‘यह व्याख्यान उन्होंने 1999 में भारतीय यूनिट ट्रस्ट में दिया था. मैं तब वहीं काम करता था. बाद में संस्था के भीतर वितरित होने वाले एक प्रकाशन में इसे छापा गया. हिंदी समाज तक यह नहीं पहुंचा.
जब बीसवीं सदी खत्म हो रही थी और इक्कीसवीं शुरु होने वाली थी, उन दिनों मैं भारतीय यूनिट ट्रस्ट के हिंदी कक्ष का प्रभारी था. तभी राजभाषा स्वर्ण जयंती वर्ष भी मनाया जा रहा था. इसी उपलक्ष्य में हमने अपने संस्थान में नामवर सिंह को आमंत्रित किया था. विषय था- ‘बीसवी सदी: जैसी मैंने देखी’. यह व्याख्यान 18 फरवरी 1999 को भारतीय यूनिट ट्रस्ट के कारपोरेट कार्यालय में सम्पन्न हुआ. इसे संस्थान के स्टाफ सदस्यों और कुछ आमंत्रित अतिथियों ने सुना. बाद में इसे लिप्यंतरित करके हमने संस्थान के एक प्रकाशन में प्रकाशित किया. वह प्रकाशन संस्थान तक ही सीमित था. वृहत हिंदी साहित्य समाज में यह व्याख्यान पहली बार ही प्रकाशित हो रहा है.’
अनूप सेठी
व्याख्यान |
बीसवीं सदी : जैसी, मैंने देखी नामवर सिंह |
यह बीसवीं सदी जिसका तीन चौथाई मैं जी चुका हूँ, मेरी जिंदगी के 73 साल इस बीसवीं सदी के ही हैं और आप सब की तरह ही यह मेरी शताब्दी भी है. हमारी शताब्दी है. जिसकी चोटें हमने अपने शरीर पर सही हैं, जिसके दिए हुए जख्म हमारे दिलो-दिमाग पर हैं. और जिसकी दी हुई खुशियां भी फूलों की तरह हमारी मुट्ठी में हैं.
वह सदी जो हमारे अंदर से होकर गुजरी है, रंगों में खून की तरह बहते हुए गुजरी है. उस सदी के बारे में अलग से कहना उसी तरह है, जैसे अपनी चमड़ी से निकालकर हम उसके बारे में चीड़-फाड़ करें. लेकिन जितना पीड़ादायक हो, सिंहावलोकन करना ही पड़ता है. मैं सिंहावलोकन शब्द का प्रयोग इसलिए कर रहा हूं कि अध्यक्ष महोदय कह रहे थे कि यह भारतीय संस्कृति और सभ्यता वाला आदमी होगा. धोती वगैरह पहनता है- इस नाते.
अंग्रेजी में यह मुहावरा नहीं है. बस आई व्यू होता है, जिसका हिन्दी में आप अनुवाद करते हैं विहंगावलोकन. लेकिन इस देश में, यह सिंहों का देश रहा है. नरसिंहों का देश रहा है तो हमने देखने का मुहावरा उस सिंह से लिया है. जंगल में जब सिंह चलता है, तो जिस तरह से पीछे पलटकर वह पीछे अपने जंगल को देखता है. उस देखने की एक शान होती है. ऊपर से उड़ जाने वाली चिड़िया जिस तरह देखती है, वह देखना कुछ और होता है. यूरोप के लोग उड़ती चिड़िया की तरह देखते रहे होंगे. हमारे यहाँ चाल पर बहुत जोर दिया जाता था. चाल औरतों की कैसी होती है ? कहते हैं जैसे गजगामिनी ! एक फिल्म भी इस नाम से बना चुके हैं, मकबूल फिदा हुसैन. गज की चाल, हंस की चाल और सिंह की चाल. इसलिए दौड़ते हुए लोकल ट्रेन या बस पकड़ने वालों की चाल बदल चुकी है. वे भूल गए हैं. यहाँ हड़बड़ी के लिए अपनी चाल बिगाड़ने वाले लोग नहीं रहे हैं. सिंह जिस तरह से जंगल को देखता है, चुनौती हमारे सामने है कि इस बीसवीं सदी के जंगल को उस तरह से देख सकें. वैसे सरनेम मेरा भी सिंह ही है. सवाल यह है दोस्तों कि आप बीसवीं सदी को कहाँ से देख रहे हैं. खुद अपने देश को भी, दिल्ली से जब देखें तो हिन्दुस्तान वही नहीं रहता, जो चेन्नई से देखें, तिरुअनंतपुरम से देखें, अगरतला से देखें, शिलांग से देखें या श्रीनगर से देखें, तब जो दिखता है. बड़ा फर्क पड़ता है कि आप कहाँ से देख रहे हैं. आप मलाबार हिल से देख रहे हैं कि झोपड़पट्टी से देख रहे हैं. वही मुंबई नहीं है जो मलाबार हिल से दिखाई पड़ती है, जो उसके नीचे झोपड़पट्टी से दिखाई पड़ती है. इसलिए आप कहाँ से देख रहे हैं. कैमरा वाले बेहतर जानते हैं कि कहाँ से देखते हैं.
पर्स्पैक्टिव बहुत महत्वपूर्ण होता है. कैमरा वही होता है पर हर आदमी अच्छा फोटोग्राफर नहीं हुआ करता. इसलिए बहुत महत्वपूर्ण होता है कि आप कहाँ से देख रहे हैं. वह जगह क्या है, वह लोकेशन क्या है. यह दुनिया वॉशिंगटन से वही नहीं दिखाई पड़ती जो दिल्ली से दिखाई पड़ेगी. एक गांव से वही नहीं दिखाई पड़ेगी. इसलिए आप हैं कहाँ और कहाँ से खड़े होकर देखना चाहते हैं.
गीता में जब कृष्ण रथ लेकर आए तो अर्जुन ने कृष्ण से कहा कि मुझे एक ऐसी जगह ले चलिए जहाँ से मैं पूरी सेना को एक बार देख सकूं. और देखने के बाद, जहाँ से देखा उसने, उसके बाद की कथा आप जानते हैं. उसके हाथ पांव एकदम ठंडे हो गए. विषाद योग उसे शुरू हुआ और फिर कृष्ण ने उसको उपदेश दिया. इसलिए मैं आपसे कहूंगा कि आप वह जगह चुनिए जहाँ से आप देखते हों. बीसवीं सदी की झलकियां मिलेनियम के सिलसिले में बहुत सी दिखाई गई हैं. तो इसलिए सवाल उठता है कि खुद अपनी आँख से देखिए . कबीर ने कहा था कि तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता हूँ आँखिन देखी. इसलिए देखा देखी वाली बात नहीं होनी चाहिए. खुद अपनी आँख से देखने की कोशिश कीजिए और जब अपनी आँख से देखने की कोशिश करेंगे, तो एंगल बहुत महत्वपूर्ण होगा. किस कोण से आप देख रहे हैं.
देखते समय आज के जमाने में बहुत जरूरी है जिसे भूल नहीं सकते. आपने देखा होगा कि फोटो खिंचवाते समय बहुत से लोग कैमरा कांशस होते हैं तो देखते समय भी, कभी-कभी हम देखने वालों की नज़र से देख रहे होते हैं. इस बीसवीं सदी को हम नहीं भूल सकते कि और लोग भी देख रहे हैं. वो क्या देख रहे हैं? और पिछले साल दो साल में तो बहुत से लोग बीसवीं सदी पर नज़रसानी कर रहे हैं. तमाम लोग देख रहे हैं और दिखा रहे हैं कि बीसवीं सदी यह है. इसलिए इस बीसवीं सदी को जो दूसरे लोग देख रहे हैं, उससे हम बच नहीं सकते. बराबर हमारी नज़र में रहेगा कि दूसरे लोग इसे किस नज़र से देख रहे हैं. मसलन इस बीसवीं सदी को देखते हुए सबसे पहले ध्यान लोगों का टेक्नोलॉजिकल रिवॉल्यूशन पर जाता है कि बीसवीं सदी में टेक्नोलॉजी में महान क्रांतियां हुई हैं.
परमाणु बम बना है, हाइड्रोजन बम बना है. न्यूक्लियर पॉवर 19वीं शताब्दी में नहीं हुआ था, यद्यपि विज्ञान, टेक्नोलॉजी तब भी थी. परमाणु शक्ति, अंतरिक्ष विजय. आदमी इसी शताब्दी में चाँद पर गया है. उपग्रह छोड़े हैं और इंटरनेट के जरिए सूचना क्रांति या इन्फार्मेशन रिवॉल्यूशन हुआ है. बहुत से लोग बीसवीं सदी को सिर्फ टेक्नोलॉजिकल रिवॉल्यूशन के लिए याद करना चाहते हैं और करते हैं. उनके लिए बीसवीं सदी यही है. वे भूल जाते हैं कि बीसवीं सदी में जितनी भी टेक्नोलॉजिकल रिवॉल्यूशन हुई उसकी जमीन 19 वीं सदी में तैयार हुई थी. उसी का अगला कदम बीसवीं सदी में हुआ. इसमें कोई शक नहीं कि टेकोलॉजिकल रिवॉल्यूशन हुआ है. जो लोग कह रहे हैं, सच कह रहे हैं.
लेकिन यह आधा सच है क्योंकि टेक्नोलॉजी बनाने वाला इंसान है, मनुष्य है. बीसवीं सदी में वह यह कहकर कि टेक्नोलॉजी इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है, उस मनुष्य को परदे में डाल देते हैं जैसे कि वह कुछ है ही नहीं. मनुष्य ने, स्वयं इंसान ने और क्या किया है ? जिस इंसान ने टेक्नोलॉजी की क्रांति की है, वह इंसान खुद बीसवीं सदी में क्या करता रहा है, इससे हमारा ध्यान हटाकर करीब-करीब सारा श्रेय टेक्नोलॉजी को दे दिया जाता है. मैं इसको एक तरह की खास दृष्टि कहूंगा. हमारे यहाँ बौद्धों ने दिट्ठि शब्द का प्रयोग किया था. दिट्ठि शब्द जो है, वह अधूरी दृष्टि को कहते हैं. दिट्ठि- बौद्धों ने बराबर कहा है. दिट्ठि शब्द का प्रयोग किया था, जिसको आइडियोलॉजी कहते हैं. हमारे ही देश में एक ऐसे प्रधानमंत्री थे, जिनकी देन माननी चाहिए. जिन्होंने इक्कीसवीं सदी में छलांग लगाने का नारा दिया था. वे समझते थे कि हिन्दुस्तान टेक्नोलॉजी के जरिए जो हासिल कर लेगा, तो इक्कीसवीं सदी में छलांग लगा जाएगा. एक दृष्टि है यह, जिसके बारे में मैं बहुत कम जानता हूँ. लेकिन इतना जरूर जानता हूं कि यह आधा सच है, यह पूरा सच नहीं है. बल्कि एक बहुत बड़े सच पर परदा डालता है. मनुष्य की ताकत को कम करके आंकता है, जबकि टेक्नोलॉजी मनुष्य की इंद्रियों का ही विस्तार है. इसलिए उस मनुष्य की ओर भी ध्यान जाना चाहिए.
बहुत से लोग, आखिरी विजय जिसकी होती है, उसी का गुण गाते हैं. हारे हुए की कहानी कहने वाले केवल साहित्य में होते हैं. ट्रेजिडी वहीं लिखी जाती है. जैसे कि आप जानते हैं कि महाभारत के अंत में युधिष्ठिर को यह देखकर भी आश्चर्य हुआ कि जिस दुर्योधन को गदा युद्ध में भीम मारकर आए थे, सबसे पहले स्वर्ग में वही गया था. यह व्यास कहते हैं. मैं नहीं कह रहा हूँ. महाभारत केवल जीते हुए लोगों की कहानी नहीं है, हारे हुए लोगों की भी कहानी है. इसलिए ट्रैजिडी है.
और शेक्सपियर बड़ा है. उसने हैमलेट की कहानी लिखी, जो ट्रैजिक डेथ हुई. मैकबेथ पर नाटक लिखा, वह बड़ा माना जाता है. ओथेलो को बड़ा माना जाता है. लियर बड़ा माना जाता है. शेक्सपियर अपनी ट्रैजिडी के लिए जाना जाता है, शेक्सपियर अपनी हिस्टॉरिकल कॉमिडीज के लिए नहीं जाना जाता है. चूंकि मैं लेखक हूं और शायद इस नाते मेरा पक्षपात हो, जीतने वालों का यशोगान करने वाले, खुशामद करने वाले चाटुकारों की कमी नहीं है. गली-गली मिलेंगे. मुंबई में भी हैं और दिल्ली में भी रहा करते हैं. उन पर हमारी नज़र रहती है और शायद इसलिए आप इसे भी एक दिट्ठि कहेंगे.
मनुष्य की हार-जीत बीसवीं सदी में कैसी हुई, मेरी नज़र इस पर है और मेरी नज़र में बीसवीं शताब्दी क्रांति और क्रांतियों की शताब्दी है. इतिहास याद करेगा बीसवीं सदी को. उसमें बीसवीं सदी की सबसे बड़ी घटना, शताब्दी के आरंभिक वर्षों में 1917 में रूस की बोलशेविक क्रांति हुई . यह पहली क्रांति थी और दूसरे महायुद्ध के बाद उसी परंपरा में, दूसरी क्रांति हुई चीन की. और फिर कुछ वर्षों के बाद शताब्दी के तीसरे चरण में क्यूबा में एक क्रांति हुई थी.
अमेरिका के सीने पर उसके ठीक सामने छोटा सा मुल्क, लेकिन चाकू की तरह से धंसा था- पूरब से लेकर पश्चिम तक. पहली बोलशेविक क्रांति जिसका बीजारोपण 19वीं शताब्दी में हुआ था. लेकिन 19वीं शताब्दी में कोई क्रांति नहीं हुई. क्रांति तो हुई थी 18वीं शताब्दी के अंत में, जिसे फ्रेंच रिवॉल्यूशन के रूप में जानते हैं. अजीब विडंबना है कि इतनी बड़ी महान 19वीं शताब्दी, पर क्रांति हुई, उसके विचारों ने जड़ें पकड़ीं और अमल में ले आई गईं बीसवीं- शताब्दी में. वह बोलशेविक क्रांति, जो रूस में हुई थी और दूसरी चीन में हुई, तीसरी क्यूबा में हुई. यह जिसे रूसी क्रांति मैं कहता हूँ वह है बोलशेविक क्रांति, समाजवादी क्रांति.
इस समाजवादी क्रांति का दूसरा पहलू है, जिसे मैं राष्ट्रीय मुक्ति कहता हूँ. नेशनल लिबरेशन. ठीक रूसी क्रांति के 7 साल बाद. 1917 में वह क्रांति हुई थी और लगभग वही वर्ष, उसके साल भर पहले दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह करते हुए गांधी जी भारत आए, लौटे और असहयोग आंदोलन किया, जिसे उन्होंने सत्याग्रह नाम दिया था. यह बहुत महत्वपूर्ण शब्द है. गांधी जी के उस आंदोलन को अंग्रेजी किताबों में पहले दक्षिण अफ्रीका में पैसिव रेजिस्टेन्स कहते थे. इंडियन ओपिनियन में उन्होंने विज्ञापन छपवाया था कि हमारे इस आंदोलन के लिए एक भारतीय नाम चाहिए. उन्होंने कहा कि मैं इसको, अपने आंदोलन को अगर यह भारतीयों का है, काले लोगों का आंदोलन है गोरों के खिलाफ, तो अंग्रेजी शब्द से मैं इसे व्यक्त नहीं करना चाहूंगा. हमको वह शब्द, वह भाषा चाहिए जो हमारी आवाज़ को, हमारे सच को हमारी भाषा मिले.
इंडियन ओपिनियन के दफ्तर में मदनलाल गांधी काम करते थे. कई लोगों ने नाम भेजे. उन्होंने सदाग्रह शब्द भेजा. गांधी बोले कि अच्छा है. पुरस्कार तो देना चाहिए इसको. लेकिन सोचते रहे रात भर और सुबह उठकर बोले कि सदाग्रह नहीं, सत्याग्रह ! यह सत् आग्रह नहीं है बल्कि सत्य का आग्रह है और वह सत्याग्रह शब्द अपनी भाषा का शब्द था. पैसिव रेजिस्टेन्स शब्द से बड़ा था. वह सत्याग्रह जो दक्षिण अफ्रीका में शुरू किया था गांधी जी ने.
बोलशेविक क्रांति के बाद उपनिवेशों ने, यूरोप के लोगों ने जो तमाम उपनिवेश कायम किए हुए थे, उनमें से पहला महान सत्याग्रह भारत में शुरू हुआ था और इस सत्याग्रह का गहरा संबंध बोलशेविक क्रांति से है. लेनिन के समाजवादी एजेंडा में यह अनिवार्य था कि जब तक उपनिवेशों में राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन नहीं होते, उनको राष्ट्रीय मुक्ति नहीं मिलती. जब तक कि उपनिवेशवाद खत्म नहीं होता, समाजवाद सर्वाइव नहीं कर सकता. इसलिए समाजवाद और उपनिवेशों की राष्ट्रीय मुक्ति दोनों का चोली-दामन का संबंध है. यही वजह है कि हिन्दुस्तान में गांधी जी के सत्याग्रह के साथ वे लोग हैं, जो बोलशेविक क्रांति से प्रेरित हैं. मैं हिन्दी में 1920 के आस पास की जो पत्र पत्रिकाएं पढ़ता हूं, बोलशेविक जादूगर, बोलशेविक क्रांति, लेनिन जैसी दर्जनों किताबें लिखी गई हैं. तमाम भाषाओं में. मलयालम में तमिल में, मराठी में, बंगला में. आप देखें कि जिस तरह से, जबकि सेंसर के कारण किताबें आती नहीं थीं, उसमें बोलशेविक क्रांति का स्वागत इस देश में लोगों ने किया था. हर भाषा में किताबें लिखी गई थीं और उन्हीं लोगों में से अनेक ने आगे चलकर स्वाधीनता संग्राम में गांधी जी के साथ, समाजवादियों ने, कम्युनिस्टों ने आगे बढ़कर हिस्सा लिया था. उसमें केरल के ईएमएस नम्बूदिरीपाद उसी दौर के हैं. तमिलनाडु के अनेक लोग उसी दौर में गांधी जी के साथ आए जिसमें कई मार्क्सवादी और कम्युनिस्ट भी थे.
इससे एक बड़ी बात यह हुई कि 19वीं शताब्दी के अंत में साम्राज्यवाद या पश्चिमी यूरोप के देशों ने ग्लोबल रूप अपनाया था. आज ग्लोबलाइजेशन का बहुत नाम सुना जा रहा है. पहला ग्लोबलाइजेशन पूंजीवाद का, कैपिटलिज्म का साम्राज्यवादियों ने किया था और 19वीं शताब्दी में कर लिया था. हिन्दुस्तान में हम लोग बचपन में सुना करते थे कि अंग्रेजी राज में सूरज नहीं डूबता है. इसका मतलब यह है कि पूरे भूमंडल पर वह लाल रंग कहीं न कहीं छिपकी सा दिखाई पड़ेगा. ग्लोबल था. लेनिन ने कहा था कि बोलशेविक क्रांति को भी ग्लोबल होना पड़ेगा और ग्लोबल समाजवाद के रूप में अगर नहीं होती है, तो नेशनल लिबरेशन के रूप में ग्लोबल होगी. एक अंतर्राष्ट्रीय भाई-चारा होगा.
मुंबई में तिलक की गिरफ्तारी पर जो मजदूरों ने हड़ताल की थी, लेनिन ने उसका स्वागत करते हुए एक लेख लिखा था कि भारत का मजदूर जाग गया है. भारत के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन की शुरुआत में आम जनता हिस्सा ले रही है. इसका स्वागत करते हुए लेनिन ने वह लेख लिखा था. इसलिए मैंने कहा था कि बीसवीं शताब्दी क्रांतियों की शताब्दी है. एक तो बोलशेविक क्रांति है लेकिन दूसरी वह सत्याग्रह वाली भी क्रांति है, अहिंसात्मक क्रांति है. इसलिए बीसवीं शताब्दी को लोग अलग-अलग नामों से शॉर्टहैण्ड में नाम देने की कोशिश कर रहे हैं. बीसवीं शताब्दी गांधी की, लेनिन की और माओत्सेतुंग की शताब्दी है. और लेनिन ने बहुत पहले कहा था कि जिस दिन ये तीनों मुक्त होंगे और समाजवाद कायम करेंगे, उस दिन दुनिया का नक्शा बदल जाएगा. रूस और चीन में तो समाजवाद आया. कभी गहराई से विचार करना चाहिए कि 1947 में, भारत में केवल सत्ता हस्तांतरित नहीं हुई होती, बल्कि नेवी विद्रोह के कारण और उसके साथ प्रेरणा लेकर कहीं अगर क्रांति हुई होती, तो बीसवीं शताब्दी का अंत जैसा आज हुआ है, वैसा न हुआ होता. इसलिए बीसवीं शताब्दी की केंद्रीय घटना है समाजवादी क्रांति और राष्ट्रीय मुक्ति! दोनों का गठजोड़!
और दूसरी सबसे बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है कि विश्व इतिहास जब लिखा जाएगा, तो यह कि यूरोप सेंटर नहीं रहा है. बीसवीं सदी में सेंटर, डी सेंटर हुआ है और क्रांतियों का केंद्र हट कर पूरब में आया है. रूस यूरोप नहीं माना जाता है, पूरब है. सेंट्रल एशिया को भी शामिल करें तो साक्षात् पूरब है. चीन पूरब है. भारत पूरब है. बीसवीं शताब्दी में सूरज पूरब में उदय हुआ था. इससे पहले 19वीं शताब्दी में पश्चिम में हुआ था क्योंकि 19वीं शताब्दी का विश्व का इतिहास ‘यूरोसेंट्रिक’ है. ‘यूरोप केंद्रित’ इतिहास है. बीसवीं शताब्दी में विश्व का इतिहास पूर्व केंद्रित होता है और इसका सेंटर पूरब में आता है. लेनिन का चेहरा देखें. फोटो देखकर आप अंदाजा लगाएंगे कि यह यूरोपियन नहीं है. शक्ल बताती है. मंगोलियाई चेहरा है उनका. माओ तो मंगोलियाई हैं ही. और हिन्दुस्तान के गांधी का चेहरा तो ठेठ हिन्दुस्तानी है. उनके कान उस तरह के. उनकी नाक, उनके चीक बोन्स ठेठ गुजराती मालूम होते हैं. गिजुभाई. इसलिए बीसवीं सदी के केंद्र में, पूरब में सूर्य का, नई चेतना का उदय हुआ है. और उसकी दो धुरी हैं- समाजवाद और राष्ट्रीय मुक्ति ! लेकिन फिर- कहूंगा कि यह शताब्दी का आधा सच है. यह पूर्व शती है. उत्तर शती की कहानी यही नहीं है.
दूसरे महायुद्ध के बाद की बीसवीं शताब्दी मोटे तौर से कोल्ड वार की शताब्दी कही जाती है. शीत युद्ध. अंग्रेजी में जिसको यूफेमिज्म कहते हैं, मुझे कोल्ड वार शब्द यूफेमिम मालूम होता है. यह अमेरिका और रूस के बीच केवल कोल्ड वार नहीं था. उत्तर शती का पिछले पैंतालीस, पचास वर्षों का इतिहास देखें, तो 200 सिविल वॉर हुए हैं. वियतनाम की लड़ाई आप नहीं भूले होंगे. चिली में आयंदे की सरकार का तख्ता 1973 में पलटा गया था और समाजवादी सरकार ध्वस्त की गई थी. अफ्रीका में इतनी लड़ाइयां हुईं.
इसलिए कोल्ड वार को मैंने कहा कि एक तरह का यूफेमिज्म था. उसके बाद पिछले 45 वर्ष दुनिया में तीसरा युद्ध तो नहीं हुआ लेकिन छोटे-छोटे लोकल सिविल वार होते रहे. इन लड़ाइयों में नेशनल लिबरेशन जारी रहा. उपनिवेशवाद के विरुद्ध, साम्राज्यवाद के विरुद्ध दुनिया के अनेक राष्ट्र एक-एक कर आजाद होते गए. जान देकर, जान गंवा कर, बड़ी कीमत देकर. और इन तमाम लड़ाइयों के बीच पहले की आधी शताब्दी में रूस की भूमिका थी. सारे नेशनल लिबरेशन में रूस ने आगे बढ़कर मदद दी थी. स्वयं हिन्दुस्तान के निर्माण में विकास का पूरा का पूरा माडल जो नेहरू ने तैयार किया था, वहीं का था. रूस पहला था जिसने आगे बढ़कर भिलाई का स्टील प्लांट भारत को दिया था. समाजवाद ने भारत में और भारत के बाहर, चाहे वह चीन हो, अफ्रीका के देश हों, उन तमाम देशों को, अंगोला को, मोजांबिक को, खुद दक्षिण अफ्रीका को, नेल्सन मंडेला को इन तमाम राष्ट्रीय मुक्ति की ताकतों को, दुनिया में जो अपनी आजादी के लिए लड़ रही थीं, रूस ने मदद दी. अगर रूस न होता तो उनमें से बहुतों को यह कामयाबी हासिल न हुई होती. न अपने विकास में, न अपनी आज़ादी हासिल करने में.
इस पूरी प्रक्रिया में शीत युद्ध के दौरान मेरी समझ में निर्णायक घटना थी विएतनाम वार नहीं, बल्कि 1973 में चिली में आयंदे की सरकार का तख्त पलटना. वहाँ से जो समाजवाद, जो राष्ट्रीय मुक्ति का ज्वार था, वह पलटता है. भाटा में बदलता है. जिसकी परिणति 1989-90 में सोवियत संघ के टूट-टूट कर बिखर जाने, समाजवाद के ध्वस्त हो जाने के साथ होती है. 20 वीं शताब्दी का आखिरी दशक शेक्सपियर की ट्रैजिडी के समान इन क्रांतियों के ध्वस्त होने का रहा.
लेकिन एक ओर साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद. और दूसरी ओर नई समाजवादी शक्तियां, पिछड़ी हुईं, जो आम तौर से विकसित औद्योगिक समाज नहीं थे, सारी की सारी अग्रेरियन सोसाइटियां थीं, खेतिहरों के देश थे चाहे वह रूस हो, चाहे वह चीन हो, चाहे वह भारत हो. मार्क्स ने तो कहा था कि जहाँ विकसित पूंजीवाद होगा, समाजवाद कायदे से वहाँ आना चाहिए, उसके अंतर्विरोधों से. खेती वाले देशों में आया और आने के बाद जिस स्पर्धा ने और जिसको मैं कहूं, कॉन्फ्लिक्ट, युद्ध था दोनों ताकतों के बीच में. एक ओर साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद, तो दूसरी ओर समाजवाद और मुक्त राष्ट्रवाद. इस लड़ाई में रूस को सारी ताकत जो हासिल हुई थी- क्रांति से, समाजवाद और राष्ट्रीय मुक्ति से, उसे बचाने में सारी ताकत, सारी पूंजी, सत्ता खत्म हो गई. आखिर तक आते-आते मुकाबला नहीं कर सकी और ध्वस्त हो गई.
मित्रों, अमेरिका का वर्चस्व विश्व में एक दिन में नहीं कायम हुआ. बीसवीं शताब्दी का अन्त यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका के वर्चस्व के साथ हुआ. लेकिन आप ध्यान दें तो वर्चस्व एक दिन में नहीं हुआ. अपना इतिहास पढ़ने वाले हम लोग जानते हैं कि इस देश में एक स्लेव डाइनेस्टी का रूल हुआ करता था. दिल्ली सल्तनत जिसे कहते हैं. कुतुबुद्दीन ऐबक स्लेव था. गुलाम मनुष्य जिसे कहते हैं. तो हमारे यहाँ गुलाम वंश का राज बहुत दिनों तक दिल्ली सल्तनत पर रहा है. और गुलाम जब राजा होता है, तो बलबन होता है. अमेरिका भी गुलाम था. वह भी कॉलोनी थी हमारी तरह. और एक गुलाम आज दुनिया का सबसे बड़ा मालिक जिस तरह बना है, वह इतिहास में अध्ययन की वस्तु है, ध्यान से देखना चाहिए.
पहले महायुद्ध तक अमेरिका ऐसा हो चुका था कि 1919 में वार्सा की संधि का सुपरविजन प्रेसिडेंट विल्सन ने किया था. वहाँ मौजूद थे. आप कौन थे भई ? आप कौन होते हैं ? लड़ने तो आए नहीं. लड़ा इंग्लैंड, फ्रान्स, जर्मनी. यूरोप लड़ा और जिसने संधि कराई वह अमेरिकन प्रेसिडेंट विल्सन थे. वार्सा की संधि पर उनके भी हस्ताक्षर हैं. उससे मालूम हो गया था कि यह नया उभरने वाला, जो कल का गुलाम अंग्रेजों का, आज अब इस हालत में आ गया है कि अंग्रेजों के साथ बराबरी कर रहा है. दूसरे महायुद्ध में योगदान करते रहे, लेकिन कायदे से दूसरे महायुद्ध की कहानी पढ़ें तो अमेरिका ने कितना खोया कितना पाया, वह अलग कहानी है जितना इंग्लैंड तबाह हुआ, अमेरिका पर क्या बीता ? दूसरे महायुद्ध में अमेरिका ने क्या खोया ? फ़्रांस तबाह हुआ. फ़्रांस तो गुलाम हुआ था. नाजियों के पंजों में था. दूसरे विश्व युद्ध के बाद निश्चित रूप से ब्रिटिश साम्राज्य की राख से जो नया कैपिटलिज्म फिनिक्स की तरह पैदा हुआ था, उसका नाम है- यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका. और तब से लेकर ‘अमेरिकन वे ऑफ लाइफ’ और सीआईए वगैरह चीजें उभरी हैं. अगर आप बीसवीं शताब्दी का दुनिया का इतिहास पढ़ें तो 1947 से पहले सीआईए वगैरह का नाम नहीं मिलता. अमेरिका एक सिस्टिमैटिक तरीके से जिस तरह से इन तमाम चीजों के बीच पहुंचा कि आज यूरोपियन यूनियन बनाने के बावजूद अमरीकी मॉडेल यूरोपियन यूनियन का मॉडेल है.
पूंजीवाद पहले एक राष्ट्र का हुआ करता था. बीसवीं शताब्दी के अंत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों वाला पूंजीवाद चला- मल्टी नेशनल कैपिटलिज्म और फील्ड्स कैपिटैलिज्म. विश्व में तिजारत पहले भी हुआ करती थी लेकिन डब्ल्यूटीओ जितनी बड़ी ताकतवर संस्था है, जिसका नाम पहले इतना नहीं सुना जाता था, अब घर-घर में इसका नाम पहुंच गया है. वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइजेशन और इतनी बड़ी ताकत के रूप में ! इसलिए एक नया तंत्र जिसमें विकास का अमरीकी मॉडल, वाणिज्य का अमरीकी मॉडल और साथ ही कल्चर. सारी की सारी चीजें पूरे यूरोप में लगभग, जब नाम लेना पड़ा, तो अपनी करंसी तक के नाम में यूरोप अपनी भाषाओं के ईमान को भूल गया. उसका नाम है- यूरो डॉलर ! कहाँ गए ड्यूश मार्क, फ्रैंक. पाउंड पर अंग्रेजों को बड़ा गुमान रहा है, वह पाउंड कहाँ गया ? वहाँ पर डॉलर, यूरो डॉलर और इसे मैं प्रतीकात्मक मानता हूँ, साहित्यकार के नाते हम लोग कहते हैं न कि सिक्का चल गया ! सिक्का जमा दिया ! और यूटीआई के लोग सिक्के के महत्व को हमसे ज्यादा जानते हैं. इसलिए यह जो सिक्का अमेरिका का चला, जमा, बीसवीं शताब्दी की महत्वपूर्ण घटना मानी जाएगी. दुनिया में जिस तरह से मैंने कहा और यह हुआ है कि समाजवाद और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन को खत्म करके वर्चस्व स्थापित किया है, इसे नहीं भूलना चाहिए.
कहानी थोड़ी सी और बाकी है और वह यह कि इसी बीसवीं शताब्दी में एक और घटना हुई जिसका संबंध इस शताब्दी के अंत से जुड़ा हुआ है. क्योंकि बीसवीं शताब्दी जिस धुरी पर घूमती रही, वह समाजवाद और राष्ट्र आंदोलन है. उसका विरोध करके आप आगे बढ़ें या उसको स्वीकार करके आगे बढ़ें. मुद्दा वह था. यूरोप में एक जमाने में सोशल डिमोक्रेटिक पार्टी बहुत मजबूत थी. आज भी यूरोपियन यूनियन में अधिकांश सोशल डिमोक्रेटिक पार्टियां हैं. चाहे इंग्लंड में लेबर हो. फ़्रांस में है, जर्मनी में सोशल डिमोक्रेट्स पार्टी है. जहाँ-जहाँ सोशल डिमोक्रेट्स थे और समाजवाद को हराने के लिए इसी के बीच से और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के कारण इन्हीं में से चार जगहों पर फासिज्म कायम हुआ था. मशहूर है- जर्मनी और इटली. एक में हिटलर आया. दूसरे में मुसोलिनी. लेकिन फ्रैंको की तानाशाही स्पेन में आयी थी और ऑस्ट्रिया में भी फासिज्म कायम हुआ था. चार देश थे. जहाँ समाजवाद प्रबल था, वहीं फासिज्य आया. फासिज्म केवल यहूदियों का विरोधी नहीं था.
यहूदी के नाम पर फासिज्म के कट्टर दुश्मन कम्युनिस्ट थे, क्योंकि कार्ल मार्क्स यहूदी था, क्योंकि मार्क्स का साथी एंगल्स यहूदी था. उनका ख्याल था कि जितने यहूदी थे, उनमें और कम्युनिस्टों में सांठ गांठ है. फासिज्म समाजवाद के विरोध में आया था. राष्ट्रवाद का नाम लेकर आया था. राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान एक राष्ट्रवाद क्रांतिकारी था, जो समाजवाद विरोधी था और दूसरा, राष्ट्रवाद था जो अपने को नेशनल सोशलिज्म कहता था. नात्सी पार्टी का नाम ही है-जर्मनी में.
नात्सी जिसे कहते हैं- नेश्यो और सोशलिज्म ! फासिज्म वही चीज है. राष्ट्र की भावना जो हर सताई हुई जाति के अंदर रहा करती है. जिसे कहते हैं न कि हीरा हीरे से ही कटता है. राष्ट्रवाद राष्ट्रवाद से ही काटा जा सकता है, दूसरी चीज से नहीं काटा जा सकता. पूंजीवाद से नहीं काटा जा सकता. शीत युद्ध के दौरान अमेरिका ने जितने सिविल वार किए, उसके साथ-साथ एक और काम किया. पहले अफ्रीका में रेशियल या नस्ल के नाम पर उसने फासिज्म कायम करने की कोशिश की. और बाद में चलकर, पूरब के देशों में चूंकि धर्म का महत्व बहुत अधिक है, मजहब का बहुत महत्व है. इसलिए आप देखेंगे कि एक बहुत बड़े पैमाने पर जहाँ-जहाँ राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन चले हैं, उन्हीं देशों में एक ऐसे अंध राष्ट्रवाद जिसको सोविनिज्म हम अंग्रेजी में कहते हैं. ये सोविनिज्म धर्म के नाम पर, मजहब के नाम पर उभार कर फिर उस राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन को या नव स्वाधीन देशों को एक और दिशा देने की कोशिश की. इन सब को हम आतंकवादियों के रूप से जानते हैं, जो टेररिस्ट मूवमेंट हैं. हर देश में हैं. जिसका जहर खुद रूस में भी आखिरी दिनों में सेंट्रल रूस के देशों में फैलाने की कोशिश की- उजबेगिस्तान में, तजाकिस्तान में और जहाँ क्षेत्रीय और कभी-कभी एथनिक लड़ाइयां हुईं. इसलिए बीसवीं शताब्दी अगर क्रांतियों की शताब्दी है, तो बीसवी शताब्दी प्रतिक्रांतियों की भी शताब्दी है. काउंटर रिवॉल्यूशन जिसे कहते हैं.
यह मिली जुली एक कहानी है, जैसा मैंने कहा कि मेरी देखी हुई बीसवीं सदी- जैसी मैंने देखी. इन तमाम चीजों का असर हमारे खून पर है. आज भी हम महसूस कर सकते हैं यह ऊर्जा, जो 34-36 के दिनों में साहित्य में हमने देखी. राष्ट्रीयता की मुक्ति का संघर्ष ! सुब्रमण्यम भारती की राष्ट्र की आवाज़ जैसी सुनाई पड़ी. मलयालम में वल्लतोल से सुनाई पड़ी. वह आवाज़ धीरे- धीरे वैसे ही आगे चलकर समाजवादी आवाज़ में, आंध्रप्रदेश में तेलुगु के प्रसिद्ध कवि श्री श्री की कविता में दिखी. उसी तरह से मराठी में इस समय आप देखें, तो जो दलितों के रूप में और वैसे भी नारायण सुर्वे में सुनाई पड़ती है.
हिन्दी में निराला में है. नागार्जुन में सुनाई पड़ती है. प्रेमचंद के उपन्यासों में झलकती है. तकषी शिवशंकर पिल्ले के उपन्यासों में दिखाई पड़ती है. वैकम मोहम्मद बशीर में दिखाई पड़ती है. उर्दू के साहित्यकारों में, एक जमाने में जो हमारा तराना लिखा था- ‘सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ता हमारा’ इकबाल ने, और उसके बाद के शायरों की दूसरी परंपरा में दिखाई पड़ती है. यह वह चेतना थी- एक ऐसे भविष्य की, जो समाजवादी सपना था. और साथ ही एक मुक्त राष्ट्र जो विकसित हो और ताकतवर हो, उन संदेशों को लेकर बना था.
बीसवीं सदी इन तमाम चीजों की मिली-जुली सदी रही लेकिन कहानी ज्यादा दिलचस्प हुई. जैसे, वह फिल्म ही क्या जिसमें खलनायक न हो. बीसवीं सदी केवल नायकों की कहानी नहीं है. बीसवीं सदी खलनायकों के साथ जुड़ी हुई कहानी है. और वह उपन्यास, वह नाटक, वह कविता तभी जानदार होती है. रामायण में क्या ताकत होती, अगर रावण उसमें नहीं होता. महाभारत में अगर शकुनि न होते और दुर्योधन न होता, तो केवल कृष्ण गीता सुनाते रहते – अर्जुन को, तो नींद आने लगती. बीसवीं शताब्दी, एक लेखक के नाते मुझे एक ऐसी दिलचस्प कहानी है, जिसमें नायक और खलनायक है, द्वंद्व है, संघर्ष है. और बिना कॉन्फ्लिक्ट के तो नाटक होता ही नहीं है. इसलिए यह सिनेरिओ है एक ऐसी फिल्म का. चार्ली चैप्लिन के शब्दों में यह मॉडर्न टाइम्स की फिल्म है.
यह बीसवीं शताब्दी है, उस बीसवीं शताब्दी के अंत में जहाँ हम पहुंचे हैं, जिसे मिलेनियम के रूप में मनाया गया है. यह एक काउंटर मिलेनियम है. इस रूप में मिलेनियम क्रिश्चियन टर्म है. न्यू टेस्टामेंट बाइबिल के अंत में जहाँ रिवलेशन्स ऑफ जॉन है, उसमें प्रॉफिसिज आती हैं. और अगर याद करें हम, तो उसमें कहा गया है कि उस प्रॉफिसी में, कि मिलेनियम के अंत में क्राइस्ट वापस आएंगे. वापस आएंगे. एक हजार वर्षों तक न्याय का राज्य स्थापित करेंगे और उन सताए हुए लोगों के, पीड़ितों के आँसू पोंछेंगे. और यह कहते समय जो बाइबिल उस समय लिखी जा रही होगी, तो रोमन साम्राज्य में जो ईसाइयों को सताया गया था, उनके कंपेन्सेशन का सपना मिलेनियम में देखा गया न्यू टेस्टामेंट में.
मित्रो, यह केवल ईसाई मजहब का नहीं है, बल्कि इतिहास तो यही कहता है. यह नहीं कि मैं भारतीय हूं इसलिए कहता हूं. उसके बहुत पहले गौतम बुद्ध ने कहा था कि बुद्ध फिर से आएंगे- बोधिसत्व के रूप में ! मैत्रेये बुद्ध आएंगे और आकर इसी तरह से दुखियों के आँसू पोंछेंगे और न्याय का राज्य स्थापित करेंगे. आगे चलकर 1000 ईस्वी जब पूरी हो गई और तमिलनाडु के लोग जानते हैं, वैष्णवों के अवतार के आंदोलन को कि भगवद् नारायण आएंगे. अवतार लेंगे. जमीन पर उतरेंगे और तमाम लोगों को ये जात-पात, छूत-अछूत मिटा कर एक बराबरी का समझेंगे. दुखियों के आँसू पोछेंगे. ये यहाँ रहा है. सच्चाई तो यह है कि एक जमाने में यह भारत की परिकल्पना रही है.
आज डब्ल्यूटीओ का बहुत नाम लिया जा रहा है. एक जमाने में भारत का मिडिल ईस्ट और सेंट्रल एशिया से और समुद्री किनारों से आवागमन रहा है. जिन लोगों ने चोल राजाओं का पांड्यों का इतिहास पढ़ा है, वे जानते हैं कि नेविगेशन के जरिए बंगाल की खाड़ी और अरब समुद्र के जरिए दूर-दूर तक हम लोग व्यापार करते थे. और उस व्यापार में केवल अपना माल ही वहाँ नहीं ले जाते थे बल्कि अपना संदेश भी हम लोग ले गए थे. उनमें से मिलेनियम की परिकल्पना एक है कि सृष्टि में प्रलय के बाद एक ऐसी स्थिति होगी कि भगवान अवतार लेंगे और अवतार लेकर दुखियों का दुख दूर करेंगे.
जिक्र आज इसका इसलिए कर रहा हूं कि यह मिलेनियम जो आ रहा है, क्या यह मिलेनियम उसी तरह से हिन्दुस्तान के गरीबों का दुख दूर करने के लिए आया है या पूंजीपति व हिन्दुस्तान के सेठों की तिजोरी भरने के लिए आया है? यह पैरोडी है मिलेनियम की ! और ईसाई धर्म को मानने वाले वेस्ट के लोग जो दावा करते हैं, वे मजाक उड़ा रहे हैं मिलेनियम का. नया वर्ल्ड, न्यू वर्ल्ड जिसे कहते हैं, यह न्यू वर्ल्ड ऑर्डर क्या विश्व से गरीबी और असमानता हटाने के लिए आया है ?
या यह व्यवस्था गलत सूचनाओं की वारिस है जो पूरी सूचना को उस तंत्र के द्वारा या कंप्यूटर के द्वारा, कंट्रोल किए हुए है. सच पूछिए तो ये क्राइस्ट आज के जमाने में कंप्यूटर की शक्ल में आए हैं और सारी दुनिया को सूचनाओं से लेकर उसके अर्थ तंत्र तक को, फिनिश्ड कैपिटल को कंट्रोल करने की ताकत लिए हुए आए हैं.
मुझे वह शेर याद आता है- ‘हर सू दिखाई देते हैं वो जलवागर मुझे/ क्या-क्या फरेब देती है मेरी नज़र मुझे’. यह जो नया जलवा न्यू वर्ल्ड ऑर्डर का है, ये समझते हैं कि कंप्यूटर जादूगर है और सारी दुनिया को एक दिन स्वर्ग में बदल देगा. इसलिए इसकी चकाचौंध के आगे और खास तौर से मुंबई में आकर तो मुझे अब वह अपनी बूढ़ी, पुरानी, बीतती हुई, बीसवीं सदी दिखाई भी नहीं पड़ रही है. दिखाई पड़े तो आपको कुछ बताऊंगा. धन्यवाद !
अनूप सेठी (10 जून, 1958) के दो कविता संग्रह ‘चौबारे पर एकालाप’ और ‘जगत में मेला’, अनुवाद की पुस्तक ‘नोम चॉम्स्की सत्ता के सामने’ दो मूल और एक अनूदित नाटक प्रकाशित हैं. कुछ रचनाओं के मराठी और पंजाबी में अनुवाद भी हुए हैं. मुंबई में रहते हैं. anupsethi@gmail.com |
बीसवीं सदी को दैखन समझने की समृद्ध समावेशी दृष्टि और ज़मीन मुहैया करवाती है ये लेख। यह उद्बोधन मुहैया करवाकर अनूप सेठी ने हिंदी भाषी समाज पर बड़ा उपकार किया है।
20वीं सदी की उपलब्धियां, वैचारिक संघर्ष और सामाजिक प्रवाह के प्रति एक नवीन नजरिए से देखने का जो साहस नामवर जी कर पाए वह साहित्य, समाज और राजनीति के प्रति बहुआयामी विचार करने को विवश करता है। अनूप सेठी जी का आभार।
नामवरजी को वाचिक परम्परा में श्रवण करना या उनके वक्तव्य को पढ़ना सदैव समृद्ध करता रहा है । अनूप सेठी जी का खूब आभार ।
बेहतरीन व्याख्यान। बीसवीं सदी को समझने में बहुत मददगार। क्रांति और प्रतिक्रांति, नायक और खलनायक के योग से बनी शताब्दी को नामवर जी ने बखूबी समझाया।
अनूप सेठी का धन्यवाद।
समालोचन को शुक्रिया।
बेहतरीन विद्वतापूर्ण लेख । पूरा 20 वीं शताब्दी के क्रिया कलापो का लेखा जोखा है ।