भुवन सोम (1969) को देखते हुए यह अहसास होता है कि रफ्तार और उन्नत तकनीक ने हिंदी सिनेमा को कहाँ-से-कहाँ पहुंचा दिया है. आज चेतना में धीरे–धीरे घुलती, सौन्दर्यबोध को समृद्ध करती और मनुष्यता का वृतांत रचती ऐसी फिल्में संभव नहीं है, आश्चर्य नहीं कि आज का दर्शक ‘भुवन सोम’ को डाक्यूमेंट्री समझ बैठे.
दादा साहब फालके सम्मान से सुशोभित मृणाल सेन (14 May 1923) 95 वर्ष के हो चले हैं. जब भी समानांतर सिनेमा की बात होती है कथाकार बनफूल के बांग्ला लघु उपन्यास भुवन सोम (प्रकाशन:1955-56) पर इसी नाम से बनी मृणाल सेन की यह फ़िल्म सामने आ खड़ी होती है. इस फ़िल्म को उस समय सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म, सर्वश्रेष्ठ निर्देशन तथा सर्वश्रेष्ठ अभिनेता (उत्पल दत्त) के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों से विभूषित किया गया था.
यादवेन्द्र मृणाल सेन और भुवन सोम को फिर से देख परख रहे हैं.
मृणाल सेन के बहाने भुवन सोम
यादवेन्द्र
(मृणाल सेन) |
सबसे पहले एक बात स्पष्ट कर देना जरुरी है – बांग्ला भाषा के हिज्जे के अनुसार फ़िल्म का शीर्षक \”भुवन शोम\” है, अंग्रेजी में भी शोम कहते लिखते हैं पर वास्तविक फ़िल्म में सूत्रधार बने अमिताभ और नायिका सुहासिनी मुले बोलते \”सोम\” हैं इसलिए मैंने भी \”भुवन सोम\” लिखा \”भुवन शोम\” नहीं.
आज महीनों बाद एकबार फिर ऑंखें नम हुईं और इत्तेफ़ाक से घर पर अकेला होने के नाते मैंने उनको बह कर शुद्ध हो जाने से रोका नहीं – खुद के साथ यह आत्म साक्षात्कार मृणाल सेन की पहली हिंदी फ़िल्म \”भुवन सोम\” देखते हुए हुआ. अभी कुछ दिन पहले मृणाल सेन ने जीवन के 95 वर्ष पूरे किये हैं और तब से मेरी इच्छा उनकी दो फ़िल्मों \”भुवन सोम\” और \”खंडहर\” फिर से देखने की थी. वैसे तो अनेक फ़िल्म समीक्षक मृणाल दा को वामपंथी विचारधारा वाला राजनीतिक फ़िल्मकार मानते हैं पर मुझे उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि वाली चर्चित फ़िल्मों की फेहरिस्त में ये दो नितांत अराजनीतिक फ़िल्में खूब पसंद हैं – भारत के मध्यवर्ग में उपस्थित मानवीय संबंधों और संवेदनाओं का नाटकीयता या अतिरेक में गए बिना जो रेशमी तानाबाना नितांत सहज रूप में ये फ़िल्में बुनती हैं हिंदी सिनेमा में उनका जोड़ मिलना दुर्लभ है.
1968 – 69 में बनी \”भुवन सोम\” भारत के समानांतर सिनेमा आंदोलन की ध्वज वाहक मानी जाती है जिसके बारे में मैंने छात्र जीवन में अरविंद कुमार के सम्पादन में निकलने वाली प्रमुख फ़िल्म पत्रिका \”माधुरी\”में पढ़ा था – तब आज की तरह टीवी और इंटरनेट थे नहीं और भागलपुर जैसे बिहार के एक छोटे शहर में दिन में एक शो (वह भी मुश्किल से तीन चार दिन) में देखने के सिवा और कोई विकल्प नहीं था. यदि इम्तिहानों का समय हो तो माँ पिताजी द्वारा फ़िल्म देखने की इजाज़त मिल जाए इसकी भी संभावना खत्म.
तब \”माधुरी\” ने समानांतर सिनेमा पर एक विशेषांक निकाला था जिसमें हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओँ में बनी कलाप्रधान प्रयोगात्मक फ़िल्मों का सचित्र लेखा जोखा था, हमारी उम्र के स्कूल में पढ़ रहे किशोरों के लिए वह ज्ञान से भरपूर बाइबिल की तरह थी. और लगभग सभी फ़िल्में भारत सरकार के प्रतिष्ठान नेशनल फ़िल्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन (एन. एफ. डी. सी) की वित्तीय मदद से बनी थीं. आज इन दोनों में से कोई भी जिंदा नहीं है पर भारतीय सिनेमा के विकास में ये मील के पत्थर साबित हुए. \”भुवन सोम\” का क्रेज हमारे मन में इसलिए भी ज्यादा था कि इस कहानी के लेखक का घर भागलपुर में हमारे स्कूल के पीछे था हाँलाकि बरसों पहले वे वहाँ से कोलकाता चले गए थे पर नगरवासियों के लिए बनफूल की कहानी पर फ़िल्म बनी है यह बड़ी गौरवपूर्ण व आह्लादकारी खबर थी. मैंने 1970 में मैट्रिक पास किया, फ़िल्म पहली बार उस से साल भर पहले देखी थी …. सोचता बार-बार रहा पर दुबारा देखने का मौका कोई पचास साल बाद आया हाँलाकि बन्दूक का निशाना चूक जाने पर सुहासिनी मुले की खिलखिलाहट मानस पटल पर निरंतर जीवित रही.
इस फ़िल्म के साथ बहुत सारे प्रथम जुड़े हुए थे – बतौर निर्देशक मृणाल सेन पहली बार हिंदी समाज के सामने उपस्थित हुए थ, उत्पल दत्त भले ही जाने माने बांग्ला थियेटर ऐक्टर माने जाते थे पर हिंदी सिनेमा के लिए प्रथम थे और ऐसे ही सुहासिनी मुले थीं. सुहासिनी का जन्म बिहार में हुआ था यह किशोर मन का अतिरिक्त आकर्षण था. आज के महानायक अमिताभ (बच्चन) फ़िल्म में कहीं दीखते तो नहीं पर उनकी खनकती हुई आवाज़ से हिंदी समाज पहली बार रु- ब- रु हुआ और जगह जगह यह चर्चा मिलती है कि अपनी आवाज़ के लिए अमिताभ को तब तीन सौ रु मिले थे.
सामानांतर सिनेमा को श्वेत श्याम छायांकन के जरिये काव्यात्मक ऊँचाई तक ले जाने वाले के. के. महाजन का भी यह पहला कदम ही था. 1996 में प्रकाशित अपने एक बहुचर्चित इंटरव्यू में महाजन ने विस्तार से \”भुवन सोम\” की लगभग पूरी शूटिंग कुदरती रोशनी में करने का वृत्तांत बताया और कमरे के अंदर के एकाध दृश्यों में सुहासिनी मुले के चेहरा दिखाई देता रहे इसके लिए छत से एक दो ईंटें हटा कर रोशनी का जुगाड़ करने के बारे में खुलासा किया.
फ़िल्म ऊपरी तौर पर अंग्रेजों के जमाने के एक बेहद ईमानदार पर रूखे सूखे सख्त मिजाज रेलवे अफ़सर भुवन सोम के 25 साल की नौकरी से मन बदलने के लिए चिड़ियों के शिकार के लिए गुजरात के आदिवासी इलाके में निकलने की कथा है पर दो तीन दिनों का यह शिकार खूबसूरत प्राकृतिक परिवेश और उनके बीच रहने वाली एक खूबसूरत व निश्छल युवा स्त्री के साथ रहने पर उसकी आंतरिक दुनिया कैसे बदल देता है इसका कवित्वपूर्ण विवरण है….वह बाबू शक्ल सूरत और नाम से भले वही लगे पर अंदर से उसकी शुष्कता और दूसरों के लिए हेठी भावनात्मक संवेगों की ऊष्मा से मक्खन की तरह पिघल जाती है. यह अकारण नहीं है कि निर्देशक बड़े शहर से आये साहब के पतलून कमीज़ और हैट तक उतारने और उसकी जगह ठेठ गंवई काठियावाड़ी परिधान और बड़ा सा पग्गड़ पहनाने की जिम्मेदारी उस स्त्री को सौंपता है जो अंततः उस रेतीले बियावान में हरा भरा पेड़ तक बना डालती है और यह काम सुहासिनी ने पहली फ़िल्म होते हुए भी बड़ी कुशलता से किया है.फ़िल्म और निर्देशन के लिए स्वर्ण कमल पुरस्कार जीतने के साथ साथ उत्पल दत्त ने इंसानी भावान्तरण की लाजवाब अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है, उन्हें भी वर्ष का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया. अभिनय की ताज़गी और परिवेश का सौंदर्य तो फ़िल्म की ताकत हैं ही, के. के. महाजन का कैमरा और विजय राघव राव का संगीत जादू रचने में बराबर की भूमिका निभाते हैं.
शिकार मारने में असफल उत्पल दत्त (सोम साहब) को देख कर सुहासिनी मुले(गौरी) का खिलखिलाकर हँसना 50 साल से मेरे मन में ज्यों का त्यों बसा हुआ था, आज फिर उस दृश्य को देखना मुझे अपनी मैट्रिक पूर्व की किशोरावस्था में ले गया – वैसी पारदर्शी हँसी मैंने न असल जीवन में कभी देखी है न किसी अन्य फ़िल्म में.फ़िल्म के अंत से पहले जब सोम साहब बन्दूक की गोलियों की गूँज से डरा हुआ पक्षी गौरी को सँभालने के लिए देने वापस गाँव आते हैं…. यह उनके शिकार के एडवेंचर का इकलौता हासिल और प्रमाण है और उसे अपने साथ ले जाते हुए अधरास्ते वे लौट आते हैं, बल्कि गौरी की पारदर्शी निश्छलता उन्हें उलटे पाँव खींच लाती है. अपने कामचोर बेटे तक को नौकरी से निकाल डालने वाले एकदम नीरस और खड़ूस माने जाने वाले सोम साहब इस निश्छल स्त्री की सरलता के रस में इतने डूब जाते हैं कि उन्हें लगता है प्रकृति से एकाकार होकर रहने वाली वह स्त्री पक्षी की परवरिश ज्यादा अच्छी तरह कर पाएगी, वे नहीं.
फ़िल्म बगैर बड़बोला हुए यह बड़े प्रभावी ढंग से रेखांकित करती है कि अच्छे मनुष्यों के सहज साथ का अपरिभाषित असर होता है और इसकी दरकार हर किसी को होती है चाहे वह ऊपर से कितना रूखा सूखा क्यों न दिखता हो…अपनेपन के शुद्ध ताप में सोम साहब का पिघलना फ़िल्म का ऐसा क्षण है जो किसी की संवेदनाओं को छुए बिना नहीं गुजर सकता. नाक पर मक्खी तक को न बैठने देने वाला इंसान अंदर से कितना नेक और सरल है यह देखते हुए आज इन पलों से एक बार गुजरा, दो बार …तीन बार…चार बार …और हर बार भावविभोर होकर खुद अपने जल से ही भीगता रहा.
बैलगाड़ी पर बिठा कर जो गाड़ीवान (सींगदाना) सोम साहब को शिकार के लिए ले जाता है उसका स्वनिर्मित शैली में \’चाहे कोई मुझे जंगली कहे\’ गाते गाते भैंसे से आमना सामना हो जाने वाला प्रसंग बहुत बढ़िया बन पड़ा है…और जिस भैंसे से डर कर गाड़ीवान और शिकार को निकली बंदूकधारी सवारी जान बचाते फिरते हैं आराम से उसको पकड़ कर पीठ पर बैठ जाने वाली गौरी स्त्री सशक्तिकरण का सार्थक प्रतीक है. इसी तरह नदी का रास्ता बताने के लिए एक गाँव वासी को पैसे पकड़ाने की कोशिश गाँव और शहर के बीच की भावनात्मक खाई को असरदार ढंग से रेखांकित करती है.एक तरफ़ जिस निश्छल स्त्री के चलते भुवन सोम का सब कुछ बदलता जाता है तो कथा के दूसरे छोर पर बैठा उसी स्त्री का पति बेईमान टिकट कलेक्टर साधु मेहर है जो क्षमादान को बेहतर कमाई के अवसर के तौर पर लेता है – मानव व्यवहार की इस गुत्थी को बगैर छेड़छाड़ मृणाल सेन फ़िल्म में पिरोए रखते हैं – यह कथालेखक का नजरिया है.
कुछ समीक्षक और सत्यजीत राय जैसे फिल्म निर्देशक इस मुद्दे पर मृणाल सेन को घेरते हैं – सत्यजीत राय ने इस बारे में बहुप्रचारित प्रतिक्रिया दी थी : \”एक बुरा बड़ा हाकिम जिसको गाँव की एक सुंदरी सुधार देती है.\” अपनी भिन्न शैलियों के लिए विख्यात दोनों फ़िल्मकारों के बीच विरोध हाँलाकि बहुत मुखर कभी नहीं हुआ पर दीपंकर मुखोपाध्याय ने अपनी किताब \”मृणाल सेन : सिक्सटी ईयर्स इन सर्च ऑफ़ सिनेमा\” में भुवन सोम सहित कुछ प्रसंगों का जिक्र किया है.
सत्यजीत राय की टिप्पणी के जवाब में लिखा है कि भुवन सोम को जो लोग एक रूखे सूखे इंसान के मानवीकरण के आख्यान के तौर पर देखते हैं वे भ्रम में हैं …. इसके उलट फ़िल्म बनाते समय हमारी कोशिश थी कि हम अंग्रेजों के ज़माने की विक्टोरियन मानसिकता वाले हाकिम के ईमान में सेंध लगा दें….. बेईमान (करप्ट) बना दें.
ज़ाहिरहै यहाँ बेईमानी एक रूपक की तरह प्रयोग में लाया गया है जो इंसानी परिस्थितियों का संज्ञान लेने वाली कम सख़्त नियम कानूनों की ओर इशारा करती है.
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yapandey@gmail.com
सत्यजीत राय की टिप्पणी के जवाब में लिखा है कि भुवन सोम को जो लोग एक रूखे सूखे इंसान के मानवीकरण के आख्यान के तौर पर देखते हैं वे भ्रम में हैं …. इसके उलट फ़िल्म बनाते समय हमारी कोशिश थी कि हम अंग्रेजों के ज़माने की विक्टोरियन मानसिकता वाले हाकिम के ईमान में सेंध लगा दें….. बेईमान (करप्ट) बना दें.
ज़ाहिरहै यहाँ बेईमानी एक रूपक की तरह प्रयोग में लाया गया है जो इंसानी परिस्थितियों का संज्ञान लेने वाली कम सख़्त नियम कानूनों की ओर इशारा करती है.
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