प्रेम का कर्ज़ भी नहीं.’
कवि राहुल राजेश आज उस मोड़ पर हैं जहाँ वह अपनी कविताओं में तोड़-फोड़ कर सकते हैं. एक समय के बाद हर कवि को ऐसा लगता है और वह करता भी है. सबसे पहले तो वह अब तक की अपनी अर्जित भाषा से असंतुष्ट होता है, फिर शिल्प को बदलता है और पहुंच से बाहर रहे अनुभवों तक पहुंचता है.
इन कविताओं में राहुल राजेश के काव्य-व्यक्तित्व के परिष्कार को देखा जा सकता है.
राहुल राजेश की कविताएँ
१.
बाज़ार
पोठिया माछ की तरह चाँदी का वर्क है
चंचल चितवन से चपल है मुस्कान
टोकरी में बस चार अमरूद बचे हैं
बाकी सब बिक गये
सिलेट पर आखर अभ्यास का समय नहीं
दुपहरिया बैठकर दुहरा लेगी छूटा अध्याय
अभी तो जीवन का पाठ करना है
बाजार में फल बेचते जान लिया है
मेहनत का फल मीठा होता है
थोड़ी और बड़ी होगी तो क्या पता
उसे पता चले, देह भी एक फल है
किसी को उसकी निश्चल हँसी मोहती है
तो किसी को चाँदी का वर्क.
२.
हूक
लो,
और एक कविता लिखने की हूक लगी है !
कितनी बार तो समझाया
सब माया है, केंचुल भर है
महुआ जैसे चूता है टप टप टप
वैसे ही धप धप धप करती रहती है
दरवाजे पर
साँकल बजाती रहती है खड़ खड़ खड़
खिड़की से फेंकती रहती है कंकरी रह रह कर
अभी अभी नहा कर आई है वह
केश से चू रही है विह्वल बूँदें
उसे पोरों से चूमूँ कि तुम्हें ?
ओह, इतनी भी सुभीता नहीं जीवन में
कि जरा ठहर कर जीवन ही भोग लूँ.
3.
मानुष
इच्छाओं का क्या है
वेश्याओं की तरह लिपटी रहती हैं
मैं कोई चंदन तो नहीं
कि विष न उतरे देह में
हिमालय की कंदराओं में छोड़ आता
अपना वीर्यकोश तो शायद कोई बात होती
इतना लावण्य, इतना पानी आँखों में
इतनी रात, इतना काजल केशों में
मैं बेदाग निकल भी जाऊँ
तो दुनिया मानेगी नहीं
कहेगी- नंपुसक होगा, मानुष नहीं !
(Painting: NATVAR BHAVSAR: SUBLIME LIGHT) |
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4.
असुखकर
साँझ का सूरज ढल चुका है
मुंबई के पच्छिम में
फिल्म सिटी की सीमा से लगी पहाड़ी
और मेरी बालकनी से दिखती हरियाली भी
ओझल हो गई है दृष्टि से
नीचे सूने पार्क की बत्तियाँ जल गई हैं और
जमीन पर रौशनी के चकत्ते उभर आए हैं
मेरे मन में भी विषाद उभर आया है
इस विपल्वी विषाणु से जन्मी विपदा में
आत्मरक्षार्थ वरण की गई इस गृह-कारा से…
आकाश में तारे अब कुछ अधिक
नजदीक से उगने लगे हैं लेकिन
मन के तारे एक एक कर डूबने लगे हैं
कुछ दूर साथ चलकर अब
किताबें भी थकने लगी हैं और कविताएँ भी
चिरप्रतीक्षित एकांत की
यह औचक आमद अब खलने लगी है
अवकाश का यह सश्रम कारावास
अब असह्य, असुखकर हो गया है
कि अब आकुल हुआ जा रहा जी
सुनने को वही कोलाहल, वही शोर…
किसी दिन सूरज न उगे पूरे दिन
तो रात कितनी लंबी हो जाएगी ?
जहाँ कई दिनों से नहीं सुलगा चूल्हा
वहाँ कितने दिनों से नहीं भई भोर ??
5.
प्रेम
मेह इस कदर बरसा मूसलाधार
कि गल गया देह का कागज
बह गई दुःख की स्याही
गीले पत्तों में अब आवाज बाकी नहीं,
नीचे पानी ने घर बना लिया है
हाँ, अब मैं चल सकता हूँ
प्रेम की पगडंडी पर
मेरी आत्मा को भी अब
नहीं सुनाई देगी मेरी पदचाप.
६.
पिता
सब
कुछ न कुछ हुए
पिता कुछ न हुए
सब सफल हुए
पिता असफल हुए
पिता
बस पिता हुए
हम सब
बहुत खुश हुए.
७.
मैं चिरप्रेमी हूँ
खुद से भी उतना ही प्रेम करता
जितना कि तुमसे करता हूँ
अपनी आँखें तो जरा खोलो
कि मैं उनमें खुद को देख सकूँ
चिरयुवा
तुम्हारी पलकों पर यह लज्जा का भार
असह्य है!
(Painting: NATVAR BHAVSAR: SUBLIME LIGHT) |
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8.
उन दिनों
सुविधाएँ नहीं थीं
सुख बहुत था
दुःख बहुत थे
दूरियाँ नहीं थीं
अभाव था पर
सुभाव से पूरे थे
कष्ट बहुत थे
लेकिन हम खुश थे
बाकियों से
बहुत अलग नहीं थे
इसलिए बहुत
अकेले नहीं थे
उन दिनों.
9.
शून्य
अभी-अभी
एक शून्य घटित हुआ है
भीतर
विराट शून्य.
विचारों को बुहार कर
देहरी के पार
छोड़ आया हूँ
इस शून्य की आभा
इस शून्य का नाद
अद्भुत है
अनन्य है
मुक्त होने की
भूमिका है यह-
अप्प दीपो भव
होना दीर्घशेष है अभी.
१०.
मिथ्या
इतना चकित क्यों हो सौदागर ?
यह सब भाषा का कौतुक है
कवि की क्रीड़ा
सच कहूँ तो
बासी चित्र हैं सारे
पृथ्वी पर ऐसी अंगुल भर जगह नहीं
जहाँ आकाश ने पाँव नहीं धरे
बादलों ने बरजोरी नहीं की
कालीदास ने बाट नहीं जोही
सब कविता की प्रतीति है, मिथ्या है
सच्ची कविता लिखा जाना बाकी है-
फिलहाल अपनी आत्मा की कमीज में
ईमान के बटन तो टाँक लो कवि !
११.
खाली कोना
अब मैं इतना दरिद्र हुआ
कि मुझ पर अब किसी के
प्रेम का कर्ज भी नहीं
जीवन
अब एक खाली कोना है
जहाँ अब दुःख भी
अपनी पीठ टिकाकर नहीं बैठता…
(Painting: NATVAR BHAVSAR: SUBLIME LIGHT) |
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१२.
आदिम इच्छा
पारे की चमकीली सतह पर
नीली रौशनी में नहायी कविताओं को
एक्वेरियम में रखी मछलियों की तरह
बिछलते देखना अच्छा लगता है
पर कागज की दूधिया देह पर
काले काले अच्छरों में
अपनी कविताओं को छपा देखने
और उन्हें हौले हौले छूने का
अलग सुख है!
१३.
अस्वीकार
विचित्र लीला है!
वक्रता के व्यामोह में औंधे मुँह पड़ी है कहन
मानो सरलता से विदग्ध है उसका मन
या फिर उसे न सरलता पर भरोसा है
न खुद पर!
और यह भी तो सच है कि
सरल होना सबसे कठिन है
ज्यामिति में असंभव माना गया है
एक ही सरल रेखा दुबारा खींचना !
और यह जो अलापते रहते हो, ये
भाषा में बह आईं फूल-मालाएँ हैं
वगैरह-वगैरह
फेन हैं, झाग हैं दम तोड़ चुकी लहरों की !
पिता कहते हैं, सारी कविताएँ एक तरफ कर
ऐसा क्या है जो अब तक लिखा नहीं गया ?
कल रात ही मैंने वाग्देवी का आह्वान किया
और लिख डाली एक पर एक दस कविताएँ
लेकिन यह मेरे शिल्प का विपथन है
और मेरे स्वभाव का भी
यह कोई कलात्मक चौर्यकर्म नहीं,
तुम्हारी चुनौती का प्रत्युत्तर है भंते !
वक्रता का कौतुक करना मेरा ध्येय नहीं
मैं सत्य का लिपिक हूँ
और जिसे तुम सपाट कहते फिरते हो
वह सत्य का सरल-सहज पाठ है
इसे तुम स्वीकार कर पाओगे भला ?
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