The poet is the priest of the invisible.
: Wallace Stevens
समकालीन कविता पर केंद्रित ‘मैं और मेरी कविताएँ’ के अंतर्गत आपने निम्न कवियों की कविताएं पढ़ीं और जाना कि वे कविताएं क्यों लिखते हैं.-आशुतोष दुबे/ अनिरुद्ध उमट/ रुस्तम/ कृष्ण कल्पित/ अम्बर पाण्डेय/ संजय कुंदन/ तेजी ग्रोवर/ लवली गोस्वामी / अनुराधा सिंह/ बाबुषा कोहली/सविता सिंह / विनोद दास. अब इस श्रृंखला में पढ़ते हैं प्रभात को.
कविता अपरिभाषेय है, जितने कवि हैं उतनी परिभाषाएं संभव हो सकती हैं. अच्छी कविताओं को लेकिन पहचाना जा सकता है चाहे वे किसी भाषा में लिखी गयीं क्यों न हों. अपने शाब्दिक सौन्दर्य और अर्थगत मार्मिकता के अचूक संयोजन में वे एकदम से पकड़ में आ जाती हैं.
राजस्थान के करौली गाँव के और अब लगभग ५० की उम्र को हो चले समकालीन कविता के महत्वपूर्ण कवि प्रभात पिछले कई दशकों से कविताएँ लिख रहें हैं, बच्चों के लिए भी लिख रहें हैं. मनोविकार को छूती हुई अतिशय उपलब्धता के इस विकट दौर में वे निर्लिप्त और अनुपलब्ध हैं, उनकी कविताएँ कहीं-कहीं दिख जाती हैं.
प्रभात की कविताएँ उन्हीं के शब्द-युग्म के आधार पर कहूँ तो ‘आदिम उजास’ की कविताएँ हैं, वे अधिकतर प्रकृति, खेत-खलिहानों, पशु-मवेशियों, धूसर लोक और आत्मीय लोग-गीतों के इर्दगिर्द घटित होती हैं. वे इसे रचते हैं, कविता में बचाते हैं. वे इसके संकटों को भी समझते हैं और उनकी पहचान कर उन्हें प्रत्यक्ष करते हैं. उनकी कविताओं में लोकगीतों जैसी सहजता, साहचर्य और सौन्दर्य है.
उनकी पन्द्रह नई कविताएँ प्रस्तुत हैं और उनके कविता लिखने के कारणों पर उनकी एक टिप्पणी भी आप यहाँ पढ़ेंगे.
मैं कविता क्यों लिखता हूँ ?
प्र भा त
बचपन से ही हर बच्चे का जीवन में कुछ खास चीजों के प्रति विशेष अनुराग पनपने लगता है. मनुष्य अगर सामाजिक पशु है तो वह एक रचनात्मक प्राणी भी तो है. आदिवासी, पारंपरिक, सामूहिक कलाएँ आज भी इसकी गवाही दे रही हैं. उनके कलाकर आज भी अज्ञात ही रहते हैं, जबकि वे होते हैं. मुझे अपने इलाके के लोकगीत, संगीत में बड़ा रस आता था. स्त्रियाँ जन्म के अवसर पर, मृत्यु के अवसर पर सामूहिक रूप से बैठकर लोकगीत गाया करती थीं. लोक देवताओं के, प्रकृति के गीत गाया करती थीं. गाँवों में लोकगीतों के दंगल भरते थे. दंगलों में सौ-सौ, डेढ़-डेढ़ सौ लोग एक साथ, एक स्वर में गीत गाया करते थे. आज भी गाते हैं. उन गीतों की अनुगूंजें मुझे ऐसे ही चौंकाती रहती थीं जैसे कहीं दूर गरजते मेघ मोरों को चौंकाया करते हैं.
बचपन से ही मेरी नींदें मुंह अँधेरे में चाकी पीसती हुई स्त्रियों के गीत सुनते हुए खुलती थीं. कभी-कभी किसी स्त्री को हथचक्की के नीचे छिपा सर्प डस लेता था और वह मर जाती थी. कई बार सौरी से शिशु के मरने की खबर आती थी. स्त्रियों के क्रंदन के स्वर कानों में चाीखते थे. कैसा गहरा विषाद घर के लोगों, पशुओं और हरी बेलों में छा जाता था. मुझे लगता है बचपन के उस वातावरण से मिले संस्कारों की जरूर कोई भूमिका मेरे कविता लिखने में होगी.
किशोर उम्र से ही मैं लिखने के पीछे पागल था. जैसे किशोर प्रेम में कोई किशोर ऊट-पटांग हरकतें करता रहता है, मैं लिखने में वैसी हरकतें किया करता था. खूब ही लिखा करता था और जैसे बंदरिया अपने मृत बच्चे को चिपकाए फिरा करती है, ऐसे उन्हें चिपकाए रहता था. रेडियो पर गाने सुनता था और गाने लिखता था. रद्दी वाले से रद्दी की पत्रिकाएं खरीद लेता था. उनमें जैसी कविताएं छपती थी वैसी लिखकर पत्रिकाओं को भेजा करता था जो अदेर वापस आ जाया करती थीं. कविता के पीछे पागलों सरीखे आकर्षण ने मुझसे जमकर अभ्यास करवाया. आरंभ में मेरे आसपास आधुनिक साहित्य के माहौल के अभाव ने मेरे भीतर कविता के प्रति आकर्षण को तीव्र कर दिया. पत्र-पत्रिकाओं की कविताओं से जो बिम्ब उभरते, उनके रहस्य और आस्वाद में मैं खो जाता था.
विश्वविद्यालय में ऐसे दोस्त मिले जिनके रहते किसी दुश्मन की क्या जरूरत. कविताओं की डायरियाँ फाड़कर फेंक देने के दिन आ गए. जैसे आजकल के प्रेम में युवकों के बीयर पीने, बिना धुली जीन्स पहनने और उलझे हुए बाल रखने के दिन आ जाते हैं. जैसे लाठी खाया साँप फिर से फुँफकार लाठी जितना ही ऊँचा उठने की कोशिश करता है, जाने क्यूँ मैं दोस्तों की कसौटियों पर खरा उतरने की कोशिश करता.
आज लिखने के मेरे अभ्यास को जब दो दशक से अधिक समय बीत गया है. मैं सोचता हूँ कि अगर मैं लिखे बिना रह सकता तो नहीं लिखता. लिखे बिना रह नहीं सकता इसलिए लिखता हूँ. और अब तो लिखना मेरा एकमात्र प्रेम रह गया है.
कई बार सुख सहन नहीं होता. कई बार विषाद बरस दर बरस पीछा करते हैं तब लगता है कागज पर कुछ भी अनाप-शनाप लिखकर उससे मुक्ति पायी जा सकती है. यह जो ताकत है कला की, चाहे वह कोई सी कला हो मुक्ति के सुख के साथ-साथ, अनजाने की पागलपन की ओर जाने, आत्महंता प्रवृत्ति का शमन करने में भी मदद करती है. क्या पता इसलिए लिखता होऊँ.
प्रभात की पंद्रह कविताएँ
१.
घुटनों में सिर दिए बैठा आदमी
सड़क किनारे घुटनों में
सिर दिए बैठा आदमी
सरकार का तो कुछ नहीं
लेकिन क्या मेरा भी कुछ नहीं
वह अपने घरवालों का तो कुछ नहीं
लेकिन क्या मेरा भी कुछ नहीं
वह उन पशुओं का तो कुछ नहीं
जिन्हें उसने चारा खिलाया, पानी पिलाया
लेकिन क्या मेरा भी कुछ नहीं
वह ठिठुरती रात और घने कोहरे का तो कुछ नहीं
लेकिन क्या मेरा भी कुछ नहीं
मैंने कटण-कजोड़ा इकट्ठा किया
सुलगायी आग चलायी बात
यह देख एक कुत्ता भी आ बैठा पास
देखकर पृथ्वी पर
आदिम उजास.
२.
प्रतीक्षा
अब तो न कोई मान को मान मानता है
न अपमान को अपमान
आग का जलना लेकिन आज भी जलना है
पानी से भीगना आज भी भीगना है
अब तो न कोई सच को सच मानता है
न झूठ को झूठ
नंगे पैरों का चलना लेकिन आज भी चलना है
अब तो न कोई चौराहे पर आता है
न कोई गली से गुजरता है
लेकिन चौराहे पर अब भी रात होती है
गली में अब भी सूर्योदय होता है
देखो एक बुढ़िया सिपाही को टमाटर दे रही है
और थाने को गाली
देखो एक बूढ़ा उसे मारने आए सैनिक से
खाना खाने के लिए कह रहा है
देखो एक जज को धमकाया जा रहा है
बच्चे का सच उसका हौसला बढ़ा रहा है
देखो एक गोली चला रहा है
मगर एक है जो शव को शाल उढ़ा रहा है
बहुत रात हो गई
आततायी को तो नींद नहीं
उसके पास तो लम्बी फेहरिश्त है लोगों को मिटाने की
जाने क्या-क्या बटोरकर दुनिया से ले जाने की
हम तो सो जाएँ
सपने हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं.
३.
बबूल के फूल
वह उनसे सकुचाता था
जो बैंक में जमीन गिरवी रख देते थे
वह उनसे डरता था
जो थाने में बेखौफ आते जाते थे
गाँव में लोग ताश खेलते थे
देशी शराब निकालते थे
अपने छोटे-छोटे बच्चों को
शहर में गिरवी रख आते थे
वह लोगों से डरने लगा
और अकेला रहने लगा
वह अपने बैलों को याद करता
खेती किसानी के अपने
कामों को याद करता
जो अब नहीं थे उसके पास
वह बरगद तले बैठे हुए मिलता
कभी पीपल तले सोते हुए
अंतिम बार वह
अपने बिके हुए खेत की मेड़ पर
सदा के लिए सोते हुए मिला
बबूल के फूल आए
उसे संसार से विदा देने.
4.
साँझ
साँझ घिरने पर
जब लोग प्रार्थनाएँ करते हैं
मैं खलिहानों को याद करता हूँ
जिनमें सोया करता था बचपन में
अपने पुरखों के साथ
मंद पड़ जाया करती थी
पृथ्वी पर आवाज़
और कुछ ख़ास आवाज़ें
सुनाई देने लगती थीं
तिपाए पर पानी का घड़ा रखा होता था
अनाज के ढेर के पास
भूसे के ढेर के पास मेरी खाट
और ऊपर तारों जड़ी रात.
5.
मृतक
मृत्यु के बाद के उनके कोई समाचार नहीं है
वे अब दिखाई नहीं देते
अपने खेतों तालाबों की ओर आते जाते हुए
मैं पुकारूँ भी तो कहीं उनकी आवाज़ नहीं आएगी
हम उनका उपजाया अनाज खा रहे हैं
उनके बसाए घर में रह रहे हैं
उनके बनाए रास्तों पर चलने की
कोशिश कर रहे हैं
जो असल में काफी मुश्किल है
मैं अपने बच्चों को बताता हूँ तो वे दिलचस्पी से सुनते हैं
और खुश होते हैं अपने पुरखों के बारे में जानकर
बच्चे अपनी कल्पनाओं से
उन्हें पहचानने की कोशिश करते हैं
और ये वही बच्चे हैं
जिनके पैदा होने तक
उनकी जीने की इच्छा थी.
6.
शादी
मेरी शादी थी न
आज कल में ही तो थी
दिन या रात में किसी समय होनी थी
घर में चहल पहल क्यों नहीं है
ख़ास-ख़ास लोग सब कहाँ गए
ऐरे गैरे ही आसपास रह गए
और मैं
नहाया क्यों नहीं हूँ अभी तक
तौलिए में ही कैसे घूम रहा हूँ
कोई पीछे से मेरा तौलिया क्यों खींच रहा है
मेरे नए कपड़े कहाँ हैं
एक ही गाँव में शादी क्यों नहीं हो सकती
जब व्यभिचार और बलात्कार में
एक ही गाँव के होने का नाता
नहीं अड़ रहा है
जब घर में घर के किसी सदस्य द्वारा
स्त्रियों के बलात्कार करने से
कुल की साख को बट्टा नहीं लग रहा है
तो गाँव में दूसरे थोक में शादी करने से
बट्टा कैसे लग जाएगा
जब एक ही जाति एक ही गोत्र में
लोग कुंवारियों का कौमार्य
भंग कर रहे हैं
तो समान उम्र के लड़का लड़की में
प्रेम हो जाने पर
गाँव क्यों इतना इतरा रहा है
शादी के ही दिन होना था क्या यह सब
लड़की को किसने गायब कर दिया
कम से कम उसे तो होना था यहाँ
बताओ आज शादी है
और वह भी नहीं
अकेला इधर-उधर हो रहा हूँ.
7.
खेतों से लौटती हुई
मैं नहीं जानता था
खेतों से लौटती हुई वह
एक दिन मेरी ज़िंदगी में आ जाएगी
रहेगी कुछ दिन मेरे जीवन में
मेरे घर में नहीं
मेरी दुनिया में नहीं
मेरे दिखाई देते हुए जीवन में भी नहीं
वह रहेगी ऐसे
रह रही है जाने कब से
रहती रहेगी जाने कब तक
वह नहीं जानती थी
मैं नहीं जानता था
एक दिन वह नहीं
केवल उसका रहना रह जाएगा मेरे भीतर
बस जाएगा मेरे जीवन में.
Photograph courtesy: Raghubir Singh |
8.
गंध
ज्वार बाजरा
मूँग मक्का
और तिल के खेतों
और जलाशयों
और हर तरफ
उगी घासों
खपरतवारों
और चली गई
बारिश की
गंध से भरी
गहरी गढार में
पैदल चलते हुए
ढलती साँझ में
आकाश के पहले
तारे को देखते
जंगल किनारे की
बस्ती में
जहाँ तुम
पशुबाड़े में
नीम की पत्तियों का
ढेर सुलगाकर
धुँए में खड़ी हो
डाँस मच्छरों से
गाय भैंसों और
उनके बछड़ों को
निजात दिलाने की
कोशिश करती
मैं आना चाहता हूँ
वहाँ
तुम्हारी गंध से खिंचा.
9.
समय
घाटी के उस तरफ खेत हैं
तुम उन खेतों में काम करती हो
भादौ में मूँगफली के खेत में
कुदाल चलाना
माघ में सरसों के पत्ते तोड़ना
और बैसाख में गेहूँ की कटाई
साँझ में थकी हारी लौटकर
समेट कर
थकाकर चूर कर देने वाले
घर के सारे काम
ढह जाती होगी तुम
पशुबाड़े के पास
बिछी खाट पर
उम्र दिखने लगी होगी अब तो
एक चौथाई सदी बीत गई
एक चौथाई सदी पहले के
समय को बीते हुए.
१०.
गुलाब
यह जो बुरा दौर आया है
जिसमें धमकाए जा रहे हैं लेखक
चमकाए जा रहे हैं गुण्डे
जेलों में हैं बुद्धिजीवी
बिक रहे हैं न्यायाधीश
बोली लग रही है खिलाड़ियों की
गढारें मिट रही हैं बैल गाड़ियों की
उठाए जा रहे हैं वक्ता
कच्चे रास्ते में मर रही हैं प्रसूता
इस दौर को मैं
शाहीन बाग के धरने की
उस लड़की के हाथ के गुलाब से
याद रखूँगा
जिसे वह दे रही थी
आवाज कुचलने आए सिपाही को
११.
किसान
वे धरती माँ पर
हल नहीं चलाना चाहते थे
युगों बाद सहज हुए वे
धरती पर हल चलाने में
बैगा तो आज भी सहज नहीं
वे जंगल की सहज उपज पर
रहते हैं निर्भर
गर्मी में बाँस
शीत में आग ही है
उनके घर
हमारे समय में
जब बिस्मिल्ला खाँ
मुंह अँधेरे बजाते थे शहनाई
गंगा किनारे
कुमार गंधर्व कबीर गाते थे
वे खेतों में उतरते थे
हल लेकर
खेतों से श्रम का संगीत
उठा करता था धरती पर
घाम पड़ने पर वे
लौट आते थे खेतों से
रास्ते में तालाब पर हाथ मुंह धोते
बैलों को पानी पिलाते
घर लाकर उन्हें हरा नीरते
फिर कलेवा करते
और गाँव में निकल जाते
क्या बोएँ इस बार खेतों में
इस पर सलाह करते
दोपहर में दोपहरी कर
फिर जुट जाते दूसरे खेतों में
निराई गुड़ाई करते
तीसरे पहर चौपड़ जमती
जिसमें बाजी होने पर
जो ठहाके उठते
बादल चौंक जाते
जिनकी चौपड़ में
रुचि नहीं होती
वे रास-जेवड़े बटते
मवेशियों को सजाने के सामान
तैयार करते
जिनका इसमें भी
जी नहीं लगता
जुड़ मिलकर गीत जोड़ते
रात के नाच गान के लिए
रात के खाने के बाद
फूस पाटोरों के
कच्चे धरों से निकालते
ढाँकरे से काँटा तोड़कर
दाढ़ कुरेदते हुए आते चौक में
दूसरे गाँवों की बतळावण करते
धरती के इन जायों की
दशा हो गई बेघर गायों सी
पशु धन गया खेत क्यार गए
अब वे चाय बनाते हैं
रिक्शा चलाते हैं शहरों में
बहुत जा बसे झुग्गियों में
बहुत भर गए जेलों में
जमीन तो अब भी है
और उतनी ही है
खेती भी खूब होती है
पर ज्यादातर की खेती को
नई कम्पनी करती है
अब उनके गाँव घर
नहीं टहलता सुख
अब नहीं दिखती भाभी चिमनी की रोशनी में
बेलों कढ़ी लूगड़ी की घड़ी करते हुए
अब नहीं दिखती विवाहित बहन
थाली में दूध लेते हुए जांवणी से
अब नहीं दिखती माँ
जंग लगे संदूक में रखती हुई गहने
बेटे के ब्याह में निकालने के लिए
बरस पर बरस बीतते जा रहे हैं
अब वे वही पुराना अँगोछा
कंधे पर धरे लौट आते हैं मण्डी से
अब नहीं खुलती नीली शाम में कोई गठरी
जिसमें से निकले बच्चों के लिए सफेद बुशर्ट
नेकर और घघरी
भाईयों के लिए निकले
एक एक अँगोछा
कुर्ता खादी का
जो चले पूरे साल
हाए रे कुराज
तेरा जाए सत्यानाश
तूने अध अध बीघा जमीन पर
कटवा दिए कुटुम्ब
मरवा दिए भाई बंद
खलिहानों में
लगा दी कैसी आग.
१२.
घूँघट
एक दिन मैंने घूँघट निकाल कर देखा
देखा घर की बहू बनकर
अपने ही घर के कमरों में
घुसते निकलते सोचना पड़ा मुझे
एक कमरे में जेठ जी थे
तो दूसरे में ससुर
कहीं जगह न पाकर
मैं घुसी रही रसोई में
बावजूद इसके कि
आज ही त्यागा जा रहा था मुझे
बरसते शीत में कई रोज
घर के दालान में सुलाने के बाद
मेरे पति पढ़ी लिखी ला रहे थे मेरी जगह
ठीक ही तो कर रहे थे
तब उनके दिन ऐसे ही थे
सो मुझ अनपढ़ को ब्याह लाए
अब तो उनकी नौकरी है
मैं अनपढ़ उनके साथ
आती जाती अच्छी नहीं लगती हूँ
खेतों के धूल धक्कड़ में काम करते
मेरे गाल वैसे कोमल और सुंदर नहीं रहे
जैसे नई आएगी उसके होंगे
मुझे छोड़ने को लेकर पंचायत बैठी
पंचायत में कौन-कौन हैं चारों तरफ
ठीक से लोग ही नहीं दिखे मुझे घूँघट से
मेरे भाई पिता भी
मौजूद थे पंचायत में
मुझे उनका भी घूँघट
करना पड़ रहा था
मुझे उनसे भी डर लग रहा था
पंचायत के बाद
जब मैं घर की रही न घाट की
मेरी उँगली पकड़े बेटी को लेकर
पिता से मिली
पिता ने कहा
भाइयों के लिए तेरे नाम की जमीन पर
तू पहले ही अँगूठा टेक चुकी है
कोर्ट में जँवाईजी से
तू जीत नहीं सकती है
मेरी जिन्दगी हो गई
देखते देखते
तेरी तरह छोड़ी हुई बेटियाँ
तेरह-तेरह साल से कोर्ट में लड़ रही हैं
लड़ते-लड़ते बूढ़ी हो गई हैं
उनकी लड़ाई भी क्या लड़ाई है
सुबह की गई शाम तक
वकीलों की कुर्सी के पास बैठकर
अपने भाग को रोती लौट आती हैं
इसलिए कहता हूँ
कहीं मत देख बेटी
तेरी इस बेटी की तरफ देख
जहाँ तुझे जगह दिखती हो
वहाँ झोंपड़ी गाड़ ले
छप्पर के लिए कड़ब
मैं ले आऊँगा
मैं इतना ही कर सकता हूँ बेटी
मैं अब और नहीं सह सकता था
जिस काली शाल से घूँघट किए था
उसे उतार कर फेंका तुरंत
और घासलेट डालकर जला दिया
मैंने देखा सामने एक परित्यक्ता
धुले काले केशों को चोटी में गूँथ रही थी
नई पीली लूगड़ी को सिर के बजाय
कंधे पर ले रही थी.
Photograph courtesy: Raghubir Singh |
१३.
लोकगीत
वे बोल हौल उठाते हैं मेरे दिल में
वो आवाज़
धरती पर पहली खेती के धान की गंध से भरी
पुआल के ढेर के पास
चाँद की धूल में किए गए वे नाच
हौल उठाते हैं मेरे दिल में
सिर से गालों और पीठ से
झिलमिलाते बहते पसीने की कल-कल
हौल उठाती हैं मेरे दिल में.
१४.
मोरनी
महानगर की भीड़ में
ग्रामीणें तो बहुत थीं
मगर एक थी
मोरनी सी चौंकती
इधर-उधर देखती
फिर एकटक देखती मुझे
कुछ पहचानने की कोशिश करती
क्या मैं वही हूँ
या कोई और
फिर भीतर ही भीतर रोती
कहाँ गायब हो गया रे तू
ओ मेरे मोर.
१५.
बार्बी
तुम बहुत सुंदर हो बार्बी
भूरे रेशमी केशों में रिबन बाँधे
झिलमिल आँखें घुमाती
तुम्हें एक लाल गदबदी बच्ची
अपने बिस्तर में सुलाती
पर अब तुम बूढ़ी हो गई हो
तुम्हारे बाल झड़ गए हैं
एक पैर गया
एक हाथ गया
झिलमिल आँखें गईं
तुम हो गई अन्धी
पड़ी हो कूड़े के ढेर में
वहाँ से उठाया है तुम्हें
एक भूरे बालों वाली
रेत सनी बच्ची ने
उसके हाथ में तुम
जादूगरनी लग रही हो बार्बी
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१९७२ (करौली, राजस्थान)