by georgemckim कविता क्या है, किसलिए है ? आदि जिज्ञाषाएं प्राचीनतम है. हर भाषा के काव्यशास्त्र में इनपर कुछ न कुछ सोच–विचार आपको मिलेगा. संस्कृत काव्यशास्त्र में आनंद, सीख, यश आदि कविता के प्रयोजन माने गए हैं. पर क्या उसका उद्देश्य ‘मुक्ति’ भी है. कौशल तिवारी ने पाश्चात्य विद्वानों को भी ध्यान में रखते हुए इस पर रोचक ढंग […]
कविता क्या है, किसलिए है ? आदि जिज्ञाषाएं प्राचीनतम है. हर भाषा के काव्यशास्त्र में इनपर कुछ न कुछ सोच–विचार आपको मिलेगा. संस्कृत काव्यशास्त्र में आनंद, सीख, यश आदि कविता के प्रयोजन माने गए हैं. पर क्या उसका उद्देश्य ‘मुक्ति’ भी है. कौशल तिवारी ने पाश्चात्य विद्वानों को भी ध्यान में रखते हुए इस पर रोचक ढंग से विचार किया है.
काव्य से मुक्ति – पुनरावलोकन
कौशल तिवारी
काव्य प्रयोजन पर विचार करते हुए आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी अपने काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ अभिनवकाव्यरलंकारसूत्रम् में कहते हैं- मुक्तिस्तस्य प्रयोजनम्, मुक्ति उसका (काव्य का) प्रयोजन है.
संस्कृत काव्यशास्त्र की परम्परा में यह अभिनव विचार है. आचार्य त्रिपाठी अन्य स्वीकृत काव्यप्रयोजनों को या तो स्वाभिमत प्रयोजन में गतार्थ मान लेते हैं या उन्हें अकिंचित्कर मानते हैं. यह मुक्ति कैसी है, तो कहते हैं-
मुक्तिश्चावरणभंगः, आवरणं च संकुचितप्रमातृत्वम्, आवरणभंग ही मुक्ति है.संकुचित प्रमातृत्व आवरण है.
आगे कहते हैं कि कवि और सहृदय दोनों प्रमाता हैं तथा उनके चैतन्य का संकोच ही संकुचितत्व है- प्रमाता च कविः सहृदयश्च, तदीयचैतन्यसंकोचः
संकुचितत्वम्. इस मुक्ति की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए वृत्तिभाग में कहते हैं कि काव्य के श्रवण और पाठ से, नाटक के दर्शन से तथा अन्य कलाओं के प्रत्यक्ष से प्रमाता सहृदय का चैतन्य आनन्त्य को प्राप्त होता है. आनन्त्य का यह अनुभव ही मुक्ति है. काव्यानुभूति में तो सहृदयों को प्रत्यक्ष ही मुक्ति का अनुभव होता है. काव्य की रचना करके कवि की मुक्ति होती है तथा उसका आस्वाद प्राप्त करके सहृदय की मुक्ति होती है. अन्यों के काव्यप्रयोजन के खण्डन के प्रसंग में वृत्ति भाग में तैत्तिरीय उपनिषद् की उक्ति को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि काव्यकर्म का भी आनन्दरूप प्रयोजन स्वीकार करना चाहिए.
यहां निम्न निष्कर्ष निकलते हैं-
१ मुक्ति ही काव्य का एकमात्र प्रयोजन है.
२ यह मुक्ति आवरणभंग से होती है.
३ काव्य की रचना से काव्य के पठन, दर्शन से चैतन्य का आनन्त्य होता है, उसका विस्तार होता है और उससे आवरणभंग होकर मुक्ति का अनुभव होता है.
४ यह प्रयोजन आनन्दरूप है.
५ काव्य से मुक्ति कवि एवं सहृदय दोनों को होती है. अतः ये दोनों ही प्रमाता कहे गये हैं.
अभिनवकाव्यरलंकारसूत्रम् के विमर्शकार डा. रमाकान्त पाण्डेय कहते हैं कि मुक्ति की यह अवधारणा प्रायः भारतीयदर्शनों या काव्यशास्त्र में व्याख्यात नहीं हुई है. वर्ड्सवर्थ आदि कतिपय आचार्य आनन्द को काव्य का प्रयोजन अवश्य मानते हैं किन्तु उनकी भी अवधारणा अभिनवकाव्यरलंकारसूत्रकार की मुक्तिविषयक अवधारणा से भिन्न है. प्राचीन एवं अर्वाचीनभारतीय काव्यशास्त्रपरम्परा और पाश्चात्यकाव्यशास्त्रपरम्परा के आलोक में आचार्य त्रिपाठी द्वारा मान्य काव्यप्रयोजन को देखना आवश्यक है.
प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्रपरम्परा के आलोक में-
प्राचीन संस्कृत काव्यशास्त्र परम्परा में स्पष्टतया कहीं भी मुक्ति को काव्य का प्रयोजन नहीं कहा गया है. किन्तु आनन्द को कहीं-कहीं काव्य के एक प्रयोजन के रूप में कहा अवश्य गया है. वामानाचार्य एवं आचार्य भोज ने यश के साथ प्रीति (आनन्द) को काव्य का प्रयोजन माना है-
यहां हम देखते हैं कि भरत ने नाट्य की चर्चा करते हुए जिस विश्रान्तिजनन की बात कही थी कालान्तर में वही आनन्दरूप आस्वाद्य में परिणत हो गया.
आचार्य अभिनवगुप्त ने अवश्य तत्कालविगलितपरिमितप्रमातृभाव…… इत्यादि कहकर आवरणभंग एवं प्रमातृत्व पर विचार किया है. यहां ध्यातव्य है कि एक ओर आचार्य अभिनवगुप्त काश्मीर शैवदर्शन के अद्भुत आचार्य हैं और तन्त्रालोक परमार्थसार जैसे महनीय ग्रन्थों के रचयिता हैं तो दूसरी ओर अभिनवभारती आदि रचनाओं के माध्यम से वे साहित्य के भी मूर्धन्य आचार्य भी हैं. अतः स्वाभाविक है कि उनके साहित्य सम्बन्धी विचारों पर उनके शैवदर्शन के विचारों का प्रभाव पडा है. जिस आवरणभंग एवं प्रमातृत्व की बात तब अभिनवगुप्त एवं अब आचार्य त्रिपाठी कर रहे हैं, वह सीधा-सीधा काश्मीर शैव दर्शन से जुडा हुआ है.
प्रमाता अज्ञानवश माया को स्वीकार कर बंध जाता है. तदुपरान्त आवरणभंग हो जाने से वह मुक्त हो जाता है. शैव दर्शन में लोक रचना शिव की शक्ति (पार्वती) की क्रीडा है, जो शिव की लीला सखी होने के कारण ललिता भी कही गई हैं. इस क्रीडा में उन्हें रस या आनन्द आता है, अतः कला का प्रयोजन हुआ – आनन्द का विस्तार. आचार्य अभिनवगुप्त की बात को ही आगे बढाते हुए मम्मटाचार्य सद्यःपरनिवृत्तये को सकलप्रयोजनमौलिभूतम् कहकर विगलितवेद्यान्तरानन्दम्की बात करते हैं. यही आनन्दप्राप्ति विकसित रूप में आचार्य त्रिपाठी जी की मुक्ति की अवधारणा बन जाती है और उसे वे सकलप्रयोजनमौलिभूत न कहकर एकमात्र प्रयोजन मानते हैं. आचार्य विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में पुरुषार्थचतुष्ट्यकी बात करते हुए काव्य से होने वाली मुक्ति कि ओर संकेत किया ही है- चतुर्वर्गफलप्राप्तिः सुखादल्पधियामपि काव्यादेव.
पाश्चात्यकाव्यशास्त्रपरम्परा के आलोक में-
प्लेटो (लगभग 437 ई.पू.) का उदय एथेन्स के पतनकाल के दौरान हुआ. प्लेटो कवियों के लिए आदर्श-राज्य में प्रवेश निषेध करते हैं. प्लेटो से पूर्व होमर ने अपने काव्यों में कई स्थलों पर आग्रहपूर्वक कहा कि काव्य का लक्षण आनन्द देना है किन्तु हेसिओड काव्य का उद्देश्य शिक्षा देना मानता था. अरिस्टो्रफेनिस ने अपनी नाट्यकृति frogs में इन दोनों मतो के समन्वय करने का प्रयास किया. प्लेटो केवल बौद्धिक आनन्द की बात स्वीकार करता है, ऐन्द्रिय आनन्द की नहीं. अतः काव्यजन्य आनन्द, जिसका सम्बन्ध इन्द्रियों से है, उसे मान्य न था.
अरस्तू काव्य के दो प्रयोजन मानता है- ज्ञानार्जन एवं आनन्द. अरस्तू का काव्यानन्द न तो कोरा ऐन्द्रिय आनन्द है, न बौद्धिक आनन्द है, न सामान्य आनन्द है, न आध्यात्मिक आनन्द है, अपितु यह तो अनुकरणजन्य प्रत्यभिज्ञान का आनन्द है. यहां ध्यातव्य है कि प्रत्यभिज्ञा का उल्लेख काश्मीर शैव दर्शन में प्राप्त होता है. वहां प्रत्यभिज्ञा काश्मीर शैव दर्शन की एक शाखा ही है. प्रत्यभिज्ञा का शाब्दिक अर्थ है – पहले से देखे हुए को पहचानना.
नव्य-प्लेटोवाद के उदयकाल में प्लाटिनस ने यह कहते हुए कि कविता परम चैतन्य तक पहुंचने की सीढी का काम करती है, काव्य के दो प्रयोजन स्वीकार किये हैं- आनन्द और परम चेतना के सौन्दर्य का साक्षात्कार.
लांजाइनस ने अपने ग्रन्थ परिइप्सुस में कहा है कि कवियों की असाधारण प्रतिभा से प्रणीत लेखन पाठक के प्रबोधन मात्र के लिये नही होता अपितु उसके मन में आह्लाद उत्पन्न करने में सक्षम होता है. महान् सृजन महान् आत्मा की प्रतिध्वनि है. साथ ही लांजाइनस कहता है कि महान् काव्य वही है जो सभी को सब कालों में आनन्द प्रदान करे और समय जिसे पुराना न कर सके, वह नूतन प्रतीत होता रहे. इस प्रकार लांजाइनस के अनुसार आनन्द ही साहित्य का प्रधान प्रयोजन है.
१८ वीं सदी में इंग्लैंड में नव-आभिजात्यवाद neo classicism का प्रवेश हुआ. सैम्युल जोंस, अलेक्जेंडर पॉप, जोसेफ एडिसन आदि ने साहित्य प्रयोजन के सन्दर्भ में आनन्द और नैतिक आदर्शों की शिक्षा को महत्त्व दिया. नव-आभिजात्यवादी नियम-संयम-रुढिबद्धता के विरोध में स्वच्छन्दतावाद ने जन्म लिया. विलियम ब्लेक, वर्डवर्थस, शैले, कीट्स, बायरन आदि इसी वाद से जुडे रहे. इन के अनुसार काव्य का प्रयोजन है- आत्मसाक्षात्कार, आत्मसृजन व आत्माभिव्यक्ति. इस तरह हम देखते हैं कि मानव की मुक्ति की कामना ही कहीं न कहीं स्वच्छन्दतावाद में काव्यसृजन का प्रयेाजन बनकर उपस्थित होती है. वर्डवर्थस ने लिरिकल बैलेड्स की भूमिका में कहा कि कविता हमें आनन्द प्रदान करती है. डॉ. नगेन्द्र ने रससिद्धान्त में स्वच्छन्दतावाद एवं भारतीय रससिद्धान्त की तुलना करते हुए कहा है- स्वच्छन्दतावाद का आनन्दवाद के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है. शैले, वर्डवर्थस, कॉलरिज -यहां तक कि रुग्ण कीट्स और आस्थाविहीन बायरन में भी आनन्द का स्वर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से मुखर है. शैले की सौन्दर्य की प्रति उल्लासपूर्ण आस्था और बायरन का जीवन के प्रति अबाध उत्त्साह आनन्दवाद के ही विभिन्न रूप हैं.
स्वच्छन्दतावाद की प्रवृत्ति ने ही कलावाद का रूप धारण किया. १८१८ में फ्रांस में विक्टर कूजे ने कला कला के लिये के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया. आस्कर वाइल्ड, ब्रेडले आदि ने इस सिद्धान्त को अपना मुक्त समर्थन दिया. इस सिद्धान्त का मानना है कि कला का उद्देश्य धार्मिक या नैतिक न होकर स्वयं अपनी पूर्णता है. इसके अनुसार कला की एक मात्र कसौटी है- सौन्दर्य-चेतना की तृप्ति. कला उस सौन्दर्यानुभूति की वाहक है. काव्य का एकमात्र प्रयोजन आनन्द की सृष्टि माना गया है. काव्य से होने वाला जो आनन्द है वह पृथक् तरह का है, उसकी तुलना हम अन्य आनन्द की कोटियों से नहीं कर सकते.
इसके विपरित एक और सिद्धान्त है जो कला जीवन के लिये की अवधारणा पर चलता है. यह कलावाद को पलायनवाद, घटिया भोगवाद का समर्थक कहता है. इस सिद्धान्त के सबसे बडे समर्थकों में मार्क्सवाद है जो साहित्य का उद्देश्य मानव कल्याण भावना की अभिव्यक्ति को मानता है. लोकमंगल भावना को ही यहां साहित्य का प्रमुख प्रयोजन स्वीकारा गया है.
इस तरह पश्चिम में काव्य के प्रयोजन को लेकर दो मत प्रचलित हुए-
१ आनन्दवादी मूल्यों को महत्त्व देने वाले
२कल्याणकारी मूल्यों को महत्त्व देने वाले
हिन्दी साहित्य में कला जीवन के लिये सिद्धान्त के समान ही लोकमंगल को काव्य का प्रयोजन माना, जिनमें महावीरप्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त आदि प्रमुख हैं. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने रस की लोकमंगलवादी व्याख्या की है. इसके विपरित छायावादी कवियों ने काव्य को मानव-मुक्ति-चेतना कि ओर प्रवृत्त किया. सुमित्रानन्द पंत ने पल्लव की भूमिका में रीतिवाद की कठोर निन्दा की और मुक्त जीवन सौन्दर्य की अभिव्यक्ति को काव्य का प्रयोजन स्वीकार किया. जयशंकर प्रसाद ने काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध में रस की शैवाद्धैतवादी-आनन्दवादी परम्परा का समर्थन किया और श्रेयमयी प्रेय ज्ञानधारा करे कविता कहा जिसमें आनन्द और लोकमंगल दोनों का सामंजस्य मिलता है.
उपर्युक्त विवेचन से यह प्रतीत होता है कि आचार्य त्रिपाठी द्वारा काव्यप्रयोजन रूप में स्वीकृत मुक्ति काश्मीर शैव दर्शन की विचारधारा से प्रभावित दिखाई देती है. यद्यपि प्राचीन काव्यशास्त्र में आनन्द की बात काव्यप्रयोजन के सन्दर्भ में कहीं गई है तथापि उस आनन्द की दार्शनिक व्याख्या नहीं की गई है और न ही उसे स्पष्ट रूप से काव्य का एकमात्र प्रयोजन कहा गया है. प्राचीन आचार्य आनन्द प्राप्ति तक आते तो हैं किन्तु उसकी विशद व्याख्या नहीं करते, न ही वे मुक्ति की अवधारणा की और बढते दिखाई देते हैं. इसी तरह पाश्चात्य विचारक आनन्द की बात करते हुए मुक्ति की अवधारणा के मार्ग पर चलते तो हैं किन्तु उसे स्पष्ट रूप में व्याख्यात नहीं करते. यद्यपि वे इस सन्दर्भ में प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्रियों से कुछ आगे हैं. आचार्य त्रिपाठी विगलितवेद्यान्तर की स्थिति को मुक्ति की धारणा तक पहुंचा देते हैं क्योंकि उस स्थिति में मुक्ति की अवस्था के समान ही स्व में स्थित हुआ जाता है.
आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी के काव्यप्रयोजन में एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य विचारणीय है कि यह मुक्ति केवल व्यक्ति की मुक्ति नहीं है अपितु यह मुक्ति सभी की मुक्ति है. लोक में कोई भी एक व्यक्ति मुक्ति प्राप्त करें और दूसरा अमुक्त रहे, यह कैसे सम्भव है क्योंकि कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से मुक्त नहीं है. यहां आकर पाठक उलझ जाता है क्योंकि वह तो दर्शन की परम्परा में यही पढता, सुनता आया है कि अमुक व्यक्ति ने प्राप्त की. इसका समाधान यह हो सकता है कि आचार्य त्रिपाठी जिस मुक्ति की बात यहां कर रहे हैं वह काव्य, नाट्य के पठन, श्रवण, दर्शन से होती है. नाट्य के दर्शन या काव्यों के सामूहिक श्रवण के समय यह मुक्ति व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो जाती है, जो दर्शनों में मानी गई मुक्ति से भिन्न अलौकिक ही है. महनीय नाट्यों के मंचन या भागवत आदि के वाचन के समय सामूहिक मुक्ति की बात देखी जा सकती है.
स्मरण कीजिये कि कैसे महाभारत का वाचन सबके सामने यज्ञ के असवर पर किया गया. अतः जो सामूहिक रूप में काव्य, नाट्य से आनन्द प्राप्त करेगा उसकी सामूहिक मुक्ति होगी. वैसे दर्शन की भाषा में सभी मुक्त पुरुष ही हैं केवल अपने स्वरूप को विस्मृत कर दिये जाने से, आवरण से आच्छादित हो जाने से पुरुष बंधा हुआ प्रतीत होता है तदुपरान्त आवरणभंग हो जाने पर मुक्त हो जाता है. मुक्ति की इस दशा में वैयक्तिता जैसी कोई बात नहीं रह जाती अपितु व्यक्तिगतचेतना समाजगतचेतना में लीन हो जाती है और समाजगतचेतना ब्रह्माण्डगतचेतना में.
आचार्य अभिराज राजेन्द्र मिश्र मुक्तिस्तस्य प्रयोजनम् की आलोचना करते हुए कहते हैं कि मुक्ति तो मृत्यु के बाद प्राप्त होने वाला आनन्द है-मुक्तिसौख्यं मरणान्तरमेवोपभोक्तुं शक्यते. इसके प्रत्युत्तर में डॉ. रमाकान्त पाण्डेयकहते हैं कि -अभिनवकाव्यालंकारसूत्रकार की मुक्ति मृत्यु के बाद होने वाला मोक्षसुख न होकर काव्य के पठन, श्रवण या नाट्यदर्शन से जन्य प्रमाता कवि या सहृदय का चैतन्यविस्तार है. अतः आचार्य मिश्र का यह आक्षेप अकिंचित्कर है.
वस्तुतः यह योग द्वारा समाधि की फलित दशा में प्राप्त मुक्ति नहीं है अपितु यह काव्य, नाट्य से होने वाली मुक्ति है. अतः उस मुक्ति से विलक्षण मुक्ति है. यहां यह भी ध्यातव्य है कि काव्य से होने वाली मुक्ति नित्य मुक्ति नहीं है. यहां हम मुक्ति को दो प्रकार का मान सकते हैं- एक मुक्ति वह जो समाधि की दशा में फलित होती है, इसके भी दो रूप होते हैं-जीवनमुक्ति एवं विदेहमुक्ति और दूसरी मुक्ति वह जो काव्य के द्वारा फलित होती है, इसे हम काव्यमुक्ति की संज्ञा दे सकते हैं.