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Home » मैं कहता आँखिन देखी : नरेश सक्सेना

मैं कहता आँखिन देखी : नरेश सक्सेना

16 जनवरी 1939, ग्वालियर, मध्यप्रदेश पेशे से इंजीनियर कविता संग्रह : समुद्र पर हो रही है बारिश (2001) आरम्भ, वर्ष, और छायानट नामक पत्रिकाओं का सम्पादन. हिन्दी साहित्य सम्मेलन सम्मान (1973), फ़िल्म-निर्देशन के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार (1992) और पहल सम्मान (2000), ऋतुराज सम्मानकविता कोश सम्मान (2011) आदि   कवि नरेश सक्सेना से ज्योत्स्ना पाण्डेय की […]

by arun dev
September 19, 2011
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16 जनवरी 1939, ग्वालियर, मध्यप्रदेश

पेशे से इंजीनियर
कविता संग्रह : समुद्र पर हो रही है बारिश (2001)
आरम्भ, वर्ष, और छायानट नामक पत्रिकाओं का सम्पादन.
हिन्दी साहित्य सम्मेलन सम्मान (1973),
फ़िल्म-निर्देशन के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार (1992) और
पहल सम्मान (2000),
ऋतुराज सम्मान
कविता कोश सम्मान (2011) आदि 

 कवि नरेश सक्सेना से ज्योत्स्ना पाण्डेय की बातचीत   


आजकल आप क्या कर रहे हैं


एक लम्बी कविता है  लड़कियों और नदियों के नामों को लेकर उसे पूरी करने बैठता हूँ तो वह और लम्बी हो जाती है. वैसे मैं छोटी कविताएँ ही लिखता हूँ. अब इसे पूरा करना है बस. इस कविता के साथ ही मेरा नया  कविता  संग्रह भी पूरा हो जाएगा. मेरा एक बहुत पुराना नाटक है प्रेत नवम्बर में उसका शो मुंबई में National Council Of Performing Arts में प्रस्तावित है. उसमें कुछ अतिरिक्त संवाद लिखने मैं मुंबई जा रहा हूँ. इसके अलावा मुक्तिबोध पर एक पुस्तक भी अधूरी है, उसका काम भी पूरा करना है. अपने समय की श्रेष्ठ रचनाओं का चयन करना चाहता हूँ . पिछले वर्ष कथा क्रम  पत्रिका में कविता का स्तम्भ लेखन करता था, जिसमें हर प्रकाशित रचना पर (काव्य चयन ) के साथ मैं अपनी टिप्पणी  भी देता था  उसे भी पुस्तक रूप में छपवाना है. और भी बहुत काम हैं. इच्छाएँ बहुत हैं और साथी कम. फिर भी जितना काम हो सकेगा, करूँगा.


नए कविता संग्रह के विषय में बताएं


पहले कविता संग्रह समुद्र पर हो रही है बारिश  बड़ी जल्दी और हड़बड़ी में छपा था. बहुत सी कविताएँ छूट गईं थीं. नए संग्रह में नयी कविताओं के साथ इन रह गई कविताओं का भी समावेश है. जब २००१ में मुझे पहल सम्मान  दिया गया उस समय तक मेरा कोई काव्य संग्रह नहीं था. ये एक अजीब बात थी क्योंकि पेशे से इंजीनियर हूँ और कविता संग्रह कोई प्रकाशित नहीं था, फिर भी इस सम्मान के लिए मुझे चुना गया. उस समय ज्ञानरंजन और सभी मित्रों ने दबाब डाला कि पहल सम्मान समारोह के अवसर पर मेरे कविता संग्रह का लोकार्पण भी हो जाए. मेरी कविताएँ १९५८ से ज्ञानोदय, कल्पना, धर्मयुग पत्रिकाओं में छप रही थीं, यानी लिखते हुए ४३ वर्ष हो गए थे और मेरी उम्र ६२ थी, लेकिन कविता संग्रह छपवाने की फ़िक्र मैंने नहीं की . 


सन १९६४ की कल्पना में मुक्तिबोध की कविता चम्बल घाटी और मेरी एक कविता साथ-साथ छपी. वह कविता भी नए कविता संग्रह में आएगी. ये कविता छंद में है. कुछ और छांदस कविताएँ भी संग्रह में होंगी. कुछ लोगों को भ्रम है कि मैं पहले छंद में लिखता था बाद में गद्य में लिखने लगा. ऐसा नहीं है. मैंने गद्य में पहले लिखा और गीत बाद को . अभी भी कभी कभी गीत लिखता हूँ.


आपकी कविता में प्रकृति और तकनीकि का अद्भुत सामंजस्य है .


पर्यावरण इंजीनियरिंग मेरा विषय है. मैं पानी का इंजीनियर हूँ. हवा, पानी और प्रकृति मेरे लिए तकनीकि विषय हैं और इनके बिना जीवन संभव नहीं है. मैंने गिट्टी, सीमेंट , ईंटों और कॉन्क्रीट को विषय बनाकर भी कविताएँ लिखी हैं किन्तु अंततः मैं मनुष्य के जीवन से ही इन्हें जोड़ता हूँ. तकनीकि सन्दर्भ  होने के बावजूद भी मुझे कभी पाद टिप्पणी देने की जरूरत नहीं पड़ती. दरअसल तकनीकि ज्ञान और विज्ञान बहुत सरल होता है. हमारी शिक्षण पद्धति उसे कठिन बनाती है. यह बात मेरे समझाने से उतनी समझ नहीं आएगी जितनी मेरी कविताएँ पढ़कर.


संपादक के रूप में आपके क्या अनुभव रहे 

संपादक  के रूप में १९६६ में आरंभ निकाली. विनोद कुमार शुक्ल जी नवोदित कवि थे और इस पत्रिका में मैंने उन पर प्रथम  टिप्पणी देते हुए लिखा कि  वे भविष्य के प्रतिष्ठित कवि होंगे. धूमिल के आखिरी गीत का संपादन \”आरंभ \” में किया . उनकी ही पहली महत्त्वपूर्ण कविता \”मोचीराम \” आरम्भ में छापी गई. उन दिनों संपादक के रूप में विनोद भारद्वाज का नाम जाता था. धर्मवीर भारती और डॉक्टर नामवर सिंह की अकविता पर हो रही बहस पर मैंने टिप्पणी करते हुए कहा था कि  सच्ची कविता की परख कवि ही करेंगे, आलोचक नहीं.  रचना समय – 2011 के संपादक के तौर पर कविता विशेषांक भोपाल से निकाला. भारत के ५० फीसदी बच्चे कुपोषित हैं. आज से ४५ वर्ष पूर्व में मैंने \”आरंभ\” में इसे रेखांकित किया था. \” रचना समय \” के सम्पादकीय में भी यह बात मैंने उठाई है यानी ४५ वर्ष बाद स्थिति बिगड़ी ही है, सुधरी नहीं है. रचना समय का ये विशेषांक हमारे समय की कविता की स्थिति का ऐसा आइना है जिसमें सिर्फ चेहरा नहीं उसका दिमाग भी प्रतिबिंबित हो रहा है. कविताओं के साथ उसमें विमर्श भी है. संगीत नाटक अकादमी की पत्रिका \” छायानट\” का संपादन भी मैंने किया. नागार्जुन पर ३६ वर्ष पहले एक बड़ा विशेषांक प्रकाशित हुआ था वर्ष के नाम से. रवीन्द्र कालिया और ममता कालिया के साथ मिलकर हमने इसका संपादन किया.


आप अपने कार्यक्षेत्र और कविता में सामंजस्य कैसे स्थापित करते हैं 

इनमें पहले से ही सामंजस्य है. लोग उन्हें अलग करने का प्रयास करते हैं. गणित, विज्ञान, कविता और दर्शन इनमें कतिपय विरोध नहीं. ये शिक्षण विधि का दोष है जो इन्हें आपस में बाँट देती है. मेरी कविता को गणित और विज्ञान ने काफ़ी समृद्ध किया है.


आज के बाजारवाद में हिंदी की क्या स्थिति है 

जो देश अपनी ही भाषा में काम नहीं करते वे हमेशा पिछड़े रहते हैं. ध्यान दीजिये की चीन चीनी भाषा में, जापान जापानी भाषा में और कोरिया अपनी भाषा में काम करके तकनीक में हमसे आगे हैं, अंग्रेज़ी भाषा में नहीं. जिनकी मातृ भाषा अंग्रेजी न होने पर भी अंग्रेजी में काम करते हैं, उसके उदहारण हैं – बंगलादेश, श्रीलंका, पाकिस्तान आदि-आदि. अंततः अंग्रेजी इस देश को पीछे रखने वाली भाषा सिद्ध होने वाली है. देश के जिन लोगों ने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति पायी है वे अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों से पढ़कर नहीं आये थे.
अमेरिका यदि भारत के आई.आई . टी के छात्रों से घबराया हुआ है तो इसलिए कि भारत की जनसँख्या १२० करोड़ है, जिसका एक प्रतिशत ही सवा करोड़ होता है. यदि शेष ९९ प्रतिशत के सामने भाषा की दीवार नहीं खड़ी की जायेगी तो भारत की प्रगति कहाँ पहुंचेगी, ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल है. यदि अमेरिका, जर्मनी या इंग्लैण्ड के सबसे मेधावी छात्रों को तमिल, तेलगु या बंगला में इंजीनियरिंग पढ़ाई जाए तो वे भाषा को पढेंगे या विषय को. हमारे मेधावी छात्रों की प्रकृति रटने की होती है, ये सिर्फ भाषा के आरोपण के कारण है . टाइम मैगज़ीन का सर्वे कहता है कि भारत में शिक्षित ७५% इंजीनियरिंग के छात्र अपने विषय को नहीं जानते और अपना कार्य सही तरह से नहीं कर सकते. यह प्रतिशत मेरी निगाह में गलत है. इसे ९० प्रतिशत होना चाहिए. अंतर्राष्ट्रीय इंजीनियरिंग कंसल्टेंसी के तौर पर मैंने यही पाया. 


समकालीन कविता और कवियों पर आपकी क्या राय है

क्योंकि हिंदी  भाषा की कोई हैसियत नहीं, अंग्रेजी के सामने इसलिए हिंदी साहित्यकार की भी कोई हैसियत नहीं; न सरकार के सामने और न समाज के . जिसका असर ये हुआ है कि खुद साहित्यकार की नज़र में अपना काम ही छोटा हो गया. यही उदासीनता कविता, कथा, आलोचना में हर जगह दिखाई दे रही है, इसके बावज़ूद यदि अच्छी कहानियां और कविताएँ लिखी जा रही हैं हर हाल में उसकी सृजनात्मक ऊर्जा अपनी अभिव्यक्ति के लिए रचनाकार को मजबूर कर देती है. कुल मिलाकर एक काली छाया हमारी अभिव्यक्ति और सृजनात्मकता पर फ़ैल रही है. 

मौलिकता की दृष्टि से विनोद कुमार शुक्ल सर्वश्रेष्ठ उदहारण हैं. विचार , संवेदना और तार्किकता की दृष्टि से विष्णु खरे, शिल्प और संरचना की दृष्टि से राजेश जोशी अपनी तरह के अप्रतिम उदहारण हैं . किन्तु बहुत सरल भाषा में जिसमें शिल्प अदृश्य हो जाता है , उसमें मंगलेश डबराल, विष्णु नागर और भगवत रावत  जैसे कवि हैं. अपेक्षाकृत युवा कवियों में देवी प्रसाद मिश्र, एकांत श्रीवास्तव , हरिश्चंद्र पाण्डेय , गीत चतुर्वेदी, संजय कुंदन, उमाशंकर चौधरी, अच्युतानंद मिश्र, कुमार अनुपम, अशोक कुमार पाण्डेय  और मनोज कुमार झा आदि ऐसे कवि हैं जिनकी सृजनात्मकता पर समय की छाया को अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाओं में देखा जा सकता है. (रचना समय के कविता विशेषांक में)

ये सूची कतई अधूरी है क्योंकि इसमें अशोक वाजपेयी , चंद्रकांत देवताले, असद ज़ैदी, कुमार अम्बुज, उदय प्रकाश जैसे महत्त्वपूर्ण कवि छूटे जा रहे हैं. छत्तीसगढ़ के नवोदित कवि हरीश वर्मा जैसे कवि भी सूची से बाहर हैं. दरअसल कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह से शुरू करेंगे तो साक्षात्कार कवियों के नाम से ही भर जाएगा क्योंकि जिसने एक भी सुन्दर कविता लिखी हो उसे मैं महत्त्वपूर्ण मानता हूँ. मेरी दृष्टि में सुधीर  सक्सेना, सुशीला पुरी, पवन करन, यतीन्द्र मिश्र , लीलाधर मंडलोई जैसे कवि भी अलग-अलग कारणों से उल्लेखनीय हैं. ये भी है कि अच्छी कविताएँ संख्या में बहुत कम होती हैं और आलोचना का काम ऐसी कविताओं को खोज कर उन्हें सामने लाना होता है जो कम हो रहा है. क्योंकि कवियों ने हमारी समकालीन कविताओं के श्रोताओं का सामना करना छोड़ दिया है, इसलिए अपनी पहचान के लिए वे पुरस्कारों और आलोचकों के मुखापेक्षी हो गए हैं. रचना समय के विशेषांक में अरविंदाक्षण ने ठीक कहा है कि कविता विशेषज्ञों की संपत्ति हो गई है. भगवत रावत पूछते हैं कि क्या हम अपने श्रोताओं से कुछ नहीं सीख सकते ,वहीँ अशोक वाजपेयी ने काव्य तत्त्वों को पुनर्परिभाषित करते हुए लय, समय और मौन के साथ साहस को एक अनिवार्य तत्त्व के रूप में शामिल किया है. साहस हो – नए कथ्य , नए शिल्प, नई दृष्टि के साथ ही अकेले पड़ जाने का, जोखिम झेलने का. 


हिंदी कविता में स्त्री अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी है. नारीवाद का नारा देना आवश्यक है क्या ?

दरअसल नारीवाद एक जरूरी मुद्दा है बशर्ते कि इसे नकारात्मक ढंग से न उठाया जाए, बल्कि स्त्री -पुरुष के प्रेम और साहचर्य की तरफ से उठाया जाए. शालिनी माथुर ने जिस निर्मम भाव से पवन करन की कविताओं का विश्लेषण किया है वह बताता है कि चीज़ों को दूसरी तरफ से भी देखा जा सकता है.जो पुरुष -दृष्टि से छूट रहा है, नारीवादी दृष्टि उसे कितनी अलग दृष्टि से देख सकती है. मुझे लगता है इस दृष्टि से ये लेख पठनीय है. हिंदी कविता में स्त्री विषय पर लिखा हुआ ये एक जरूरी लेख है और वे इस विषय पर एक पुस्तक भी लिखना चाहती हैं अतएव हिंदी कवि और कवयित्रियों को सावधान हो जाना चाहिए. यद्यपि शालिनी माथुर की इस बात से मैं सहमत हूँ कि यथार्थ के नाम पर स्त्री को हमेशा दबा, कुचला हुआ दिखाते रहना पर्याप्त नहीं है, उसके संघर्ष को भी सामने लाना चाहिए. लेकिन किसी कवि पर ये बाध्यता लादी नहीं जा सकती कि वह यथार्थ को किस तरह प्रस्तुत करे. विष्णु खरे की जिस कविता से शालिनी माथुर को शिकायत है वह मेरी प्रिय कविताओं में से है और उसे मैं एक सार्थक रचना मानता हूँ.


कविता के अतिरिक्त आप अपने कला क्षेत्र का विस्तार  और कहाँ पाते हैं 
मेरी पहली फिल्म अपने आँगन के नीम के वृक्ष के कटने को लेकर लिखी गई कविता पर बनाई गई थी, जिसका निर्माण, निर्देशन व लेखन मैंने ही किया. संयोग से जिसे निर्देशित करने के लिए मुझे निर्देशन का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. फिल्म का नाम था  सम्बन्ध. इसके बाद मैंने लघु फ़िल्में और सीरियल बनाये, जिन्हें मैं मेरी काव्य प्रक्रिया का ही विस्तार मानता हूँ, जैसे कि अपनी इंजीनियरिंग को. मैंने जो थोड़ा बहुत नाटक और संगीत संरचनाओं का काम किया है उसे भी कविता की रचना प्रक्रिया से अलग नहीं मानता. भाषा हमने लगभग अंतिम कला के रूप में पायी है. उसमें लय, चित्रकला, अभिनय और संगीत स्वाभाविक रूप से आने चाहिए.


आपको हाल ही में सम्मान मिला है, हार्दिक बधाई … आपकी प्रतिक्रिया !
 
जो पुरस्कार इधर मुझे मिले हैं उन पर मैं चकित हूँ, क्योंकि बिना किसी पुस्तक के प्रकाशित हुए ही ये मुझे मिलते चले जा रहे हैं.( आम तौर पर ऐसा नहीं होता है). मेरी प्रसन्नता का कारण ये भी होता है कि सम्मान समारोह में एक बार पुनः अपनी कविता पढ़ने का अवसर प्राप्त होता है. सच्ची बात ये है कि मैंने कविता संग्रहों से नहीं  अपने काव्य पाठों से थोड़ी जगह बनाई है. 

मुझे लगता है कि जितना मैंने किया उससे अधिक प्रेम मुझे मित्र कवियों, आलोचकों और श्रोताओं से मिला है. जन कवि मुकुंट  बिहारी सरोज\” पुरस्कार एवं कविता कोश सम्मान आदि पुरस्कार मुझे मिले हैं. उससे पहले साहित्य भूषण  (उ.प्र.) पहल सम्मान, जबलपु , \’ऋतुराज सम्मान\’ दिल्ली आदि कुछ वर्ष पूर्व मिले थे. मुझे ख़ुशी है कि मुझे पुरस्कारों से नहीं अपनी कविताओं से पहचाना जाता है.

(यह  बातचीत अपर्णा मनोज, सुशीला पुरी के सहयोग से पूरी हुई )    
ज्योत्स्ना पाण्डेय : कवयित्री 
jyotsnapandey1967@gmail.com
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