रमेश ऋतंभर की कविताएं
1.
मृत्यु-दौड़
(दारोगा की नौकरी की दौड़ में हताहत युवाओं की सजल स्मृति में)
वह दौड़ रहा है
वह पूरी जान लगाकर दौड़ रहा है
पाँव लड़खड़ा रहे हैं
कंठ सूख रहा है
आँखों से चिंगारियाँ निकल रही हैं
फिर भी किसी अदृश्य शक्ति के सहारे
वह लगातार दौड़ रहा है
उसकी आँखों के आगे बूढ़े पिता का थका-झुर्रीदार चेहरा कौंध रहा है
उसकी आँखों के आगे बीमार माँ की खाँसती हुई सूरत झलक रही है
उसकी आँखों के आगे अधेड़ होती कुंवारी बहन का उदास मुखड़ा तैर रहा है
उसकी आँखों के आगे वह दरोगा की वर्दी में खुद खड़ा दिखाई दे रहा है
उसकी आँखों के लक्ष्य-रेखा करीब आती हुई नज़र आ रही है
उसकी आँखें धीरे-धीरे मुंदती जा रही है
और सारा दृश्य एक-दूसरे में गड्मड हो रहा है
अब उसे कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा है
वह दौड़-भूमि में भहरा कर गिर पड़ा है
और उसकी चेतना धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है
माँ-पिता, बहनें, दोस्त सब
एक-एक कर याद आ रहे हैं
उसकी चेतना में लक्ष्य-रेखा धंस-सी गयी है
और वह अपने को लगातार दौड़ता हुआ पा रहा है
उसके प्राण-पखेरू उड़ चुके हैं.
अब वह अपनी मृत्यु में दौड़ रहा है
वह लगातार दौड़ रहा है.
2.
विकास-कथा
एक कस्बे में रहते थे पाँच कवि-किशोर
एक जो सिगरेट का धुआं उड़ाते हुए
खूब बहसें किया करता था
पढ़ाई खत्म करते ही चला गया दिल्ली
पकड़ ली एक छोटी-सी नौकरी
वहीं से कभी-कभी लिखता है चिट्ठी
कि कई मोर्चों पर जीतने वाला आदमी
कैसे एक भूख के आगे हार जाता है
जताता है उम्मीद
कि एक दिन लौटेगा वह जरूर
अपनी कविताओं के घर.
दूसरा जो फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने के कारण
कॉलेज की लड़के-लड़कियों के बीच लोकप्रिय था
पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षाएँ देते-देते
हार कर बन गया
एक देशी दवा कम्पनी का विक्रय-प्रतिनिधि
आजकल कंपनी का बिक्री-लक्ष्य पूरा करने के लिए
वह अस्पतालों, डॉक्टरों, केमिस्टों के यहाँ
भारी बैग लेकर चक्कर लगाता फिरता है
पिछले दिनों आया था घर
दिखा रहा था अपनी हथेलियों के ठेले
कह रहा था रमेश जीवन बड़ा कठिन है.
तीसरा जो दोस्तों से घिरा अक्सर गप्पे मारा करता था
और बात-बात में बाजी लगाया करता था
बी.ए. के बाद बेकारी से घबरा कर
खोल लिया टेलीफोन पे-बूथ
आजकल वह जिला व्यवहार न्यायालय में
हो गया है सहायक
और कविताएँ लिखना छोड़ खूनियों अपराधियों की
जमानत की पैरवी करता-फिरता है.
चौथा जो जहाँ भी कुछ गलत होता देखता
तुरन्त आवाज उठाता था
और कविताओं के साथ-साथ अखबारों में
ज्वलंत मुद्दों पर लेख लिखा करता था
उसने खोल लिया एक छोटा-मोटा प्रेस
और हो गया क्षेत्रीय अखबार का स्थानीय संवाददाता
आजकल मुर्गे की टांग और दारू की बोतल पर
खबरों का महत्व तय करता है.
पाँचवां जो किताबों की दुनिया में खोया
क्रांति के सपने देखा करता था
हो गया कस्बे के एक छोटे कॉलेज में हिन्दी का लेक्चरर
वह अपनी सीमित तनख़्वाह में
घर-परिवार व पेशे की जरूरतों के बीच
महीना-भर खींचतान करता रहता है
और अपने को जिन्दा रखे रहने के लिए
कभी-कभी कविताएँ लिख लेता है
आजकल वह भी सोच रहा है.
कि वह खोल ले कोई दुकान
या बन जाए किसी का दलाल.
3.
अपने हिस्से का सच
(पलायित बिहारी युवाओं को समर्पित)
दिल्ली में भी कई-कई नरकटियागंज हैं
सिर्फ़ सेंट्रल दिल्ली ही नहीं है दिल्ली
दिल्ली जहाँ है, वहाँ गंदगी भी है
कूड़ा-करकट भी है
धूल-धुआं भी है
पानी का हाहाकार भी है
सिर्फ चकाचौंध नहीं है दिल्ली
दिल्ली जहाँ है, वहाँ बीमारी भी है
परेशानी भी है
ठेलमठेल भी है
और भागमभाग भी है
सिर्फ एयरकन्डीशड नहीं है दिल्ली
आखिर किस दिल्ली की आस में
हम भागे चले आये दिल्ली
यह सेंट्रल दिल्ली तो नहीं आयेगा
हमारे हिस्से कभी.
चाहे हमारे जैसे लोग, जहाँ भी रहे
उनके हिस्से तो नरकटियागंज ही आयेगा
यह सेंट्रल दिल्ली नहीं….
तो फिर किसी दिल्ली की आस में
हम भाग चले आये दिल्ली.
४.
कहाँ से लाऊं लोहे की आत्मा?
एक छोटी-सी गलती पर
मेरा कलेजा कांपता है
एक छोटे-से झूठ पर
मेरी जबान लड़खड़ाती है
एक छोटी-सी चोरी पर
मेरा हाथ थरथराता है
एक छोटे-से छल पर
मेरा दिमाग़ गड़बड़ा जाता है
कैसे कुछ लोग
बड़ा-सा झूठ
बड़ी-सी चोरी
बड़ा-सा छल कर लेते हैं
और विचलित नहीं होते
क्या उनका कलेजा पत्थर का है
या आत्मा लोहे की?
अब मैं कहाँ से लाऊं लोहे की आत्मा
और कैसे बनाऊं पत्थर का कलेजा??
५.
मेरा बयान
किसी के सपने में मेरा सपना शामिल है
किसी की भूख में मेरी भूख
किसी की प्यास में मेरी प्यास शामिल है
किसी के सुख में मेरा सुख
इस दुनिया में करोड़ों आँखें, करोड़ों पेट, करोड़ों कंठ
और हृदय ऐसे हैं
जो एक सपना, एक भूख और एक प्यास
लिए जीते हैं
और मर जाते हैं
उन्हीं के बयान में मेरा बयान शामिल है
उन्हीं के दुख में मेरा दुख.
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रमेश ऋतंभर
२ अक्तूबर, 1970
नरकटियागंज, पश्चिम चंपारण (बिहार)
‘रचना का समकालीन परिदृश्य’ और ‘सृजन के सरोकार’(आलोचना)
‘ईश्वर किस चिड़िया का नाम है’ कविता संग्रह प्रकाशनाधीन
संपर्क : 9431670598