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समालोचन

Home » रंग – राग : अवधेश मिश्र (पेंटिग)

रंग – राग : अवधेश मिश्र (पेंटिग)

समालोचन कलाओं का साझा घर है. साहित्य के साथ-साथ पेंटिग, फ़िल्म और संगीत पर भी आप सामग्री यहाँ पढ़ते हैं. चित्रकार रामकुमार के साथ पीयूष दईया की बातचीत आपने पढ़ी इसके साथ ही चित्रकार अखिलेश, कुंवर रवीन्द्र और  प्रतिभा सिंह  के कार्यों को आपने देखा और उनपर आलेख भी पढ़े. इस क्रम को आगे बढ़ाते […]

by arun dev
January 24, 2015
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समालोचन कलाओं का साझा घर है. साहित्य के साथ-साथ पेंटिग, फ़िल्म और संगीत पर भी आप सामग्री यहाँ पढ़ते हैं. चित्रकार रामकुमार के साथ पीयूष दईया की बातचीत आपने पढ़ी इसके साथ ही चित्रकार अखिलेश, कुंवर रवीन्द्र और  प्रतिभा सिंह  के कार्यों को आपने देखा और उनपर आलेख भी पढ़े. इस क्रम को आगे बढ़ाते हुए अवधेश मिश्र  की चित्र-कला पर अन्नपूर्णा शुक्ला  का आलेख पढ़े. और साथ में पेंटिग भी देख सकते हैं.

अन्तस् उजास का चितेरा                        

डॉ. अन्नपूर्णा शुक्ला 

कलाकार के मानस का हंस बहुत ही पाक दामान होता है. वह जो देखता है उसे ही अन्तस में स्थान देता है. वह सत्य और स्पष्टता का अनुयायी होता है. इसीलिए कलाकार के बिम्बों के रूपाकार रंग और रेखाओं के वशीभूत हो जनमानस की आत्मा को एक वैचारिक दृष्टि प्रदान करने के साथ ही रसानुभूति भी कराते है.

कुछ इसी प्रकार की अनुभूतियों को  अवधेश मिश्र अपनी तूलिका से कैनवास पर सजीव करने में अनवरत प्रयासरत है. मिश्र जी का सृजन क्षेत्र बहुत ही विस्तृत है कई माध्यमों से अपनी संस्कारित अनुभूतियों को अभिव्यक्ति कर स्थायित्व प्रदान करते हैं. कभी तूलिका से एक भावपूर्ण चित्रकार के रूप में, कभी कलम से संवेदनीय लेखन के माध्यम से. इससे यह तो स्पष्ट ही होता है कि भाव को प्रवाह चाहिए सो कहीं न कहीं वह अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम खोज ही लेता है. इसलिए मिश्र जी के पास बिम्बों का खजाना है. इस खजाने के मूल में उनके गाँव की रची बसी मिट्टी की सौंधी महक, पेड़ो से छनकर आता अद्भुत प्रकाश, प्रकृति के विविध रूपकारों, के साथ रंगों का अद्भुत संसार, साथ ही अनेक नवीन टेक्चर का सलोना पन. मिश्र जी का बचपन गाँव की स्वाभाविकता में पला-बढ़ा. साथ ही संस्कारों का ताना-बना भी बहुत स्पष्टता लिए हुए है. इसलिए मिश्र जी की कृतियों में बिम्ब प्रकृति के आस-पास से ही प्रेरित होते हैं. जो अनवरत प्रौढ़ होते रहते हैं. जिस प्रकार टैगार ने अपने अथाह बिम्बों को प्रकृति के सान्ध्यि में रहकर समेटा और पल प्रति पल अवसर मिलते ही व्यक्त होते गये, किन्तु पूर्णता उन्हें उम्र के अस्ताचल में आकर  मिली. इसी प्रकार मिश्र जी ने भी अप्रत्यक्ष रूप से अनगिनत बिम्बों का जमधट अपने अन्तस में ही भर लिया था. जो एक संवेदनशील स्थिति की सहज प्रक्रिया होती है. इसी संवेदनशीलता को मनोवैज्ञानिकों ने कलाकार की स्वाभाविक प्रक्रिया बतायी है और कहा है कि संवेदनशील बालक ही बचपन की अथाह स्मृतियों को अन्तस् के झुस्मुट में पोटली बांध कर रखता है और अवसर मिलते ही वह अनेक रूपकारों की अभिव्यक्ति सहज कर समसामायिक दायरे के परिप्रेक्ष्य में संस्कारों की दहलीज पर रेखाओं को रंगों के साथ दमकते प्रकाश की धरा पर नवीन कृतियों को जन्म दे देता है.



इन की कृतियों में प्रकाश का सलोना पन, रंग, रेखाओं के साथ लास्य नृत्य करते हुए से प्रतीत हो रहे है. प्रारम्भ से ही मुझे आप की कृतियों में अद्भुत प्रकाश का सानिध्य मिला जो मुझे बरबरस अपनी ओर आकर्षित करता था. इसलिए आप का हर चित्र ताजगी से भरपूर होता है. वह चाहे रेखा चित्र हो या रंगों से लबालब नवीन ताने बाने से बुने प्रकाश से संयोजित फलक तरो-ताजे प्राथमिक रंगों का कोरा अंकन ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे चित्र के पीछे प्रकाश की किरणे अपना सहयोग प्रदान कर रही है.


किसी भी श्रृंखला में प्रकाश के अद्भुत नजारे का आनन्द इसी प्रकार उठाया जा सकता है. जिस प्रकार – टर्नर के चित्रों को देखकर ताजगी महसूस होती है. उसी ताजगी को मिश्र जी ने फलक पर अंकित किया है.

मैंने मिश्र जी की कृतियों में बचपन का उल्लास गाँव की गमकती सौंधी महक और प्रकृति के अद्भुत छाया-प्रकाश का लावण्य अनुभव किया है. ग्रामीण अंचल की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को संस्कारित करते हुए अपने मन के गवाक्षों से प्रकाश की अनुभूतियों को तूलिका से अर्थ देते हुए नवीन ताने-बाने से ग्रामीण बिम्बों को नवीन सार्थकता प्रदान करते हुए अद्भुत सृजन में लगे हैं. उनके अन्तः करण में विस्थापित स्मृतियों का झुरमुट कैनवास पर इस प्रकार रूपायित होता है कि ग्रामीण अंचल की सहजता उल्लास भर-भर छलकने लगती है. इस छलकन में विविध नवीन सतहों की नवीन बुनावट छाया-प्रकाश से और भी दमक उठती है.



उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले के मठगोविन्द गाँव से बाल बिम्बों को समेटते हुए, अनुभूतिया जब बनारस की छटा से प्रवेश करती हैं तो यही बल मन के बिम्ब का युवावस्था में झूम-झूम जाते है और कला प्रशिक्षण से अपने अन्त्स के स्थिर भावों को जब विस्तार मिला जो रंग और रेखाओं के उपरान्त शब्दों का भी रचना संसार सृजित कर रुहेलखण्ड युनिवर्सिटी से डाक्टरेट उपाधि प्राप्त की. इतना सशक्त रचनाकार जिसमें पास रंग रेखाओं के साथ शब्द भण्डार भी असीमित है. इस प्रकार इस अद्भुत संस्कारी युवा के लिए अनेक सम्मान, स्कालरशिप, देश-विदेशों में चित्रों की प्रदर्शनी यह सभी प्रतिभाशाली रचनाकार के फुट प्रिन्ट के समान होते हैं.

कहते है कि रचना रचनाकार की प्रतिकृति होती है यह मुझे अनुभूत तब हुआ जब मैं एक दशक बाद मिश्र जी से मिली. तब मुझे वही सौम्यता, वही सहजता उनमें स्पष्ट दृष्टिगत हुए जो उनकी अनगिनत कृतियों में समाहित है.

उनसे मिलने के बाद उनका रचना संसार सहज की अन्त्स में स्वतः कौन्ध गया जितना सौम्य उनका व्यक्त्त्वि, उनके संस्कार उतनी ही सौम्य उनकी रचनाएं भी.
किन्तु इस सौम्यता में जो गहरायी मुझे देखने को मिली वह उनकी रचना धर्मिता में भी सहज ही साकार होती हुयी प्रतीत होती है इनकी रचनाओं में अन्त्स की गहरायी भावों को सहज रूपायित तो करती है किन्तु दर्शक पर उतनी ही गहरायी से विचारों की सतह को नमी प्रदान कर जाती है दर्शन भाव विभार हो विचारों के मन्थन में तनमय हो अनुभूति के वार्तालाप को आत्मसात करता है.

अर्थात् कभी मिश्र जी मूर्त से अमूर्त होते बिम्बों की यात्रा के सहचर होते है तो कभी अमूर्त से मूर्त के बिम्बों के सहयात्री होते हैं. किन्तु इस बीच कभी भी मिश्र जी अपने सौम्यता, सहजता से विलग नही हुए अपने अन्तस के वैचारिक संवाद को अनवरत विस्तार देते हैं. आपके प्रारम्भिक चित्रों में रंग, रेखाओं का झुरमुट स्पष्ट होता हुआ दिखायी देता है. रेखाएं आपसी संवाद में तन्मय हो रंगों के साथ नवीन प्रवाह कैनवास पर प्रसारित रकती हुयी प्रतीत होती है.

किन्तु बाद में चित्रों में जब मिश्र जी की वैचारिकता के बिम्ब, प्रौढ हुए उनके अन्तस में सामजिक अस्पष्टता जब स्पष्ट हई तो शब्दों की यात्रा के साथ ही अन्त्स के भाव बिम्ब भी स्पष्ट हुए. यही सहजता और मूर्ततन पूर्ण प्रतीकात्मक हो, बाद में कैनवास पर स्पष्ट विचारों के साथ रंग और रेखाओं से सृजित किये गये. इस समय के चित्र में मिश्र जी की रचना प्रक्रिया के अनन्त विस्तार के द्योतक है जब आप इनके अस्पष्ट बिम्बों के अन्दर जाने का रास्ता खोजेंगे या उनकी कृतियों से वार्तालाप करंगेे तो आप को लगेगा की आप स्वयं कलाकार की उन अनछुयी अनुभूतियों तक पहुंच गये हैं. जिसे कलाकार ने इसी समाज से ही चुना है और दर्शक का चित्र के साथ तादात्म्य स्थापित हो जाता है. यह दर्शक के साथ कृति की एकात्मता ही रसानुभूति है.

जैसे- मिश्र जी को सामाजिक पहलुओं की अनुभूति होती गयी. उसे वे मन में स्थापित बिम्बों के साथ जोड़कर कैनवास पर उकेरते गये. एसी ही श्रृंखला ‘बिजूका’ है इसको मिश्र जी ने बहुत ही विस्तृत आयामों में अपने कैनवास का विषय बनाकर समाज को एक नवीन दृष्टि दी है और इस श्रृंखला को संवदनीय पहले से जोड़ा है साथ ही राजनीति के विभिन्न रंगों को उसमें समाहित किया है. यही सभी आत्मिक संवाद मिश्र जी ने अपने अन्तस की अद्भुत विरासत से कुछ रेखाओं को रंगो से भर कर कैनवास पर प्रतीकात्मक रूप से साकार किया है. यह इतनी सूक्ष्म अभिव्यक्ति है जिसे मिश्र ने सुन्दर संयोजन, स्पेश और और रंगों की गरिमा से मण्डित किया है.

मिश्र जी के चित्रों में प्रकाश का उत्स सहज ही प्रस्फुटित सा प्रतीत होता है. रेखाएँ लास्य नृत्य करती हुयी मुधर तान को आत्मसात कर लय और ताल के मध्य एक तादात्म्य स्थापित करती है. चित्रों का संयोजन स्वतः ही सृजित हुआ है. किसी चित्र को अनावश्यक ढंग से नहीं सृजित किया गया है. मिश्र जी के मन के गवाक्ष में जो आया वह सहज ही अभिव्यक्त हुआ है. कुछ भी बनावटी नहीं है. उसमें जो प्रमुख है वह ग्रामीण सहजता का भाव है. इतनी यथार्थवादी आत्मिक अभिव्यक्ति होने पर भी अन्त्स के बिम्बों की यात्रा में सार्थक बिम्ब ही विषयानुरूप रंगों से छाया-प्रकाश के माध्यम से व्यक्त हुयी है. विषय में अनुरूप ही हमारी सांस्कृतिक संवेदनशीलता को सहज ही कैनवास पार स्थान दिया है.



अन्त में अगर यह कहा जाये कि मिश्र जी पारम्परिक लोग कला के दृष्टा है या अमूर्तन को ही चित्रित करते है, या विषयवस्तु का इनकी कृतियों में बाहुल्य है, तो उचित न होगा. इन सभी विषयों की सजता ही इनके रचना संसार का मूल मंत्र है. सबसे बड़ी विशेषता है मिश्र जी में चित्रों में अद्भुत प्रकाश का अंकन जो स्पेश एवं टेक्चर को और भी प्रभावशाली संतुलन प्रदान करता है. रेखा और रंगों का निरर्थक प्रलोभन नहीं है. जितना सहज व्यक्तित्व है. उतनी ही सहज कैनवास की विषय वस्तु भी है. जो अमूर्त होते हुए भी जनमानस के अन्त्स को झकझोर जाती है. चित्र पारम्परिक होकर भी परम्परा से विलग हैं अमूर्त होकर भी मूर्तन के राग, अलापते नजर आते हैं. कैनवास पर रंगों का बाल पन स्वयं प्रौढ़ होता हुआ दिखायी देता है.इस प्रकार मिश्र जी ने अपने अन्त्स की संवेदना को प्रारम्भिक चित्रों से लेकर ‘स्कूलडेज’ एवं ‘बिजूका’ तक का सफर आसानी से रंग रेखाओं के ताने-बाने से सार्थक सिद्ध किया गया है.फलक पर जो प्रकाश की छनछनाती किरण दिखायी देती है. वह इनके सौम्य व्यक्तित्व को स्पष्ट अंकित करती हुए सी प्रतीत होती है.
________________________

डॉ. अन्नपूर्णा शुक्ला
असिस्टेन्ट प्रोफेसर
चित्रकला विभाग/वनस्थली विद्यापीठ/मो.नं.9351636365
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