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Home » मैं कहता आँखिन देखी : सच्चिदानंद सिन्हा

मैं कहता आँखिन देखी : सच्चिदानंद सिन्हा

मुजफ्फरपुर (बिहार) के एक छोटे-से गांव मणिका (मुसहरी प्रखंड) के सवेराकुटी में वर्षों से रहते हुए  ८५ वर्षीय प्रख्यात समाजवादी चिंतक और विचारक सच्चिदानंद सिन्हा आज भी सक्रिय हैं, भारत की समकालीन राजनीति के कुछ ज्वलंत मुद्दों पर उनसे बातचीत की है नवल किशोर कुमार ने. स्वाधीनता दिवस की शुभकमानाओं के साथ यह संवाद आपके […]

by arun dev
August 15, 2015
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मुजफ्फरपुर (बिहार) के एक छोटे-से गांव मणिका (मुसहरी प्रखंड) के सवेराकुटी में वर्षों से रहते हुए  ८५ वर्षीय प्रख्यात समाजवादी चिंतक और विचारक सच्चिदानंद सिन्हा आज भी सक्रिय हैं, भारत की समकालीन राजनीति के कुछ ज्वलंत मुद्दों पर उनसे बातचीत की है नवल किशोर कुमार ने.


स्वाधीनता दिवस की शुभकमानाओं के साथ यह संवाद आपके लिए.  


डेमोक्रेसी नहीं डेमोगागी                  
सच्चिदानंद सिन्हा से  नवल किशोर कुमार की बातचीत 





जमीन का सवाल तो आजादी के पहले भी बड़ा सवाल था? स्वामी सहजानंद सरस्वती ने किसानों को गोलबंद किया था. उनके आंदोलन का जमीन के सवाल से कितना जुड़ाव था?

हां, यह बात सही है कि आजादी के पहले जमीन एक बड़ा सवाल बन गया था, लेकिन उसकी कोई दशा-दिशा नहीं थी. असल में उस समय देश में एक साथ कई तरह के आंदोलन चल रहे थे. मसलन आजादी का आंदोलन तो दूसरी ओर वंचितों के द्वारा समाज में अपनी हिस्सेदारी लेने का आंदोलन. वंचितों के आंदोलन के दो प्रमुख सवाल थे. पहली सामाजिक भागीदारी के लिये आंदोलन तो दूसरा जमीन के लिये आंदोलन. वामपंथी विचारधारा ने जमीन के आंदोलन को आगे बढाने का प्रयास किया. लेकिन उसी दौर में स्वामी सहजानंद सरस्वती के किसान आंदोलन का व्यापक असर हुआ. पहली बार खेती करने वाले सभी वर्गों के किसान एक साथ हुए. इसमें छोटी जोत वाले किसान और खेतिहर मजदूरों के सवालों को शामिल किया गया था. परंतु इस आंदोलन में जाति के आधार पर भूमिहीनता को देखने की कोशिश नहीं की गयी थी. बाद में जब आजादी मिली तब यह आंदोलन राजनीतिक आंदोलन में परिवर्तित होकर रह गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि स्वामी सहजानंद सरस्वती धीरे-धीरे पूरे परिदृश्य से गायब हो गये और उनका आंदोलन बिना कोई व्यापक असर छोड़े अतीत में खो गया.

देश में जाति की राजनीति महत्वपूर्ण हो गयी है. इसके क्या कारण और परिणाम क्या हो सकते हैं?

मेरा स्पष्ट मानना है कि वर्ग और वर्ण आधारित व्यवस्था में अनेक मौलिक अंतर हैं. खासकर भारतीय सामाजिक व्यवस्था में. कोई भी व्यक्ति एक वर्ग से दूसरे वर्ग में स्थानांतरित हो सकता है. मतलब आज जो गरीब है, कल अमीर हो सकता है. जो आज अमीर है, वह कल गरीब हो सकता है. इसलिये वर्ग के आधार समाज की एक स्पष्ट तस्वीर नहीं बन सकती है. जबकि वर्ण व्यवस्था के आधार पर समाज की स्पष्ट तस्वीर सामने आती है. यह सामाजिक विभेदन वर्ग व्यवस्था से कहीं अधिक सख्त है. कहने का मतलब यह है कि यदि किसी ने राजपूत परिवार में जन्म लिया तब वह हमेशा राजपूत ही रहेगा. यही बात अन्य जातियों के लिये भी लागू होता है.

भारतीय राजनीति में यही हुआ है. जाति के आधार पर गोलबंदी बड़ी तेजी से हुई है और यह गोलबंदी दीर्घायु होती है. इसका एक सकारात्मक पक्ष यह है कि समाज के वंचित समुदाय के लोगों की हिस्सेदारी बढी है. उनके अंदर राजनीतिक अवचेतना का विकास हुआ है. लेकिन इसका एक नकारात्मक पक्ष भी है. जाति आधारित गोलबंदी के कारण लोगों में अधिनायकत्व की स्थिति बन जाती है. मसलन लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव और मायावती जैसे राजनेता आज अपने-अपने सामाजिक ध्रुवीकरण के कारण लंबे समय से राजनीति में बने हुए हैं.


आज के लोकतंत्र को आप किस निगाह से देखते हैं? खासकर तब जबकि आज देश की राजनीति दो दलों के बीच सिमटती नजर आ रही है.

मेरे हिसाब से आप जिस परिस्थिति की बात कर रहे हैं, वह महज वहम है. असल में आज पूरे देश में भाजपा और कांग्रेस दोनों अपनी जमीन खोते जा रहे हैं. आप पूरे हिन्दुस्तान पर नजर दौड़ायें. बिहार में कांग्रेस और भाजपा की स्थिति परजीवी से अधिक नहीं है. वहीं उत्तरप्रदेश में कांग्रेस और भाजपा दोनों अपने अस्तित्व के लिये संघर्षरत हैं. पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा तृणमूल कांग्रेस का वर्चस्व है. दक्षिण के राज्यों में भी न तो भाजपा की स्थिति बेहतर कही जा सकती है और न ही कांग्रेस की. असलियत यह है कि आज देश की राजनीति में क्षेत्रीय दलों की भूमिका निर्णायक हो चुकी है. बिना इन दलों के आज एक राजनीति की कल्पना नहीं की जा सकती है.

वैसे मेरा मानना है कि देश में डेमोक्रेसी नहीं डेमोगागीहै. जैसा कि एक यूरोपियन ने अपने आलेख में कहा था. डेमोक्रेसी के जैसे ही डेमोगागी ग्रीक शब्द है. डेमोगागी का मतलब है केवल बातों का पूल बनाना. आज देश की राजनीति में ऐसे लोगों की भरमार है जो केवल बातों का पूल बनाते हैं, जिनका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं है. डेमोक्रेसी शब्द एथेंस से आया है जिसकी आबादी बमुशिल एक लाख रही होगी. अब यह बात सोचने की है कि पचास हजार या फ़िर एक लाख की आबादी के लिये जो व्यवस्था बनी, वह सवा अरब की आबादी वाले देश के लिये भी परफ़ेक्ट कैसे होगी. जाहिर तौर पर इसमें बदलाव की आवश्यकता है. डेमोक्रेसी को फ़िर से परिभाषित किये जाने की आवश्यकता है. वह भी भारतीय सामाजिक व्यवस्था के हिसाब से. यहां के विविधता के हिसाब से.


मंडल आंदोलन के बाद की राजनीति और वर्तमान में जातिगत जनगणना की रिपोर्ट को लेकर हो रही राजनीति पर क्या कहेंगे?

मेरा मानना है कि मंडल कमीशन के लागू होने पर समाज में एक जड़ता टूटी थी. बड़ी संख्या में लोगों के अंदर राजनीतिक और सामाजिक चेतना का विकास हुआ था. आज इसी चेतना का परिणाम है कि आज यदि कोई उच्च जाति का व्यक्ति किसी दलित या पिछड़े समाज के व्यक्ति को एक तमाचा जड़ दे तो बदले में उसे एक के स्थान पर अधिक तमाचे खाने को तैयार रहना पड़ेगा. यह समाज के मजबूत होने का प्रमाण है. इसके अलावा वंचित समाज में शिक्षा और अर्थ का विस्तार हुआ है, जिसके बेहतर प्रमाण सामने आये हैं. असल में मंडल कमीशन को लागू ही इसलिये किया गया था ताकि उपर के पदों पर वंचित समाज के लोग भी आसीन हों. ऐसी स्थिति में निचले पायदान पर रहने वाले लोगों को प्रेरणा मिलेगी. यह सब हुआ है. इसलिये मंडल कमीशन की अनुशंसाओं से मैं पूरी तरह सहमत हूं.

आपने जातिगत जनगणना की रिपोर्ट को लेकर सवाल पूछा है. मेरा स्पष्ट मान्यता है कि जातिगत जनगणना की रिपोर्ट सार्वजनिक होने के बाद समाज में विखंडन की प्रक्रिया शुरु होगी. खास बात यह है कि यह नकारात्मक नहीं बल्कि सकारात्मक होगी. रिपोर्ट के आने के बाद समाज के विभिन्न जातियों के बारे में नये आंकड़े आयेंगे. नये आंकड़ों के कारण आरक्षण को लेकर सवाल उठेंगे और हिस्सेदारी बढाने की मांग भी उठेगी. संभव है कि नये आंकड़े आने के बाद इसे लेकर समाज में विखंडन का नया दौर शुरु होगा. परंतु हमें यह ख्याल रखना चाहिए कि केवल आरक्षण दलितों और पिछड़ों को विकास की मुख्यधारा में लाने के लिये पर्याप्त नहीं है. सरकारी नौकरियों की संख्या बहुत कम है. इसलिये केवल सरकारी नौकरियों के जरिए वंचित समाज को आगे नहीं लाया जा सकता है. अब जबकि जातिगत के नये आंकड़े सामने आयेंगे तो संभव है कि देश की राजनीति में आयी जड़ता टूटेगी. एक बार फ़िर से भूमि सुधार और उत्पादन के संसाधनों पर समुचित हिस्सेदारी को लेकर सवाल उठेंगे, जो आने वाले समय में न केवल देश के लिये बल्कि समाज के बहुसंख्यकों के लिये बहुत महत्वपूर्ण होंगे. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं कि मंडल कमीशन की अनुशंसाओं के लागू होने से देश में उस समय जड़ता समाप्त हुई थी और इसके सकारात्मक परिणाम सामने आये हैं. हालांकि अभी भी कई कमियां हैं. वंचित समाज के जिस हिस्सेदारी बात डा राम मनोहर लोहिया ने कही थी, वह पूरी नहीं हो पायी है. 
________

सच्चिदानंद सिन्हा : प्रकाशन 
समाजवाद के बढ़ते चरण, जिंदगी सभ्यता के हाशिए पर, भारतीय राष्ट्रीयता और सांप्रदायिकता, भारत में तानाशाही, मानव सभ्यता और राष्ट्र-राज्य, उपभोक्तावादी संस्कृति का जाल, संस्कृति और समाजवाद, नक्सली आंदोलन का वैचारिक संकट, भूमंडलीकरण की चुनौतियाँ, संस्कृति-विमर्श, पूँजीवाद का पतझड़, जाति व्यवस्था : मिथक, वास्तविकता और  चुनौतियाँ, लोकतंत्र की चुनौतियाँ, पूंजी का अंतिम अध्याय, वर्तमान विकास की सीमाएँ, गुलाम मानसिकता की अफीम
The Internal Colony, Socialism and Power, Emergency in Perspective, The Permanent Crisis in India, Choas and Creation, The Caste System, Adventures of Liberty,  The Bitter Harvest, Coalition in Politics, Army Action in Punjab, The Unarmed Prophet, Socialism : A Manifesto for Surviaval

अनुवाद : न्यायी हत्यारे (लेस जस्टेस : अल्बेयर कामू)
_______________________

नवल किशोर कुमार :
नवल किशोर कुमार वर्तमान में पटना से प्रकाशित दैनिक हिन्दी समाचार पत्र तरुणमित्र के समन्वय संपादक और बिहार के चर्चित न्यूज वेब पोर्टल अपना बिहार डाट ओआरजी के संपादक हैं.
nawal.buildindia@gmail.com
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