गोविन्द मिश्र से सुशील कृष्ण गोरे की बातचीत
\”साहित्य में विमर्शबाजी एक शार्टकट है.\”
पिछले दिनों गोविन्द मिश्र हिंदी एवं मराठी के महत्वपूर्ण आलोचक डॉ.चंद्रकांत बांदिवडेकर पर केंद्रित ‘शब्दयोग’ पत्रिका के विशेषांक के विमोचन कार्यक्रम पर मुंबई पधारे थे. उनके इस मुंबई प्रवास के दौरान युवा लेखक एवं समीक्षक सुशील कृष्ण गोरे ने उनसे हिंदी में रचनाशीलता तथा आलोचना के मौजूदा परिदृश्य पर एक लंबी बातचीत की.
इस बातचीत में गर्मजोशी है, लगाव है, लेखक का अंतरतम है, साहित्य पर कुछ खरी खोटी बाते हैं.
गोविंद मिश्र हिंदी साहित्य का एक जाना-पहचाना नाम है, उनका विपुल रचना संसार पांच दशकों के आर-पार फैला है. लगभग 55 किताबों के लेखक गोविंद मिश्र ने हिंदी जगत को 10 उपन्यास, अनेक कथा-संग्रह, निबंध-संग्रह तथा एक कविता-संग्रह दिए हैं. उन्हें अपने उपन्यास ‘लाल पीली जमीन’ के लिए आर्थर गिल्ड ऑफ इंडिया के पुरस्कार, ‘हुजूर दरबार’ के लिए उ.प्र.हिंदी संस्थान के प्रेमचंद पुरस्कार, ‘धीर समीरे’ के लिए भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता के पुरस्कार, ‘पाँच आँगनों वाला घर’ के लिए 1998 के व्यास सम्मान, ‘कोहरे में कैद रंग’ के लिए 2008 के साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा 2001 में राष्ट्रपति द्वारा सुब्रह्मण्य भारती पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है. उनकी ‘वह अपना चेहरा’, ‘तुम्हारी रोशनी में’, ‘उतरती हुई धूप’, ‘आसमान कितना नीला’, ‘धूल पौधों पर’, ‘रंगों की गंध’, ‘खाक इतिहास’, ‘पगला बाबा’, ‘संवाद अनायास’, ‘मुझे बाहर निकालो’, ‘हवाबाज’, ‘परतों के बीच’, ‘फूल, इमारतें और बन्दर’, ‘ओ प्रकृति माँ’, ‘समय और सर्जना’, ‘साहित्य, साहित्यकार और प्रेम’ जैसी प्रतिनिधि कृतियों को भला कौन भूल सकता है.
:: गोविंद जी को मैं 11 साल की उम्र से जानता हूँ. सारिका में छपी उनकी एक कहानी पढ़कर मैंने 1981 में उन्हें एक पत्र भेजा था उनका भी एक जवाबी पत्र मिला. उसके बाद उन्हीं दिनों कई बार पत्राचार हुआ. उनसे संबंध 30 साल पुराना है लेकिन गोविंद मिश्र से मिलने का यह मेरा पहला संयोग था. सहेजकर रखे उनके कई पोस्टकार्ड और पत्रों सहित जब मैंने उन्हें 40-41 की जवां उम्र का उनका एक फोटो भी दिखाया तो मेरे साथ वे भी अभिभूत हो गए ::
आप क्या मानते हैं – ‘कहानियाँ पठनीय हों या केवल प्रयोगधर्मी’. आजकल दूसरे पर जोर अधिक है. आप इस सवाल से सहमत हैं क्या?
गोविंद मिश्र : आप सही कह रहे हैं. आजकल कहानी में कुछ अलग दिखाने की प्रवृत्ति या चौंकाने की प्रवृत्ति ज्यादा है. इसकी वजह है कि लेखक बहुत जल्दी प्रतिष्ठित हो जाना चाहता है. एक दूसरी वजह है संवेदनशीलता में कमी. मेरा मानना है कि अगर संवेदनशीलता हो तो लेखक अपनी रचना में चाहे जो प्रसंग उठा रहा हो, जिस किसी पात्र का निर्माण कर रहा हो या कोई भी स्थिति बयां कर रहा हो उसमें रस अपने आप आ जाएगा. इस रस से उस रचना में पठनीयता स्वयं आ जाती है. चाहे उसमें कहानीपन हो या न हो. जिस पठनीयता की शिकायत आप कर रहे हैं वह दरअसल रस का अभाव है. यह संवेदनशीलता में लगातार हो रही कमी के कारण रचना का एक आंतरिक संकट बनता जा रहा है.
आपके उपन्यासों और कहानियों में शहरी-ग्रामीण दोनों परिवेशों का मध्यवर्ग कथा के केंद्र में है. मध्यवर्गीय संत्रास, उसकी महत्वाकांक्षा, संघर्ष और विघटन को आपने बखूबी जीवन के यथार्थ के साथ स्वर दिया है. इस मध्यवर्गीय अस्मिता की हिंदी कथा-लेखन में केंद्रीय उपस्थिति को आप कैसे व्याख्यायित करेंगे?
गोविंद मिश्र : जहाँ तक गाँव और कस्ब़े का सवाल है, मेरा बचपन और किशोरावस्था यहीं बीता है. उसी अनुपात में मेरी रचनाओं में गाँव-कस्ब़े भी आए हैं. यों तो आप मेरी कुछ कहानियों और उपन्यासों में महानगर और विदेशी परिवेश भी देख सकते हैं.
दरअसल बात यह है कि मुझे जिन चीजों ने संवेदना के स्तर पर उद्वेलित किया मैंने केवल उन्हीं चीजों पर लिखा. सायास लेखन मुझसे न हो सका. रही बात मध्यवर्ग की कथालेखन में उपस्थिति का तो मैं यह मानता हूँ कि यह मध्यवर्ग ही साहित्य का मुख्य लक्ष्य है. ज्यादातर साहित्य उसी की जिंदगी का सफरनामा है और इस प्रकार उसी को संबोधित भी. मैं और मेरे जैसे तमाम समानधर्मा लेखक भी ज्यादातर इसी वर्ग के हैं. मेरा इसी वर्ग के साथ संपर्क भी है. इसी वर्ग के जीवन में मूल्यों का स्थान होता है. यहीं मूल्य परिवर्तित भी होते हैं. यह वर्ग मूल्यों के प्रति सचेत भी रहता है. इसके ऊपर और नीचे के वर्गों की अपनी-अपनी मशरूफियतें हैं जिनसे वे इस कदर मुब्तिला होते हैं कि मूल्य-चिंता के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं बचती.
हाँ…एक स्थिति यह हो सकती है कि मैं महाश्वेता देवी की तरह आदिवासियों के बीच जाकर उनकी जिंदगी को करीब से देखूँ और उनकी तरह लिखूँ. लेकिन मैं इसका कायल नहीं हूँ. मैं केवल तभी लिखता हूँ जब मेरी संवेदना किसी स्थिति से झकझोरी जाए. मेरे रचना संसार में काल्पनिक कम है, स्वानुभूति ज्यादा है. कृत्रिम विन्यास पहले ढालकर उसमें कुछ सायास लिखना मुझसे संभव नहीं होता.
मैं आपको उदाहरण दूँ कि मुंबई में अपनी नौकरी के दौरान जब मैंने ‘प्रतिमोह’ कहानी लिखी थी तो वह समुद्र तट पर प्लास्टिक की रद्दी चादरें तानकर उसके नीचे रहने वाले एक व्यक्ति की जिंदगी पर आधारित थी. उसके लिए मैं उस आदमी से कई बार मिला, बातें कीं, उसे अपने घर बुलाया, उससे आत्मीयता स्थापित हुई. इसी प्रकार ‘सुनंदो की खोली’ लिखी गई क्योंकि एक चाल में रहने वाले परिवार के संपर्क में आया. इसी तरह घरों में झाड़ू-पोंछा करने वाली एक स्त्री के परिवार से आत्मीय हुआ. तब जाकर कहानी बनी ‘आक्रामाला’.
मध्यवर्ग के जीवन में संघर्ष, पीड़ा, दुख है, यह बड़ी बात नहीं है. बड़ी बात है कि यही वर्ग इस संघर्ष, पीड़ा और दुख को महसूस करता है. उसके अनुभवों में ये शिद्दत से बसे रहते हैं. उच्चवर्ग और निम्नवर्ग के भी दुख हैं, संताप हैं लेकिन वे उनके जीवनानुभवों का हिस्सा उस ढंग से नहीं बनते जैसे मध्यवर्ग के बनते हैं.
आप शुरू से साहित्य और विमर्श को अलग-अलग चीज मानते हैं. साहित्य में ‘केंद्र और परिधि की अवधारणा’ आपको नहीं जँचती. आपकी निगाह में ये विमर्श सार्थक हो सकते हैं लेकिन इन पर बहस साहित्य के बाहर की जाए तो बेहतर होगा.
गोविंद मिश्र : दोनों अलग-अलग चीजें हैं. विमर्श को साहित्य के नाम पर नहीं चलाया जा सकता. विमर्श एक शार्ट-कट है. इसका आसान मतलब है – महसूस न करो और कहानी लिख दो. विमर्श मस्तिष्कीय उपक्रम है. सर्जना का संबंध ह्रदय से होता है. लेखक को इस तरह की विमर्शबाजी से बचना चाहिए. आप देखें जो लोग दलित और स्त्री विमर्श में ही पड़े रहते हैं उनकी सर्जनात्मकता खत्म हो चुकी होती है. ये ही नहीं किसी और विमर्श में भी अगर आप पड़े हों.
किसी रचना में लेखक की संवेदना की तीव्रता और उसका खास ढंग से महसूस करना ही रचना को विशिष्ट बनाता है. सिर्फ यही निकष है जो साहित्य को दूसरे लेखन से अलग बनाता है.
हाँ,…कभी-कभी उपन्यासों में खास तौर पर स्थितियों के हिसाब से वैचारिक स्तर पर उतरना पड़ता है, लेकिन वह उपन्यास में भी कम से कम रहे तो ही अच्छा. बहसबाजी, विमर्शबाजी रचना को कमजोर बनाती है. अमृत लाल नागर जी ने इसे निकम्मी इंटेटेक्चुअलता कहा है.
इसका एक मतलब यह भी निकलता है कि साहित्य केवल अभिजन के लिए है. जो कला, संवेदना, परिष्कृत रुचियों से संपन्न हैं या जिनको साहित्य-कला की समझ या उसका प्रशिक्षण मिला है वही साहित्य का रसास्वादन कर सकते हैं. क्या साहित्य अपने सामाजिक आयाम के साथ भी सर्जनात्मक नहीं हो सकता? क्या यह जरूरी है कि वह सर्जना के नाम पर एक छोटे से वर्ग के लिए रस, राग, छंद और आनंद का एक कलात्मक उपनिवेश बना रहे?
गोविंद मिश्र : साहित्य हर भाषा, हर देश, हर युग में सीमित व्यक्तियों की चीज रही है क्योंकि जो कलात्मकता होती है उसको पकड़ पाने का बूता सबमें नहीं होता है. हर रचना को पाठक विस्तार देता है. साहित्य को उस ढंग से लोकप्रिय नहीं बनाया जा सकता जिस ढंग से सिनेमा है. यदि वैसा ही किया गया तो साहित्य का स्तर भी सिनेमा की तरह गिरता चला जाएगा. साहित्य अपनी विशिष्टता, प्रयोगधर्मिता और बारीकीयत के कारण सीमित दायरे की चीज है. आप इसे उसकी सीमा भी कह सकते हैं.
यह दीगर बात है कि साहित्य में आम जनता और उसकी जिंदगी को केंद्र बनाकर कथाएं लिखी जा सकती हैं लेकिन वह साहित्य लेखक की संवेदना के बल पर ही होगा, सिर्फ जानकारी के अम्बार से साहित्य नहीं बनता. सिर्फ जनवाद या प्रगतिवाद के नाम पर संवेदना से कटी कहानियों का कोई साहित्यिक मूल्य नहीं हो सकता.
गोविंद जी यानी आप मानते हैं कि साहित्य सृजन किसी बदलाव के लिए नहीं होता.
गोविंद मिश्र : देखिए…मैं मानता हूँ कि साहित्य व्यक्ति के अंदर बदलाव लाता है. इसका प्रभाव आंतरिक और बहुत गहरा होता है. लेकिन साहित्य के कारण सामाजिक स्तर पर बदलाव होता है या साहित्य परिवर्तन का एक औजार है – यह मैं नहीं मानता. प्रेमचंद ने सामाजिक बुराइयों पर कितना लिखा लेकिन कहाँ दहेज खत्म हुआ, कहाँ जातिवाद खत्म हुआ और कहाँ सूदखोरी गई. शोषण आज भी कई रूपों में जारी है.
लेकिन ! कुछ तो बदलाव नजर आते हैं.
गोविंद मिश्र : जरूर बदलाव होते हैं लेकिन साहित्य के चलते नहीं. सामाजिक शक्तियाँ ही बदलाव लाती हैं. जैसे उदाहरण दूँ कि आपको नारी की स्थिति में बदलाव दिखता होगा. सही है. लेकिन वह लेखन के कारण नहीं है. समय और उसके दबाव ने उसकी स्थिति को बदला है. समय बदला तो समाज का ढांचा बदला. परिवार का स्वरूप बदला. परिवार की जरूरतें और आकांक्षाएं बढ़ीं. स्त्री शिक्षित होने लगी. शिक्षित हो गई तो नौकरी और कामकाज से जुड़ी, वह आर्थिक रूप से सक्षम हो गई. सक्षम हो गई तो उसकी पुरानी स्थिति बदल गई, वह थोड़ा स्वतंत्र हुई. इस तरह आप समझ सकते हैं कि सामाजिक संबंधों और संरचनाओं में धीरे-धीरे बदलाव कैसे आते हैं.
बदलाव के साथ फिर और बहुत कुछ आता है. भारतीय स्त्री स्वतंत्र तो हुई, पर वह परंपरा और आधुनिकता के बीच व्यक्ति पेंडुलम की तरह झूलती है और तय नहीं कर पाती कि क्या किया जाए. भारतीय स्त्री की यही स्थिति मेरे उपन्यास तुम्हारी रोशनी में का विषय बनी है. धूल पौधों पर उपन्यास में स्वतंत्रता की आकांक्षा वहाँ तक जाती है जहाँ स्त्री आत्मनिर्णय कर सकती है. यह उसकी शक्ति का अगला पड़ाव है. द्वंद्व और आत्मसंघर्ष निजी जिंदगी का हिस्सा होता है. इसलिए साहित्य में हमेशा रहेगा. यह जरूर है कि साहित्य अपने पाठक में निश्चित ही कुछ जोड़ता है. उसकी संवेदनाओं को परिष्कृत करता है. इस तरह एक लंबी अवधि में बदलाव की थोड़ी-बहुत जमीन बना सकता है. लेकिन यह बहुत दूर की बात है. तत्काल कुछ नहीं होता. साहित्य का बहुत गहरा और आत्मीय प्रभाव पड़ता है. मेरे पास दो ऐसी महिलाओं के पत्र हैं जिन्होंने मेरी रचनाएं पढ़कर आत्महत्या का खयाल छोड़ दिया. तो साहित्य इस स्तर पर प्रभावित करता है. उसका प्रभाव आंतरिक है, बाह्य नहीं.
यूरोपीय पुनरुत्थान के बाद स्वतंत्रता की आकांक्षा बढ़ती गई. इसकी चेतना ने स्त्री ही नहीं वरन हर आदमी को प्रभावित किया. स्वतंत्र अस्मिता का सपना इस रेनेसां की देन है. व्यक्ति और उसकी स्वधीनता सबसे बड़ा मूल्य बन गया. Man is supreme – यह बात गूँजने लगी. स्वतंत्रता की आकांक्षा फ्रांसीसी क्रांति के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी है.
नई पीढ़ी का लिखा कैसा लगता है आपको? क्या आपको कोई उम्मीद इस पीढ़ी से है?
गोविंद मिश्र : आलोचना ने यह सुविधा नहीं दी है कि हम यह जान सकें कि फलां लेखक जेनुइन है, प्रामाणिक है. उसको पढ़ना चाहिए. मैं कई पत्रिकाएं पढ़ता हूँ. नए लेखकों की रचनाएं देखता हूँ. इनमें जरूर कुछ अच्छे लेखक हैं. लेकिन स्थिति साफ नहीं है. संपादकों ने परिदृश्य को घलामेल से भर दिया है.
मैं नए लेखकों में दो प्रवृत्तियां नोट करता हूँ. पहला, शब्दजाल. बहुतों को भ्रम है कि उन्हें हिंदी लिखना आता है तो वे रचनाकार हो सकते हैं. इतना लिख दिया जाता है कि उसका कोई हिसाब ही नहीं. शब्दों का धुआँधार प्रयोग. उनकी शाहखर्ची. इन्हें भाषा की शक्ति का ज्ञान नहीं है. दूसरा, शिल्प का आकर्षण. वे चमत्कृत करने और चौंकाने की कला में माहिर हैं. उनमें संवेदना की तीव्रता की कमी है. शायद इसका एक कारण खुद वर्तमान समय है. हम एक संवेदनहीन समय में रह रहे हैं. मेरी समझ से वे संवेदनहीनता को ढकने के लिए शिल्प का प्रयोग ज्यादा करते हैं.
नई पीढ़ी में ज्यादातर कहानीकार हैं. इस पीढ़ी का उपन्यासों में जोर आजमाना अभी बाकी है. उपन्यास लिखना एक चैलेंज होता है. उपन्यास में असली परीक्षा होती है. जीवन को उसके लंबे-चौड़े आयामों में देखना और इतने विशाल आकार में लिखना उपन्यास में ही संभव होता है. इसमें लेखक की कमजोरियां प्रकट हुए बगैर नहीं रहतीं. यदि उपन्यास लिखते हुए लेखक खुद को बचा ले जाता है तो वह सक्षम लेखक होता है. उपन्यास लिखने के बाद ही लेखक जमता है.
चलिए…आपके उत्तर से मुझे पूछने के लिए एक प्रश्न मिल गया. शायद…आप हिंदी आलोचना के मौजूदा परिदृश्य से संतुष्ट नहीं हैं और उस पर कहने के लिए आपके पास बहुत कुछ है. कुछ बताइए…
गोविंद मिश्र : आलोचना ने एक विचित्र स्थिति पैदा कर दी है जिसके कारण इसकी तरफ मेरा ध्यान गया है. पहली, अगर आपसे हिंदी के सबसे चर्चित रचनाकारों के नाम पूछे जाएं तो सिर्फ दो ही नाम सामने आएंगे. यह दीगर बात है कि इन दोनों रचनाकारों ने पिछले 35-40 सालों में कुछ भी रचनात्मक नहीं लिखा. दूसरी, इतनी पत्रिकाएं छप रही हैं. सभी में विमर्श. अपने-अपने खेमे के लेखकों की रचनाएं. लेखक किस गुट का है, उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता किधर है इत्यादि चीजें उसकी रचनात्मक हैसियत को तय करने लगी हैं. यदि समान विचारधारा का है तो उसका स्वागत है. किसी के एक कहानी संग्रह या एक कविता-संग्रह की दस-दस समीक्षाएं और किसी की एक भी नहीं. संपादकों का घालमेल और उनके पूर्वाग्रह इन पत्रिकाओं पर हावी हैं.
तीसरी, आलोचना ने अपना काम नहीं किया. मुझे सहज उत्सुकता है कि मैं जानूँ कि मेरे बाद के कौन से साहित्यकार हैं. मैं पढ़ना चाहता हूँ, लेकिन किनको पढ़ूँ? आलोचना की असफलता यहाँ है. ढेरों लेखक लिखते चले जा रहे हैं. पत्रिकाओं की बाढ़ आ गई है. फिराक़ का एक शेर है – ‘दरिया चेहरों के उमड़े चले आते हैं फिराक़, आइने दिल में सूरतें सजते हैं.‘ जब मैं अच्छे लेखक और अच्छी रचनाएं नहीं छाँट सकता तो सामान्य पाठक की मुसीबत का अंदाजा आप लगा सकते हैं. चौथी बात यह कि साहित्य हर सदी, हर समाज, हर भाषा में कम लोगों के लिए रहा है. सवाल यह नहीं है कि साहित्य बचेगा कि नहीं बचेगा. मूल्यवान साहित्य हमेशा कम ही रहा है. आज भी है. भले ही वह मात्रा में कम हो लेकिन उसकी उपस्थिति प्रभावशाली रही है.
आलोचना ने स्थिति को गड्डमड्ड कर दिया है. साहित्य और साधारण लेखन में क्या फर्क है? समीक्षा ने इस प्रश्न को ही गोल कर दिया है. साहित्य की वह कौन सी चीज है जो उसे दूसरे किसी लेखन से अलग करती है. कुछ लोग केवल विमर्श चला रहे हैं. वे इसे साहित्य में अभिव्यक्त करने की कोशिश कर रहे हैं. इसका सीधा अर्थ है कि वे सर्जना नहीं चाहते. वे साहित्य में दलित और स्त्री विमर्श चला रहे हैं. यह तो पत्रकारिता का विषय है. सभी अखबार इस पर निरंतर लिखते और चर्चा चलाते रहे हैं. जब उनसे कुछ नहीं हुआ तो साहित्य से कैसे संभव होगा. समझ में नहीं आता वे साहित्य को पत्रकारिता की तरफ क्यों धकेल रहे हैं? साहित्य साहित्य होता है. वह दलित और सवर्ण नहीं होता.
पाँचवीं बात, साहित्य केवल शिल्प नहीं होता. उसमें गहराई, सूक्ष्मता और विलक्षणता होनी चाहिए. अपने निजत्व में कोई विलक्षण चीज आती है तो साहित्य सृजन होता है. शुद्ध तंत्र या शिल्प साहित्य नहीं है. साहित्य में सांकेतिकता की अपनी संप्रेषण प्रणाली काम करती है. इसलिए यथार्थ चित्रण के नाम पर बहुत कड़वे यथार्थ या इंटेलैक्चुअल विमर्श का आग्रह साहित्य में नहीं होना चाहिए. इससे वह साहित्य नहीं रह जाता. उसमें सतहीपन आ जाता है. साहित्य में वह चीज आनी चाहिए जो चिरंतन चली आ रही है. साहित्य में उसका नमक चाहिए. नमक यानी रस. रस यानी संवेदनशीलता से जो इमोशन पैदा होता है वह रचना में होना चाहिए. आलोचना का दायित्व है कि वह दूसरी विधाओं से साहित्य की अलग पहचान या उसकी विशिष्टता को रेखांकित करे. उसकी जिम्मेदारी है कि वह मूल्यवान साहित्य को परिरक्षित करे. वह निष्पक्ष होकर छिछले और स्तरीय साहित्य के बीच एक सीमारेखा तय करे. तभी साहित्य के प्रतिमान बचेंगे. आलोचना का यही धर्म है. इसलिए आलोचना की नई परिभाषा की तलाश जरूरी है.
आपने एक बहुत अच्छी बात कई बार कही है जो एक प्रकार से वर्तमान सभ्यता और मनुष्य की नियति को लेकर आपकी चिंता और सरोकार को प्रकट करती है – ‘इसी दुनिया में जब रोशनियों का अँधेरा फैल जाएगा और उसी दिये की काँपती लौ रोशनी दिखाएगी. वह होगी किताब ही, वह होगा अच्छा साहित्य ही. आज जब यह हो गया है कि टीवी लोग बटन दबाकर देखते हैं, कोई चीज पूरी नहीं देखते हैं, आखिर में इस छटपटाहट में आदमी बौखला जाएगा, पागलपन के कगार पर पहुँचेगा, फिर किताब ढूँढ़ना शुरू करेगा. लेकिन यह तय है कि जिस रास्ते हम अभी जा रहे हैं वह आदमी की नस्ल को पृथ्वी से खत्म करने वाला है. वह-वह चीजें खत्म करता चला जा रहा है, जिन-जिन पर जीवन टिका है.’
गोविंद मिश्र : मैं आज भी अपने इस कथन पर कायम हूँ. आदमी क्या नहीं नष्ट कर रहा है. हमें पानी बचाने तक की तमीज नहीं है. जल इतना कीमती है. नदियां जीवनदायिनी हैं. लेकिन मनुष्य है कि नदी, जल, वायु सब चीजों को नष्ट कर रहा है. उन्हें प्रदूषित करता जा रहा है. संवेदनशीलता से लोग कटते जा रहे हैं. यांत्रिकता का जीवन में दबाव बढ़ता जा रहा है. यह प्रौद्योगिकी सभ्यता हमारी बुनियादी शक्तियों को कम करती जा रही है. मोबाइल, टीवी ऐसे ही डिवाइस हैं. प्रगति का यह रास्ता मनुष्य को खत्म करने का रास्ता भी बनाता जा रहा है.
हमने धर्मयुद्धों के आख्यान पढ़े हैं. उसमें युद्ध के नियम होते थे जिनका पालन अनिवार्य था. इस समय क्या हो रहा है. जंग है अमेरिका से और बम गिराए जा रहे हैं – दिल्ली हाईकोर्ट में. आज यही जिहाद है, यही जंग है. अब ‘सुसाइड बाम्बर’ आ गए हैं. वह भी मरे और सबको मारे. यह कौन सा युद्ध है? हम आधुनिक सभ्यता के पतन के दौर में जी रहे हैं. सिंधु घाटी, नील नदी की सभ्यताओं की तरह यह आधुनिक सभ्यता के पतन का दौर है. मैं यह मानता हूँ कि कठिन समय में जीवित रखने की ताकत किताब ही देती है.
आजकल क्या लिख रहे हैं…?
गोविंद मिश्र : मैं अपना 11वाँ उपन्यास लिख रहा हूँ. उसका नाम अभी तय नहीं किया है. अगले साल उसके छपकर आने की उम्मीद है. ‘पूर्वग्रह’ में वह किस्तों में छप भी रहा है.
II पार्श्व IIIII
गोविंद जी आज भी बहुत पढ़ते हैं. वे अपने में लीन केवल एकांत पाठक नहीं हैं. वे जहाँ जाते हैं बहुत आत्मीयता के साथ लोगों से पढ़ते रहने की ताकीद करते हैं. उनकी रुचियों के दायरे में इतिहास, पुरानी क्लासिक, युद्धों पर आख्यान आदि हैं. सामयिक रूप से खुद को अद्यतन रखने के लिए इंडियन एक्सप्रेस तथा दि हिंदू अखबार पढते हैं. एक समय था जब राइज एंड फाल ऑफ दि थर्ड राइख उनकी पसंदीदा किताब हुआ करती थी. सिनेमा के बारे में कहा कि आज इसका स्तर बहुत गिर गया है. उन्हें गुरुदत्त, राजकपूर, बिमल रॉय की फिल्में पसंद हैं और इन फिल्मकारों को वे दृष्टिसंपन्न कलाकर मानते हैं. आजकल की एकाध फिल्मों में उन्हें ‘1942-ए लव स्टोरी’, ‘ए वेडनेस डे’ जैसी फिल्में अच्छी लगी हैं. वैसे तो गोविंद मिश्र छ:-छ: महीने टीवी से दूर रहते हैं, लेकिन टेनिस मैच देखने के लिए वे टीवी जरूर खोलते हैं. क्रिकेट में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है. वे कहते हैं कि एक ही चीज कितनी बार चल सकती है. उसे कितनी बार देखा जाए. उसका आकर्षण समाप्त हो जाता है.
गोविंद जी बताते हैं कि उन्होंने अपनी सारी कहानियां और उपन्यास हाथ से ही लिखे हैं. आज भी जब तक हाथ से न लिखूँ तब तक चैन ही नहीं मिलता. उसके बाद ही मेरी कोई सामग्री टाइप के लिए जाती है. एक ड्राफ्ट को 50-60 बार पढ़ता हूँ, उसे दुरुस्त करता हूँ ताकि एक भी अनर्गल वाक्य पाठक तक न जाए. कुछ उपन्यासों को काटने-छाँटने में मुझे 4-4 साल तक लगे हैं. उन्हें आगे-पीछे से पढ़ने-देखने में एक-एक ड्राफ्ट तकरीबन 100-100 बार मेरी नजर से गुजरा होता है.
सुशील कृष्ण गोरे : लेखक समीक्षक, अनुवादक