिन किताबों ने मुझे सही मायनों में पुनर्नवा किया या इसमें मदद की, उऩमें बेशक नामवर जी की पुस्तक ‘कविता के नए प्रतिमान’ भी थी. यह मेरी जीवन-कथा का ऐसा सत्य है, जिसे मैं कभी भूल ही नहीं सकता.
उन दिनों मैं कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में शोध कर रहा था. नामवर जी तो वहाँ न थे, पर मन में नामवर जी की छवि तो थी ही, जिसके साथ मैं गुत्थमगुत्था होता और मन ही मन उसे सराहे बिना भी न रह पाता. ऐसी चीजें टॉलस्टाय, दोस्तोवस्की सरीखे दिग्गज लेखकों के उपन्यासों को पढ़ते हुए तो हो जाती थीं. शरत के ‘पथेरदावी’ जैसे उपन्यासों में भी यह बात है, पर कोई आलोचना की किताब मुझे इस बुरी तरह मथ डालेगी और भीतर हलचलों भरी हलचल पैदा कर देगी, मुझे दूर-दूर तक इसकी कल्पना न थी.
सच कहूँ तो जिन किताबों ने मेरी भाषा और व्यक्तित्व को पूरी तरह बदला, उनमें बेशक ‘कविता के नए प्रतिमान’ भी थी, जिसकी मेरे जीवन में ऊँची जगह है. कहना होगा, गुरु की तरह. और नामवर जी से बगैर मिले ही मैंने उन्हें अपने अंतर्मन में गुरु के आसन पर बैठा लिया था. खासकर रघुवीर सहाय और उनकी सपाटबानी को मैंने पहली बार नामवर जी की इस पुस्तक के जरिए ही इतनी गहराई और उत्कटता के साथ जाना था. पर इससे भी बड़ी बात थी मुक्तिबोध और उनकी कविता की विराटता का अहसास. मैं स्वीकार करता हूँ कि अगर मैंने ‘कविता के नए प्रतिमान’ पुस्तक न पढ़ी होती, तो मुक्तिबोध को मैंने इतनी आत्मिक गहराई से न जाना होता कि वे मुझे तुलसी और निराला के बाद हिंदी के सबसे बड़े और असाध्य कवि लगने लगे, और लगते हैं.
यों संयोग से मैं उन दिनों मुक्तिबोध को बड़ी गहराई से पढ़ भी रहा था. ‘चाँद का मुँह टेढा है’ हमेशा मेरी मेज या तकिए के आसपास रहता था. उसकी ऊबड़-खाबड़ सी लगती कविताओं की शख्सियत से मैं अभिभूत था. वे बहुत गहरे भीतरी द्वंद्व की कविताएँ थीं, पर इसके साथ ही वे ताकत की कविताएँ थीं. बेहद शक्तिशाली कविताएँ, जो शुरू में थोड़ी अनाकर्षक सी लगती हैं. आपको कुछ-कुछ परे भी धकेलती हैं. पर एक बार धैर्य के साथ आप उनके निकट पहुँचे नहीं कि वे आपको अपने स्नेह, प्यार और अपनत्व से लपेटने लगती हैं. इस मानी में, आप एक बार आप मुक्तिबोध के हुए नहीं कि हमेशा के लिए उन्हीं के होकर रह जाते हैं. इसे दूसरे लफ्जों में मैं कुछ ऐसे कहना चाहूँगा कि मुक्तिबोध का घर बहुत बड़ा है. बड़ी दुर्वह ऊँचाइयों वाला. वहाँ पहुँचना मुश्किल है. पर एक बार आप उस घर में दाखिल हुए तो फिर कभी वहाँ से निकल नहीं पाते.
पर मुझे स्वीकारना होगा कि जटिलताओं के कवि मुक्तिबोध को मैंने सबसे पहले ‘कविता के नए प्रतिमान’ के जरिए ही इस कदर पूर्णता के साथ जाना और उनके प्रीतिकर आस्वाद को महसूस किया था. और तभी से मन में उनकी ऐसी अमिट और विराट छवि निर्मित हुई, जो फिर कभी धुँधली नहीं हुई. यहाँ तक कि रामविलास जी को व्यास सम्मान मिलने पर मैं ‘दैनिक हिंदुस्तान’ के लिए उनका इंटरव्यू करने गया तो मुक्तिबोध को लेकर मेरी उनसे लंबी बहस हुई थी. मेरा कहना था कि आप निराला की टूटन को तो बड़ी सहानुभूति से देखते हैं, पर मुक्तिबोध को विभक्त व्यक्तित्व का कवि कहकर नकारते हैं. ऐसा क्यों?
यह चर्चा इस कदर तीखी हो गई थी कि रामविलास जी कुछ खीज उठे थे. उन्होंने गुस्से में कहा कि अगर आपने अब एक भी सवाल कविता पर पूछा तो मैं आपके किसी सवाल का जवाब नहीं दूँगा. मेरे लिए यह स्तब्धकारी स्थिति थी. इसलिए कि मैं रामविलास जी का बहुत सम्मान करता था. उनसे कोई बहस करने तो मैं नहीं गया था, पर मुक्तिबोध को जिस तरह वे नकारते हैं, वह मुझे स्वीकार्य न था, और इससे इंटरव्यू में स्वभावतः थोड़ी अतिरिक्त गरमी आ गई थी.
अलबता ‘कविता के नए प्रतिमान’ के बाद मैंने नामवर जी की पुस्तक ‘छायावाद’ पढ़ी, जो बेहद भावनात्मक और काव्यमय पुस्तक है. कहना चाहिए, आलोचना की उनकी पहली पुस्तक, जिसमें दिमाग नहीं, हृदय से लिखी गई बहुत रसपूर्ण आलोचना है. लिहाजा इसे पढ़ने का आनंद कुछ अलग ही था. बेशक छायावाद को समझने की एक ताजगी भरी दृष्टि इसमें है, जो कहीं उलझाती नहीं है और छायावादी कविता का आनंद लेने की बड़ी उर्वर जमीन तैयार कर देती है.
फिर बरसों बाद, दिल्ली आने पर नामवर जी की पुस्तक ‘दूसरी परंपरा की खोज’ पढ़ी, जिसे एक तरह से उन्होंने अपने गुरु आचार्य दिवेदी को ट्रिब्यूट के तौर पर लिखा था. पर पता नहीं क्यों, इसे पढ़कर मैं ज्यादा प्रभावित नहीं हुआ. शायद पुस्तक मेरी उम्मीदों से कमतर थी. बहुत आश्वस्त करने वाली भी नहीं. मेरे लिए यह बड़े आश्चर्य की बात थी कि एक आलोचक की हैसियत से नामवर जी का कद तो बढ़ा था, पर उनकी कृति शायद उस ऊँचाई तक नहीं पहुँच सकी थी, जिसकी मुझ सरीखे पाठक उम्मीद करते हैं. और जाहिर है, ‘दूसरी परंपरा की खोज’ पुस्तक मुझे अपने साथ उस तरह बहा नहीं सकी, जैसे कभी ‘कविता के नए प्रतिमान’ के जादुई आकर्षण में मैं बहता चला गया था.
हालाँकि आश्चर्य, ‘कविता के नए प्रतिमान’ उस दौर की किताब है, जब नामवर जी नामवर बन रहे थे. बल्कि सच कहूँ तो नामवर जी को नामवर बनाने वाली किताब ‘कविता के नए प्रतिमान’ ही है. ‘दूसरी परंपरा की खोज’ का वाद-विवाद-संवाद उस ऊँचाई तक नहीं जा पाता कि पाठक को भीतर से झकझोर दे, और साथ ही कहीं अपनी विश्वसनीयता और भरोसा भी कायम करे.
मेरा खयाल है, ‘दूसरी परंपरा की खोज’ के बरसों बाद आई विश्वनाथ त्रिपाठी जी की ‘व्योमकेश दरवेश’ इस लिहाज से कहीं ज्यादा बड़ी और ऐतिहासिक महत्त्व की कृति है, जिसे पढ़कर आचार्य दिवेदी की असाधारण शख्सियत, सोच और उनका होना कहीं अधिक समझ में आता है.
नामवर जी को याद करना हिंदी साहित्य के एक दौर को याद करना है।
बहुत सुंदर. प्रिय अरुण देव जी, आप बहुत ही सार्थक और गंभीर साहित्यिक कार्य कर रहे हैं. मैं नियमित पढ़ता रहता हूँ. नामवर सिंह से संबंधित मेरे अनुभव बिल्कुल अलग तरह के हैं. उनको संचित कर रहा हूँ. समालोचन का कोई सानी नहीं. बधाई हो.
बहुत सार्थक बातचीत है,,लगभग हर पहलू पर,,साधुवाद
प्रकाश जी का नामवर सिंह जी पर केन्द्रित ख़ास तौर से उनके जन्मदिन पर जो लेखांकित संस्मरण है उसमें नामवरसिंह को लेकर उनका सम्मानीय दृष्टिकोण के
साथ-साथ कुछ अनसुलझे,अनछुये पहलुओं को भी रेखांकित किया है. गौरेतारीफ़ है.
नामवर सिंह से मेरी मुलाक़ात ( खड़े-खड़े ) राठीजी ने करायी,जेएनयू का परिसर था.उनकी कँटीली मुस्कान और कटाक्ष आज भी याद है ‘ महाकवि जा रहे हैं ‘ कवि का नाम विस्मृत हो गया लेकिन लहजा याद है.बहरहाल
अशोकजी का ‘फ़िलहाल ‘ सहित कई आलोचनात्मक किताबें आई, और साहित्य में छाये घनघोर रजत-श्याम बादलों से आच्छादित आकाश को, विस्तीर्ण धुन्ध को साफ़ किया है.
प्रकाश जी ने बेबाक़ी के साथ जो उल्लेख किये हैं, वे सच के साथ नामवर जी को आत्मसात् करते हैं. रामविलास जी को उद्धृत करते हुए उनके मन को खंगालना, दुर्भावना नहीं बल्कि सहजता थी.
प्रकाश जी को पढ़ते हुए उनसे बातचीत करना अच्छा लगता है.
वंशी माहेश्वरी.
नामवर सिंह ने एक साक्षात्कार में अपने आलोचना कर्म के बारे में कहा था कि मैं गया तो था कविता के मंदिर में पूजा का थाल लेकर लेकिन मंदिर की गन्दगी देख झाड़ू उठा लिया और बुहारने लगा। आलोचक की वही भूमिका होती है जो सेना में ‘सैपर्स एंड माइनर्स’ की होती है।सेना को मार्ग दिखाते, पुल-पुलिया बनाते वही आगे आगे चलता है और सबसे पहले मारा भी वही जाता है। यह भी कहा था कि आलोचक न्यायाधीश नहीं, मुकदमे के बचाव पक्ष (डिफेंस) का वकील होता है और वह भी इतना ईमानदार वकील कि मुव्वकिल से केस के संबंध में कुछ छुपाता नहीं। साफ साफ बता देता है कि तुम्हारा केस कमजोर है। फिरभी, जिरह करेंगे जीतने के लिए।वह साहित्य का सहचर है। प्रकाश मनु और नामवर सिंह के बीच का यह विशद संवाद ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए।इसमें कई महत्वपूर्ण बातें उभरकर आती हैं।उन्हें एवं समालोचन को बधाई !
आभारी हूँ भाई अरुण जी।
नामवर जी पिछले कोई पैंतालीस बरसों से मेरे मन और चेतना पर छाए हुए हैं। उन्हें खूब पढ़ा। उनके लिखे एक-एक शब्द को लेकर खुद से और अपने भीतर बैठे नामवर जी की छवि से अंतहीन बहसें कीं, यह एक अंनंत सिलसिला है।
लेकिन साथ ही मैंने उन्हें अपने गुरु के आसन पर बैठाया। ऐसा गुरु, जो शिष्य से यह नहीं कहता कि जो मैं कहता हूँ, वह मान लो। इसके बरक्स वे मेरे ऐसे गुरु थे, जो शिष्य को बहस के लिए न्योतते थे।
वे यह नहीं चाहते थे कि शिष्य ‘जी…जी’ करता उनके पास आए, बल्कि वे इस बात के लिए उत्तेजित करते थे कि आप उनके पास सवाल लेकर जाएँ। और सवालों के उस कठघरे में बैठकर जवाब देना उन्हें प्रिय था। एक चुनौती की तरह वे प्रसन्नता से सवालों का सामना करते थे।
शायद इसीलिए मेरे मन में उनके लिए इतना आदर और इतनी ऊँची जगह है, जहाँ कोई दूसरा नहीं आ सका।
और इससे भी बड़ी बात थी, उनका आत्म-स्वीकार या कनफेशन, जहाँ वे खुद अपने काम से असंतोष जताते हैं, और मानो एक तीखी आत्मग्लानि के साथ कहते हैं कि वे इससे कुछ बेहतर कर सकते थे, या कि उन्हें करना चाहिए था।
नामवर जी की इस ईमानदारी ने मुझे उनका सबसे ज्यादा मुरीद बनाया। कम से कम मैंने अपनी निसफ सदी की साहित्य यात्रा में ऐसा कोई दूसरा लेखक या आलोचक नहीं देखा, जिसने अपने काम से इस कदर असंतोष जताया हो या इतनी ईमानदारी से कनफेशन किया हो।
इसीलिए आत्मकथा लिखते हुए नामवर जी पर लिखना मेरे लिए सबसे ज्यादा चुनौती भरा था। वह लिखा गया, और ‘समालोचन’ के जरिए मेरे बहुत सारे मित्रों और सहृदय पाठकों तक पहुँचा। इसके लिए भाई अरुण जी और ‘समालोचन’ का साधुवाद।
सस्नेह,
प्रकाश मनु
नामवरजी को या तो बहुत प्रशंसा भाव से देखा गया (उनके आगे-पीछे उनके शिष्यों की एक बड़ी जमात थी ) या फिर अपने पूर्वाग्रहों के कारण अति निंदाभाव से। लेकिन उनकी साहित्यि समारोहों में उपस्थिति अनिवार्य थी। ।वे एक कद्दावर व्यक्ति थे और प्रखर वक्त थे। उन्हें सुनना स्वयं को समृद्ध करना था मेरे लिए।