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समालोचन

Home » मति का धीर : राजेन्द्र यादव (४)

मति का धीर : राजेन्द्र यादव (४)

अर्चना वर्मा लगभग २२ वर्षों तक हंस के संपादन से जुडी रही हैं. यह वही समय है जब हंस अपनी लोकप्रियता और सार्थकता के चरम पर था. ज़ाहिर है अर्चना वर्मा के पास राजेन्द्र यादव से जुड़े संस्मरणों की लम्बी श्रृंखला है, उनके पास राजेन्द्र यादव को समझने और मूल्यांकित करने की एक आत्मीय समझ […]

by arun dev
November 1, 2013
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अर्चना वर्मा लगभग २२ वर्षों तक हंस के संपादन से जुडी रही हैं. यह वही समय है जब हंस अपनी लोकप्रियता और सार्थकता के चरम पर था. ज़ाहिर है अर्चना वर्मा के पास राजेन्द्र यादव से जुड़े संस्मरणों की लम्बी श्रृंखला है, उनके पास राजेन्द्र यादव को समझने और मूल्यांकित करने की एक आत्मीय समझ भी है. एक मुकम्मल राजेन्द्र यादव को जानने के लिए यह संस्मरण पढ़ा जाना चाहिए.  

कवच में सूराख़                             

अर्चना वर्मा 





राजेन्द्र जी को जाननेवाला हर आदमी सबसे पहले उनकी जिन्दादिली से दोचार होता था, और उनकी सहज निर्बन्ध आत्मीयता से. उनका विकट \’सेन्स ऑफ़ ह्यूमर\’ सामने वाले को फ़ौरन अपने साथ जोड़ लेता था और शायद उनके लिये एक कवच का काम भी करता था. क्या इस कवच मेँ कहीं कोई सूराख नहीं था? क्या केवल जिन्दादिली का नाम राजेन्द्र यादव था?



शायद सन 2000 मेँ या उसके आसपास \’तद्‍भव\’ के लिये उनके बारे मेँ एक लेख लिखा था, कुछ कुछ रेखाचित्र और कुछ कुछ संस्मरणनुमा. इसका नाम खुद उन्होंने \’तोते की जान\’ रखा था. लेख उनको बहुत पसन्द था और उनके ऊपर संस्मरणों की कई किताबों में शामिल किया गया था. उसके कुछ वे अंश यहाँ संकलित हैं जो उनके व्यक्तित्व की इस बनावट के बारे मेँ कुछ अनुमान देते हैं. उनकी याद का यह एक बहुत जरूरी हिस्सा भी है और उनको याद करने का एक उतना ही ज़रूरी ढंग भी.अब भी यह वर्तमान काल मेँ है क्योंकि इसे सम्पादित करके भूतकालिक बनाने का मन बिल्कुल नहीं है1986 में हंस के पहले अंक के साथ ही संपादन सहयोग के तौर पर शामिल होने के बाद की बात है.

लेखक जाति के जन्तु से थोड़ा बहुत साबका तो ‘हंस’ के साथ जुड़ने के पहले भी पड़ता रहा था लेकिन अब का देखना उन्हें झुन्ड का झुन्ड देखना थाऔर उनके बीच राजेन्द्र जी को देखने का मतलब उन्हें उनके प्राकृतिक आवास में स्वाभाविक व्यक्तित्व और अस्तित्व में देखना था. जो न बल्ख में पाया न बुखारे में उस किसी दुर्लभ तत्त्व की तलाश में दिल्ली से हो कर गुजरने वाला अमूमन हर लेखक रज्जू के चौबारे तक आ ही पहुंचता है और लेखक जात के दिल्लीवासियों की जमात में से भी अधिकतर साप्ताहिक, पाक्षिक या मासिक देखादेखी कार्यक्रम निभाने में आनन्द लेते हैं. वह दुर्लभ तत्त्व है बतरस. ‘हंस’ का दफ़्तर वह प्रदेश है जहां इसकी बरसात का कोई मौसम नहीं. या कहें कि हर मौसम इसी बरसात का है.




जुए और शराब जैसी कोई चीज़ है बतरस. अपने आप में भरा पूरा एक नशा. और निस्संदेह राजेन्द्र जी सिद्ध कोटि के नशेड़ी हैं. यह मानसिक भोजन है लेकिन सिर्फ सात्विक और निरामिष किस्म का वैसा मानसिक भोजन नहीं जो सिर्फ पेट भरता और स्वास्थ्य को सुरक्षित रखता है. ऊपर उपर से देखते हुए किसी को जितना जाना जा सकता है उतनी सी अपनी जानकारी के बल पर कहूं तो ऐसा लगता है कि संगत अगर मन की हो तो राजेन्द्र जी के लिये शायद बिल्कुल निजी तौर पर जिन्दग़ी की प्राकृतिक और बुनियादी किस्म की अनिवार्य जरूरतों के अलावा बाकी हर चीज़ का स्थानापन्न है यह बतरस. बल्कि कहना यह चाहिये कि यह उनकी प्राकृतिक और बुनियादी जरूरतों में से एक तो है ही, जरूरत से बढ़ कर एक नशा भी है. उसकी जगह हर चीज़ से ऊपर और पहले है, शायद उन जरूरतों के भी ऊपर और पहले जो उनके स्वयं-स्वीकृत प्रेमसंबन्धों से पूरी होती हैं. यह जीवन के साथ उनका संपर्क, लेखन के लिये सामग्री का स्रोत, और न लिख पाने के दिनों में स्वयं सृजन का स्थानपन्न है. बतरसियों का शायद सभी जगह यही हाल हो.

बतरस में शामिल संगत के हिसाब से सामग्री और स्तर बदलते रहते हैं. लेकिन केवल परनिन्दासुख

का टॉनिक पी कर पुष्ट होने वाली गोष्ठी यहां प्रायः नहीं होती. यानी अगर होती है तो निन्दनीय की उपस्थिति में, आमने सामने, सद्भाव सहित टांगखिंचाई के रूप में जिसका मज़ा उसे खुद लेने को मज़बूर होना पड़ता है. इन सरस आत्मीय प्रसंगों के शिकारों में ‘हंस’ का पूरा स्टाफ़ शामिल है जो राजेन्द्र जी के मुंह से ऐसी ऐसी बातें सुन कर निहाल हो लेता है जिन्हें कोई और कहे तो अपना सिर फुड़वाये. कभी वीना का परिचय देते हुए किसी से वे कह बैठेंगे ‘पिछले बारह वषों से यह मेरी संगिनी है’ और वीना का चेहरा देखने लायक होगा. कभी कविता, नवोदित समीक्षिका, कवयित्री और कथाकार – इन दिनों ‘हंस\’ का शीघ्र प्रकाश्य कथा संचयन बनाने में सहायक, की स्वाद संबन्धी रूचियों का बखान होगा. ‘हंस’ का हर आगन्तुक उसके एकाग्र आलू प्रेम से परिचित है. कभी किशन का प्रशस्तिगान चल रहा होगा, ‘यह तो अगर बिड़ला के यहां भी नौकरी कर रहा हो तो साल भर में उसे दीवालिया बना कर सड़क पर निकाल दे.’ या फिर यह कि ‘ घर का मालिक तो असली यही है जो करता है सब अपने लिये. जो खाना हो सो बनाता है. खा पी कर ठाठ से मस्त रहता है.सब इसीका है. हम साले कहां. हमारा क्या. एक रोटी खा लेते हैं. एक कमरे में पड़े रहते हैं. बाकी सारा घर तो इसने दबा रखा है ’ वगैरह और किशन सुनी अनसुनी करता हुआ व्यस्त भाव से दफ़्तर के इस कमरे से उस कमरे में होता रहेगा और खाने के समय अभिभावक के रोब से डांट डांट कर सारी कसर निकाल लेगा.चुपचाप खा लीजिये. यह दवा लीजिये. नहीं तो मैं दीदी – टिंकू – से शिकायत कर दूंगा. और राजेन्द्र जी बच्चों की तरह ठुनकते रहेंगे. देख कर लगेगा कि यही इनका असली आनन्द है कि इसी तरह उलटे-पलटे, उठाये-धरे, झाड़े-तहाये जाते रहें. नाज़ नखरे उठते रहें. पर यह भी सच है कि किशन लम्बी छुट्टी पर चला जायेगा तो दो चार दिन परेशान दिखने के बाद उसी मुफ़लिस मिस्कीन मुद्रा के ऐसे अभ्यस्त दिखाई देंगे जैसे सदा से ऐसे ही रहने के आदी हैं. अनमेल कपड़े, अगड़म बगड़म खाना, अनूठी धजा. बतायेंगे कि आखिर घर का मालिक अनुपस्थित है तो इतना फ़र्ज. तो राजेन्द्र जी का भी बनता ही है कि उसकी अनुपस्थिति को सलामी दें. फिर वीना, हारिस, दुर्गा, अर्चना सब के डिब्बों से राजेन्द्र जी के लिये इतना खाना निकलेगा कि दोपहर में दफ़्तर में खाने के बाद वे रात के लिये घर ले जायेंगे और अगले दिन दफ़्तर में बतायेंगे कि उसी में मेहमान भी खिला लिये. 



दुर्गा की खुराक उसकी चिरन्तन छेड़ है. वह शादी करके लौटा तो छूटते ही राजेन्द्र जी बोले कि अपनी रोटियों की गिनती कम कर वरना दो दिन में भाग खड़ी होगी. सुबह की सेंक कर चुकेगी और शाम की शुरू कर देगी. और कुछ तो देख ही नहीं सकेगी जीवन में. बदकिस्मती से वह सचमुच चली गयी. दुर्गा ने अभी दूसरा विवाह किया है और राजेन्द्र जी ने अपनी चेतावनी दोहरानी शुरू कर दी है. यानी दफ़्तर में किसी दिन मेहमान कोई आये या न आये, रौनक के लिये राजेन्द्र जी अकेले ही काफ़ी हैं. छेड़ छाड़ का यह ताना बाना आत्मीयता का एक वितान बुनता है. यह सबको अपने साथ ले कर चलने का उनका तरीका है. कहीं दूर दराज़ से एक दिन को दिल्ली आया हुआ कोई अपरिचित पाठक भी घन्टे आध घन्टे की अपनी मुलाकात में इस आत्मीयता का प्रसाद पा कर गद्‍गद्‍ हो उठता है.





आनेवालों की न पूछिये. किस्म किस्म के लोग. लोगों का तांता. लेखक और आलोचक तो खैर प्रतीक्षित और प्रत्याशित ही हैं, अप्रत्याशित का स्वागत और सामना करने को भी हंस- जगत तैयार रहना सीख गया है.


रा
जेन्द्र जी के दफ़्तर के कमरे में प्रवेश का दरवाज़ा मेरी कुर्सी के पीछे है. एक दिन झपट कर वे सज्जन
, नाम नहीं मालूम, भीतर घुसे और पीठ पीछे से हाथ का बस्ता मेरे सामने पटका. झपट्टे का झोंका मेरे बायें कन्धे पर भी लगा लेकिन उनका असल निशाना राजेन्द्र जी थे. जब तक कोई कुछ समझे न समझे वे कस कस कर दो घूंसे राजेन्द्र जी को जमा चुके थे और बाकायदा सुसज्जित भाषा में गरज रहे थे, कहां छिपा रखी है मेरी चन्द्रमुखी. निकाल साले. वरना खून पी जाउंगा. अरविन्द जैन, हारिस, दुर्गा, किशन वगैरह ने मिल कर मुश्किल से किसी तरह काबू किया और उनको बाहर निकाला वरना दुनिया भर के अन्याय के खिलाफ़ मुहिम पर निकला अकेला बांकुरा अभी पता नहीं क्या क्या गुल खिलाता. हालत अमिताभ बच्चन की फिल्म के सेट जैसी होते होते बची. बल्कि थोड़ी बहुत तो हो ही गयी. देर तक किस्से कहानियां चलती रहीं.


मैं
काफ़ी देर स्तब्ध रही. अन्तर्कथा यूं थी कि कवियशः प्रार्थी उन सज्जन को असफल प्रेम के दंश ने इस दशा को पहुंचाया था. उनकी चन्द्रमुखी और राजेन्द्र जी पर क्रोध का कोई सम्बन्ध राजेन्द्र जी की पूर्वोक्त ख्याति से नहीं था. हालांकि घटना जैसे घटी उससे भ्रम हो सकता था कि है. ज़ालिम ज़माने के साकार प्रतिरूप चन्द्रमुखी के माता पिता बेटी की स्नेह चिन्ता में प्रेम के बीच में आ खड़े हुए थे. राजेन्द्र जी से प्रेमी-बालक की शिकायत थी कि
‘हंस’ के संपादक के रूप में अपनी सर्वशक्तिमान हैसियत का इस्तेमाल उन्होंने चंद्रमुखी को वापस दिलवाने के लिये क्यों नहीं किया था. आखिर वे भी तो रचनाकार होने के नाते उनकी बिरादरी के सदस्य थे. राजेन्द्र जी से लोगों की अपेक्षाओं के आकार प्रकार की सचमुच कोई हद नहीं और उसी वजन पर अपनी रचनाकार बिरादरी का भी कोई जवाब नहीं. बिरादर आत्मलीन आवेग की चोटी की नोक पर खड़े डगमगाते, कांपते, कुछ होश में, कुछ बेहोशी में अपनी ही झोंक और झपट्टे से हद के पार निकल लेते हैं और देखने वाले कहते हैं कि खिसका हुआ है. इस सबके बाद अगर रचना हो सके तो लगे कि कुछ ख़मियाज़ा भरा गया लेकिन उसकी भी कोई गारन्टी नहीं. शेष रह जाता है खाली ध्वंस. व्यर्थ.



लेकिन मुद्दा था बतरस. बतरसिया का स्वभाव भी उसके नशे की जरूरत के सांचे में ढल जाता है. इस सांचे का बुनियादी तत्त्व है भाषा के साथ एक खास किस्म का रिश्ता. राजेन्द्र जी को बोलते हुए सुनिये. वे बात नहीं करते, संवाद अदा करते हैं. उधर से किसी ने टेलीफोन पर पता नहीं क्या कहा.इधर से राजेन्द्र जी बोल रहे हैं ‘तो इन्तज़ाम करना और इन्तज़ार भी.’ दूसरे मिसरे का इन्तज़ार मत कीजिये महाशय. यह कोई ग़ज़ल नहीं, सिर्फ एक बात है. वैसे मौके के हिसाब से मौजूं शेरों का भी पूरा भण्डार उनके पास है और ठीक मौके पर सही शेर उनको याद भी पता नहीं कैसे लेकिन ज़रूर आ जाता है. यही हाल चुटकुलों का भी है. जरा उनके अनुवाद का यह नमूना देखिये. ‘फूल्स रश इन व्हेयर एन्जिल्स फियर टु ट्रेड’ का हिन्दी में यह मौलिक पुनर्लेखन है ‘चूतिये धंस पड़ते हैं वहां फरिश्तों की फटती है जहां.’ ‘टॉर्च का उनका हिन्दी अनुवाद है ‘ज्योतिर्लिंग.’ भाषा के साथ एक बेहद अन्तरंग, लचीला और घनिष्ठ रिश्ता उनके लेखन से भी ज्यादा उनकी बातचीत से फूटा पड़ता है.



ये एक अच्छे ‘कनवर्सेशनलिस्ट’ के ज़रूरी औजार हैं लेकिन ज्यादातर मशक्कत तत्काल और तत्क्षण

होती है. यह तत्कालता या प्रत्युत्पन्नमतित्व बतरसिया की अंतरंग योग्यता है. इसका मतलब शब्दों के इस्तेमाल में, अपने भी ओर दूसरे के भी, केवल शब्दों के प्रति एक चौकन्नापन है. मौका मिलते ही मुहाविरे को पलट दिया जायगा .बात बदल जायेगी. दो उस्तादों के बीच कभी ऐसा मुहाविरा महासमर देखने का मौका मिला हो तभी उसके असर का पूरा अन्दाज़ा लगाया जा सकता है. बरसों उसके उद्धरण चुटकुलों की तरह हिन्दी जगत में सुने सुनाये जाते हैं. ऐसी ही एक सुनी सुनाई यूं है कि, पर सुनाने के पहले ही साफ़ कर दूं कि गुजरे ज़माने की बातें हैं, वह भी सुनी सुनाई, सो कॉपी राइट संदिग्ध है. यानी संवादियों के नाम तो शायद सही हैं पर किस की पंक्ति कौन सी है यह पूरी तरह से निश्चित नहीं है. पहले उदाहरण के संवादी हैं स्वर्गीय श्री मोहन राकेश और राजेन्द्र यादव.मोहन राकेश अपना लेखन टाइपराइटर पर करते थे. किसी पत्रिका से बहुत शॉर्ट नोटिस पर दोनो से रचना की फर्माइश थी. लेखकोचित नखरे से राजेन्द्र ने कहा कि इसका क्या है, यह तो दे ही देगा. यह तो टाइपराइटर से लिखता है. दिक्कत हमारी है.हम दिमाग से लिखते हैं. छूटते ही राकेश ने कहा कि पन्द्रह साल से हम दोनो लिख रहे हैं. मैं टाइपराइटर से और यह दिमाग से. मेरा टाइप-राइटर तो भाई पन्द्रह साल में खचड़ा हो गया है. 


राजेन्द्र जी के दिमाग के बारे में राकेश ने कुछ नहीं कहा. दूसरी एक घटना के संवादी शायद कमलेश्वर के साथ राजेन्द्र यादव हैं जिसमें एक ने दूसरे के दिमाग में गोबर भरा होने की घोषणा की तो दूसरे ने जानना चाहा कि फिर पहला उसे इतनी देर से चाट कर क्या साबित कर रहा है. एक बार ऐसा हुआ कि कविवर श्री अजित कुमार उनकी पत्नी कवयित्री श्रीमती स्नेहमयी चौधरी यादव दम्पत्ति के साथ यात्रा पर गये. अजित कुमार के संदर्भ में राजेन्द्र जी की नामकरण प्रतिभा अपने चरम शिखर पर पायी जाती है. उनके दिये गये ‘गोलमालकर’, ‘खिटखिटानन्द’ तथा ‘घपलाकर’ जैसे नाम मित्रो के बीच स्थायी रूप से स्वीकृत हो चुके हैं. इस संदर्भ में अजित जी का जवाब यह है कि गोलमाल, खिटखिट और घपला करते तो राजेन्द्र जी समेत बाकी सब ही है लेकिन नाम सिर्फ अजित कुमार का इसलिये होता है कि उनके स्वच्छ मनोदर्पण में बाकी सब अपनी अपनी छवि प्रतिबिम्बित देखते हैं. इस यात्रा में अजित कुमार ने नया नाम पाया पतिदेव. स्नेह जी के प्रति उनकी अतिरिक्त चिन्ता शायद इसके मूल में रही हो पर जल्दी ही यह नाम से ज्यादा टांगखिंचाई का साधन बन गया. बताया जाता है कि अजित कुमार ने यह कह कर हिसाब बराबर किया कि जहां बाकी सब विपत्ति देव हों वहां कम से कम एक का पतिदेव होना ठीक ही नहीं जरूरी भी है. इन्हीं अजित कुमार के विषय में राजेन्द्र जी की एक प्रिय छेड़ यह भी है कि उनके प्रेम प्रसंग कभी पकड़े न जायेंगे क्यों कि वे इतने चतुर हैं कि प्रमाण कभी छोड़ते ही नहीं. उनकी प्रेमिकाओं के घर में उनके पत्र नहीं मिलते कि कोई उन्हें ब्लैकमेल कर सके, पुत्र मिलते हैं जिनके बारे में कोई कह नहीं सकता कि किसके हैं.






शब्दों के साथ इस किस्म के खिलवाड़ की क्षमताएं केवल खेल में ख़तम नहीं हो जातीं. खेल के अतिरिक्त वे केवल रचना के समय में ही सक्रिय होती हों ऐसा भी नहीं है. जितनी देर यह खेल चलता है उतनी देर वह अद्वितीय है. उसका स्थानापन्न दूसरा कुछ नहीं हो सकता.लेकिन खेल के बाहर वे उस मानसिकता की अभिव्यक्ति जान पड़ती हैं जिसके लिये सारी संवेदनाएं जैसे शब्दों में रहती हों, उन सचमुच के अहसासों में नहीं जिन्हें शब्द पैदा करते हैं. वे ‘एक दुनिया समानान्तर’ के वासी हैं जो शब्दों से रचित है. अजीब विरोधाभास है कि रचना के संदर्भ में तो आग्रह यह हो जाय, जो कि पहले नहीं था, कि भाषा और यथार्थ के बीच का फासला न्यूनतम हो, लगभग कलाहीन और सपाट जबकि जीवन के साथ सीधे संपर्क में भाषा एक आड़ बन जाय, एक फासला. हर देखे सुने को, व्यक्ति हो या घटना या फिर अनुभव, सूक्तियों और सूत्रवाक्यों में बदल कर मनोकोष में दर्ज कर लेने की मजबूरी सी हो जाती है जो केवल लेखन तक बाकी नहीं रहती, जीने की प्रक्रिया का हिस्सा बल्कि पर्याय बन जाती है. राजेन्द्र जी के अनुभव कोष में हम सब शायद इसी तरह दर्ज हैं, एक सूक्ति, एक सूत्रवाक्य या एक परिभाषा बन कर. यह आदमी और अनुभव के अमूर्त्तन का तरीका है. हाड़ मांस का जीता जागता धड़कता हुआ आदमी गुम हो जाता है. अपने ‘इमोशनल अपरेटस’ या ‘अज्ञेय’ के शब्दों में \’भावयंत्र\’ पर अनुभव अपनी पूरी मांसल और विध्वंसक ऊर्जा के साथ दर्ज ही नहीं होता. एक स्तर पर यह खुद अपना भी अमूर्त्तन है यानी अपने आपे के साथ भी केवल एक वैचारिक रिश्ता.

इसलिये उनके झगड़े भी व्यक्तियों के साथ नहीं, वैचारिक अमूर्तनों के साथ ही होते हैं.


सच है कि प्रायः उन्हे लापरवाह  तनावरहित और मस्त ही पाया जाता है. कभी कभी यह नौबत भी आई कि छपा हुआ ‘हंस’ मुद्रक के यहां से उठा लाने का पैसा भी नहीं रहा और इंतज़ाम करने में देर हुई. पर ये क्षणिक परेशानियां हैं जिनके सुलझ जाते ही वे फिर मस्त होते हैं और अपनी एक खास ताल जो ताली और चुटकी के योग से संपन्न होती है बजा बजा कर गाते पाये जाते है, तामपिटकपिट तामपिटकपिट – यह ताली और चुटकी से बजती हुई संयुक्त ध्वनि है, ‘बाबा मौज करेगा, बाबा मौज करेगा.’ मानो इस तरह घिरे होने के बावजूद निश्चिन्त बने रहने की अपनी क्षमता पर स्वयं विस्मित हो रहे हों. ऐसा विस्मय उन्हे अपने ऊपर अक्सर होता है. खुद को देख कर लगता है कि मैं भी साला क्या चीज़ हूं. कानपुर जाते हुए राजधानी के दुर्घटनाग्रस्त होने के अपने अनुभव को याद करते हुए और सकुशल लौट आने के बाद जमा हुए चिन्तित मित्रों, प्रशंसकों और शुभेच्छुकों को सुनाते हुए वे इस बात पर भी चकित होते रहे थे कि उन्हें एक मिनट को भी, रत्ती भर भी, डर नहीं लगा जब कि उनके ठीक साथ की सीट वाला सीधे ही सिधार गया था और यही हश्र उनका अपना भी हो सकता था. इसी गर्वमिश्रित विस्मय का एक विषय यह भी है कि उन्हें आज तक ईश्वर की जरूरत कभी पड़ी ही नहीं. बल्कि किसी चीज़ से अगर चिढ़ है तो ईश्वर से और अध्यात्म से.


किसी भी विषय पर राजेन्द्र जी का कातर भाव हद से हद हफ़्ता दस दिन चलता होगा. स्थितियों का अभ्यस्त हो जाने में वे इतना ही समय लेते हैं और शायद इस बात को ले कर भी अपने ऊपर स्वयं ही विस्मित होते रहते हैं.इस विस्मय का खासा विस्तृत मौका उन्हें पिछले दिनों अपनी बीमारी और अस्पतालीकरण के दौरान मिला. पिछले डेढ़ दो वर्षों से लगातार उनका वज़न घट रहा था. इतनी तेज़ी से कि उन्हें रोज़ देखने वाले भी देख पा रहे थे कि घट रहा है. चेक अप की सलाह से वे चिढ़ते थे और हर आदमी यही सलाह देता नज़र आता था. यहां तक कि जब सलाह जब बढ़ कर दबाव में बदल गयी और दबाव असहनीय होने लगा तो बजाय चेक अप करवा लेने के, मैत्रेयी पर जाने किन हथकण्डों का इस्तेमाल कर के उसकी गवाही से दफ़्तर में उन्होंने घोषणा कर दी कि चेक अप वे करवा चुके हैं और सब ठीक ठाक है. 


सब ने मान लिया सिवाय उस रोग के जो भीतर था और एक दिन उनके सारे हथकण्डों के बावजूद फूट ही पड़ा.शुरू में जिसे वाइरल समझा जा रहा था, फिर कंपकंपी छूटने पर मलेरिया, उसके असहनीय हो उठने पर उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा. अरविन्द जैन ने राजेन्द्र जी के लाख विरोध के बावजूद शुक्र है कि यह फैसला किया और विरोध भी ऐसा कि अरविन्द बताते हैं कि वे और सुधीश पचौरी उन्हें लगभग बांध कर अस्पताल ले गये. राजेन्द्र जी को मौत से डर नहीं लगता लेकिन चेक अप और अस्पताल से जरूर लगता है. एक बार अस्पताल पहुंच जाने और दर्द के थोड़ा हलका पड़ जाने के बाद वे इस के भी अभ्यस्त हो गये. वहीं कमरे में महफिल भी जमने लगी जो उनके लिये पूरक उपचार सरीखी थी और रात की तीमारदारी के लिये खास इसी उद्देश्य से आने और ठहरने वाले शिव कुमार ‘शिव’ को बोल कर संपादकीय और पत्रों उत्तर भी लिखवाये जाने लगे. अतिरिक्त उपचार की कोशिशों के खिलाफ़ उनका संघर्ष फिर जारी हो गया.उनकी भूख बिल्कुल मर गयी थी और कमज़ोरी बहुत बढ़ गयी थी. मेरी मौजूदगी में एक दिन उन्हें एक सेब खिला पाने की मन्नू जी की कोशिश के सामने सविरोध समर्पण का नमूना यह था “ सेब है कि साला तरबूज़ है. खाते खाते उम्र गुजर गयी. साला खत्म ही नहीं होता. \”


एक सच अगर यह है कि प्रायः वे मस्त, लापरवाह ओर फक्कड़ से दिखते हैं तो एक सच यह भी है कि इतनी भीड़, इतने ताम झाम से हर वक्त घिरे रहने के बावजूद किसी किसी वक्त वे भीतर से बिल्कुल असंपृक्त और अकेले से लगते हैं. बाहर से भी और भीतर से भी. जैसे ये ठहाके, यह वाक्–चातुरी यह खुशमिजाजी किसी कुशल अदायगी का हिस्सा है. ईश्वर की जरूरत अगर उन्हें नहीं पड़ती तो इसका अर्थ क्या है? ईश्वर की ज़रूरत किसे नहीं पड़ती ? उस ईश्वर की जिसका संबन्ध पूजा पाठ से नहीं, चरम असहायता के क्षण में एक निश्शब्द प्रार्थना से है, अपने आपे के साथ एक निष्कवच रिश्ते से है. शायद उसे ही इस ईश्वर की जरूरत न पड़ती हो जिसके संसार में अपने बल्कि शायद अपने आपे के भी अमूर्तन के सिवा और किसी का न दाखिला है न दखल. ऐसी असहायता का अनुभव उसे होता है जिसके वजूद में राग-तन्तु नसों नाड़ियों के जाल की तरह फैले हों. राजेन्द्र जी क्या राग द्वेष के ऊपर हैं. उनकी दुनिया में क्या ऐसा कोई मौजूद ही नहीं जिसके दुखों को ले कर वे ऐसी चरम असहायता का अनुभव कर पायें.? असहायता क्योंकि उसके बदले में खुद सह लेना संभव नहीं और उसे सहते हुए देख पाना और भी असंभव है, इसलिये एक निश्शब्द प्रार्थना के सिवा और कोई चारा नहीं बचता और ईश्वर के सिवा कोई काम नहीं आता. काम तो दरअस्ल ईश्वर भी नहीं आता, फिर भी उसका होना जरूरी होता है. अकेले अपने आपे को लेकर निडर, निश्चिन्त, निरीश्वर, कुछ भी होना आसान है.


पर यह शायद मेरी ज्यादती है. व्यक्ति राजेन्द्र को सचमुच जाने बिना यह फतवा दे देना कि असहायता की ऐसी यंत्रणा को उन्होंने नहीं जाना. बल्कि शायद बचपन की या शायद कैशोर्य की ऐसी ही किन्हीं यंत्रणाओं में उनके व्यक्तित्व की इस बनावट की जड़ हो जिनसे मैं अपरिचित हूं, एक बार याद नहीं किस के दुर्घटनाग्रस्त होने पर दफ़्तर में दुर्घटनाओं की चर्चा चल पड़ी और जैसा कि ऐसे मौकों पर होता है, सभी अपना अपना अनुभव सुनाने लगे. राजेन्द्र जी ने कहा किसी भी किस्म की दुर्घटना का नाम लो, वह मेरे साथ हो चुकी है. मैं अपनी समझ से बड़ी दूर जा कर कौड़ी लाई जो कहा कि आप को किसी ने गोली तो नहीं मारी होगी. पता चला, मारी थी. यानी ठीक ठीक मारी तो नहीं थी पर गलती से चल कर लग गयी. पैर, आंख सब किसी न किसी दुर्घटना का ही नतीजा हैं. खेल दुर्घटना से ले कर रेल दुर्घटना तक की कहानियों में पता नहीं ऐसी कितनी कहानियां हों जो उन्होंने सुनाई ही न हों पर जो उनकी इस असंपृक्त सी बनावट में अपनी भूमिका निभा गयी हों. क्या ऐसा हुआ कि उसी असुरक्षित हद तक जीवन्त उम्र में अपने घावों को ढक लेने का ऐसा कौशल उन्होंने अर्जित किया कि उन्हें छू पाना ही असंभव हो गया. अब वे अतीत का बोझ लादे नहीं घूम सकते. समस्याओं का हल न हो तो उन्हें जीवन का पर्याय मान कर झींकना छोड़ देते हैं. वे अभी इसी क्षण और सामने मौजूद समस्या में निवास करते हैं.


शंख की जो जातियां अशान्त समुद्रों की धाराओं में रहती हैं वे क्रुद्ध लहरों के जितने सख्त थपेड़ों को झेलती हैं, उनका अपना खोल उतना ही सख्त होता जाता है. हो सकता है कि देह से ले कर मन तक की पता नहीं कितनी सीमाओं के साथ लड़ते जूझते, हर एक का अतिक्रमण करते उन्होंने इस कवच का अर्जन किया हो जो आज अभेद्य अछेद्य सा जान पड़ता है और इस बात की तरफ़ नज़र भी नहीं जाती कि इस कवच की जरूरत उन्हें पड़ी ही क्यों. बल्कि मन करता है कि कुरेद कर देखा जाय कि सूराख कहां है. अपने सोचे समझे को ले कर ऐसी ज़िद कि जैसे अस्तित्व ही ख़तरे में हो. छोटा सा तर्क भी उनके लिये जान जोखों का सवाल बन जाता है. हो सकता है कि नकारात्मक और विध्वंसात्मक लहरों से लड़ते हुए वे इतने सख्त हुए हों. अन्यथा क्या दुख को सहे बिना कोई दुख से इतना अछूता रह सकता है जितना वे अपने आप को बताना पसन्द करते हैं.



दुख से ऊपर होना एक अर्जित शक्ति है या बुनियादी स्वभावगत असमर्थतता हो सकता है कि उनके लिये प्रेम का अर्थ किसी पर स्वयं को इतना निर्भर छोड़ पाना हो कि इस बात का अहसास भी न होने पाये कि उन्होंने लिया. और याचक बने. हो सकता है कि प्रेम की अपनी ऐसी असंभव अपूरणीय आकांक्षा के कारण या दूसरे को निर्भरता का आश्वासन दे पाने की असमर्थता के कारण उन्होंने यही तय कर लिया कि प्रेम की उन्हें जरूरत नहीं है. और प्रत्याशाविहीन \”सहज\” संबन्धों के संधान में लगे. हो सकता है कि उन्होंने रचनाकार के जीवन की पढ़ी पढ़ाई धारणा को अपना रोल मॉडल बनाया हो और हर आचरण के पहले वही नियमावली खोल कर देखते हों. सच ही उनके व्यक्तित्व को रचनाकार व्यक्तित्व के बारे में उपलब्ध सिद्धान्तों का व्यावहारिक उदाहरण बनाया जा सकता है. हो सकता है कि किसी समय की असहायता और असुरक्षा ने उन्हें बिल्कुल निडर कर दिया हो. हो सकता है कि यह निडरता वर्जनाओं के प्रति रचनाकारसुलभ अवहेलना और अवमानना से निकली हो. हो सकता है कि डर भीतर कहीं हो पर अपनी दीनताओ, दुर्बलताओं को दिखाना या उन पर रोना उन्हें असहनीय हो. और यही पीड़ाएं उनका रहस्य हों और यह ज़िन्दादिली उनका कवच.
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अर्चना वर्मा ( 6 अप्रैल 1946, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश))      

कविता संग्रह : कुछ दूर तक, लौटा है विजेता
कहानी संग्रह : स्थगित, राजपाट तथा अन्य कहानियाँ
आलोचना : निराला के सृजन सीमांत : विहग और मीन, अस्मिता विमर्श का स्त्री-स्वर
हंस’ में 1986 से लेकर 2008 तक संपादन सहयोग, ‘कथादेश’ के साथ संपादन सहयोग 2008 से, औरत : उत्तरकथा, अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य, देहरि भई बिदेस
संपर्क
जे. 901, हाई बर्ड, निहो स्कॉटिश गार्डन, अहिंसा खंड-2, इंदिरापुरम, गाजियाबाद
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