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समालोचन

Home » मैं कहता आँखिन देखी : प्रत्यक्षा

मैं कहता आँखिन देखी : प्रत्यक्षा

इधर की हिंदी कहानियों में बतौर कथाकार प्रत्यक्षा खास मुकाम रखती हैं. उनकी कहानियों की बुनावट में धागे अलग रंग के हैं, और ‘प्लाट’ की मिट्टी अलहदा है. कथा के अलावा प्रत्यक्षा कवितायेँ भी लिखती हैं., पेंटर हैं, संगीत में रूचि और गति है. सौरभ शेखर ने उनसे तमाम मुद्दों को लेकर तैयारी के साथ यह […]

by arun dev
May 9, 2015
in Uncategorized
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इधर की हिंदी कहानियों में बतौर कथाकार प्रत्यक्षा खास मुकाम रखती हैं. उनकी कहानियों की बुनावट में धागे अलग रंग के हैं, और ‘प्लाट’ की मिट्टी अलहदा है. कथा के अलावा प्रत्यक्षा कवितायेँ भी लिखती हैं., पेंटर हैं, संगीत में रूचि और गति है. सौरभ शेखर ने उनसे तमाम मुद्दों को लेकर तैयारी के साथ यह दिलचस्प बातचीत की है.  

लिखना एक आत्मीय गुफ्तगू है     
प्रत्यक्षा से सौरभ शेखर की बातचीत

आप झारखंड से दिल्ली आईं. फाइनन्स जैसा प्रोफेशन… और इन सबके बीच साहित्य में एक जगह बनाना,क्या सोचती हैं आप इस पूरे सफर के बारे में? 

इन्हीं सब के बीच ही साहित्य सँभव है. ये दो दुनियाओं में आवाजाही है, एक से दूसरे में जाना दोनों को और तीखा और जानदार बनाता है, एक कॉन्टेक्स्ट देता है. ये ऊब की एकरसता को सितार के तार सा कस कोई ऐसे  संगीत का धुन तैयार करता है जो धीमे धीमे नेपथ्य में बजता ही जाता है. जैसे कैनवास का बड़ा हिस्सा जिसे आपने इसलिये सफेद रख छोड़ा है कि बाकी के रंग अपनी पूरी जीवंतता में निखर आयें. 

इस तरीके से दोनों स्पेस की सार्थकता बनी रहती है. शायद सिर्फ लिखती तो ऊब लिखती, उसके रंग एक होते, उनमें जान फीकी रहती, उसमें दूसरी दुनिया से भाग आने की बेताबी नहीं लिखती, ठहर कर खुशी और गम का आस्वाद नहीं लिखती, बन्द आँखों से खुली दुनिया नहीं लिखती.  

फिर प्रोफेशन और उसके साथ मिली भावात्मक और आर्थिक आत्म निर्भरता भी आपके सेल्फ को डिफाईन करता है ,जो मैं हूँ. और इसी लिये लिखती हूँ कि मैं इतना इतना हूँ, सार्थक हूँ , दुनिया को हैंडल करने का एक तरीका मिला है, जितना भी, और उस होने में एक सपना देखने की सहूलियत भी, बाहर की दुनिया को अपने भीतर की  दुनिया के बरक्स देखने की ज़रा सी काबिलियत भी, उसे पूरे जटिलता और सघनता में देख पाने का नज़रिया भी.    

लिखना फिर अपने साथ ऐसी संगत में रहना है जिसमें सब साफ सच्चा और पारदर्शी है. ये खुद से एक आत्मीय गुफ्तगू है, अपनी वल्नरेबिलिटीज़ को नंगी आँखों देखना और समझना है. ये प्रकिया लगातार अपने भीतर उतरते जाना होता है, भीड़ में भी अपनी दुनिया साथ पीठ पर रकसैक टाँगे घूमना  है, और शायद अचेतन में अब तक, जब तक लिखा नहीं था, तब जहाँ-जहाँ से गुज़रे सब भीतर किसी बड़े गहरे कूँये में इकट्ठा होता रहा … समय, अनुभूति, लोग, दुख. सब स्मृति में अटका रहा कील. लिखना बार बार उसी दुनिया में लौटना होता है, हर बार नये तरीके से और नये दरवाज़ों से, कि लौटना फिर अपने आप को, अपने परसेप्शन को और उस दुनिया को रीइंवेंट करना  है, हर बार खुरचकर और भीतर जाना, शायद एक आर्कियॉलॉजिकल एक्स्पेडिशन है जहाँ गहराई के हर स्तर पर किसी और दबी हुई स्मृति के अवशेष मिलें.

लिखना एक तरह का डीटैचमेंट भी  है. सब भोगते हुये भी उसके बाहर रह कर दृष्टा बन जाने का. इसी रुटीन रोज़मर्रा के जीवन में एक फंतासी रच लेने का और फिर किसी निर्बाद्ध खुशी से उस फंतासी में नये नवेले तैराक के अनाड़ीपन से डुब्ब से डुबकी मार लेने का. लिखना जितना बड़ा सुख है उतनी ही गहरी पीड़ा भी है, जितना अमूर्त है उतना ही मूर्त भी, जितना वायवीय उतना ही ठोस और वास्तविक भी. और सबके ऊपर , लिखना खुद से सतत संवाद कायम रखने की ज़िद्दी जद्दोज़हद की बदमाश ठान है. किसी सिन्दबाद के कँधों पर ज़बरदस्ती सवार शैतान बूढ़ा है, लिखना. 



आपकी कहानियों का शीर्षक सबसे पहले ध्यान खींचता है. आम स्थूल शीर्षकों की तुलना में उनमे एक प्रकार की तरलता है. इस प्रकार के अनूठे बल्कि  कई बार अजीब से शीर्षक चुनने के बारे में  पाठक आपकी राय जानना चाहेंगे..

मैं शीर्षक नहीं सोचती. बाज़ दफा लिखते लिखते अचानक वो कौंध जाता है. मैं सिर्फ ये कोशिश करती हूँ कि अभिव्यक्ति में ईमानदार रहूँ, उसमें कोई प्रिटेनशन न हो. जो मन और कल्पना के भूगोल में दिखता है उसे सबसे अच्छी तरह से लिख पाऊँ. तरलता उसका सबसे बेसिक एलिमेंटरी तत्व है. मुझे ऐसे शब्द पसंद हैं जो बोलने और सुनने में संगीत सा लय दें, किसी भी भाषा में हो. जैसे रेणु, ऐनी आपा या राही मासूम रज़ा के टेक्स्ट पढ़ कर मुझे उन्हें ज़ोर से बोलने की इच्छा होती है, या फिर विनोद कुमार शुक्ल को पढ़ते किसी सपने को देखने सा एहसास हो. शब्दों के सही उच्चारण के लिये मैं सचेत रहती हूँ, उनकी लयात्मकता के लिये भी. कई बार एक शब्द के संगीत ने पूरी कहानी लिखवा ली है.

मैं जब लिखती हूँ तब शब्द मेरे लिये नदी के किनारे, रेत में चमकते पत्थर होते हैं, उनका अनगढ़पना, उनकी रंगत, उनकी छुअन मेरे लिये कई कई पगडंडियाँ बनाती हैं, उन सुदूर पहाड़ों से पहचान कराती हैं जहाँ से किसी कठिन सफर के बाद वो मुझ तक पहुँची हैं. 


आप की कहानियों में सपाट कथ्य की बजाये प्रतीकात्मकता की बहुतायत है.इस परिप्रेक्ष्य में से कहानी में सहजता और बोधगम्यता के प्रश्न को आप कैसे देखती हैं?

मैं जब लिखती हूँ , मेरा मन टेढ़ी गलियों की महीन सघन दुनिया में उतरता है. सपाट या ओब्वियस कथन में मुझे दिलचस्पी नहीं. मुझे सपाट कथ्य पढ़ने में भी आनंद नहीं आता. हो सकता है ये मेरा खालिस व्यक्तिगत मामला हो. घुमावदार कुहरीले दुनिया की सँभावनायें मुझे आकर्षित करती हैं. जैसे आप पाठक को एक ज़मीन दें जहाँ से वो अपनी उड़ान ले सके ,उस कहानी को अपना क्लेम कर सके. किसी भी लिखाई में अगर एक वाक्य आपके सामनेदस खिड़कियाँ खोलता है मेरे लिये यह ज़्यादा ज़रूरी है.  

कई बार मैं इनटेंशनली एक पर्दा खींच देती हूँ जिसके पार सिर्फ एक संकेत हो.

ये मुझे मालूम है कि ऐसा करने से वो इज़ी रीड नहीं होता. लेकिन अगर मुझे दस भी ऐसे पाठक मिलते हैं जो मेरे लेखन को ठीक उसी बुनावट में ग्रहण कर रहे हैं जिसमें मैं लिख रही हूँ, मैं खुश रहूँगी, बेहद खुश.  

पाठकों की संख्या मेरा ऐम्बीशन नहीं है. अपने भीतर के ‘मैं’ को कैसे संतुष्ट करूँ, उस क्रियेटिव बेचैनी को सम कहाँ दूँ कैसे दूँ, कितने पूरेपन में दूँ, ये मेरी चिंता है. लिखना  भीतर की सबसे इमानदार,सबसे मीठी, सबसे अनमोल चीज़ है, छपने का मोह नहीं है. लिखने का असीम सुख है. इस मामले में निस्संग हूँ सूफी हूँ. जो मिल जाता है अनायास उसमें खुश हूँ.  

बहुत लोग पढ़ें और खुश हों अच्छा लगेगा, मैं खुद कितनी खुशी पाऊँ रचने की प्रक्रिया के दौरान, ये और ज़्यादा अच्छा लगने की बात है ..

कहानी में सहजता फिर उतनी ही  आयेगी जितना जीवन सहज होगा. इस दुरूह अराजक समय की कहानियाँ फिर उतनी ही टेढ़ी और जटिल परत दार होंगी.  

बोर्ख़ेज़ को पढ़ना इसलिये ही इतना स्टिम्यूलेटिंग होता है. लेकिन फिर ये भी कोई कायम बात नहीं कि मैं हमेशा ऐसा ही लिखूँगी. कोई बरसों पीढ़ियों को समेटता विस्तार लिख सकूँ ऐसा भी ख़्याल आता है    फिर भी मैं अगर दुरूह हूँ , मेरे पाठक मुझे माफ करें .


आपने अपनी कहानियों में शिल्प के स्तर पर प्रयोग किये हैं. मगर शिल्प को कथ्य से अलग कर देखना मुमकिन नहीं है. आदर्शतः,कथ्य ही अपना शिल्प चुनता है. जैसे बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की शुरुआत में अंग्रेजी साहित्य में \’अब्सर्ड लिटरेचर\’ का बड़ा जोर था. इसके एक्स्पोनेंट्स की तब तार्किक दलील थी कि आधुनिक जीवन की निरर्थकता को दर्शाने के लिए अमूर्तन की शैली उपयुक्त है. अमूर्तन की शैली में अच्छा साहित्य हिंदी में पहले भी रचा गया है, लेकिन समकालीन कथा परिदृश्य में कहीं-कहीं यूँ लगता है मानो शिल्प ही प्रधान हो गया है. अपने शिल्प संबंधी प्रयोगों के मद्देनज़र आपका इस मुद्दे पर क्या कहना है? 

कई बार एक उद्दंड इच्छा होती है कि कुछ तोड़फोड़ मचाया जाय. हिन्दी साहित्य के कंवेशनल दुनिया में अनकंवेंशनल की अराजकता मचाई जाय. लेकिन ऐसी इच्छा एक तरीके से उतनी ही बचकानी है जैसे कि आप लिखने के पहले तय करें कि कथ्य ये होगा, शिल्प ये और सामाजिक मुद्दे ये.  लिखना मेरे लिये बहुत इंट्यूटिव चीज़ है. शिल्प उस कथ्य को आगे ले जाने वाला एक औजार मात्र है. इन सब चीज़ों को किसी मैथेमैटिकल फॉर्मुला की तरह नहीं देखती. जो कहानी जिस तरह से मन में आई वैसे लिखी गई. 

विदेशी साहित्य में जिस तरह जुनूनी क्रियेटिवनेस है, एक किस्म की अफलातूनी है, वो कई बार यहाँ सिरे से गायब है. एक परिपाटी का वहन हो रहा है. अगर आपकी रचनात्मकता इस दायरे के बाहर आपको खींच कर ले जाती है तो उसे नकार दिया जाता है.  

एक क्रियेटिव रेंज का स्पेक्ट्रम नहीं है. इसे मैं प्रयोग भी नहीं मानती. सिर्फ एक्स्प्रेशन का एक और तरीका. रचनात्मक खलबली अपना निकास कई तरीकों से पाती है. जैसे पेंटिंग में रियलिज़्म, सर्रियलिज़्म, इम्प्रेशनिस्ट,  ऐब्ट्रैक्ट, उसी तरह लिखने में हम चाहते हैं कि को जो कहें ऐसे कहें जैसे किसी और ने न कहा था. कथ्य तो वही है, जीवन में प्रेम भी वही है सिर्फ देखने की नज़र बदल गई , जताने का तरीका बदल लिया , शब्दों के बुनावट को अलग तरह से सजा लिया. ये एक किस्म का इनोवेशन है, हमारे द्वारा इजाद किया हुआ एक्स्प्रेशन है, कोई नया अलग पागल सुर है. 

ये पाठक पर निर्भर करता है कि इसे अलग अलग देखे या एक सिम्फनी में. कहानी कमज़ोर या विलक्षण हो सकती है, इसे अलग रेशों में, कथ्य शिल्प बुनावट के पच्चीकारी का उधड़ापन देखने की नज़र से न देखें. कोई चीज़ अच्छी है तो सिर्फ अपने किसी तत्व की वजह से नहीं.  

इस तरह की बात तभी कही जाती है जब लिखने को आप एक फिज़िकल ऐक्ट मानते हैं. जबकि कई मायने में लिखना मेटाफिज़िकल भी  है. बिना अंतर प्रवाह के, बिना भीतरी रस के, कथा कही नहीं जा सकती. और कथ्य ही अपना शिल्प खोजता है जैसे पानी बहने के लिये ढलान. 

लेकिन एक बात है कि लिखते वक्त मुझे कई बार कहानी की बजाय किसी भावलोक का अंवेषण भी उतना ही आकर्षित करता है जितना कि कोई पारंपरिक शैली की कहानी जिसमें बकायदा एक शुरुआत, एक बीच और एक अंत हो. इस संदर्भ में जीवन का कोई टुकड़ा ,अ स्लाईस ऑफ लाईफ, जिसके सब सिरे खुलें हों ,को भी लिखना अच्छा लगता है क्योंकि आखिरकार जीवन हमेशा ऐसा ही होता ,सब सँभावनाओं से भरपूर , जिसमें सब चीज़ें ओपेन एंडेड होती हैं.

  
आपकी भाषा की चित्रात्मकता ख़ासा प्रभावित करती है. मगर शब्दों से तस्वीर बनाने का यह यत्न जोखिम भरा भी है. मसलन आपकी कहानी मोहब्बत\’ एक किस्म की ‘फिलोसोफिकल मूरिंग है\’ इससे गुज़र कर ज्यादा कुछ ठोस पाठक के हाथ नहीं आता. ऐसी कहानियों की सार्थकता पर आपके क्या विचार हैं? 

मैं कभी क्लेम नहीं करती कि मेरे लिखे से पाठकों को कोई ज्ञान मिल जाय. लिखना, जीवन के कुछ पक्ष उनके सामने रखे, उनके दिल का कोई तार उससे जुड़ जाये, एक साझे संवेदनशीलता के अंतरंग में हम साथी बनें, उससे ज़्यादा मेरी अकांक्षा नहीं. 

मोहब्बत मेरी बहुत दिल के करीब की लिखाई है. उसको लिखते मैं जितनी संजीदा, जितनी परिपक्व, जितनी संवेदंशील, जितना सुखी हुई उसका एक अंश भी उसके पढ़ने वाले महसूस करें, बस. जीवन हमेशा आपको ज्ञान नहीं देता. आप बस जीते हैं. टू  द बेस्ट ऑफ वंस अबिलिटी. और मोहब्बत में चित्रामत्कता नहीं है, बस एक जीवन के बेमतलब होने की छोटी पर बेहद आमफहम बात है.

लिखना भी वही है. एक ईमानदार जीते रहने की कोशिश.  

मैं पेंटिंग भी करती हूँ. पेंटिंग करते वक्त कविता दिमाग में होती है, लिखते वक्त रंग. जो मन की आँख से दिखता है उसे सच्चाई से वर्णन करती हूँ. लोग कहते हैं मेरी भाषा अच्छी है, मैं कहती हूँ वो अच्छी या बुरी नहीं, बस मेरी है और उन शब्दों की पीठ पर सवार , साथ चलते उन भावों को आप देखें जिन्हें मैं आप तक पहुँचाना चाहती हूँ. मेरी भाषा सिर्फ एक मीडियम है. 


कथ्य की बात करें तो आपकी कुछ कहानियों में पाठक हाशिये के उस अंधकारलोक से मुख़ातिब होता है जिस पर मुख्यधारा के मीडिया की नज़र नहीं जाती. उदाहरण के तौर पर \’आईने में\’, \’जंगल का जादू तिल तिल\’, \’शारुख शारुख! कैसे हो शारुख\’ जैसी कहानियां….क्या आप ऐसा मानती हैं कि समकालीन हिंदी कहानी में हाशिये की उतनी भी मौजूदगी नहीं है जिसका वह हकदार है? और इसकी भरपाई के प्रयास किये जाने चाहिए?

 हमें अपने चारों ओर की दुनिया के प्रति चौकन्ना रहने की आवश्यकता है. उन समयों के लिये भी जो गुज़र गया  और वो जो आने वाला है. हम एक तरह से कई दुनिया और कई संस्कृति को नज़दीक से देख रहे हैं. आज के समय में कम्यूनिकेशन  का बहाव इतना आसान और ऐक्सेसिबल है कि वो हमें किसी भी पक्ष से अछूता नहीं रहने देता. ऐसे मल्टी डाईमेनशनल समय को हम दर्ज़ नहीं करेंगे तो कौन करेगा.  

इन कहानियों की आदिवासी दुनिया मेरी अपनी ही दुनिया है. कोई आदिवासी चेहरा दिखता है तो मुझे लगता है किसी अंतरंग आत्मीय से मिल लिये. एक सामाजिक और अर्थशास्त्रीय संदर्भ में ये लोग हाशिये पर हैं, पर मेरे मन के विस्तार में वो केन्द्र पर हैं शाहरुख का राफेल तिग्गा मेरा कितना अपना है ये अमूर्तन की बात नहीं . उसमें मेरे पिता हैं, मेरा बचपन है, मेरे शुरुआती दिनों की बुनावट है, मेरा बालू भैया है, मेरी सुज़ान है, मेरा स्कूल है, एक पूरा समय है. जंगल का जादू, मैं मानती हूँ मेरा सबसे अच्छा लेखन है . क्योंकि उसको लिखते जो मैं हूँ, वही सचमुच में हूँ, जंगल के दुख में दुखी एक औरत जिसका एक समय का भूगोल उससे छूट गया हो.

मैं उम्मीद करती हूँ कि हम सब पूरी ज़िम्मेदारी से अपने समय और भूगोल का दस्तावेज़ तैयार करेंगे. इसे बहुत ऑवर्ट तरीके से भी हर बार करने की ज़रूरत नहीं. अगर इमानदार लेखन है, अपने आस पास की संवेदना को भरपूर पकड़ रहा है तो उसमें वो सब बातें आयेंगी जिन्हें हम अमूमन हाशिये का समझते हैं .

मैं चाहती हूँ कि मेरी इन कहानियों पर बात हो जिसमें ऐसे लोगों की बात है जिन्हें कम लोग जानते हैं. मैं जानती हूँ कई लोग ऐसी कहानियाँ लिख रहे हैं .उन सब पर बात हो. एक गँभीर चर्चा जिसमें हम साझे अनुभव बाँटें.
  

आपकी कई कहानियाँ एक कहानी के भीतर कई छोटी-छोटी कहानियों के शिल्प में लिखी गई हैं. कई बार इन कहानियोने में अंतर्निहित अलग-अलग कहानियों मे परस्पर अंतर्संबंध की कमी साधारण पाठकों को उलझाती है. इस तरह के शिल्प की कहानियों में संतुलन और अंतर्संबंध को लेकर आप क्या सोचती हैं? 

जीवन ऐसा ही होता है न. एक कहानी में सौ कहानियाँ, एक दरवाज़े से दस दरवाज़े और खुलते और एक खिड़की से पचास किस्म की नई दुनिया का अचँभा. फिर कहानी क्यों जीवन से अलग हो ? संतुलन और अंतर्संबंध की बात जहाँ तक है, अगर उसमें कोई कमी पाठकों को दिखती है तो वो मेरी लिखाई की कमियाँ हैं. होंगी. लेकिन मेरा मानना है कि भरे पूरे रास्ते की बजाय जितनी बीहड़ पगडंडियों में हम उतरते चलेंगे उतना भीतर पैठते जायेंगे. कहानियों का पूरा जँगल हो जहाँ हम , लिखने वाले और पढ़ने वाले , दोनों साथ साथ गुम जायें, क्या आनंद हो


आपकी अधिकतर कहानियों में समाज एक खलनायक की भूमिका में है. एक ओर व्यक्ति की नैसर्गिक वृतियां और सहज आकांक्षाएं हैं तो दूसरी ओर समाज के बेहूदे अंकुश.  इस विडम्बनापूर्ण संबंध की परिणति अनिवार्यतः अवसाद, घुटन और अंततः त्रासदी में होती है. इस लिहाज से आप क्या मानती हैं कि समाजविहीन अस्तित्व एक बेहतर विकल्प हो सकता है?

समाज को, तमाम विद्रूपताओं के बावज़ूद, मैं खलनायक जैसे नाटकीय मुखौटे में नहीं देखती. जीवन के कुछ नियम हैं. सब कुछ अराजक हो ये ठीक भी नहीं. लेकिन समाज अत्याधिक हस्तक्षेप करे ये भी गवारा नहीं. ..कहानियों में फिर डेलिबरेटली या कॉंशसली कुछ नहीं लिखा है. जो दिखता है, जो है, वही है एक संतुलन और ज़िम्मेदारी ज़रूरी है .कोई आदर्श परिस्थिति नहीं होती. न व्यक्तिगत न सामाजिक. इन सब विसंगतियों के बीच हम कैसे सैनिटी बनाये रखें ये ज़रूरी है.
  
बेमेल विवाह, प्रेम-रहित दाम्पत्य  और उससे उपजा त्रास आपकी कई कहानियों जैसे \’सपने का कमरा..\’, \’केंचुल\’, \’बलमवा तुम क्या जानो प्रीत\’, इत्यादि में प्रमुखता से उजागर होता है. कहना न होगा कि ये बेमेल विवाह समाज और परिवार में स्त्री के दोयम दर्ज़े और शोषण चक्र के मूल में है. लेकिन इससे त्राण की चाहना में हम परिवारों के विघटन और चरम मूल्यहीनता के खतरनाक दौर में तो नहीं प्रवेश कर रहे? 

हर चीज़ के दो पक्ष हैं. स्त्री अगर कॉम्प्रोमाईज़ करती रहे परिवार बचा रहेगा. स्त्री ने कॉप्रोमाईज़ बन्द किया,  तो परिवार टूट गया ?   

हम इवाल्यूशन के उस दौर से गुज़र रहे हैं जहाँ कुछ स्त्रियों को आज़ादी मिल गई है. वो नये नियम गढ़ रही हैं. इन सब बातों को स्टेबलाईज़ होने में वक्त लगेगा. और ये वक्त सचमुच जोखिम भरा है. इसलिये कि अभी भी बहुत सी स्त्रियाँ भयानक शोषण की शिकार हो रही हैं. एक तरीके से मल्टी लेवल एक्सिस्टेंस है, जिसमें स्त्रियाँ अनेक स्तर पर आज़ादी और दोयम दर्ज़े के अस्तित्व के खिलाफ लड़ रही हैं.  

कुछ नया होने के लिये बहुत कुछ तोड़ने की आवश्यकता है. पुरुषों को अपनी मानसिकता और नज़रिये में बदलाव लाने की ज़रूरत है. स्त्रियों को ये समझना है कि बेहतर आज़ादी के लिये ज़्यादा ज़िम्मेदारी से कैसे खुद का निर्वहन करें

समाज की जड़ता और उसकी अमानवीयता के विरुद्ध प्रतिरोध की धाराएँ विभिन्न स्टारों पर चलती रहती हैं.आपकी कहानी प्रतिरोध की उन नामालूम धाराओं की पहचान करती है.आपके यहाँ \’फुलवरिया मिसराइन\’ और \’हुमरा\’ जैसे प्रतिरोध के उल्लेखनीय प्रतीक हैं.मगर मुक्ति की यह जुम्बिश उस तरह की रेडीमेड मुक्ति में ख़त्म नहीं होती जैसा कुछ अन्य फेमिनिस्ट कथाकारों के यहाँ है. बल्कि परिस्थितियां एक दलदल के सदृश हैं जिसमे आदमी जितना हाथ-पाँव चलाये उतना फंसता जाता है. मुक्ति के इन  अधूरे संघर्षों के माध्यम से क्या आप यह टिप्पणी कर रही हैं  कि मुक्ति एक छलावा है?

मुक्ति एक स्टेट ऑफ बीईंग है. ये खुद के साथ एक कम्फर्ट ज़ोन में होना, आत्मविश्वास से भरपूर और अपनी काबिलियत से लबरेज़. जिस तबके से  फुलवरिया और हुमरा आती हैं उसमें परिस्थितियाँ उनको और और फँसाती हैं. ये उनके स्पेस का सच है. पहर दोपहर की पिया दूसरे किस्म की औरत है जो प्रेम में भी अपनी स्वायत्ता बनाये रख सकती है. दिलनाज़ की दिलनवाज़ अपने मन का काम करने सब छोड़ कर किसी गाँव में बस सकती है, सोशल वर्क में अपनी आईडेंटिटी खोज सकती है, एक दिल दो नश्तर की लड़कियाँ इतनी आज़ाद और इतने विश्वास से भरी हैं कि आपका जी खुश हो जाये. पाँच उँगलियाँ पाँच प्यार की पाँचों नायिकायें अपने अपने तरीके से खुदमुख्तार हैं, ललमुनिया हरमुनिया (ब्याह) की माँ भी वैसी ही औरत है जिसने पूरा जीवन विद्रोह में जिया फिर बाद में अपनी दुविधा को भी खुद ही हैंडल करती है. भीतर जँगल के दो भाग की औरतें भी अपने कम्फर्टज़ोन में रहने वाली औरतें हैं. इन सब में कोई अदाबाजी नहीं. बस एक सरल विश्वास है मज़बूती है. 

तो बात सिर्फ ये कि जिन औरतों की कहानियाँ मैं कह रही हूँ वो सब अपने लिमिटेशंस के बावज़ूद अपनी लड़ाई लड़ती हैं, बिना नारे बाजी के, बिना नौटंकी के, बिना किसी फतवे के.

मेरा मानना है कि अगर हर स्त्री अपनी जगह अपने लिये बनाने में काबिल हो जाये, चाहे परिवार में, पति के साथ, या फिर दफ्तर में, या अपने सामाजिक दायरे में, अपने बच्चों की संगत में और इसे वो मज़बूती से करे, कुछ महत्त्वपूर्ण बदलाव ज़रूर होंगे. मेरी कहानियों की नायिकायें ऐसी ही स्त्रियाँ हैं. वो सोशल ऐक्टिविस्ट नहीं हैं. वो सब हमारे आसपास की मामूली औरतें हैं जो इस कोशिश में हैं कि जीवन एक ग्रेस और डिग्निटी से जी लें . मैं ऐसी ही स्त्रियों की कहानी लिखती हूँ.  

फेमिनिज़्म मेरे  लिये दिखावे की की चीज़  नहीं, न ही हर रोज़ छत से चिल्लाने वाली बात है. ये जीवन में हर रोज़ जीने की बात है, हर लम्हा हर स्थिति में अपने को तैयार रखने की बात है. किसी भी औरत को कोई चीज़ प्लैटर पर नहीं मिलती. उसे हक की लड़ाई लड़नी पड़ती है. बचपन में घर से, स्कूल और कॉलेज में लड़कों के मंनचलियों में, नौकरी की दुश्वारियों में.  

मुझे भी उनका सामना करना पड़ा जो छोटे शहर में हर लड़की करती है. नौकरी मुझे किसी सिफारिश किसी मेहरबानी किसी नेटवर्किंग से नहीं मिली. ऑल इंडिया कॉम्पीटीशन से नौकरी मिली और उसके बाद अरसे तक अपने दफ्तर में अकेली लड़की रही. तो हर कदम पर अपने को प्रूव करने की आदत बनी और इसे बिना अग्रेशन के किया सहज भाव से किया. एक रेपुटेशन बनाया, खूब काम करने की, अच्छा काम करने की , कभी नहीं दबने का. ऐसा नहीं कि जेंडर बायस का सामना नहीं किया, लेकिन हार नहीं मानी और अपने भीतर तल्खी नहीं पैदा होने दी.  

जो ये कहते हैं फ्री हो जाओ, वो विक्टोरियन सोच को उसके सर पर खड़ा कर फिर पुरुषों के ट्रैप में स्त्री देह को फँसाने की साजिश में जुटे हैं. स्त्री की देह उसकी है, उसपर नियंत्रण उसका है, मर्ज़ी उसकी है. वो जिसके साथ रहे उसकी मर्ज़ी लेकिन इस आज़ादी के साथ एक ज़िम्मेदारी भी बनती है, खुद के साथ की ज़िम्मेदारी. कोई भी आज़ादी बेलगाम हो, उसके परिणाम खतरनाक होते हैं. ये हम स्त्रियों को समझना है कि जो आज़ादी हम जीत रहे हैं उसका सही उपयोग हम कैसे करें. उछृंखलता में कोई सफलता और वाहवाही कैसे हो सकती है. मैं हर उस औरत के साथ हूँ , बिना वर्ग भेद के,  जो खुद्दारी से जीवन जीने में विश्वास रखती है.  

बहुत सारे छोटे कदम लेने हैं और लगातर लेना है. और सबसे बड़ी बात कि पहले खुद इस बात का विश्वास हासिल करना है कि हम बराबरी पर हैं. ये मानसिक मजबूती बेहद ज़रूरी है . उस अद्र्श्य ग्लास सीलींग को तोड़ना पहले अपने मन से शुरु होता है. मेरी कहानियाँ उसी शीशे की छत पर मानसिक प्रहार है.

मेरे ख़याल से आपकी कहानियाँ अन्य बातों के अलावा दो मुख्य वजहों से पढ़ी जानी चाहिए. पहला कि वे यथार्थ का महज निरूपण नहीं करती हैं बल्कि उसके प्रति एक करुणा का भाव जगाती हैं और दूसरा कि किसी भी किस्म के पोल आदर्शवाद  से लगभग पूर्णतः परहेज करती हैं.लेकिन इसी से जुदा यह सवाल भी है कि आख़िर आदर्श भी तो यथार्थ का ही एक रूप है. क्या आदर्शों के बगैर यथार्थ एक कल्पना मात्र नहीं है? 

व्यक्तिगत तौर पर मैं घोर आदर्शवादी हूँ. मेरे पिता बेहद ईमानदार व्यक्ति थे. उन्होंने ईमानदारी, नैतिक मूल्यों और पारदर्शिता के ऐसे संस्कार दिये जो मेरी खून में रचा बसा है. दुनिया को देखने का नज़रिया फिर इन्हीं चश्मों से तय होता  है. फिर मैं एक किस्म के बोहेमियन नज़र से भी दुनिया देखती हूँ जिसमें बहुत सारा ग्रे एरिया है, सही और गलत के बीच का स्पेस जो परिस्थितियों से नियंत्रित होता है जिसको जज करने के  राईटियस अधिकार के शिखर पर मैं खुद को खड़ा  नहीं देखती. जीवन में इतनी वल्नरेबिलिटीज़ हैं उनको सही सही समझ पाना एक जीवन के बूते के बाहर है. उसमें  अनंत सँभावनायें हैं और जो हो सकता है सामाजिक परिपाटी के खाँचे को तोड़ फोड़ करता कहीं आसमान में निकल जाये. मैं इन सब चीज़ों को कौतूहल और संवेदना से देखती हूँ और उम्मीद करती हूँ कि जो लिख रही हूँ वो इन ऐसे अचरज अचँभे हमदर्दी को दर्शाता हो. उनके प्रति एक समझदारी बनाता चलता हो.   

मेरे पात्र अच्छे, गंभीर और संजीदा लोग हैं. जो मेरे प्रोटगोनिस्ट हैं वो सब उन्हीं संस्कारों से रचे बसे लोग हैं. शाहरुख या फिर जंगल का जादू तिल तिल मेरे हिसाब से नैतिक मूल्यों को दर्शाने वाली ही कहानियाँ ही हैं. दिलनवाज़ तो घोर आदर्शवादी है. आईने में, या दिलनवाज़ या फिर जँगल का जादू या फिर शाहरुख़ ..ये सब कहानियाँ एक किस्म के आदर्शवाद को खोजने और गुमने की कहानियाँ ही तो हैं .. 

हम जिस नज़र से अपने समय को देख रहे हैं, उसमें होते बदलाव को महसूस कर रहे हैं, उनको लिखना अपने समय के साथ साथ समय के परे होना भी है. हमारे भीतर जो अंतर्भूत भाव हैं वही लिखे में भी निश्चय दिखेगा.

कई बार मैं एक ऑबसर्वर होती हूँ अपनी लिखाईयों में और कई बार मैं किरदारों के भीतर होती हूँ. ये जो दोनों रोल के बीच की आवाजाही है वही तय करता है कि कितनी करुणा, कितनी परिपक्वता और कितनी गँभीरता से अपने आसपास की दुनिया के प्रति मेरी सचेतनता है और उसे मैं कैसे और कितना दर्ज कर रही हूँ.
(बिहार और झारखंड मूल की स्त्री कथाकारों पर केन्द्रित अर्य संदेश के   विशेषांक (अतिथि संपादन- राकेश बिहारी) में भी यह साक्षात्कार आप पढ़ सकते हैं. आभार के साथ.

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सौरभ शेखर
युवा समीक्षक और कवि
saurabhshekhar7@gmail.com
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