वरिष्ठ लेखक-आलोचक प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल२५ अगस्त २०१५ को अपने सक्रिय जीवन के साठ साल पूरे कर रहे हैं. इस अवसर पर उनकी तीन किताबें लोकार्पित हो रही हैं – किया अनकिया (प्रतिनिधि संकलन), स्कोलेरिस की छाँव में (निबन्ध- संकलन), और बदली सूरत वक़्त की, बदली मूरत वक़्त की (फिल्म एवं धारावाहिक समीक्षाएँ).
प्रस्तुत आलेख ‘बदली सूरत वक़्त की, बदली मूरत वक़्त की’ में शामिल है, इस आलेख पर श्याम बेनेगल की टिप्पणी भी आप पढ़ सकते हैं.
समालोचन की ओर से बधाई और शुभकामनाएं.
सत्यजित राय का इतिहास बोध
पुरुषोत्तम अग्रवाल
सत्यजीत राय की फ़िल्मों में भी ‘पाथेर पंचाली’ के अप्पू और दुर्गा सहजता के देहधारी रूप हैं तो ‘शतरंज के खिलाड़ी’ का कलुआ एक बेचैन सवाल कि ‘कोई लड़ता ही नहीं, कोई बन्दूक नहीं चलाता’. लेकिन यहाँ ‘शाखा प्रशाखा’ का अंतिम दृश्य याद करें, वह वृद्ध जिसने परिश्रम और ईमानदारी से सम्पन्नता और प्रतिष्ठा अर्जित की है, जिसका सेंस ऑफ एचीवमेंटस सिर्फ अपने आप तक सीमित नहीं है बल्कि जो समाज के साथ जुड़ाव महसूस करता है, ऐसा वृद्ध अपने बच्चों से दूर होता चला जा रहा है. उन बच्चों से जिनकी कामयाबी के पैमाने बदल गए हैं. इस बदलाव के सामने उस वृद्ध को सबसे निर्मम ढंग से लाता है एक बच्चा, जो अच्छाई या निष्पाप अबोधता का नहीं, ठेठ व्यावहारिक और दुनियादारी का प्रवक्ता है जो दादा की कमअक्ली पर तरस खाता हुआ उसे दो नम्बर के पैसे का मतलब समझाता है. इस तेज रफ्तार वक़्त में मेहनत, निष्ठा और सामाजिक सरोकार की संगति बैठती है पागलपन से, प्रतिष्ठा और उपलब्धि का मेल बैठता है विशुद्ध स्वार्थ लिप्सा से, दुनियादारी जिसका दूसरा नाम है. इस दुनियादारी से आतंकित ‘शाखा-प्रशाखा’ का वृद्ध अपने उस बेटे से निकटता महसूस कर पाता है जो कि अर्द्धविक्षिप्त है.
‘शाखा प्रशाखा’ से उभरने वाला यह वक्तव्य बहुत भीषण है, लेकिन क्या आत्यंतिक और अप्रासंगिक भी है? इतिहासबोध की चर्चा नितान्त समकालीन अनुभव पर कशमकश से शुरू करना इसलिए जरूरी है क्यों कि इतिहासबोध का स्वरूप जीवन- दृष्टि और सरोकारों के स्वरूप पर निर्भर करता है. अकादेमिक अनुशासन के रूप में भी इतिहास का अर्थ सिर्फ अतीत के आख्यान तक सीमित नहीं होता; और अतीत का आख्यान करने वाले अनुशासन के रूप में भी इतिहास समकालीन दबावों से और आग्रहों से पूरी तरह मुक्त भला कहाँ हो पता है? इस संदर्भ में जरा उस उलझन को याद करें जो कलाकर्मी को विचार या वाद-विशेष में रिडयूस करने को उतावले अध्येताओं के सामने राय की फ़िल्में लगातार पेश करती रही हैं.
राय की जीवन दृष्टि किस विचारधारा से परिभाषित होती है, यह सवाल बड़ी गम्भीरता से किया जाता है. इस संदर्भ में बेतुके सवाल बड़ी गम्भीरता से पूछे जाते हैं. प्रबोधन और नवजागरण के संस्कार, राय में सब बहुत गहरे हैं. लेकिन क्या राय मनुष्य को सृष्टि का भोक्ता या स्वामी मानने वाले सीमित बल्कि भ्रामक अर्थ में “मानवतावादी” हैं? नहीं, उनके मानवतावाद में टैगोर के निकट संपर्क से आया, भारतीय चिंतन-परंपरा का सार निहित है, जो ‘सबार उपरि मानुष सत्य’ मानने के कारण ही, सारी सृष्टि के प्रति मनुष्य के विशेष दायित्व-बोध को कभी नहीं भूलता. मानव का यह बोध उपभोक्तावाद की ओर नहीं बल्कि प्राकृतिक और सामाजिक पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता की दिशा में जाता है.
इसी तरह, समकालीन अनुभव की विकृतियों की—आधुनिकता– की तीक्ष्ण आलोचना जब सत्यजित राय करते हैं तो क्या वे परम्परावादी हैं? परम्पराओं के प्रति सरलीकृत मोह से मुक्त होने के कारण क्या उन्हें आधुनिकतावादीकहना उचित नहीं? क्या वे लगभग कम्युनिस्ट या कम से कम मोटे तौर पर वामपंथी है? इनमें से किसी भी शब्द को यदि राय की जीवन दृष्टि का विशेषण बनाया जा सके तो उनके कलाकर्म में निहित इतिहासबोध को समझने की कुंजी भी मिल ही गई समझ लो. सौभाग्य से राय के अपने शब्दों में, “सरलीकृत लक्ष्यों में उनकी दिलचस्पी कभी नहीं रही” . इसीलिए स्वाभाविक रूप से उनकी कला भी सरलीकृत विचारवाद के लिए उलझनें ही पैदा करती है. लेकिन फिर भी कला को विचार में रिड्यूस कर देने के इस उतावलेपन का अपना तर्क तो है ही और इस तर्क को समझना जरुरी है. यह तर्क असल में इस लोकप्रिय धारणा पर आधारित है कि कोई भी कला जीवन से अपने बलबूते टकरा ही नहीं सकती है. वह किसी न किसी विचारधारा या वाद का भावानुवाद भर हो सकती है. दूसरे शब्दों में
ब्रह्म निरूपण आचार्यों का काम है, कवियों का काम इस निरुपित ब्रह्म को भावगम्य बनाने तक सीमित है. जो कवि या कलाकार ब्रह्म को खुद अपनी आँखों से देखने की गुस्ताखी करे, वह उद्दंड है, धृष्ट है, अनधिकार चेष्टा का अपराधी है. मजेदार बात यह है कि सार्थक कला यह उद्दंड अपराध बराबर करती है. आचार्यों द्वारा निरूपित ब्रह्म को ही निरूपित करने के आदेश की उपेक्षा औकर विरोध करने वाले भक्त कवियों से लेकर ‘शाखा-प्रशाखा’ नामक फ़िल्म तक. यह फिल्म अघोषित लेकिन गहरे ढंग से मनुष्य की अनवरत प्रगति की उस धारणा पर ही चोट कर जाती है,जिस पर हमारा सारा इतिहासबोध टिका हुआ है. कला का खास काम यही है कि वह ज्ञान के विभिन्न अनुशासनों और विचार की विविध पद्धतियों के घरों में अनधिकृत घुसपैठ करके उनकी सुपरिभाषित दुनिया को झकझोरे. कला का सरोकार मनुष्य की समग्रता से है. इसी सरोकार से जरिए कला प्रदत्तबोध और संरचना को चुनौती देती है. मौजूदा सवालों के नये उत्तरों का ही नहीं, वह नये सवालों का भी प्रस्ताव करती है. कला की सार्थकता जिज्ञासा में है, सिर्फ खुद तक सीमित जिज्ञासा में नहीं बल्कि मनुष्य की नियति के प्रति जिज्ञासा.
राय की विश्व दृष्टि और उनके इतिहासबोध की सबसे बड़ी खूबी यही जिज्ञासा है. किसी अनुभव को दूसरे कोण से भी परखने की कोशिश इसी जिज्ञासु दृष्टि से पैदा होती है.
इसका यह अर्थ नहीं कि राय की कला विचारों से विदाई का कोई रूपक पेश करती है. हाँ वह इतनी आत्मसजग अवश्य है कि किसी साफ-सुथरे, कटे-छटे वैचारिक वाद का अनुवाद करने से इन्कार कर दे. इसलिए उसमें निहित इतिहास बोध को अपने पसंदीदा लेबल में रिड्यूस करने के बजाय बेहतर यह होगा कि उसके अपने आग्रहों तथा सरोकारों को समझने की कोशिश की जाए. मनुष्य की अखण्ड अच्छाई में राय की आस्था को तरह-तरह से रेखांकित किया गया है. लेकिन यह आस्था इतिहास-निरपेक्ष नहीं है और चूंकि इतिहास-निरपेक्ष नहीं है इसलिए इस आस्था में व्यक्ति और समाज दोनों ही के धरातल पर विडंबनाओं से टकराने का उत्साह है. विडंबना का यह अहसास रायद्वारा विषयों के चुनाव और उनकी ट्रीटमेंट में धीरे-धीरे बढ़ता गया है.
यह केवल संयोग नहीं है कि प्रेमचंद के लेखन से राय ने पहले ‘शतरंज के खिलाड़ी’ चुनी और फिर ‘सद्गति’ . यह चुनाव अपने आप में राय के सरोकारों का रेखांकन करता है . इस लिहाज से ‘प्रतिद्वंदी’ को उनकी कला का वाटर शेड ठीक ही कहा गया है. वह वक्त था, प्रतिद्वंदी’ बनाने के समय का वक्त, यह वक्त था जो राय के अपने शब्दों में रोजमर्रा के जीवन स्तर के अनुभव पर बहुत तेजी से बदल रहा था. इस बदलाव का नोटिस लिए बगैर निस्तार नहींथा. ‘प्रतिद्वंदी’ का मुहावरा राय की पूर्ववर्ती और परवर्ती फ़िल्मों से अलग है. बहरहाल, हम यह देखें कि विषय वस्तु के स्तर पर ‘प्रतिद्वंदी’ है- समय. समकालीन सच्चाइयों से परिभाषित समय जिसमें सवाल यह है कि हमारे वक्त की सबसे बड़ी घटना क्या है. उत्तर इस बात पर निर्भर करता है कि आपके जीवन दृष्टि के सरोकार क्या है? चांद पर मनुष्य का पैर पड़ना- था तो मानवीय क्षमताओं का चमत्कार ही, लेकिन जैसा कि उस अत्यन्त सघन दृश्य में सिद्धार्थ कहता है कि वियतनाम युद्ध में जन साधारण और किसानों की प्रतिरोध में इतना दमखम होना, यह सिर्फ टेक्नोलॉजी का मामला नहीं है, यह तो इन्सान की हिम्मत है. ऐसी हिम्मत जिसे देखकर आप सकते में आ जाते हैं और इसलिए प्रतिद्वंदी के नायक के लिए, उसके समय की सबसे बड़ी घटना चांद पर मनुष्य का पैर पड़ना नहीं है बल्कि वियतनाम का युद्ध है. दरअसल विडम्बनाओं के बोध के कारण और अपने समय से गहरे में जुड़ाव के कारण राय बार–बारइतिहास की ओर लौटते हैं. अतीत के किसी कालखण्ड को विषय बनाने वाली उनकी फ़िल्मों को लेकर खासे विवाद हुए हैं. आमतौर से ( राय के बारे में ) यह बात कही गई है कि उनकी वर्ग सहानुभूतियाँ गड़बड़ हैं.
‘जलसा घर’के संदर्भ में यह बात कही गई, ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के संदर्भ में राष्ट्रीयता और भारतीयता के प्रेमियों को भी घोर आपत्ति हुई, क्योंकि उसमें अंग्रेज उतने स्याह नहीं है, जितने उन्हें होना चाहिए. हिंदुस्तानी उतने महान और शानदारनहीं हैं, जितने कि उन्हें होना चाहिए, लेकिन ‘शतरंज के खिलाड़ी’ की अगर हम चर्चा करें तो हम देख सकते हैं कि राय ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में एक गहरा प्रतिवाद कर रहे हैं, वह प्रतिवाद यह है कि प्रेमचंद की कहानी के मीर और मिर्जा विलासी भले ही रहे हों, लेकिन उनमें व्यक्तिगत वीरता के गुणों का अभाव नहीं था. स्वाभाविक है कि कहानी के मीर और मिर्जा में बकायदा चुनौती देकर तलवारों से द्वंद युद्ध हो जाते हैं, जबकि फ़िल्म के मीर और मिर्जा का हथियार तलवार नहीं तमंचा है और वो भी क्षणिक आवेश में, बिना इरादे के चल जाता है. फ़िल्म में निहित इतिहास बोध की टिप्पणी सिर्फ इन दो पात्रों के व्यक्तिगत गुणों के पुनर्मूल्यांकन तक सीमित नहीं है.
वाजिद अली शाह की वह शानदार आत्म-दया जिसकी परिणति बिना लड़े हार जाने में हो जाती है, उसका विस्तृत रेखांकन 19 वीं सदी के सामंत वर्ग के प्रति राय का विशेष दृष्टिकोण सूचित करता है. यह केवल डिटेल्स का मामला नहीं था कि राय ने शतरंज के खिलाड़ी फ़िल्म में एक समानान्तर कहानी ही उस खेल की रच डाली, जो उस समय के सामंत वर्ग और औपनिवेशक सत्ता के बीच चल रहा था. इस दृष्टिकोण में व्यक्ति की मानवीय उपस्थिति के प्रति पूरी सहानभूति के बावजूद उसके वर्ग से जोड़े जाने वाले गुणों, व्यक्तिगत वीरता, महानता, उदारता आदि के भावुक महिमा-मंडन की कम से कम राय की कला में कोई गुंजाइश नहीं है. उल्टे इस वर्ग की ऐतहासिक भूमिका का गहरा बोध फ़िल्म के अंतिम दृश्य से व्यक्त होता है, जहां वह अकेला छूटा देहाती बच्चा फटी-फटी आँखों में अंग्रेजी फ़ौज को आते और वापस जाते देखता है और बेचैनी से कहता है,’ कोई लड़ता ही नहीं’.
जहां तक सरकारों का, अर्थात मीर और मिर्जा का सवाल है, वे अब अंग्रेजी चालों की बाजी सजा रहे हैं और मीर का वाक्य नेरेटर की आवाज में घुलमिल जाता है, ‘अब आप हटिए बादशाह सलामत, मलिका-ए-आलिया तशरीफ़ ला रही हैं’. खेल वही है, खिलाड़ी वही है, सिर्फ खेल के कायदे बदल गए हैं. बादशाह सलामत की जगह मलिका ने ली है और इस अर्थ में शतरंज के खिलाड़ी एक रूपक कथा बन जाती है. राय का इतिहास बोध उनकी पूरी की पूरी जीवन दृष्टि से जुड़ा हुआ है. उसका मूल तत्व है जिज्ञासा और जिज्ञासा की स्वाभाविक परिणति कला में होती है, अपने आप पर सवाल करने की सामर्थ्य: हम सभी जानते हैं कि राय पर रेनेसाँ के संस्कारों का गहरा असर था,बल्कि निःसंकोच यह कहा जा सकता है कि राय संभवतः हमारे समय के समकालीन भारतीय कला-दृश्य के अंतिम रेनेसां मैंन थे. ‘रेनेसां मैंन’ मैं एक पारिभाषिक अर्थ में कह रहा हूँ. दरअसल मैं व्यक्तिगत रूप से ऐसा सोचता हूँ कि राय की कला एक गहरे अर्थ में समाज के आलोचनात्मक विवेक को तीक्ष्ण करने का काम करती है और यह आलोचनात्मक विवेक समाज के व्यापक धरातल से लेकर, खुद कला-कर्म के, खुद कलाकार के अपने आग्रहों तक व्याप्त है. जब राय ‘सद्गति’ कहानी का चुनाव करते हैं और उसमें यह महत्त्वपूर्ण है कि बिना कोई खास फेरबदल किये, लगभग कहानी को जस का तस फिल्मा देते हैं, थोड़ी बहुत डिटेल्स बढ़ाकर, जो माध्यम की मांग है, राय जो कि अपने विषयों के साथ छूट लेने लिए बदनाम रहे हैं, लेखकों और साहित्यकारों के बीच में काफी बेचैनी पैदा करते रहे हैं, वे राय ‘सद्गति’ को लगभग जैसा का तैसा फिल्मा देते हैं और यह भी संयोग नहीं है कि ‘सद्गति’ का चुनाव, ‘सद्गति’ का निर्माण, ‘सद्गति’ का दिखाया जाना, कुछ लोगों को खटकता है. वह इसलिए खटकता है और स्वाभाविक रूप से खटकता है कि जो धारणाएँ हमारे अपने समाज के बारे में हम बनाते हैं, राय की कला उन पर सवाल उठाती है. हम जैसे भी हैं, जो कुछ भी है, महान है और संभवतः हमें किसी आलोचनात्मक आत्म-निरीक्षण की जरूरत नहीं हैं. राय की कला आलोचनात्मक आत्म-निरीक्षण की जरूरत को बहुत ही प्रचंड रूप से रेखांकित करती है.
‘जलसा घर’ से लेकर ‘शतरंज के खिलाड़ी’ तक और यहाँ मैं ‘घरे बाइरे’ को नहीं भूल सकता, जिसकी पुनः बड़ी कठोर आलोचना हुई थी. क्योंकि एक ऐसा आंदोलन, जिसको कुल मिलाकर एक बहुत ही शुभ घटना के रूप में हम जानते हैं लेकिन शुभ घटना के भीतर भी कुछ बेचैन करने वाली चीजे थीं, उस शुभ घटना के भीतर भी पाखंड का तत्त्व था. उस शुभ घटना के भीतर भी एक प्रकार से सामाजिक खाइयों को बढ़ाने वाली चीज़ें थीं. . उनको अपने वक़्त में रवीन्द्रनाथ ने नोट किया और स्वाभाविक है कि गालियाँ खाई. क्योंकि कला का काम ही यह है कि जब विचार, कोई भी विचार एक डॉगमा का रूप लेने लगे, जब किसी भी विचार को यह खुशफ़हमी होने लगे कि उसके पास जीवन की समस्त समस्याओं के निराकरण मौजूद हैं, तो विचार की तानाशाही के विरुद्ध, विचार के बनने की इस प्रक्रिया के विरुद्ध दुनिया भर की सार्थक कला हस्तक्षेप करती है और इसका प्रतिवाद करती है और यह प्रतिवाद बिना गहरे इतिहास-बोध के संभव नहीं है. इतिहास-बोध इतिहास को अतीत तक सीमित मानने में, इतिहास को केवल अतीत की पुनर्व्याख्या मानने तक में सीमित नहीं होता बल्कि यह खुद अपने समय की विडम्बनाओं से टकराने में व्यक्त होता है और जो कला इस तरह अपने समय की विडम्बनाओं से टकराती है , उसे हम कह सकते हैं कि वह एक बहुत गहरा और जरुरी सामाजिक कर्म संपन्न करती है बिना पेंफलेट बने, बिना नारा बने और वो सामाजिक कर्म है आलोचनात्मक विवेक का विकास, जिसका कि कम से कम हमारे समाज में दुर्भाग्य से घोर अभाव रहा है.
अज्ञेय ने यह बात वर्षों पहले नोट की थी कि सांस्कृतिक धरातल पर हमारी सबसे बड़ी विफलता यह रही कि हम एक आलोचनात्मक राष्ट्र नहीं बना सके. राय की फ़िल्में समाज में उस आलोचनात्मक विवेक का विकास करने में, मुझे लगता है, कि गहरी मदद करती हैं और मेरे नजदीक यह उनकी सबसे बड़ी प्रासंगिकता है, सबसे बड़ी साथर्कता है और इस साथर्कता का मूल कारण यही है कि वह बिना किसी विचार से आतंकित हुए और साथ ही विचार से मुक्ति का पाखंड किये बगैर, इतिहास की विडम्बनाओं से कला के अपने मुहावरे में, कला की अपनी भाषा में टकराने का प्रयत्न करते हैं और इस तरह देखने वाले के स्तर पर, सोचने वाले के स्तर पर एक सामाजिक और सांस्कृतिक दायित्व सम्पन्न करते हैं.
(यह आलेख, म.प्र. फिल्म विकास निगम द्वारा सत्यजित राय के सिनेमा पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में पढ़ा गया था, 18 मार्च 1993 को पटकथा में प्रकाशित)
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श्याम बेनेगल:
पुरुषोत्तम के विचार मुझे काफी रोचक लगे. उन्होंने बहुत से पहलूओं पर बातें की. राय की नैतिकता पर, एक ऐसे इन्सान के तौर पर जो कहानी कहने की अपनी नीतिकथा की शैली के द्वारा नैतिकता का समावेश करता है. इसके साथ ही राय इस बात का ध्यान रखते हैं कि उन्हें मताग्रही न समझा जाये इसीलिए वे स्पष्ट शब्दों में अपनी पात्रों को रचते हैं या जब आप कहानी कहते हैं तो आप इस तरफ या उस तरफ अपना वजन नहीं रखते. मेरी समझ में यह उनकी बहुत बड़ी चिंता भी थी. वास्तव में मैं उनकी तकनीकी चिंता कहना चाहूँगा उनके पटकथा-लेखन के तरीके की वजह से.
किसी एक तरफ अधिक वजन मत रखो, उन्हें उसी तरह उभरने दो जो स्वाभाविक है, तभी आप स्पष्टता से उन्हें देख सकेंगे. दूसरे शब्दों में आपके अपने किसी एक पात्र के चरित्र के प्रति अत्यधिक अनुराग नहीं होना चाहिए क्यों कि यदि ऐसा हुआ तो आप-पात्रों के चरित्र-चित्रण से भेदभावपूर्ण दखल देंगे और दूसरे पात्रों के चरित्र-चित्रण में पूर्वाग्रह से काम लेंगे. उनकी अधिकांश फ़िल्मों में इस समदर्शिता का अद्भुत ध्यान रखा गया था. आखिरी तीन फ़िल्मों को अपवाद मानना चाहिए. जब मैं राय से पिछले साल मिला था तो मैंने इस बिंदु का जिक्र किया था कि वे निर्णायक नहीं होते हैं. व्यक्तियों या परिस्थितियों के निर्णायक होने का अर्थ कई अर्थों में यथार्थ को नकारना भी है. यथार्थ को नकारने का यह भाव उस प्रक्रिया में ही निहित है. मैं समझता हूँ, यह वह उल्लेखनीय विचार था जिस पर उनकी फ़िल्में केंद्रित रहीं. अनिवार्य दूरी बनाये रखने का निरंतर आग्रह.
हम परिवर्तन चाहते हैं पर हम अतीत की अच्छाई को विस्मृत नहीं करना चाहते. पर ऐसा होना अपरिहार्य प्रतीत होता है कि अच्छाई भी बुराई के साथ विस्मृत होगी. यह भी एक पक्ष है जो उनकी फ़िल्मों, खासकर ‘जलसा घर’ में उभरता है . ‘शतरंज के खिलाड़ी’ तक आते-जाते राय अधिक उभयभावी हो जाते हैं. पर यह एक समस्या है. अतीत को याद करते समय हम अतीत की पुनर्रचना करने लगते हैं. यद्यपि हम कहते हैं कि वे दिन कितने भयानक थे, हम उनकी याद भले ही पुराने, बुरे दिनों के रूप में करते हैं. हम उन्हें वास्तव में बुरे दिन मानने को तैयार ही नहीं होते. हम उन दिनों को ‘भले’ पुराने बुरे दिनों के रूप में याद करना चाहते हैं क्योंकि अतीत में हमेशा कुछ न कुछ ऐसा होता है जिसे आप संजोकर रखना चाहें और चूंकि आप ऐसा नहीं कर सकते इसलिए आपको खो देने का अहसास होता है. समाज के स्तर विन्यास पर दृष्टिपात करते हुए यह खो देने का अहसास राय की फ़िल्मों में बराबर मौजूद रहता है. ऐसा सिर्फ राय के साथ ही नहीं होता, ऐसा उन अधिकांश फ़िल्मकारों के साथ होता है जो किसी निश्चित स्थिति से निर्णय देने को अस्वीकार करते हैं. यह कोई चेतन प्रक्रिया नहीं है. यह अर्थ हमेशा सोचकर फ़िल्मों में नहीं रखा जाता है. यह अर्थ तो फ़िल्मों में से निकलता है. पुरुषोत्तम ने मुद्दे को इतने विस्तार से स्पष्ट किया है कि इस विषय में कहने को कुछ अधिक रह नहीं जाता.
राय को आशंकित करता है सिर्फ काल, समय. मेरे ख्याल से उनकी अस्वस्थता के दौरान बनी फ़िल्में ‘गणशत्रु’ और ‘शाखा प्रशाखा’ में वे अधिक निर्णायक हो जाते हैं, वे पक्ष लेते हैं. जब राय पक्ष लेते हैं तो गमगीन नहीं होते,बल्कि आक्रोश से भर जाते हैं. उनकी पहले की फ़िल्मों में क्रोध के बनिस्बत विडम्बना पर अधिक बल है.
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