महाकाव्य और नाटक ने आधुनिक युग में उपन्यास और सिनेमा के रूप में अपना कायांतरण किया. सिनेमा अनंत दर्शक समूह और पूंजी से जुड़कर एक बड़े सांस्कृतिक उद्योग में बदल गया. हिंदुस्तान में यह कभी पराया माध्यम नहीं लगा. प्राचीन नाट्य परम्परा और पारसी थियेटर ने इसके रूप का निर्धारण किया. सुख-अंत और गीत–संगीत भारतीय सिनेमा की ख़ास पहचान हैं.
बींसवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध का हिंदी रजतपट अमिताभ का रजतपट है. सुशील कृष्ण गोरे ने सिनेमा में अमिताभ के होने का अर्थ तलाश किया है. सचेत विश्लेषक की तरह उनकी दृष्टि समाज पर भी टिकी हुई है.
अमिताभ का सिनेमा
सुशील कृष्ण गोरे
डॉ.हरिवंशराय बच्चन ने उन्हें अपनी सर्वश्रेष्ठ कविता माना है. मैं अमिताभ को सभी सर्वनामों की एक संज्ञा मानता हूँ. अश्चर्यजनक सफलता के बीच सौम्यता, दंभहीन अनुशासन, विनम्र स्पष्टता, धैर्यवान संतुलन, संकटों को परास्त कर देने वाली अदम्य शक्ति जैसे गुणों की अद्भुत खान हैं अमिताभ. एक ऐसा विशेष्य जिसके आगे सभी विशेषण छोटे पड़ते हों. उनकी अपराजेय शक्ति का लोहा तो दो बार काल को भी मानना पड़ा है.
सिनेमा का रूपहला पर्दा हो या जीवन की जंग अमिताभ अंत में एक अपराजित नायक बनकर उभरते हैं. यह संयोग ही है कि फिल्मी पर्दे पर उनके द्वारा निभाए गए एंग्री यंगमैन के जिन सशक्त किरदारों को बॉक्स ऑफिस पर कीर्तिमानों के नए झण्डे गाड़ने वाला माना जाता है – वे सब विजय थे. एंग्री यंगमैन नाम से एक आयरिश लेखक लेजली एलन पॉल ने 1951 में अपनी आत्मकथा लिखी थी. संभवत: यह मुहावरा यहीं से प्रचलित हुआ था. बाद में जॉन ऑसबर्न के नाटक Look Back in Anger (1956) को प्रोमोट करने के लिए इसी तर्ज़ पर एंग्री यंगमेन शब्द चल निकला. इन सब का मतलब एक ही होता है – व्यवस्था और दमनकारी सत्ताओं का पुरजोर विरोध.
अमिताभ को अपने युग के गुस्से का अभिनेता माना जाता है. सातवां दशक आजादी के बाद 20 सालों में व्यवस्था से मोहभंग का प्रतिनिधि दशक था. गरीबी, भ्रष्टाचार, बेईमानी, अपराध और हिंसा सिस्टम में रचते-बसते जा रहे थे. आजादी की लड़ाई में जिस सुशासन और सुराज के ख्वाब़ सजाए गए थे वे चकनाचूर होने लगे थे. सत्ता और वर्चस्व की लड़ाई हावी हो गयी. इसमें गरीब, असहाय, बेबस और मज़लूम तबके की ज़िंदगी पिसने लगी थी. अमिताभ इसी तबके के एक नुमाइंदे के रूप में सामने आते हैं. उनके चेहरे पर एक ईमानदार मिल मजदूर बाप के बेटे का संपूर्ण स्वाभिमान और गौरव दमकता रहता है जब वे दीवार में फेंके हुए पैसे नहीं उठाते. पोर्ट पर गोरखपुर से आए एक कुली के हफ्ता न देने का दर्दनाक हस्र देखने के बाद उनका गुस्सा गुंडों के खिलाफ जंग के रूप में फूटता है.
अमिताभ शोषण और दमन के शिकार वर्गों के नायक बनकर उभरे. वे सत्ता के जुल्म का प्रतिरोध थे. सत्ता चाहे किसी भी किस्म की हो. बाहर वे गैर-कानूनी और असामाजिक तत्वों की धुलाई करते हैं तो घर के भीतर वे अपने पिता को भी चुनौती देते हैं. चाहे वे त्रिशूल में आर.के.गुप्ता यानी संजीव कुमार हों या शक्ति में अश्विनी कुमार यानी दिलीप कुमार ही क्यों न हों. वे माँओं के दुलारे बेटे के रूप में बेजोड़ हैं. माँओं के लिए पिता से टक्कर लेने में भी अमिताभ के एंग्री एंगमैन का एक बारीक आयाम देखा जा सकता हैं. त्रिशूल में वे आर.के.गुप्ता कंस्ट्रक्शन कं. के हर सौदे को छीनकर अपनी परित्यक्ता माँ के नाम से शांति देवी कंस्ट्रक्शन का एक समानांतर साम्राज्य खड़ा करते हैं. शक्ति, देशप्रेमी, सुहाग जैसी फिल्मों में अपनी माँ के प्रति हमदर्द है. दीवार में माँ की ख़ातिर वे जहाँ पहले कभी नहीं गए थे उस मंदिर की चौखट पर भी प्रार्थना के लिए गए. अमिताभ का यह तेवर स्त्रीवादी विमर्श का एक भाष्य खड़ा करता है.
इन फिल्मों में जिन किरदारों को अमिताभ ने अपने दमदार अभिनय से यादगार बना दिया था वे आज उम्र के 35-40वें पायदान पर पहुँच चुके उस समय के किशोर–युवकों को सम्मोहन पाश में बाँध लेते थे. वे अमिताभ में अपनी ही छवि नुमाया होते देख रहे थे. अमिताभ का गुस्सा, आक्रोश, गुंडों–अपराधियों के सिंडीकेट पर गरीबों के रक्षक के रूप में उनका हमला और शोषण, अन्याय एवं अत्याचार के विरुद्ध उनकी अकेली जंग कहीं–न–कहीं हर युवा दिल में पक्के इरादे से गरीब एवं कमजोर आदमी के पक्ष में लड़ने का जोश भरती थी. इस प्रकार वे समकालीन समाज एवं उसकी परिस्थितियों में निर्मित हो रहे युवा मानस के प्रतीक बन गए थे. भले ही अमिताभ बच्चन को उनकी ज्यादातर शुरूआती फिल्मों में क्रोध से लाल आंखों वाले खामोश परंतु अकेले निहत्थे दस–दस गुंडों को पीटकर धराशायी कर देने में समर्थ एक ऐसे आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी नायक के रूप में पेश किया गया हो लेकिन जो कई बार खुद कानून को अपने हाथों में लेकर शंहशाह की तरह अपने फैसले लेने लगता है जिसके सामने इंसाफ की खातिर अन्यायपूर्ण व्यवस्था के खिलाफ बंदूक उठा लेने का ही एक आखिरी रास्ता बच जाता है. जब वह कहता है – लगता है जो दीवार हम दोनों के बीच है वह इस पुल से भी ऊँची है………… या उफ्फ! तुम्हारे उसूल, तुम्हारे आदर्श…….तुम्हारे सारे उसूलों को गूँथकर एक वक्त की रोटी भी नहीं बनाई जा सकती………. तो समय का सारा वृतांत सारे भाष्यों की लकीरों और किरिचों के साथ व्यक्त हो जाता है……..तालियों की गड़गड़ाहट थमती नहीं………आज भी उसकी अनुगूँजें बजती हैं – स्मृतियों के पार्श्व में मद्धम…..मद्धम…….
बात कहीं से भी करिए आपको अमिताभ के चरित्रों में एक साथ हमारे साधारण मध्यवर्गीय पारिवारिक जीवन के सभी मानवीय एवं भावनात्मक रूप एवं उनकी अभिव्यक्तियां दिख जाएंगी. माँ से आदिम किस्म का गहरा लगाव, छल और बेईमानी से पराजित एक पिता का दर्द एक सुलगते अंगार की तरह जीवन भर अपने सीने में दबाए और इस कारण भगवान से भी खफ़ा और उसके प्रति अनास्था के कारण मंदिर के बाहर बैठे अमिताभ का जिद्दी स्वभाव उनके खुरदरे चेहरे और भारी आवाज की हर लकीर और हर परत से बयां हो जाता है. तनाव, घुटन, जज्बातों की कश्मकश, आत्मालाप, वसूल पर अडिग चरित्र को जीता उनका हर किरदार खरा बन जाता है. उसका गुस्सा केवल व्यवस्था से ही नहीं, भगवान की सत्ता से भी है. लेकिन इसी अमिताभ की प्रतिभा हास्य और प्रेम के रूपों में भी अद्वितीय कलाकारी का नमूना पेश करती है.
कोलकाता के बर्ड एंड कं. नामक एक शिपिंग कंपनी की एक नौकरी छोड़कर मुंबई में हीरो बनने आए जिस आदमी की आवाज को भद्दी और लंबाई को बाँस जैसी कहकर फिल्म निर्माताओं ने तिरस्कृत किया, कौन जानता था कि वही एक दिन इस मायानगरी का कभी अस्त न होने वाला सुपरस्टार बन जाएगा. उसी की तूती बोलेगी. उसी आवाज की दीवानी पीढ़ियाँ हो जाएंगी. क्या आप जानते हैं सत्यजीत रॉय की फिल्म शतरंज के खिलाड़ी तथा मृणाल सेन की फिल्म भुवनसोम के वायस नेरेटर अमिताभ बच्चन ही थे. अभी 2005 में Luc Jacquet निर्देशित एक फ्रेंच डाक्यूमेंटरी फिल्म मार्च ऑफ पेंग्विन्स में भी उनकी आवाज का इस्तेमाल किया गया. इस वृत्तचित्र को आस्कर पुरस्कार मिला.
अमिताभ ने हिंदी सिनेमा के कई बने–बनाए सांचों को तोड़ा. जैसे उन्होंने पहली बार मुख्यधारा के सुपर स्टार को उसके हास्य के साथ जोड़ा. इस थीम पर बनी चुपके–चुपके, डॉन, अमर अकबर एंथोनी, दो और दो पांच, नमक हलाल जैसी फिल्में अभिनय के इस नाटकीय रूपांतरण को चरितार्थ करती हैं. इसी प्रकार अमिताभ ने नायिका के साथ रोमांस के फार्मूला सिद्धांतों को भी तोड़ा. वे पहली बार उस भाव के साथ अपनी नायिकाओं से मुख़ातिब हुए जिसका इंतजार हिंदी सिनेमा की नायिका मोतीलाल, दिलीप कुमार आदि के जमाने से कर रही थी. जीतेंद्र, राजेंद्र कुमार, शशि कपूर जैसे अभिनेताओं ने तो अपना ज्यादा समय नायिकाओं से अभिसार या उनके आगे–पीछे कल्लोल करने में खर्च किया. नायिकाएं इसके बावजूद उन्हें एकदम दयनीय रूप से भोला समझती रहीं और ऊपर से नाज–नखरे दिखाकर उन्हें रुलाती–तड़पाती रहीं. अमिताभ अपनी किसी भी नायिका का दिल जीतने के लिए न तो कभी पानी की टंकी पर चढ़े और न ही दिल टूटने पर आरा मशीन पर कटने के लिए समाधि लगाकर बैठे. तो एक खास प्रकार के पौरुषेय प्रेम का आविर्भाव अमिताभ के एंग्री यंगमैन के अवतार के साथ–साथ होता है. एक धीरोद्दात नायक. इसकी तफ़सील में जाने की जरूरत नहीं.
अमिताभ ने अतीत के रिकॉर्ड तो तोड़ ही डाले और इस दिग्विजय अभियान के दौरान उन्होंने न केवल सिनेमा बल्कि इस उत्तर–आधुनिक समय के तमाम क्षेत्रों में जो नया रच दिया वह भविष्य के लिए भी अप्रतिम मानक बन गए हैं. यह अमिताभ का व्यक्तित्व है या उनका नक्षत्र कि वे जिस चीज को हाथ लगा देते हैं वह शिखर छू लेता है. उसके बाद कोई ऊँचाई नहीं बचती. कौन बनेगा करोड़पति, जिसे मीडिया शास्त्र में रियल्टी शो कहा जाता है, की बेजोड़ सफलता की वज़ह अमिताभ ही थे. यही वह मोड़ है जहां से अमिताभ बाजार के सबसे महंगे ब्रांड बन जाते हैं. उनकी यह भूमिका उनके नायकों के विपरीत थी. अब अमिताभ बड़े पर्दे के अलावा छोटे पर्दे पर विलासिता के उत्पाद लेकर उपस्थित था. अब उसके चेहरे पर व्यवस्था के खिलाफ क्रोध की कोई भी शिकन शेष नहीं थी. बल्कि अब उसका वही चेहरा पूँजी के प्रकाश में नहाकर दमकने लगा था. वे जमाने के रंग में इस कदर रंगते चले गए कि व्यावसायिकता को मंत्र मानने के सिवा सब कुछ भुलाते रहे. विज्ञापन की दुनिया में चाहें अगर तो अभिनय सम्राट दिलीप कुमार, इंडियन ग्रेगरी पैक देव आनंद, राजेश खन्ना जैसे चोटी के सितारे भी आ सकते थे. लेकिन शायद उनके वसूल फिल्मी पर्दे पर निभाए गए वसूलों से ज्यादा ठोस एवं पक्के हैं. देव आनंद जब सक्रिय दिखते हैं तो साफ दिखता है कि वे किसी कृति की आत्मा को ढूँढ़ रहे हैं. वे फिल्म निर्माण कला से प्रेरित दिखते हैं. कुछ योगदान करते हैं. वे शुद्ध पेशेवर कलाकर की तरह अंधाधुंध अपनी बाजारू कीमत वसूलते नहीं दिखते.
अमिताभ को अपनी कीमत का अंदाज़ा रहा है. विकीपीडिया के अनुसार शोले ने 2,36,45,00,000 रुपये यानी 60 मिलियन डॉलर की रिकार्डतोड़ आमदनी की थी. 1999 में बी.बी.सी. ने शोले को फिल्म आफ दि मिलेनियम\” घोषित किया. बॉलीवुड के के इस शंहशाह की बेशुमार कामयाबी और शोहरत को देखकर फ्रांसीसी फिल्म डायरेक्टर फ्रांक्वा त्रूफा ने अमिताभ को One-man Industry कहा था.
कुछ आलोचक अमिताभ के फिल्मी चरित्रों से बनी उनकी महानायक या मिलेनियम स्टार (जिसे अमिताभ लगातार खारिज करते हैं) की छवि को महत्व नहीं देते हैं. वे कहते हैं कि यह सारा घटनाक्रम एक संयोग है जिसमें अमिताभ को अच्छी फिल्में मिलीं, उनकी पटकथाएं समकालीन सामाजिक परिस्थितियों को उकेरने में समर्थ थीं, बहुत सार्थक संवाद लिखे गए, बड़े निर्देशक और बड़े बैनर मिले इत्यादि. उनकी शुरूआत ही ख्वाज़ा अहमद अब्बास जैसे एक बड़े लेखक द्वरा निर्देशित फिल्म सात हिंदुस्तानी से हुई। इसके बाद प्रकाश मेहरा, मनमोहन देसाई जैसे दिग्गज डायरेक्टर के अलावा सलीम-जावेद की जोड़ी अमिताभ को मिली जिनकी मेहनत और हुनर ने अमिताभ को लंबी रेस का घोड़ा बना दिया. साथ ही अमिताभ एक कुलीन घराने से ताल्लुक रखने वाले उस जमाने के प्रसिद्ध प्रोफेसर, कवि एवं सांसद डॉ.हरिवंशराय बच्चन के सुपुत्र थे. अपने माता–पिता से विरासत में मिली प्रतिभा, लगन, अनुशासन, निष्ठा, समर्पण के संस्कार के अलावा उन्हें नेहरू परिवार का संरक्षण भी प्राप्त था.
इसी प्रकार कुछ समीक्षक यह भी कहते हैं कि फिल्मों तक तो फिर भी ठीक था लेकिन इतने बड़े पिता (जिन्हें अमिताभ अपने से सहस्र गुना बड़ा मानते हैं – यहाँ तक कि दो-तीन साल पहले जब उन्हें लंदन में किसी विश्विद्यालय द्वारा प्रतिष्ठित डॉक्टरेट की उपाधि से अलंकृत किया जा रहा था तो वे कुछ लज्जालु से दिखने लगे थे – पूछने पर कहा कि उन्हें डॉ.बच्चन न कहा जाए क्योंकि डॉ.बच्चन एक ही है जो वे नहीं हो सकते) के सुपुत्र का तेल–साबुन–चॉकलेट आदि का व्यावसायिक विज्ञापन करना कुछ हजम नहीं होता. उनके कॉमर्शियल एंडोरश्मेंट ज्यादातर शहरी मध्यवर्ग के उपभोग की वस्तुओं पर केंद्रित हैं जो सीधे-सीधे मुनाफा के अर्थशास्त्र से जुड़ते हैं। वे कहते हैं कि अमिताभ बच्चन को ब्रांड एंबेसडर कहलाना पसंद है लेकिन डॉ.बच्चन कहलाना नहीं. इसी द्वंद्वात्मकता के बीच एक व्यावसायिक अमिताभ बच्चन छिपा है जो अपने सेलेब्रिटी का पाई–पाई वसूलना जानता है. वह एबीसीएल के घाटे को पूरा करने वाला एक मध्यवर्गीय इंसान सरीखा अमिताभ है जिसे केनरा बैंक के कर्ज़ को चुकता कर अपने घर प्रतीक्षा को गिरवीमुक्त करना है. सन् 2000 में अमिताभ ने फिर एक बार भारतीय मनोरंजन जगत पर अपनी छाप-छवि छोड़ने में कामयाबी हासिल की. यह ब्रिटेन के एक क्विज प्रोग्राम का भारतीय संस्करण केबीसी यानी कौन बनेगा करोड़पति का प्रसारण था जिसे अमिताभ की नायाब प्रस्तुति ने टीआरपी की नई बुलंदियों पर पहुँचा दिया.
उन दिनों दिल्ली की सारी सड़कें खाली हो जाती थीं जब टी.वी. पर कौन बनेगा करोड़पति शुरू हो जाता था. यह अमिताभ के अपनी शैली में दर्शकों को नमस्कार, आदाब़, सतश्री अकाल कहने का समय होता था जिससे देश के सभी माता-पिता, बहन और भाई संबोधित होना चाहते थे. महानायक की एक अजीब सी पकड़ जिसकी गिरफ्त में न आना एक असंभव सत्य था. सुधीश पचौरी ने जनसत्ता में उन्हीं दिनों लिखा था कि छोटे परदे पर जो करिश्मा अमिताभ ने किया है वह सिर्फ़ अमिताभ ही कर सकते थे. माताजी नमस्कार, पिताजी नमस्कार को हिंदी में जिस ढंग से कहा जाना चाहिए वह केवल कविवर हरिवंशराय बच्चन के सुपुत्र अमिताभ की हिंदी ही कर सकती थी. यह केवल अमिताभ बच्चन से ही संभव था. अमिताभ के मुँह से हिंदी पुन:-पुन: संस्कारित होती एक आकर्षक और ज़हीन जुबान बनती चली जाती है. उनकी हिंदी में संस्कार और बाजार दोनों का अद्भुत साम्य और विस्तार है. अमिताभ की हिंदी का जादू दुर्निवार है…. इर्रेजेस्टिबल.
इसे अमिताभ का दूसरा अवतार कहा जाता है. यह उनके कॅरियर और असली ज़िंदगी दोनों के कष्टों से उबरने का समय था. यहाँ तक आते-आते वे 58 साल की बुढ़ाती उम्र में पहुँच चुके थे. सोचिए फिल्मी परदे का यह बिग बी असली ज़िंदगी में भी कितना साहसी हो चुका था कि किसी तूफान से उसके अंदर का मर्द परास्त नहीं हो सकता था. उसके एक फिल्मी किरदार ने सच ही कहा था – अभी तक आपने जेल की जंजीरें देखीं हैं जेलर साहब…..कालिया के हिम्मत का फौलाद नहीं देखा जेलर साहब………..
अमिताभ की प्रोफेसनल ऊर्जा भी गज़ब की है. वे कहते हैं कि जब तक शरीर में दम है काम करता रहूँगा या जब तक काम मिलता रहेगा काम करता रहूँगा जबकि काम वे इस कदर करना चाहते हैं कि शरीर का दम छूटने लगे. अखबारों की रिपोर्ट मानें तो वे जरूरत से ज्यादा काम करने या भागदौड़ से थकने के कारण ही कुछ साल गंभीर रूप से बीमार हो गए थे. अभी कल यानी 16 अप्रैल 2011 के डी.एन.ए., मुंबई संस्करण में एक ख़बर मैंने ट्रैक की कि अमिताभ फिर बहुत प्रोफेशनल हो रहे हैं और बहुत ज्यादा काम कर रहे हैं. रिपोर्टर ने लिखा है कि वे अपने व्यस्त शूटिंग कार्यक्रमों के कारण बहुत भागदौड़ और हवाई यात्राएं कर रहे हैं. अंग्रेजी में इसे जेटलैग और चॉक-ए-ब्लॉक शेड्यूल कहा जाता है. वे कभी किसी सामाजिक या राहत के कार्यों में हिस्सा लेते हुए नहीं देखे जाते हैं. कभी वे पुणे और बाराबंकी में किसान बनकर जमीन लेकर विवाद में फँस जाते हैं तो कभी उनके आयकर को लेकर हंगामा खड़ा हो जाता है. बुरी तरह बीमार हो जाते हैं तो सुर्खियों में, विस्तर से उठकर कुछ महीने आराम करने के बाद धुआँधार शूटिंग में व्यस्त हो जाते हैं तो सुर्खियों में.
जे.एन.यू की छात्रा सुष्मिता दासगुप्ता ने अमिताभ पर एम.फिल. का पर्चा Social Construction of A Hero: Images by Amitabh Bachchan और बाद में अपनी पी.एच.डी. का शोध-प्रबंध Sociology of Hindi Commercial Cinema: A Study of Amitabh Bachchan विषय पर पूरा किया. इसे पेंग्विन बुक्स ने Amitabh – The Making of A Super Star नाम से पुस्तकाकार छापा है. सुष्मिता ने बताया है कि शुरू-शुरू में अमिताभ जी उन्हें इस विषय पर पी.एच.डी. करने से यह कहते हुए रोकते रहे कि उनके पर शोध का कोई अकादमिक मूल्य या महत्व नहीं होगा. लेकिन एम.फिल डिजर्टेशन पढ़ने के बाद उन्हें अच्छा लगा और आगे के शोध के दौरान अमिताभ जी के आतिथेय में उन्हें पूरे सात दिन मुंबई स्थित उनके घर प्रतीक्षा में ठहरने का अविस्मरणीय अवसर भी मिला था.
इतनी हैरतअंगेज कामयाबियों के बावज़ूद अमिताभ बच्चन की विनम्रता और अडिग अनुशासन अपने आपमें एक अध्याय है. प्रशस्तियों से अमिताभ की दूरी उनकी भव्यता को असाधारण बनाती है. यदि आप उनका चर्चित ब्लॉग बिगअड्डा विजिट करें तो आपको उसके होमपेज पर ही डॉ.बच्चन द्वारा यीट्स की एक सुंदर और जीवन में उतारने वाली कविता का हिंदी अनुवाद पढ़ने को मिलेगा. अमिताभ बच्चन को पिता की पसंद की कविता कितनी पसंद है. शायद पिता-पुत्र की इस महान जोड़ी की सबसे निराली अदा उनकी विनम्रता में छिपी है जो उन्हें अभेद्य बना देती है. वे जब ख़ुद समीक्षा के लिए प्रस्तुत हों तो कौन उन्हें हरा सकता है. देखिए यह कविता:
मैं आमंत्रित करता हूँ उनको जो मुझको बेटा कहते
पोता या परपोता कहते,
चाचा और चाचियों को भी,
ताऊ और ताइयों को भी,
जो कुछ मैंने किया उसे वे जांचे-परखे-
उसको मैंने शब्दों में रख दिया सामने-
क्या मैंने अपने बुज़ुर्गवारों के वारिस नुत्फे को
शर्मिंदा या बर्बाद किया है?
जिन्हें मृत्यु ने दृष्टि पारदर्शी दे रक्खी
वे ही जाँच-परख कर सकते.
अधिकारी मैं नहीं
कि अपने पर निर्णय दूँ,
लेकिन मैं संतुष्ट नहीं हूँ.
डब्ल्यु.बी.ईट्स, अनुवाद: डॉ.हरिवंशराय बच्चन