कुंवर रवीन्द्र जन चित्रकार हैं सिर्फ इसलिए नहीं कि उनके चित्रों के विषय आम जन के सरोकारों से जुड़े हैं बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने आम जन के लिए चित्र बनाएं हैं. शायद ही कोई ऐसा कवि रचनाकार होगा जिसका आत्मचित्र रवीन्द्र ने न उकेरा हो. कविता पोस्टरों में अनगिनत कविताएँ उनके रंगों के साथ जुगलबंदी करती हैं. हिंदी में निकलने वाली पत्रिकाओं के वह आज सबसे अधिक जाने पहचाने आवरण सज्जाकार हैं. हिंदी का आम रचनाकार अपनी पुस्तक के आवरण के लिए उनसे अनुरोध कर सकता है. रचनाकारों के बीच रवीन्द्र की सहज उपस्थिति ने साहित्य और पेंटिग के बीच मजबूत पुल का निर्माण किया है.
रवीन्द्र ने अब तक १७००० हजार रेखांकन और पेंटिग बनाये हैं. उनके कई एकल और सामूहिक ‘चित्र – प्रदर्शन’ आयोजित हुए हैं. इसके साथ ही वह एक कवि भी हैं. उन्हें पेंटिग के लिए मध्य प्रदेश का सृजन सम्मान और बिहार से कला रत्न सम्मान प्राप्त है.
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“कुँवर रवीन्द्र के चित्र देखकर मुझे बार बार भरतमुनि का \’\’ चित्रग्यश्चित्रकारो \’\’स्मरण हो आता है. अर्थात चित्रकार वह है जो चित्र कर्म के नियमों, विविध रंगों के सम्मिश्रण आदि तो जाने ही ,चित्रकला की सामाजिक संवेदना भी जानता हो. भरतमुनि का यह कथन कि नीले रंग पर कोई दूसरा वर्ण नहीं चदता \’\’बलवान सर्व वर्णानां नील एवं प्रकीर्तितः \’\’ भी आपके कल्पनाशील मन की गगन सदृश्य नीलिमा पर लागू होता है. हमारे समकालीन समय और समाज में रवीन्द्र सृजनात्मक सक्रियता विस्मित करने वाली है.“
अग्निशेखर (वरिष्ठ साहित्यकार)
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“रंगों और आकृतियों का एक नया संसार रचते हैं कुंवर रवींद्र. नीला हो या हरा या पीला अथवा कत्थई रंगों का सम्मिश्रण, उनके चित्रों में एक अद्भुत धूपछांव वाला प्रभाव पैदा करता है. रेखाएं बोलने-बतियाने लगती हैं. अधिकतर ये चित्र मूर्त होते हैं, लेकिन अमूर्तन के चित्रकार भी हैं कुंवर रवींद्र. लगता है कि नीला उनका प्रिय रंग होना चाहिए. उनके बनाए बहुत से चित्रों में नीला रंग देखने को मिलता है. कैनवास पर चित्र की पृष्ठभूमि में एक पतली- सी चिड़िया, जो कई बार पत्ती होने का भ्रम पैदा करती है, उनके सिग्नेचर मार्क की तरह देखी जा सकती है. उनकी आकृतियां ठोस होती हैं. इन आकृतियों की ज्यामिति देखने लायक होती है और उसका अर्थपूर्ण संयोजन आपको विस्मय से भर देता है. कुंवर रवींद्र की संरचना के पीछे गहरी दृष्टि होती है.”
नील कमल (युवा कवि)
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“अपना portrait देख कर मुझे खुशी हुई. के. रवीद्र को न तो धन्यवाद दूंगा. न आभार व्यक्त करूंगा.उनके प्रति मेरा स्नेह दशकों से रहा है. यह शायद उसी की कलात्मक अभिव्यक्ति हो मेरे लिये. मेरा चित्र कला का कण- भर ही ज्ञान है. portrait बनाना सबसे कठिन काम है. यहाँ कला की अनुपातिकता या कहें proportions का सबसे अधिक ध्यान रखना पड़ता है. नही तो आदमी का चेहरा चिमपांजी या बंदर के चेहरे में बदल सकता है. रवीद्र जिस सहजता और प्रतिमानी ढंग से बनाते है वो उनकी चित्र कला- मेधा को बताता है. अमृता शेरगिल के स्त्री portrait भी असरदार होते है. पर उनमें मुझे एकरसता महसूस हुई. रवीन्द्र इस दृष्टि से सिद्धहस्त है. यह मै पहले भी कह चुका हूँ की रवीन्द्र एक मौलिक और दृष्टिवान चित्रकार है. उनकी जड़ें लोक जीवन में गूँथी-बिंधी है. दूसरे, सबसे बड़ी बात है उन्हों ने अपनी चित्र कला को बाज़ार के प्रभाव से अभी तक अलग रखा है. आज चित्र कला और संगीत सब से अधिक बिकाऊ कलाएं है. रवीन्द्र सुकवि होने के नाते अपने को शायद इस प्रभाव से बचा पाये हों. मै उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ “—
महेश पुनेठा
आपको चित्र कला का शौक कब से है (किस उम्र से चित्र बनाना आरंभ किया) ? परिवार में कला साहित्य के प्रति कैसा रुझान था ? * आपकी प्रेरणा क्या रही इस साधना के पीछे ?
कुंवर रवीन्द्र
पहले मैं स्पस्ट कर दूं कि मुझे रंगों रेखाओं के शास्त्र का ज्ञान नहीं है , मैं सिर्फ साक्षर हूँ.मेरा परिवार काफी सस्कृति सम्पन्न रहा है और वहीं से मुझे संस्कार मिले , मैं चौथी क्लास में पढता था तब मेरे पिता श्री रविरंजन सिंह जी हिन्द पाकेट बुक्स की घरेलू लाइब्रेरी योजना के सदस्य थे , प्रति माह 6 पुस्तकें आती थीं हम बच्चों के लिए चंदामामा , नंदन बाल पत्रिका अलग से आती थी . चंदामामा पढ़ते पढ़ते अचानक एक दिन चोरी से आचार्य चतुर सेन का उपन्यास वैशाली की नगर वधु पढ़ डाला व इतना भाया कि बस उसके बाद उनके सारे उपन्यास यहाँ तक कि यशपाल, गुरुदत्त, राहुल सांस्कृत्यायन , मोहन राकेश, धर्मवीर भारती को भी पढ़ डाला समझ बूझ तो थी नहीं बस बतौर कहानी पढ़ने में आनंद आता था . मेरे पिता को नाचना,गाना, बजाना कुछ नहीं आता था परन्तु उनकी पाँच लोगों की एक मित्र मंडली थी जिसमें एक वायिलीन वादक , एक चित्रकार थे जे. जे. स्कूल मुंबई से निकले, ये सभी लोग प्रत्येक रविवार को किसी एक के घर शाम को बैठते फिर कविता पाठ,कहानी पाठ , किसी पत्रिका में छपी कहानी या उपन्यास चर्चा /बहस होती उसके बाद कोइ लोटा कोइ गिलास ले उसे ही वाद्द्य यंत्र बना कर गाना बजाना होता . उन्हीं में से एक थी गायतोंडे चाचा जो चित्रकार थे उन्हें पेंटिग करते हुए देखना मुझे बहुत भाता था और सोचता कि मैं ऐसा क्यों नही बना सकता बस तभी से आड़ी – तिरछी लाइने खीचना शुरू किया तब मैं सातवीं क्लास में था. नौवीं क्लास पहुँचने तक घोडी-हाथी , कुत्ते-बिल्ली , फूल-पत्ते बनाने लगा था इसी बीच पिता जी का स्थानान्तरण रायपुर से कस्बेनुमा छोटे शहर पिथौरा में हो गया जो गोंड राजा की स्टेट थी , लगभग एक माह बाद ही पिता जी ने बताया [ तब तक वे मेरी रुची से परिचित हो चुके थे ] कि यहाँ के जो जमीदार साहब है प्रताप सिंह जी वे बहुत बड़े आर्टिस्ट हैं उनसे जाकर किसी दिन मिल लो . दो तीन माह पश्चात एक दिन लजाते लजाते मिलने पहुंचा , अदभुत व्यक्तित्व था उनका जमीदार होते हुए भी शुद्ध वामपंथी, जे .जे. स्कूल में आनरेरी प्रोफ़ेसर रहे , एन.एस. बेंद्रे के सहपाठी और अभिन्न मित्र ,बड़े भाई जिन्हें गद्दी मिली थी कि मृत्यु हो जाने के कारण न चाहते हुए भी मुंबई छोड़ कर गाँव में रहने आ गये थे , खैर तो समझ लीजिये उसी समय [१९७४-७५] जो थोड़ी बहुत जानकारी या गाईडेंस मिला वही मेरी प्राप्त शिक्षा है
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कुंवर रवीन्द्र
एफ -६, पी डब्ल्यू डी कालोनी
कटोरा तालाब
रायपुर (छतीसगढ़)
४९२००१
k.arvindrasingh@yahoo.com