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Home » मारीना त्स्वेतायेवा : युग और जीवन : प्रतिभा कटियार

मारीना त्स्वेतायेवा : युग और जीवन : प्रतिभा कटियार

रूसी भाषा और साहित्य के अध्येता वरयाम सिंह के चयन एवं अनुवाद में मारीना त्स्वेतायेवा की ‘कुछ चिट्ठियाँ, कुछ कविताएँ’ १९९२ में आधार से प्रकाशित हुईं थी. इस पुस्तिका ने मारीना को लेकर जो रूचि पैदा की उसका ही परिणाम है प्रतिभा कटियार द्वारा लिखित मारीना की जीवनी ‘मारीना : रूस की महान कवयित्री मारीना […]

by arun dev
January 3, 2020
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रूसी भाषा और साहित्य के अध्येता वरयाम सिंह के चयन एवं अनुवाद में मारीना त्स्वेतायेवा की ‘कुछ चिट्ठियाँ, कुछ कविताएँ’ १९९२ में आधार से प्रकाशित हुईं थी. इस पुस्तिका ने मारीना को लेकर जो रूचि पैदा की उसका ही परिणाम है प्रतिभा कटियार द्वारा लिखित मारीना की जीवनी ‘मारीना : रूस की महान कवयित्री मारीना त्स्वेतायेवा का युग और जीवन’ जिसे संवाद ने प्रकाशित किया है.

इस किताब की लेखन प्रक्रिया के साथ इस जीवनी का एक अंश यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है.


ख़्वाब में मुलाक़ात                                          
प्रतिभा कटियार
कहते हैं सबसे मुश्किल होता है उन चीजों के बारे में लिखा जाना, जिन्हें हम प्यार करते हैं. मैंने इस मुश्किल को शिद्दत से महसूस किया मारीना पर काम करने के दौरान. जैसे मैं खुद मारीना ही हो जाती थी और बूंद-बूंद उसे जीने लगती थी. कलम खामोश और विचारों का सैलाब. मारीना की जिंदगी का एक-एक पन्ना सामने खुलता बंद होता रहता, कभी रोयें खड़े होते आँखें ख़ुशी से खिल जातीं, कभी नम भी हो जातीं.


पिता ईवान की विशाल लाइब्रेरी में अपना बचपन खंगालती,  अपनी मां के अनुशासन में अपना होना तलाशती. ढेर सारे प्रेम से भरी मारीना ढेर सारे प्रेम की चाहना करने वाली और बूँद भर प्रेम को तरसती मारीना. जिंदगी से भरपूर वो स्त्री जिंदगी भर संघर्ष करती रहती.


चौदह वर्ष की उम्र में मारीना की डायरी के कुछ हिस्से पढ़े थे. तबसे मरीना बहुत करीब आ गई थी. अपने प्रिय लेखकों को पढ़ते हुए कई बार हम उनसे गहरे संवाद में उतर जाते हैं. उनसे अपनी नाइत्तफाकी दर्ज करते हैं, झगड़ा करते हैं, प्यार भी करते हैं, कई बार उनका हाथ पकड़कर सैकड़ों बरसों का फासला पार कर आज के समय में बुला लाते हैं. लेकिन सच कहूं…मारीना इस मामले में भी काफी मजबूत निकली. वो ही मुझे मेरा हाथ पकड़कर अपने समय में, अपने काल में ले जाती रही है.

वो चमकती हुई चांदनी रात थी. हमें साथ चलते-चलते काफी देर हो चुकी थी. सच कहूं तो मेरे पांव दुखने लगे थे लेकिन मारीना तो जैसे थक ही नहीं रही थी. मैं बार-बार उसके पैरों को देखती. सधे हुए पांव. जमीन पर मजबूती से पड़ते हुए. मैंने उसका कंधा छुआ. उसने बिना मुड़े, बिना देखे धीरे से कहा, थोड़ी दूर और चलते हैं फिर बैठेंगे. मैं उसके पीछे चलती रही. कुछ दूरी पर दो पत्थर थे एक पर मारीना ने आसन जमाया दूसरे पर मैंने. ओह…बैठना कितना सुखद था. मैंने मन में सोचा, वो मुस्कुराई, \’थक गई हो?\’ उसने पूछा। मैं चुप रही। बिना थके, आराम का सुख कहां. शायद उसने ऐसा कहा. मेरे मन में जाने कितने सवाल आते, लेकिन मैं मारीना की खामोशी को भंग नहीं करना चाहती थी. इसलिए अक्सर चुप रहती. उस वक्त मेरा शिद्दत से यह पूछने का जी चाहा तो तुमने क्यों असमय ही जीवन के सफर से विराम लिया? लेकिन चुप रही.

उसने अपनी घुटनों तक फैली स्कर्ट को समेटते हुए कहा, \’कुछ पूछना है? \’
मैं चुप.
\’बोलो..मैं तुमसे बात करने ही तो आई हूं.\’ मारीना ने कहा.
\’नहीं, मैं पूछकर जानना नहीं चाहती कुछ भी, पूछकर जानना सुनना होता है. मैं छूकर जानना चाहती हूं सब कुछ. महसूस करना चाहती हूं. जो पूछकर या पढ़कर जानना होता तो लाइब्रेरियों की खाक छानती आधी रात को इस पहाड़ी पर तुम्हारे साथ यूँ बैठी न होती.\’ मैंने अपनेपन की तुनकमिजाजी दिखाते हुए कहा.
वो हंसी. \’तुम पागल हो एकदम.\’
\’हां हूं तो.\’
(प्रतिभा कटियार)

फिर हम दोनों हंस पड़ीं. इस तरह शुरू हुआ मारीना से मेरी बतकही का सिलसिला. सवा सौ साल के अंतर की देास्ती. महकती…चहकती…खिलखिलाती…

यही बतकही अब एक किताब है.- प्रतिभा कटियार
___________

मैं रूसी कवि नहीं, मैं तो कवि हूँ- मारीना

(फरवरी से अक्टूबर 1925)
आह…उस रोज कैसी तूफानी बर्फीली हवाएं चल रही थीं. वो 1 फरवरी 1925 का दिन था. तय तारीख से ठीक 15 दिन पहले मारीना ने पुत्र को जन्म दिया. बच्चे का जन्म काफी मुश्किल हालात में हुआ. प्रसव के बाद मारीना का स्वास्थ्य ज्यादा ही बिगड़ गया, डाक्टरों ने उसे काफी मुश्किल से बचाया. पुत्र की भी सांस नहीं चल रही थी. डाक्टरों की काफी कोशिशों के बाद माँ और पुत्र का स्वास्थ्य सामान्य हुआ.


एक तरफ मारीना पुत्र के जन्म से खूब उल्लासित थी लेकिन दूसरी तरफ जीवन में एक बार फिर घिर आये उलझाव उसे खूब परेशान कर रहे थे. कवितायेँ फिर उससे दूर होने लगी थीं. मारीना का आधा वक़्त बच्चे की देखभाल में जाता और आधा घर के कामकाज में. वह सुख और उदासी के बीच उलझ चुकी थी. अगर उसने घर और बच्चे की चिंताओं और जिम्मेदारी को जीवन की व्यावहारिकता समझकर अपना लिया होता तो संभवतः कुछ आसानी हो जाती. लेकिन कविताओं से दूरी, रचनात्मक प्रक्रिया से दूरी मारीना को झुंझलाहट से भर रही थी. जीवन की व्याहारिकता को लेकर उसकी कम समझ ने हालात को और जटिल बना दिया था.

बच्चे को उसका पूरा समय चाहिए ही था. बच्चा उसके अस्तित्व का केंद्र बन गया था. मारीना ने सारा संचित प्रेम अपने बच्चे में समर्पित कर दिया था. वह संचित प्रेम जिसे न तो उसका पति और न ही उसके प्रेमी ही समझ सके. मारीना ने अन्ना तेस्कोवा को बच्चे के जन्म की सूचना सबसे पहले दी थी. उसने उसे खत में बच्चे के जन्म और उसके बाद घिर आई कठिनाईयों के बारे में लिखा-

‘किसी नौकरानी को ढूंढना असम्भव है. पहले तो कोई उपलब्ध ही नहीं है और जो हैं वो भी काफी पैसे मांगती हैं. जिसे वहन कर पाना हमारे लिए संभव नहीं है. सेर्गेई (पति)की परीक्षाएं सर पर हैं. वह सारा दिन लाइब्रेरी में रहता है. पूरा घर नन्ही आल्या (बेटी) के ऊपर निर्भर हो गया है. मेरा स्वास्थ्य भी साथ नहीं दे रहा है. मैं शिकायत नहीं कर रही हूँ लेकिन सामान्य तौर पर तुलना कर रही हूँ. यह समय भी बीत जाएगा, ऐसा मानती हूँ.’

उसके बाद उसने लिखा- 

‘मुझे एक विनम्र निवेदन करना था, क्या कोई है जो मुझे एक पोशाक दे सकता है? पूरी सर्दियों में मैंने केवल एक ही ऊनी कपड़ा पहना है जो कि अब कई जगह से फटने लगा है. मुझे अच्छे कपड़े की जरूरत नहीं है. मैं कहीं आती-जाती ही नहीं इसलिए घर में पहनने को कुछ एकदम साधारण सा भी चलेगा. क्योंकि नया खरीदना या सिलवाना मेरे लिए संभव नहीं है. कल दाई के तीन बार आने के 100 क्रेन (फ्रेंच करेंसी) खर्च हो गये. अगले दस दिन को कामवाली के लिए 120-150 क्रेन चाहिए. बच्चों की जमापूंजी है 100 क्रेन. और फिर दवाइयों और अस्पताल के लिए पैसों की जरूरत होती है. ऐसे में अपने लिए कपड़े के बारे में सोचना असम्भव है लेकिन मैं अपने बच्चे के लिए साफ़ रहना चाहती हूँ इसलिए एक जोड़ी कपड़ा अगर मिल सकता तो मदद हो जाती.’


मारीना शिद्दत से अपने बच्चे को बोरी के नाम से पुकारना चाहती थी. ऐसा वह बोरिस पास्तेर्नाक के सम्मान में करना चाहती थी. उसने पति से कई घंटों इसके लिए खुशामद की लेकिन वह नहीं माना और बच्चे का नाम जेर्जेई पड़ा. जिसे मारीना ने मानते हुए ओल्गा को लिखा, 

‘लिहाजा बच्चा जेर्जेई है न कि बोरिस. बोरिस अब भी मुझमें बचा हुआ है. उसी तरह जैसे मेरे सपने और मेरा जूनून. बोरिस मेरा हक है. क्या यह पागलपन है? मैं बोरिस पास्तेर्नाक को जीना चाहती थी. बोरिस का और मेरा साथ न होना एक त्रासदी है. प्रेम से जीवन को न बना पाना भी कम दर्दनाक नहीं. मैं बोरिस के साथ जी नहीं पायी लेकिन मैं उससे एक बच्चा चाहती थी ताकि उस बच्चे में हमारा प्यार बचा रहे.’


बोरिस मारीना की दुनिया में रोशन व्यक्तिव की तरह था. उस दुनिया के सपने उसकी कविता’ माय बो टू रशियन आई’ में दिखते हैं जिसमें मारीना ने बोरिस के समय के बारे में लिखा था. वह ‘आफ्टर रशिया’ के अध्याय में खत्म होता है.
मुझे तुम्हारा हाथ चाहिए
जिसे थामकर मैं दूसरी दुनिया को जी सकूँ
ओह…विडम्बना…
मेरे तो दोनों हाथ खाली ही नहीं…

जून 1925 को फादर सेर्गेई ने विज्नोरी में जेर्जेई (जिसे कुछ उच्चारण में गेर्गेई और कुछ में ग्योर्गी भी पुकारा गया) का बैपटिज्म किया. उसके बाद उस बच्चे का घर में पुकारने का नाम मूर पड़ा.

मूर के जन्म के बाद मारीना के लिए टहलना भी मुमकिन नहीं बचा था. टहलना जिसे वह बहुत पसंद करती थी. विज्नोरी गाँव की गन्दी सड़कों पर बच्चागाड़ी को चलाने में बहुत दिक्कत आती थी. जब गर्मी होने लगी तब मारीना घंटों उस गर्म घर में रहती. वो घर जो लगभग कूड़े के ढेर के बीच था. जब मूर गाडी में रहता तब मारीना लिखने का प्रयास करती. ‘द पाइड पीपर’ गीतकाव्य…जो व्यंग्यात्मक शैली में था का अधिकतर भाग मारीना ने उसी दौरान बच्चे को गाड़ी में सुलाकर लिखा. इस काम के बारे में कहा जाता है कि वह उसके द्वारा किये गये बेहतरीन कार्यों में से एक था.

‘द पाइड पीपर’ जल्द ही टुकड़ों में ‘फ्रीडम ऑफ रशिया’ में प्रकाशित होने लगी जिसमें उस अख़बार में पूरे साल के लिए लेखन सामग्री होने की व्यवस्था हो गयी.

इस व्यंग्यात्मक गीतकाव्य का विचार 1923 के पतझड़ के दिनों में मारीना को सबसे पहले आया था जब वह मोराव्सका में रहती थी. मारीना के लिए वह छोटा सा शहर एक आदर्श के रूप में रहा. इसमें कविता में जानी-मानी उस किवदन्ती पर दोबारा से काम किया गया था जिसमें शहर के उन समृद्ध लोगों से प्रतिशोध लिया जाता है जिन्होंने उनके साथ बुरा बर्ताव किया था.

1925 के ईस्टर पर सेर्गेई ने नाटक को बेहद सफलता के साथ किया. जिसको स्टूडेंट्स थियेटर प्राग में प्रस्तुत किया गया था. इस अवसर पर मारीना अपने बच्चे को जन्म देने के बाद पहली बार प्राग गयी थी.

इस बीच उनके जीवन में एक और समस्या आ गयी. सेर्गेई की छात्रवृत्ति जारी नहीं रह पाई. इसके साथ ही उसका पुराना मर्ज (क्षय रोग) भी फिर से उभरने लगा जिसके चलते उसको रूसी संस्था जेमगोर द्वारा चलाये जा रहे अस्पताल में भर्ती होना पड़ा. मारीना के इस समय में लिखे गए पत्रों से यह साफ हो गया था कि वह यह सब बहुत ज्यादा सोचने लगी थी कि कैसे वह अपने परिवार के हालात को बेहतर रख पाए. अक्सर पेरिस चले जाने का जिक्र होता रहा. चेकोस्लोवाकिया में मारीना भयंकर गरीबी से जूझ रही थी. हालाँकि उस दौरान पेरिस में ज्यादातर शरणार्थियों के सामने जिन्दगी मुसीबतों का पहाड़ ही बनी हुई थी.

गर्मियों में मारीना को पता चला कि रूस के बड़े कवि वालेरी ब्रयूसोव की मास्को में मौत हो गयी है. उस वक़्त वह ‘द पाइड पीपर’ पर काम कर रही थी. उसका काम खुद-ब-खुद बीच में ही रुक गया. उसने ब्रयूसोव से सम्बन्धित संस्मरण को दोबारा लिखना शुरू किया. एक गहरे विचारशील लेखक का चित्रण उसके छोटे से रेखांकन में उभरकर आया था.

ब्रयूसोव पर आलेख ‘अ हीरो ऑफ लेबर’ में कम्युनिस्ट विरोधी कई खुले अंश थे. लेखक ने अपनी राजनैतिक धारणा को छुपाने की कोई कोशिश नहीं की. उसका काम अभी तक सोवियत रूस में प्रकाशित होने के लिए पड़ा था. उसने जो भी लिखा उसके बारे में कहा जा सकता है कि वह कूटनीतिक नहीं था. संभवतः यही वजह थी कि गोर्की ‘अ हीरो ऑफ लेबर’ से हैरत में पड़ गये. 20 दिसम्बर 1925 को खोदेस्विच को लिखे गए पत्र में गोर्की के पास इस आलेख के लिए सकारात्मक कहने के लिए कुछ भी नहीं था. चूंकि सोवियत रूस में गोर्की के शब्दों में इतना वजन था कि मारीना को एक नया और शक्तिशाली विरोधी गोर्की के रूप में मिल गया.

मामला यहीं खत्म नहीं हुआ, मारीना के खुलेपन और अव्यवहारिक तौर पर गुस्सा करने के लक्षणों ने कई प्रवासियों को उसके विरोध में लाकर खड़ा कर दिया. थोड़े दिन के बाद उसके चेकोस्लोवाकिया जाने के बाद 5 अक्टूबर 1925 में पेरिस के अख़बार ‘द रेनेसां’ में पत्रकार एन. ए. त्स्युरिकोव का एक लेख सामने आया. अधिकृत एमिग्री बिजनेस ने सेर्गेई के समाचार पत्र ‘इन वन्स ओन वे’ में सोवियत को लेकर टिप्पणी कर कड़ा विरोध किया जिसके जवाब में मारीना ने ‘द रेनेसां’ में खुला पत्र लिखा.

निश्चित रूप से प्रवासियों ने उसे नहीं सराहा. वह पत्र ‘इन वन्स ओन वे’ के द्वारा भेजे गए सवालों के जवाब में था. प्रवासी लेखकों के प्रश्न ‘तुम सोवियत रूस के बारे में क्या सोचते हो और वहां लौटने की क्या संभावना है’ के उत्तर में वह कहती है-

\’किसी की मातृभूमि किसी प्रांत के आपातकाल पर निर्भर नहीं होती, बल्कि उसकी यादें ही उसकी अचल सम्पत्ति होती हैं. जिसने रूस की कल्पना अपने को बाहर रखकर की है वही वहां रहने से डरेगा या रूस को भूलेगा. जो रूस को अपने भीतर रखता है वह जीवन भर रूस को जियेगा. गीतकार, महाकाव्य लिखने वाले कवि, कथाकार जो अपनी कला की प्रवृत्ति से दूरदर्शी होते हैं वे सम्पूर्ण रूस को बेहतर तरह से देख सकते हैं. तब, जब संदेह की आग में वर्तमान जल रहा हो. इसके अलावा एक लेखक के लिए किसी ऐसी जगह पर रहना बेहतर है जहाँ वह कम से कम लिखने से न रोका जाए. ‘लेकिन वह रूस में जरूर लिखेंगे!’ हाँ, सेंसरशिप की काट-छांट हो. जहाँ साहित्यिक आक्षेप हों और जहाँ तथाकथित सोवियत लेखकों की शूरता पर केवल आश्चर्यचकित ही हुआ जाता हो, वह किसी जेल के रास्ते पर पड़े हुए पत्थरों के बीच उगने वाली घास की तरह लिखते हैं न कि सबके लिए. मैं रूस वापस जाऊंगी लेकिन किसी बीते हुए कल के निशान की तरह नहीं.’


ये शब्द उन सबके लिए थे जो बिना किसी शर्त के रूस लौटना चाहते थे. ये उसके पति के लिए भी थे. जो कुछ मारीना ने राष्ट्रीयता के लिए कहा था वह प्रवासी लोगों की राय से मेल नहीं खाता था. मारीना रूसी लेखक होना चाहती थी. दो साल के बाद उसने रिल्के को जर्मन में लिखे पत्र में कहा-

\’कविता लिखना अपनी अंदर की भाषा को बाहर की भाषा में अनुवादित करने जैसा है. चाहे वह फ्रेंच हो, जर्मन या रूसी. कोई भी भाषा किसी की मातृभाषा नहीं हो सकती. उसको लिखने का मतलब उसका स्वर बदल देना. इसलिए मुझे समझ नहीं आता कि क्यों लोग किसी को फ्रेंच कवि या रूसी कवि कहते हैं. मैं रूसी कवि नहीं हूँ, मैं तो कवि हूँ. मैं हैरान हो जाती हूँ जब लोग मुझे वैसा समझते हैं और मेरे साथ वैसा बर्ताव करते हैं. मेरे हिसाब से कोई कवि होता है न कि फ्रेंच या रूसी कवि…’

( इसी पुस्तक से)

__________
kpratibha.katiyar@gmail.com 
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