• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » मति का धीर : निर्मल वर्मा

मति का धीर : निर्मल वर्मा

हिंदी कथा जगत में अगर निर्मल वर्मा न हुए होते तो शायद हम जीवन के एकांत और मन के अंतरतम के यथार्थ से वंचित रह जाते.  भारतीय मनीषा के अस्तित्वगत चिंतन की तरह  उनके पात्र सांसारिकता को छोड़ते चलते हैं और अकेलेपन की किसी पगडंडी पर दूर तक निकल जाते हैं. उनका कथा–जगत गहरा अवसाद […]

by arun dev
April 2, 2012
in Uncategorized
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें





हिंदी कथा जगत में अगर निर्मल वर्मा न हुए होते तो शायद हम जीवन के एकांत और मन के अंतरतम के यथार्थ से वंचित रह जाते.  भारतीय मनीषा के अस्तित्वगत चिंतन की तरह  उनके पात्र सांसारिकता को छोड़ते चलते हैं और अकेलेपन की किसी पगडंडी पर दूर तक निकल जाते हैं. उनका कथा–जगत गहरा अवसाद छोड़ जाता है. निर्मल साहित्य और चिंतन के पूर्णकालिक नागरिक हैं.

आज उनके जन्म दिन पर युवा कथाकार आशुतोष भारद्वाज का यह स्मृति लेख. 

शायद एक कथाकार को निर्मल वर्मा के पास इसी तरह जाना चाहिए, उनके होने और न होने के बीच उनकी मानवीय उपस्थिति को गहरे लगाव से देखता हुआ आलेख.


निर्मल आये थे             

आशुतोष भारद्वाज

 


छब्बीस अक्टूबर दो हजार पांच की इस शाम चुप बैठा देखता हॅू,..सामने टीन शेड के नीचे लकडि़यों को. सभी लोग बाहर अहाते में चले गये हैं, लौटने लगे हैं. पंडित बोला था कपाल क्रिया के बाद आप जा सकते हैं. लेकिन मैं नहीं जाना चाहता. अकेला हूँ धधकती लकडि़यों के सामने…जहां कुछ देर पहले निर्मल को बाहों में ले आहिस्ते से लिटा दिया था. निर्मल शांत सोये थे, सफेद चादर से बाहर चेहरा झांकता था दांयी ओर सिर ढुलक आता था मैं कांप जाता कहीं खुरखुरी लकडि़यों से उनके सिर में खरौंच न आये.
लकडियाँ ढहने लगीं हैं और दरकता है मेरे भीतर का वह जीव जो अर्सा पहले की एक दोपहर जन्मा था. निर्मल से वह पहला परिचय था, इक्कीस सितंबर सत्तानबे को चर्नी रोड, बंबई, की महात्मा गाँधी लाइब्रेरी में वे दिन पढ़ी थी. आजादी के पचासवें वर्ष पर आउटलुक के विशेषांक में पिछले पचास सालों की दस चुनिंदा किताबों की सूची में वे दिन -अंग्रेजी पत्रिका की उस सूची हिंदी की अकेली किताब? निर्मल की सृष्टि में पहला कदम कौतूहल व संयोग का था, तब ही पहली बार आकांक्षा की स्निग्धता और पीड़ा का उन्माद महसूस किया था.वे दिन के छोटे सुख को जाना था, एक चिथड़ा सुख की बिट्टी के चेहरे को दुख का पर्याय बनते देखा था.
एक अजानी सृष्टि खुलती गयी थी, आँसू की हिचकी उपर आते में कहीं रास्ते में खो जाती थी और रात भर यूनिवर्सिटी हास्टल के बाहर मैरीन ड्राइव पर बैठा समंदर को देखता, स्ट्रीट लैंप की नारंगी झरी में धुंध से उठती धुन को अंतर में उतरता महसूस करता.वही धुंधलाया सा लम्हा रहा होगा शायद जब कोई हूक सी उठी थी,किसी ने पुकारा था कहीं से जो अपनी अनुभूतियां गल्प नैरेटिव में ढालने को कहता था. कौन था वह?
उस पहले दिन-इक्कीस सितंबर-वे दिन में ही पढ़ा था—तुम बहुत से दरवाजों को खटखटाते हो, खोलते हो-और उनके परे कुछ नहीं होता-जिन्दगी भर. फिर अकस्मात कोई तुम्हारा हाथ खींच लेता है उस दरवाजे के भीतर जिसे तुमने नहीं खटखटाया था.
किसने मेरा हाथ थाम खींच लिया था?
साल भर बाद दस नवंबर अठानवे, मंगलवार, अपनी पहली कहानी हंस में देने दिल्ली आया तो सबसे पहले निर्मल से ही मिला. करोल बागी घर का उपर जाता वह जीना, जहां से शायद नारंगी सलवार सूट में एक महिला निकलीं थीं. निर्मल से मिलने का निवेदन किया, पहले उन्होंने मना किया कि वे सो रहे हैं लेकिन आग्रह पर मेरे कि बंबई से आया हॅूं, उन्होंने उपर आने को कह दिया था.
सीढि़यों के सामने खुलते कमरे से निर्मल बाहर आये थे. ब्राउन स्वेटर और जींस. छुटकू से, जापानी गुड्डा कोई…लाफिंग बुद्धा. मेरे कंधे तक भी नहीं. विस्मित सा देखता रहा… क्या ये वही थे… लाल टीन की छत,  अंतराल और अंधेरे में वाले निर्मल. इन्होंने ही लिखा था, साहित्य हमें पानी नहीं देता, सिर्फ प्यास का बोध कराता है और अधिक तृषाकुल बनाता है.
अपने जीवन में पहली बार किसी लेखक को देख रहा था….ड्राइंग रूम में हर ओर उपर तक अटी हुयीं किताबें, जिनके शीर्षक पढ़ने का मैं सफल-असफल प्रयास करता था. टीवी के केबिन में रिकार्ड प्लेयर जिस पर शायद  बिट्टी,डैरी और नित्ती भाई ने कभी जैज के रिकार्ड सुने थे. और निर्मल…वे दोनो हाथ आपस में बांधे, सिमटे सकुचाये बैठे थे. कभी बात खुलती तो भी वे कुछ शब्द बोल चुप हो जाते. गहन औदात्य.

–मैं कभी अपने प्रिय लेखकों से मिलने नहीं गया.

–आपका कभी मन नहीं हुआ?

–क्या फायदा, दोनो ही सकुचाते बैठे रहते.
लेकिन थोड़ी देर बाद वे खुलने लगे थे. शायद उन्हें मेरे बचपने का एहसास हो गया था क्योंकि जब उन्होंने मुझसे मेरे आने का प्रयोजन पूछा तो धड़ से कहा आपको देखना चाहता था. यह भी कह सकता था एक चिथड़ा सुख के निर्मल वर्मा से मिलना चाहता था. देखने की इच्छा कितनी बचकानी थी.
लेकिन मेरा यही बचपना शायद उन्हें सहज बना रहा था. दूसरी दुनिया के नायक की तरह, जो बच्ची के समक्ष खुलता जाता है.
आप यहाँ आये कैसे?

जी.

आपको यहाँ का पता कैसे मालूम हुआ?

आप के एक कहानी संग्रह से लिया है.
मैं बताने को हुआ मेरी कहानियाँ संग्रह जो आपने माँ की स्मृति को समर्पित किया है, जिसकी भूमिका में आपने लिखा है कि कलाकृति आत्मा की स्वप्न भाषा का अनुवाद करने का स्वप्न देखती है, वहां अंत में आपका पता लिखा है. लेकिन मेरे बोलने से पहले ही निर्मल ने पूछा, कौन से संग्रह में पता लिखा है?

हम पिछले दस पंद्रह मिनट से बात कर रहे थे और अक्सर मैं ही आगे बढ़ कुछ बोला करता था. निर्मल कुछ कह चुप हो जाते थे और देर तक हम चुप बैठे रहते थे लेकिन इस बार वे अचानक उत्कंठित हो उठे थे. मैं न जाने क्यों झूठ बोल गया. मुझे लगा, हालांकि नहीं मालूम क्यों, उस किताब का नाम नहीं बताना चाहिये. किसी किताब में तो पढ़ा था.
निर्मल कुछ देर सोचते रहे, मैं तो अपनी किताबों में पता नहीं देता. न जाने किस किताब में चला गया. वे शायद अपने से ही कह रहे थे. मैं ढूढ़ कर इस किताब से भी हटा दॅूंगा,पता नहीं देना चाहिये न.

क्यों नहीं देना चाहिये?

बिना पते के ही ठीक रहता है न…ला-पता लेखक.

ला-पता क्यों हो जाना चाहते हैं आप?
अब तक हमारी बातचीत अंग्रेजी में हो रही थी. तभी मैंने बतलाया कि मैं हंस में कहानी देना चाहता हॅूं, सहसा उनका स्वर  बदल गया, आप लिखते हैं?
चुप सर हिलाया. ‘आप हिंदी में लिखते हें और अंग्रेजी में बोलते हैं? ‘निर्मल झटके से हिंदी के घर में आ गये थे, ‘मुझे लगा आप बंबई से आये हैं शायद हिंदी नहीं बोल पाते हैं.\’
करारी झेंप.
इस बीच वही महिला चाय के बड़े मग और प्लेट में बीकानेरी भुजिया रख गयीं थीं. जाते में निर्मल ने आवाज दी …गगन.
सहसा ठिठका था. कहीं सुना,पढ़ा था यह नाम. कहाँ? हाँ..धुंध से उठती धुन के आवरण आकल्पन में…गगन गिल. निर्मल की किताबों के आवरण क्या यही तैयार करतीं हैं? लेकिन किसी और किताब में तो शायद नहीं यह नाम. कौन होंगी यह?
आप आगे क्या करना चाहते हैं?

बाउजी, अभी तय नहीं कर पा रहा हॅूं.

लेखक बनना चाहते हैं शायद.
शायद हाँ कहना चाहता था लेकिन तभी याद आया कहीं निर्मल ने रिल्के को किसी युवा पर हॅंसते हुये दिखाया है कि उसने रिल्के से यह कहने के बजाय कि वह लिखना चाहता है, कहा कि वह लेखक बनना चाहता है.
मैंने धीमे से कहा, पता नहीं.
शायद निर्मल को यह संशय अच्छा लगा हो लेकिन तुरंत मैंने कुछ ऐसा पूछा था जो निहायत उलजलूल था, आप लेखन के लिये कितना समय निकाल लेते हैं?

लेखन! वह तो दिन भर ही चलता रहता है. इस बार निर्मल तुरंत बोले थे.
अनोखा विस्मय. तब तक मैं लेखन को एक हाबी, पार्टटाईम कर्म माना करता था जब दिन भर की जिंदगी के बाद, रात टेबिल लैंप में कुछ लिखने बैठ जाया जाता था. लेखन सतत साधना है, यह एहसास पहली मर्तबा उन्हें देख हो रहा था. उस जीवन को नजदीक से जानने की, शायद उसे जीने और उससे भी अधिक उनका स्टडी रूम निहारने की आकांक्षा उमड़ी थी. जिस तरह वे मुझसे खुल रहे थे मुझे लगा था कुछ देर बाद पूछ लॅूंगा कि क्या मैं आपकी डैस्क देख सकता हूँ.
फिर उन्होंने पूछा, आपने किन लेखकों को पढ़ा है अब तक. मैं इस लम्हे का इंतजार सा कर रहा था, सबसे अधिक तो आपको ही पढ़ा है. धड़ से उनकी कहानी,उपन्यास और निबंधों के नाम गिनाने शुरु कर दिये.
इस बार निर्मल सकुचाये नहीं. हॅंस रहे थे. हॅंसते में ही बोले,हमारे यहाँ एक कहावत है..उॅंची दुकान,फीके पकवान…बड़ी अच्छी कहावत है यह. फिर खिलकने लगे. मैं भी हॅंसने लगा. बड़ी नादान हॅंसी उनकी…लाफिंग बुद्धा…होंठ खुलते थे, गरदन के नीचे लटकता माँस गुल गुल करता था.
कुछ लम्हा बाद मैंने अरसे से भीतर खुदकता सवाल पूछा था, जब भी कोई मुझसे पूछता है मैं कौन हूँ तो कुछ नहीं सूझता. 

मैं आखिर कौन हॅूं?
निर्मल फिर हॅंसे, आप कौन हैं, यह मैं कैसे बता सकता हूँ.

मेरा मतलब…हम कौन हैं. आप कौन हैं?
निर्मल के चेहरे पर संजीदगी गहरायी,वाणी बदली थी. कुछ देर चुप रह बोले थे, हम कौन हैं इसे जानने से अधिक जरूरी है निरंतर अपने से यह प्रश्न पूछते रहना. खुद को जानना एक प्रक्रिया है जिसका महत्व उसकी पूर्णता में नहीं सतत निर्वाह में है.
कुछ देर उनके कहे को गुनता रहा.
सत्य क्या है फिर?
सत्य वह जो आपकी चेतना का विस्तार करता है.
चेतना!
हाँ…एक दृष्टि से आप दुनिया को देखते हैं, परंतु एक बोध आपके भीतर भी है जिससे आप खुद अपने को भी कहीं देखता देख पा रहे हैं. यही बोध आपकी चेतना है.
पता नहीं मैं उनके कहे को कितना उस शाम, या आज तक भी, समझ पाया लेकिन मैंने फिर पूछा, जो किताबें पहले बहुत अच्छी लगा करतीं थी, उनमें से कई अब बिल्कुल भी पसंद नहीं आतीं….अपना पिछला जीवन, बचपन भी… क्या मैं अब तक झूठा था?
निर्मल मुस्कुराने लगे, झूठे थोड़े…वे आपके अनुभव थे. सच्चे अनुभव. इन्हीं से होकर सत्य को जाया जाता है.
मैं समझ कम रहा था, उनके कहे को याद अधिक करता जा रहा था, मानस में नोट्स बना रहा था कि रात को डायरी लिखते में उनका एक शब्द भी न गड़बड़ाये.
मेरे साथ ऐसा भी होता है अपना लिखा बहुत जल्दी ही खराब लगने लगता है. क्या मेरे अनुभव सच्चे नहीं हैं?
निर्मल देर तक मुस्कुराते रहे. वे या तो होंठ भींचे, बाहें, बाधें , टागें सिकोड़े एकदम चुप बैठे रहते थे या हौले मुस्कुराने लगते थे. इसके लिये आप यह करिये कि कहीं भी कुछ छपवाने भेजने से पहले उसे अपने पास रखे रहिये, बार बार पढि़ये…हाँलाकि यह आपका निर्णय है लेकिन चाहें तो किसी को पढ़वा लीजिये. निर्मल फिर से चुप हुये लेकिन सहसा बोल़े, मानो कोई बात अधूरी रह गयी हो, ज्यादा मित्रों से बचियेगा…यारी दोस्ती में समय ही जाता है.
नवंबर अठ्ठानबे का वह दिल्ली आना तीर्थयात्रा था मेरे लिये.
सहसा उनकी आँखें चमकने लगीं जब मैंने पूछा मुझे किन लेखकों को पढ़ लेना चाहिये. बिना आखं भर रुके जवाब दिया, विनोद कुमार शुक्ल का नौकर की कमीज खरीद कर पढि़ये.
नौकर की कमीज?

हाँ. अलका सरावगी का कलि कथा वाया बायपास भी खरीद कर पढि़ये.
किताबों का जिक्र ठीक था, लेखकों के नाम बताये बगैर भी काम चल सकता था और अगर बतलाया जा भी रहा था तो खरीदने का अतिरिक्त आग्रह जरूरी नहीं था. लेकिन निर्मल यहीं नहीं रुके, श्री राम सेंटर मंडी हाउस पर किताबें मिलती हैं. आप वहां से खरीद सकते हैं.
एक सर्जक अपनी सृजन परंपरा को कितने ही धरातल पर सींचता-समृद्ध करता है. वह अपनी आगामी पीढि़यों से संवादरत होता है. एक लेखक का महज पाठक से वह संबंध नहीं होता जो आगामी शब्दकार पीढ़ी से होता है. एक महान लेखक जहां किसी पाठक की दृष्टि व सृष्टि का विस्तार करता है, किसी नवजात शब्दकार के कोश में वह अनुभूतियों की अनंत संभावनायें भी दे जाता है. उसकी उंगली थाम उसे उन रस्तों,पगडंडियों पर ले जाता है जो नवजात से अनजान रहीं आयीं थीं. एक रिले रेस जहां दूर से चलता आता पूर्ववर्ती लेखक अपना बैटन परवर्ती को थमा देता है बाकी बची दूरी पूरी करने के लिये. लेकिन महज रिले रेस भी नहीं क्योंकि बैटन थमाने के बाद भी वह पूर्वज अपनी यात्रा समाप्त नहीं करता, उसकी रूह आगामी शब्दकार के भीतर धड़कती रहती है जिसकी उंगलियों में अब बैटन है जो वही रेस दौड़ रहा है जिसकी कमान उसके पूर्वज ने उसे दी थी. क्या सृजन परंपरा एक रिले रेस नहीं- आप किसी और की बागडोर संभालते हैं लेकिन वह और सभी पूर्ववर्ती आपके भीतर मौजूद रहते हैं, आपको निरंतर बोध रहा आता है यह महज आप की कमान-राह नहीं, आपके कदम उन्हीं रस्तों पर हैं जिन पर आपसे पहले अनगिन आये थे, आपके उपरांत भी आयेंगे. बहुत संभव यह भी कि आपको भले ही कमान दे दी गयी हो आपके पितामह ही आपके कदम संचालित कर रहे हों.

 

एक नवजात शब्दकार की आरंभिक कथायें उसके व्यक्तिगत जीवन से भले उपजें क्योंकि वह अपने से परे नहीं देख पाता, उनके नैरिटिव के महीन सूत्र वह अपने परवर्ती लेखक के किरदारों में ही खोजता है. शब्द संसर्ग का अनछुआ रोमांच…जब वह पहली मर्तबा शब्दों के पास सहमता सकुचाता जाता है अपना कौमार्य अपने  किरदारों को सौंपने..सहसा पाता है, वह राह जिससे होकर वह यहाँ तक पहुचा था उस पितामह लेखक की कहानी से जन्मी थी जिसे उसने समय बीते लाइब्रेरी के शीशे से आती धूप में या बिस्तर पर औंधे पड़े, टेबिल लैंप तले पढ़ा था.
निर्मल ऐसे ही लेखक थे. पाठकों के नहीं लेखकों के लेखक. बर्सों पहले जब शब्द छुअन महसूस की थी, अक्सर मेरे पात्र बीच में ठिठक जाते, मुझसे निगाहें चुरा दूर छुप जाते फिर कुछ दिन बाद उनका कोई उपन्यास पढ़ते में कुछ अनायास कौंधता,कहानी आगे बढ़ लेती.
धुंध से उठती धुन बाइबिल बन चुकी थी. लेखन कर्म ही नहीं संपूर्ण जीवन का एक अनिवार्य संविधान…एक अक्षत सरोवर, जहां गल्प ही नहीं मेरा धुंधलाया-कुम्हालाया जीवन भी अपनी तृषा शांत करने या शायद और अधिक तृषाकुल होने जब तब आया करता था. मैं यह निर्मल के समक्ष कन्फैस करना भी चाहता था जब मई दो हजार एक की एक शाम अपनी कहानियों पर उनकी राय जानने पटपड़गंज गया था. लेकिन चुप रह गया. कैसे कहता मेरे पात्र अपने नैरेटिव चिन्हों के लिये बार बार रायना,बिट्टी और नित्ती भाई के पास जाते हैं. काया को पता भी नहीं चलता किसी शाम शिमला की छत पर फिसली उसकी परछांई मेरी नायिका में उतर आती है, भले ही वह कई सौ मील दूर बंबई के समुद्र पर उड़ते फ्लैमिंगो देखती है.
लेकिन निर्मल इसे पहचान गये थे. चाय का मग उनके एक हाथ में था, दूसरे से ब्रिटानिया मैरीगोल्ड बिस्किट कुतर रहे थे. आपके पास इतनी सेंसिटिव भाषा है लेकिन आप अपने किरदारों को रास्ते में क्यों छोड़ देते हो?
रास्ते में छोड़ देता हूँ?
हाँ. निर्मल ने मग मेज पर रख दिया था,मैंने दो बार पढ़ा लेकिन नहीं समझ पाया आखिर आपकी रेशल इस स्थिति में कैसे आती है.
मुझे लगता है अगर कुछ चीजें अनकही रह जायें तो शायद अधिक प्रभाव पड़ेगा.
जाहिरी तौर पर यह मेरी कच्ची और आयातित समझ थी जब अपने पात्रों को उनके स्वभाव के बजाय किसी विचार से संचालित होने दे रहा था, भले उस शाम मैं इससे अनजान था.
लेकिन निर्मल न थे. हॅंस रहे थे.
आप किसी के साथ सोते हैं, संबंध बनाते हैं तो क्या चीजें उतनी आसान रह जातीं हैं जैसा आपके किरदार दिखाते हैं?
मैंने किन्हीं फिल्मों और किसी फिल्म निर्देशक के बारे में बताया था –एक्शन टेक्स प्लेस आफ स्क्रीन. शैडो  आफ द एक्शन इज आन स्क्रीन.
निर्मल फिर मुस्कुराये,ये तो आसान रास्ता हुआ!
आसान रास्ता?
हाँ. निर्मल दीवान पर आगे सरक आये, आप ने कहीं कुछ पढ़ लिया और तय किया कहानी कैसे आगे बढ़ेगी. पात्रों को अपने आप विकसित होने दीजिये. कौन होते हैं आप उनकी राह निर्धारित करने वाले. इस उम्र में आपको सिर्फ अपने किरदारों की आवाज सुननी चाहिये. सब कुछ भूल कर चुपचाप सुनिये वे आपसे क्या कहते हैं.
निर्मल मुझे उस रास्ते पर ले जा रहे थे जहां व्यक्ति और उसके पात्रों के बीच का द्वैध मिट जाता था. ड्राइंग रुम की खिड़की से हल्की रोशनी भीतर आ रही थी, चारों ओर अटी किताबों के बीच से निर्मल मुझे देख रहे थे, वैसे तो कहानी में कुछ भी संभव है, वह अपनी सृष्टि आप ही रचती है लेकिन हर कहानी का एक परिवेश होता है, भौगोलिक से कहीं अधिक सांस्कृतिक बोधभूमि….यही आपके पात्रों को उनकी जमीन से जोड़ती है…. एक अंग्रेज पिता का अपनी बेटी से वह संबंध थोड़े ही होता है जो भारतीय पिता का होता है.
इल्हाम के लम्हे थे. निर्मल पर्वत शिखर पर बैठे पैगंबर. और चार वर्षों का अंतराल.
इन चार वर्षों के प्रयत्न को अप्रैल दो हजार पांच यानी निर्मल के जन्मदिन के महीने से उन्हें अवगत कराना चाहता रहा था, हर बीस पच्चीस दिन बाद फोन करता और हर बार यह सुनता — मुझे आपकी कहानियां पढ़ने पर बड़ी खुशी होती लेकिन मैं बीमार पड़ा हूँ. थोड़ा ठीक हो जाउॅं फिर आपसे मिलॅंगा.
कहाँ पता था निर्मल से मुलाकात छब्बीस अक्टूबर की शाम होगी. निर्मल का सिर दांयी ओर ढुलक आया था. गोरे गालों पर कुछ दिनों की दाढ़ी. गरदन तक ढंकी सफेद चादर में लिपटे सोये थे, अपनी किसी अनलिखी कथा के पात्रों की आहट सुन रहे थे. मन हुआ उनके चारों ओर जमा भीड़ को हटा दॅूं उनकी शब्द साधना में व्यवधान न पड़े. आगे बढ़ उनके माथे पर फिसल आये बाल पीछे समेट दिये….ठंडे माथे का स्पर्श … किसी मृत परिंदे की सिहरन पोरों में लिहरी थी.
मैं निर्मल से कुछ कहना चाहता था — ठीक नहीं किया यह आपने. मुझे आसान रास्ता छोड़ने को कहा था, कम अस कम एक बार तो देखना चाहिये था कठिन राह छू पाया या नहीं.
निर्मल की उपस्थिति आश्वस्ति सी बनी रहती थी, कई सालों से कुछ भी सार्थक लिख नहीं पाया था, शायद कभी न लिख पाउॅं, लेकिन कोई था जो मुझे भटकावों से, आसान रस्तों से खींचे जाता था, शब्द संधान के अंधियारे तिलिस्म में ले जाने को.
शायद इस बार भी वे मेरा लिखा पढ़ते तो कहते, आप अभी भी उसी आसान राह पर हैं.
सहसा मुझे एक रस्ता सूझता है, आसान कठिन तो पता नहीं, संगम का रस्ता. अंतिम अरण्य का जो अंत निरा दकियानूसी और आरोपित लगता रहा है लकडि़यों से उठते धुंए से गुजर मेरे अंतरतम में उतरता है. कल फिर यहाँ आउॅंगा निर्मल को समेटूगा, रात की गाड़ी है प्रयागराज एक्सप्रैस, सीधी संगम जाती है.
दो दिन बाद फिर आउॅंगा… सुनसान होगा यहाँ…आगे बढ़ता जाउॅंगा. पीछे से कोई टोकेगा, चैकीदार शायद, लेकिन अनसुना करता चलता रहॅूंगा..वहीं आ ठहर जाउॅंगा जहां परसों निर्मल लेटे थे. छत पर बैठा एक मोर विशाल पंख फड़फड़ाता उठेगा, उड़ेगा, दूर चला जायेगा. वही शाम, टिन शेड की छाया..लेकिन आज लकडि़यां और आग नहीं होगी… सिर्फ कोरी भूमि और राख और अवशेष. हल्का सा झुकूगा..जहां निर्मल थे.
दो आदमी दौड़ते आयेंगे, अरे क्या कर रहा है?
कुछ ले जाना चाहता था.
क्या ले जाओगे?
आपको याद हो… परसों यहाँ निर्मल वर्मा आये थे.
आये थे मतलब?
हाँ, यहीं थे इसी जगह…याद कीजिये आप भी थे यहाँ…परसों शाम. वह बार बार कहेगा क्या है….क्या है आखिर जिसे ले जाओगे मैं उससे संगम का कहॅूंगा. ठीक है लेकिन आप हो कौन और उनके घर से कुछ लोग आये तो थे ले तो गये वो उन्हें
मैं उन्हें जानता था
क्या करें हम तेरे इस जानने का जाकर थाने से या उनके घरवालों से लिखवा कर ला…ऐसे कुछ नहीं मिलता.
तभी कोई पीछे से आयेगा, कोई मंतर वाला है ये लोग यहाँ भी नहीं छोड़ते.
खैर कर… तुझसे बात कर रहे हैं. इन मंतरिये तांत्रिकों को तो हम पीट कर भगा देते हैं.
घर लौट आया था कमरे की दीवार पर निर्मल की तस्वीर लगी थी किसी अंग्रेजी पत्रिका से निकाली अपनी भूरी गहरी आखों से निर्मल कहते थे आप अभी भी आसान रस्ता चाह रहे थे बाहरी आवाजें सुन रहे थे
विश्वास मानो निर्मल अगर अंतिम अरण्य न पढ़ा होता तो भी आज अठ्ठाईस अक्टूबर को वहां गया होता कई साल पहले अपने बाबा को लेने के लिये इसी तरह गया था और तब तक इसे पढ़ा भी नहीं था
अपनी कहानियों का तो पता नहीं लेकिन निर्मल आज यह आसान रास्ता नहीं था


________________________________________


आशुतोष भारद्वाज
पत्रकार, कथाकार.
एक कहानी संग्रह, कुछ अनुवाद, आलोचनात्मक आलेख आदि प्रकाशित हैं.
कथादेश के विशेषांक “कल्प कल्प का गल्प” का  संपादन.
ई पता : abharwdaj@gmail.com
ShareTweetSend
Previous Post

त्रिलोचन : संसार को ‘जनपद’ बनाती कविता : सुबोध शुक्ल

Next Post

कथा – गाथा : विमल चंद्र पाण्डेय

Related Posts

मोहन राकेश : रमेश बक्षी
आलेख

मोहन राकेश : रमेश बक्षी

सॉरी! गौतम दा : संतोष दीक्षित
संस्मरण

सॉरी! गौतम दा : संतोष दीक्षित

श्रेयसी : मनीषा कुलश्रेष्ठ
समीक्षा

श्रेयसी : मनीषा कुलश्रेष्ठ

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक