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Home » युगल राग : रंजना अरगडे

युगल राग : रंजना अरगडे

‘कवियों के कवि शमशेर’ की लेखिका रंजना अरगडे में ख़ुद एक कवयित्री छुपी है इसे कोई कैसे जान सकता था? अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में रंजना अरगडे ने अपनी कविताओं को लिखना शुरू किया है. कुछ दिनों पहले आपने ‘खिड़कियाँ, झरोखे और लड़कियाँ’ पढ़ीं थीं अब उनकी नई और लम्बी कविता ‘युगल राग’ प्रस्तुत है. […]

by arun dev
August 8, 2020
in कविता
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‘कवियों के कवि शमशेर’ की लेखिका रंजना अरगडे में ख़ुद एक कवयित्री छुपी है इसे कोई कैसे जान सकता था?
अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में रंजना अरगडे ने अपनी कविताओं को लिखना शुरू किया है. कुछ दिनों पहले आपने ‘खिड़कियाँ, झरोखे और लड़कियाँ’ पढ़ीं थीं अब उनकी नई और लम्बी कविता ‘युगल राग’ प्रस्तुत है.

यह कविता अपनी सघनता, सौष्ठव और मार्मिकता के लिए याद की जायेगी. इसे किसी राग की तरह बार-बार सुना/पढ़ा जाना चाहिए.  


युगल राग                                                         
कहे न बनत, बिन कहे कल न परत

रंजना अरगडे
 
(एक)

आसावरी

वह
डूबते सूरज की पीताभ चादर पर
सोई हुई थी.
जब आँख खुली
तो वह
एक जामुनी फूल  बन गई थी.
उसने
हैरत से
उस बंद संदूक को देखा.
उसे मालूम  ही नहीं था
वह उसी के हिस्से लिखा था.
एक अजनबी
उस शाम उससे मिला  था.
किसी जादुई चाभी से
उसने संदूक खोला
वह कौतूहल से
भीतर झांकने लगी…
भीतर उसने देखे
एक निर्दोष खिलंदड़ी हँसी वाली आँखों के
अनगिने सपने 
जिनमें एक अबूझ भारीपन था.
(जो उसे तब नहीं दिखा था.)
उसने सिर उठाकर अजनबी की आँखों में देखा
और  सहसा वह
एक ख़ूबसूरत देश की सम्राज्ञी बन गई थी.
पेड़
उसे अब जड़ों तक दिखाई देने लगे थे.
जिस पर बिछा होता है इंद्रधनुष,
उस, आसमान की सतह को वह
नदी की कल-कल सुनते हुए
चाँद की नाव में बैठकर
पार करते हुए
अपने घर लौट सकती है.
अब वह एक ख़ूबसूरत देश की सम्राज्ञी है.
दोपहर
शामें
अब पहले जैसी नहीं रहीं.
रात आज के पहले
इतनी खोई हुई तारों भरी खुली-खुली न थी
सुबह इतनी उम्मीदों भरी दबी- खुली
खिलखिलाहट भरी न थी.
व ह
इतने आत्मविश्वास से भरी कभी नहीं थी.
सोना और जागना
पहली बार पर्यायवाची बने.
उसे बोध हुआ
स्पर्श और चुंबन
काल-गणना के पैमाने भी होते हैं.
साबुन, इत्र और पसीने के अलावा भी
बदन की एक अपनी खुशबू होती है
जिसमें
आजीवन डूबा  उतराया जा सकता है.         
उसने
जब आईने में देखा
वह अपने को पहचान न सकी.
आईने कब से
भीतर का अक्स भी दिखाने लगे हैं?
वही मोहरा
वही नाक-नक़्श
वही रंग रूप
पर गोया \’वह\’ नहीं.
जैसे कोई जादू!!
पहली बार उसने जाना
जो गोरे नहीं होते
मुद्रित नाक-नक़्श, कद-काठी वाले
नहीं होते
वे भी सुंदर होते हैं.
इतने
कि किसी के जीवन और आह्लाद का
बायस बन जाएं.
उसने पूरब से
तो इसने पश्चिम से
एक साथ सूरज को देखा
                    उदये च अस्तमने..
रक्तिम
बीच का देश गल गया
काल  पिघल कर
अँधेरे में घुल गया.
एक बड़ा-सा भूरा पक्षी
सुनहले पंखों वाला
मरोड़दार गरदन घुमाता
अपनी अध मींची आँखें
खोल कर जब उसे देखता है
वह इंद्रधनुष में
नहा उठती है.
दोनों ओर
बेगमबेरिया की मेहराबों के बीच
सड़क पर बिछे
अमलतास, शिरीष और गुलमोहर के  फूलों पर से होते हुए,
वह रंगबिरंगे फूलों की क्यारियों वाले
एक ऐसे स्वप्न लोक में पहुँची
जहाँ एक अलौकिक संगीत बज रहा था
जो जागने के बाद तलक
उसके कानों में गूंज रहा था.
लंबी खुली सड़कें..
वह चहकती चिड़िया सी वृक्षों पर
तो कभी
तितली बन उड़ रही थी
और
बादे-सबा  में उड़ते उसके बाल
दूर से ही उसकी आँखों में
गुदगुदी करते से…खेल रहे थे.
वह बे वजह ही
हँसते हुए उसके पाँवों को
अपनी आँखों से नाप रहा था.
सरसराता सर्प युगल
ज़मीन से हवा में
बिजली की तरह उछला
भीमबैठिका की गुफाओं सा आदिम आवेग
घटादार वृक्षों से घिरे रास्तों पर
टपटप  टपटप टपटप की लय में
एकसार दौड़ता  तांगा
भीतर घमासान
उंगलियों को कसता
ढील देता लगाम
सरपट दौड़ता घोड़ा….
तने से होते हुए
डालियों पर से आती जाती गिलहरियों
अमरूदों में चोंच मारते तोते
मुँड़ेर पर घात लगाए बैठा साँप
नक्काशीदार जाली जैसी धूप
यही
एक
इकलौता
क्षण था
जो तीनों कालों को जोड़ता उसकी शिराओं में समा गया.
अब
उसकी समझ में आया
देह की पहचान
देह से होती है.
मन को पहचानता है मन
बोध से परे होती है बुद्धि .
और आत्मा?
उसे तो अभी खोजना बाकी है.
उलझती हैं उंगलियां परस्पर
लिपटती हैं पिंडलियाँ
चस्पां होंठ
जकड़ती बाहें
लेकिन
इन्हें नहीं जानती है आत्मा.
सुख- दुख- राग- द्वेष
आत्मा नहीं जानती इन्हें भी.
फिर
वह कौन सा लोक है
जहाँ इन्हीं के बीच से होते हुए
जल कमलवत्  विराजती है आत्मा?
लाल पीले हरे गुलाबी रंगों के गुलाल से
नहा उठी थी चादर
अभी द्वार पर चढ़ाया ही था फूल एक
कि वह खो गई
पलाश वन की माया में.
सुंदर मोड़दार लिखावट
बदलती है पन्ने
समय के साथ.
हर ताज़ा सफ़ेद शफ्फ़ाक़ पन्ना
पीले पन की नियति पाता है.
गोपन रह जाती हैं
पीले पन्नों पर बिछी संवेदनाएं.
उनमें सुरक्षित क्षण
इतिहास बन जाते हैं.
पीले पन्नों पर फिरती उसकी उंगलियां
सुनती हैं
गोपन संवेदनाओं की दबी आहटें.
मानो पहली बार किसी से कहा हो उसने
इस तरह बोला था वह
तुम सचमुच बहुत सुंदर हो.
धरती की पहली सुबह की धूप में
जैसे उसका चेहरा नहा उठा था.
गोया अभी-अभी सूखी हो स्याही
इतना ताज़ा और टटका था
यह उसका कहना.
एक अनुपम खालिस अभिव्यक्ति.
ढलती दोपहर की धूप में
जब वह नदी किनारे पहुँची
तो वह पहले से ही
हिलकोरे खाती नदी की सतह पर
निश्चल लेटा हुआ था.
छोटी-छोटी मछलियों की गुदगुदी
उसके चेहरे की मुस्कान बन
सांवली – पीली धूप में चमक रही थी.
उसने
अपनी आँखों से
उसकी गीली लटें पोंछी
और
उसके किनारे पर पहुँचने की प्रतीक्षा करती रही.
बस ने अभी अड्डा छोड़ा ही था
कि  वह स-कुशल पहुँचने की चिट्ठी लिखने लगी,
मन ही मन.
गंतव्य की ओर
अँधेरे  में दौड़ती बस
और पीछे की ओर दौड़ता उसका \’होना\’
इसी आपाधापी में
वह उस मकान में पहुँची
जो कभी उसका घर हुआ करता था.
वह पीले पन्नों में
गहरे उतरता चला गया दूर तलक
धधकते सूरज के
असह्य ताप में वह मीलों चलता चला गया
हज़ारह हज़ारह
कांच के किरचों की चुभन ने
जकड़ लिया उसका माथा.
वह जब वापस लौटा
सघन पेड़ों से घिरे जलाशय की छांव-सी
वह दरवाज़े पर खड़ी मिली.


(दो)

जोगिया

पहले जैसी सपाट और चमकीली
नहीं हो सकती हैं अब सतहें
हथेलियाँ तो लहूलुहान होंगी ही
बच नहीं सकते.
सतमासे को
नौमासे तक लाने के लिए
गर्भ की-सी ऊष्मा और एहतियात दरकार है.
स्मृतियों की खेप पर खेप उतरती है.
पीले पन्नों से निकलकर
किरचों में अटकती है.
माजूम, अहसासों को मिटा नहीं सकते
संवेदना के लेप
काल के बीच पसरते चले जाते हैं.
गड्ड
मड्ड
जीवन.
बरसों से
दबी-सोई उम्र
किरचों से फूट पड़ी मानो.
फैल गई पूरी देह में  सूखे पत्तों की बू.
सफ़ेद कागज़ के आकाश में
उड़ता है हरे तोतों का एक झुण्ड़
प्रवेश करता किरचों की दरारों में.
जोड़-जोड़ जकड़ता
छूटता वर्तमान
गहरी लंबी नींद में
डूबता मन-जातक
कहीं  गुम हो गई है घड़ी
जाकिट पहने खरगोश की.
कागज़ पर टूट-टूट कर
उभरती हैं,  लिखी जाती रेखाएं
किरचों को सीधा कर जोड़ने की कोशिशें जारी हैं.
उसमें
बिला जाती है
हरे तोतों की टें टें.
समय पिघलता घड़ियों में
उभरती
लाल-नीली स्याही की
दृढ़ अनिश्चित रेखाएं.
हल्के पीले गुलाबी पेस्टल्स में
आकृतियाँ झूसी किनारे की.
बूढ़ी देह में
बसता एक शिशु
धड़कते
युवा सपने.
एक लंबी नींद में
बदल गई है कायनात
अब
कठिन सरलताओं में
लिपटी हैं दिशाएं.
बिखरी
देश-काल-कार्य की एकान्विती
स्थगित जीवन का नाट्य.
सूखी सतहों से
उमड़ी बीती हुई लहरियाँ
मटमैली धाराओं में
घुलती वर्तमान छवियाँ.
तनिक-सा उसने
झांका भीतर
कि खींच लिया गया बरबस
एक गंतव्य विहीन
दौड़ती हुई  रेल में.
लपक कर बाहर की ओर खींच ही लेती है उसे वह.
भीतर-बाहर के  संधि-स्थल पर
वह उत्तान पड़ा है
मानो
बाण-शैया पर.
अनजान जगहों पर
पुराने नक्शे खिंच आते हैं.
वर्तमान देह पर
पुराने चेहरे चस्पां हो जाते हैं.
दबी इच्छाएं
कार्य बन
मंच पर अभिनय करती हैं.
एक अजब माया-लोक रचती है.
कविता और चित्र की चौखट से बाहर
सात पाताल तल में
गड़ी हुई
गोपन बातें.
अपवाद और अगम्यागमन के अपराध बोध से निजात
संभव है केवल
एकांत में किए गए कनफेशन्स में.
किरचों में फँसे  शब्द और चित्र
तैरने लगते हैं स्मृति जल पर.
हतप्रभ पादरी बनी वह
ईश्वर की करुणा का करती रही आह्वान.
आख़िरकार
एक दिन उसने
अनजाने भय से  भरी आँखों से
कह ही दिया
\’तुम शाम को कहीं जाया न करो\’
घुटन का माटीला  हिलता पानी
उसकी आँखें में तैर गया.
उसे सहसा पिता को देखती
अपने बाबा की मनुहार भरी आँखें
याद आ गईं.
क्या उम्र बदल देती है
शामों का अर्थ ?
जो कभी
तितली-सी उड़ा करती थी
गौरैया-सी फुदकती थी
आज
उंगली के कसाव थामते है उसे
उसके अ-वश तेज क़दमों को सम्हालती है
उसकी कलाइयां
ग़ालिब और मीर की शायरी…..
शामिल हो जाती है जिनमें शाम की धूप
इरशाद-इरशाद कहती हुई.
वह कुछ पल रुक कर शाम को देखता है
फिर उसकी ओर
और अपने लटपटाते कदमों को सम्हालता हुआ आगे बढ़ता है.
वह
उसकी ज़बान से
अपनी कविताएं सुनता रहा
और उसे लगा
वह अपनी ही कविताएं सुना रही है.
एक अजब कौतूहल से
वह उसे निहारता रहा
और
उसने मन ही मन
अपनी सारी कविताएं
उसके नाम कर दीं.
फिर शाम
रात को अपनी कविताएं सुनाती रही
और रात सुबह से बतियाती रही.
बहुत कोशिशों के बाद
उसने ऊबड़-खाबड़ मैदानों को
अपनी पलकों से
समतल किया.
वह अपनी धुन में
चला जा रहा था.
उसे नज़रों से बाँधते वह उसके पीछे -पीछे चल रही थी.
अचानक भीषण ताप से बचने के लिए
वह
एक खरगोश के बिल में गायब हो गया
उसकी घड़ी की चेन थामे हुए
वह उसके पीछे उतर गई
खोह की गहराई में.
लुढ़कते-पुड़कते
उसकी उंगलियाँ थामे
वह चकित उस आश्चर्य लोक से गुज़र रही थी
जो सहसा उसकी देह से कूद कर
चारों ओर छा गया था.
पीले पन्ने अब कहीं नहीं थे
लायब्रेरी में
कागज़ी बादाम के बागीचे थे
जिसमें वह थरथराते हुए
अपनी कविताएं लिख रहा था.
सिकते आटे से निकलते घी में पकते  हलवे की ख़ुशबू से
खुश हो रही किताबें अपनी कहानियाँ बंद हवा में घोल रही थीं.
ललचाती रबड़ी के दोने किताबों की अलमारियों में सुरक्षित रखे थे.
और तेल की जलेबियाँ हँसा रही थी
लाइब्रेरी में रखी सीढ़ियों को.
नीम की छाल टूटी किताबों को जोड़ रही थी.
तभी
चौकीदार ने आकर कहा
\’समय हो गया है\’.
वह हैरत से देख रही थी
इस आश्चर्य लोक को
जिसमें वह बिल्कुल सहज हो  विचर रहा था
जैसे यही उसकी दुनिया हो.
लुढ़कते तैरते चलते
वह कई आसमानों को पार कर गया.
सबसे आख़िरी आकाश में
उसकी माँ अपनी कोमल ममता भरी बाँहों में उसे भर लेने को उत्सुक थी.
जब वह उस खोह से बाहर निकला
बेहद थका हुआ था.
आसमान में भिनसारा  था
खिले हुए गेंदे के खेत बिछे हुए थे
वह उन पर जा कर लेट गया.
उसने ऊपर देखा
तत् सवितुः वरेण्यम…..
लपटें आसमान को छू रही थीं
शाम अपने केसरिया रंग में यहाँ से वहाँ तक फैली हुई थी .
वह दूर से
उसे, जलते हुए को देखती रही
जिसमें वह जामुनी फूल अब भी कहीं दमक रहा था.
यात्राएं
कभी पूरी नहीं होतीं.
चलती हैं साथ-साथ स्मृति में
लांघती हैं रास्ते भविष्य तलक
हमारी सत्ता और इयत्ता का
एक अविभाज्य अंश बन कर.
उपनिषद बनती हैं यात्राएं
विस्तरित होती हैं
मिल जाती हैं
बादलों के रंगों में, चाँद में,
सुबह शाम के ज़रा से और
पूरे के पूरे आसमानों में.
आईनों में, जड़ों में, लहरों में,
ज़ाफ़रान की ख़ुशबुओं में घुलती हैं यात्राएं.
सौंधी पकी बे-दाग़ रोटी में,
चित्र में, रंग में, राग में,
अपने होने को संतुलित करती हैं यात्राएं.
कमरों के कोनों में दुबकती
झिलमिलाती छवियों में भासमान होती है यात्राएं.
भालुभूत में,  बम्बारियों में , दंगों में
पैसों से तोली जाती मानवीय लाशों में
साथ चलती हैं यात्राएं.
प्रेम के कठिन
रदीफ़- काफ़ियों में बँधी ज़िंदगी को
सरल बनाती हैं यात्राएं.
(1-4-2020 से 19-4-2020)
______________
                                                      

  रंजना अरगडे
argade_51@yahoo.co.in
Tags: कविताएँ
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