फोटो : डॉ अभिज्ञात |
केदारनाथ सिंह समकालीन हिंदी के सर्वाधिक जनप्रिय कवि हैं. उनकी कविताओं के मुहावरों का असर और प्रभाव हिंदी युवा कविता पर बखूबी देखा जा सकता है. अच्छी कविता की विशेषताओं में एक बात कही जाती है कि उसे पढ़ कर आपके अंदर भी कविता जन्म ले. केदार की कविताएँ इसी तरह की कविताएँ हैं. सबद सौंदर्य के सम्मोहन के कवि हैं केदार जी.
कुशीनगर से हिंदी का विशेष लगाव है. बुद्ध के इस महानिर्वाणस्थल पर अज्ञेय का जन्म हुआ था, \’शेखर एक जीवनी\’ के प्रारम्भिक हिस्से में उन्होंने इसका ज़िक्र किया है. बाद में भी अज्ञेय यहाँ आते रहे. केदारनाथ सिंह ने कुशीनगर के स्तूप पर रहने वाले चीना बाबा पर एक लम्बी कविता लिखी है ‘मंच और मचान’ जो वर्तमान, इतिहास और समकालीन नैतिक संकट से एक साथ जूझती है और एक अजब रचनात्मक असंतोष सृजित करती है. इसी स्तूप पर उन्होंने ‘कब्रिस्तान में पंचायत’ में भी लिखा है.
इस स्तूप को गद्य में और फिर पद्य में पढिये. साथ में दो छोटी कविताएँ भी.
बसना कुशीनगर में
काफी पहले—शायद 1974-75 के आसपास मैंने कुशीनगर में जमीन का एक टुकड़ा देखा था. सोचा था, उसे खरीदकर वहाँ एक छोटा-सा घर बनाऊँगा. यह सम्भव न हो सका, क्योंकि बीच में दिल्ली आ गई. दिल्ली और कुशीनगर, ये हमारे जीवन की वास्तविकता के दो छोर हैं, जिन्हें जोड़ने वाला पुल कभी बना ही नहीं. एक बार जब दिल्ली आ गया तो फिर न चाहते हुए भी दिल्ली का ही हो रहा. कुशीनगर को तो नहीं भूला, पर वह जमीन का टुकड़ा, जहाँ रिटायर होकर बसना चाहता था, धीरे-धीरे स्मृति से ओझल हो गया. पिछले दिनों उधर जाना हुआ था और जब कुशी नगर से गुजर रहा था तो देखा, वह जमीन का टुकड़ा अब भी उसी तरह खाली है. पर वहाँ बसने की इच्छा कब की मर चुकी थी. ‘मर चुकी थी’—शायद यह मैंने गलत कहा. सिर्फ दिल्ली की धूल की अनगिनत परतों के नीचे कहीं दब गई थी. उस दिन उस जमीन के खाली टुकड़े को देखा तो दबी हुई इच्छा जैसे फिर से जाग पड़ी. पर तब और अब के बीच लम्बा फासला है. दिल्ली में बिना जमीन का एक घर ले लिया है—लगभग हवा में टंगा हुआ. यहाँ ज्यादातर लोग हवा में टंगे हुए रहते हैं—शायद यह कास्मोपालिटन संस्कृति का खास चरित्र-लक्षण है.
पहली बार जब कुशीनगर गया था तो वह खासा उजाड़ था. बुद्ध की उस निर्वाण-स्थली को देखने जाने वालों की संख्या बहुत कम थी. विदेशी पर्यटक तो बहुत कम दिखाई पड़ते थे. शायद आवागन की सुविधा का अभाव इसका एक कारण रहा होगा. अब जापान सरकार की मदद से सड़क बेहतर हो गई है. बगल में ही एक हवाई अड्डे का निर्माण चल रहा है—जिस पर कहते हैं, बड़े हवाई जहाज भी उतर सकेंगे. एक सरकारी गेस्ट हाउस के अलावा अनेक नए विदेशी होटल बन चुके हैं—बेहद महँगे और आधुनिक सुविधाओं से संयुक्त. आधुनिकता इतनी महँगी क्यों होती है ? क्या इसीलिए वह भारतीय जीवन की जो सामान्य धारा है, उसका हिस्सा आज तक नहीं बन पाई है ? ऐसे में उत्तरआधुनिकता की चर्चा विडम्बनापूर्ण लगती है—मानो एक पूरा समाज छलाँग मारकर किसी नए दौर में पहुँच गया हो.
पर जिस कुशीनगर में मैं बसना चाहता था, वह एक और कुशीनगर था. उसका स्थापत्य कुछ ऐसा था, जैसे वह पूरा परिवेश खुदाई के बाद बाहर निकाला गया हो. शाल वन तो कब का खत्म हो चुका था. पर जो वृक्ष और वनस्पतियाँ बची थीं, उनमें थोड़ा-सा ‘बनैलापन’ कहीं अब भी दिखाई पड़ता था. इसी परिवेश के एक अविच्छिन्न हिस्सा थे—चीना बाबा. हाँ, इसी नाम से उस क्षेत्र की जनता उन्हें जानती थी. उनके बारे में असंख्य कहानियाँ प्रचलित हैं. पर वे उस अर्थ से बाबा नहीं थे, जिस अर्थ में हम इस शब्द को जानते हैं. वे चीनी मूल के थे और पिछली शताब्दी के शुरू में कभी भटकते हुए कुशीनगर आ गए थे, लगभग किशोर वय में. वे पर्यटक की तरह नहीं आए, ऐसे आए थे जैसे किसी स्थान के आकर्षण से खिंचा हुआ कोई चला आता है. वे चुपचाप आए थे और एकदम चुपचाप उस स्थान के एक कोने में रहकर उन्होंने लगभग साठ बरस बिता दिए.
कोई घर नहीं था उनके पास—यहाँ तक कि एक झोंपड़ी भी नहीं. घर की जगह उन्होंने एक पेड़ को चुना था. मुझे कई बार लगता है कि पेड़ शायद आदमी का पहला घर है. इसीलिए जब उसे कहीं जगह नहीं मिलती, तो वह उसी घर में चला जाता है और यह कितना अद्भुत है कि उसका दरवाजा हमेशा खुला मिलता है. तो उस किशोर चीनी भिक्खू को भी (जिसे बाद में भारतीय मानस ने ‘चीन बाबा’ का नाम दे दिया) उसी वृक्ष-घर ने पहले शरण दी, एकदम निःशुल्क. वह वृक्ष भी कोई सामान्य पेड़ नहीं था—एक विशाल बरगद. बरगद की हजार खूबियाँ होती हैं—पर एक बहुत बड़ी खूबी यह होती है कि वह पक्षियों के लिए एक उन्मुक्त सदावर्त की तरह होता है—एकदम निर्बाध और चौबीसों घंटे खुला. वह किशोर चीनी भिक्खू भी एक पक्षी की तरह उड़कर उस बरगद के पास आ गया था और बरगद ने सिर्फ उसे रहने की जगह ही नहीं दी, खाने-पीने का भी बन्दोबस्त कर दिया. खाने के लिए ऊपर ‘पकुहे’ (बरगद की छोटी-छोटी फलियाँ) थे और नीचे पुरातन नदी का पवित्र जल.
पर उस विशाल वट-वृक्ष की एक और खूबी थी. वह एक स्तूप के ऊपर खड़ा था और उसके दबाव से स्तूप एक ओर थोड़ा झुक गया था. बौद्ध इतिहास स्तूपों से भरा है. पर निर्वाण-स्थली के पास का वह स्तूप न सिर्फ सबसे छोटा है, बल्कि सबसे अनगढ़ भी. उसकी अनगढ़ता को वट-वृक्ष ने थोड़ा ढँक लिया था और वहाँ इस तरह खड़ा था, जैसे स्तूप के साथ ही उसकी रचना की गई हो. उसी वट-वृक्ष पर चीनी भिक्खू ने एक छोटी-सी मचान बना ली थी और अपने दीर्घ जीवन के पूरे साठ साल उसी पर बिताए थे. और बातें छोड़ भी दें तो यह अपने आप में एक रोमांचकारी घटना की तरह लगता है.
अगर मैं भूलता नहीं तो सन् 1960 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री पंडित जवाहरलाल नेहरू कुशीनगर आए थे—किसी कार्यक्रम के सिलसिले में. कहते हैं कि उस समय उन्हें वह स्तूप भी दिखाया गया था, जो असल में चीनी भिक्खू का ‘घर’ था. पं. नेहरू बौद्ध संस्कृति के प्रेमी थे. उन्हें स्तूप पर बरगद का होना अटपटा—बल्कि स्तूप के लिए क्षतिकारक भी लगा. सो, उन्होंने आदेश दिया कि बरगद को काट गिराया जाए. कहते हैं कि इसकी सूचना जब वृद्ध भिक्खू को दी गई तो उसने प्रतिरोध किया. पर आदेश ऐसा था कि उसे टाला नहीं जा सकता था. इसलिए एक सुबह मजदूर बुला लिए गए और बरगद को काट गिराने का निश्चय कर लिया गया. अब बरगद पर चीनी भिक्खू था और नीचे सरकारी अहलकार. भिक्खू का तर्क था कि यह मेरा घर है और इसे काटा नहीं जा सकता और जनता की प्रतिक्रिया यह थी कि भिक्खू के तर्क में दम है. पर वही हुआ जो होना था. भिक्खू को जैसे-तैसे नीचे उतरने के लिए राजी किया गया. उसे इस तर्क ने लाचार और निहत्था कर दिया कि यदि बरगद को नहीं काटा गया तो स्तूप टूटकर गिर जाएगा. बरगद को काट गिराया गया, पर जो टूटकर नीचे गिरा वह असल में वृद्ध चीनी भिक्खू था. वह मचान से उतरकर नीचे तो आ गया—पर इस तरह जैसे उनकी आँखों के आगे के पूरे साठ साल भहराकर गिर पड़े हों.
मैं इसी घटना-क्रम के बीच उस भिक्खू से मिला था—नहीं, उसे सिर्फ ‘देखा’ था. उसके लिए स्तूप के निकट ही एक छोटा-सा कमरा बनवा दिया गया था, जिसमें वह बंद था. उसने कई दिनों से खाना-पीना बन्द कर रखा था. आसपास के लोग खाना लेकर आते थे और खिड़की से आवाज देते थे—‘चीना बाबा, खाना खा लो.’ पर वह उस आवाज से जैसे हजारों मील दूर कहीं पड़ा था—मानो चीन देश की किसी छोटी-सी पुरानी कोठरी में. यह उसका निर्वाण था—लगभग उसी भूखंड पर जहाँ बुद्ध का निर्वाण हुआ था.
अब यह घटना एक किंवदन्ती बन चुकी है. पर जब भी उस प्रसंग को याद करता हूँ तो मेरा अपना कुशीनगर में बसने का विचार और वहाँ न बस पाने की कसक—दोनों ढोंग की तरह लगते हैं.
(कब्रिस्तान में पंचायत)
(कब्रिस्तान में पंचायत)
मंच और मचान
(उदय प्रकाश के लिए )
(उदय प्रकाश के लिए )
पत्तों की तरह बोलते
तने की तरह चुप
एक ठिंगने से चीनी भिक्खु थे वे
जिन्हें उस जनपद के लोग कहते थे
चीना बाबा
कब आए थे रामाभार स्तूप पर
यह कोई नहीं जानता था
पर जानना जरूरी भी नहीं था
उनके लिए तो बस इतना ही बहुत था
कि वहाँ स्तूप पर खड़ा है
चिड़ियों से जगरमगर एक युवा बरगद
बरगद पर मचान है
और मचान पर रहते हैं वे
जाने कितने समय से
अगर भूलता नहीं तो यह पिछली सदी के
पाँचवें दशक का कोई एक दिन था
जब सड़क की ओर से भोंपू की आवाज आई
\”भाइयो और बहनो,
प्रधानमंत्री आ रहे हैं स्तूप को देखने…\”
प्रधानमंत्री!
खिल गए लोग
जैसे कुछ मिल गया हो सुबह सुबह
पर कैसी विडंबना
कि वे जो लोग थे
सिर्फ नेहरू को जानते थे
प्रधानमंत्री को नहीं!
सो इस शब्द के अर्थ तक पहुँचने में
उन्हें काफी दिक्कत हुई
फिर भी सुर्ती मलते और बोलते बतियाते
पहुँच ही गए वे वहाँ तक
कहाँ तक?
यह कहना मुश्किल है
कहते हैं- प्रधानमंत्री आये
उन्होंने चारों ओर घूम कर देखा स्तूप को
फिर देखा बरगद को
जो खड़ा था स्तूप पर
पर न जाने क्यों
वे हो गए उदास
(और कहते हैं- नेहरू अक्सर
उदास हो जाते थे)
फिर जाते जाते एक अधिकारी को
पास बुलाया
कहा- देखो- उस बरगद को गौर से देखो
उसके बोझ से टूट कर
गिर सकता है स्तूप
इसलिए हुक्म है कि देशहित में
काट डालो बरगद
और बचा लो स्तूप को
यह राष्ट्र के भव्यतम मंच का आदेश था
जाने अनजाने एक मचान के विरुद्ध
इस तरह उस दिन एक अद्भुत घटना घटी
भारत के इतिहास में
कि मंच और मचान
यानी एक ही शब्द के लंबे इतिहास के
दोनों ओरछोर
अचानक आ गए आमने सामने
अगले दिन
सूर्य के घंटे की पहली चोट के साथ
स्तूप पर आ गए-
बढ़ई
मजूर
इंजीनियर
कारीगर
आ गए लोग दूर दूर से
इधर अधिकारी परेशान
क्योंकि उन्हें पता था
खाली नहीं है बरगद
कि उस पर एक मचान है
और मचान भी खाली नहीं
क्योंकि उस पर रहता है एक आदमी
और खाली नहीं आदमी भी
क्योंकि वह जिंदा है
और बोल सकता है
क्या किया जाय?
हुक्म दिल्ली का
और समस्या जटिल
देर तक खड़े-खड़े सोचते रहे वे
कि सहसा किसी एक ने
हाथ उठा प्रार्थना की-
\”चीना बाबा,
ओ ओ चीना बाबा!
नीचे उतर आओ
बरगद काटा जायेगा\”
\”काटा जाएगा?
क्यों? लेकिन क्यों?\”
जैसे पत्तों से फूट कर जड़ों की आवाज आई
\”ऊपर का आदेश है-\”
नीचे से उतर गया
\”तो शुनो,\”- भिक्खु अपनी चीनी गमक वाली
हिंदी में बोला,
\’चाये काट डालो मुझी को
उतरूँगा नईं
ये मेरा घर है!\”
भिक्खु की आवाज में
बरगद के पत्तों के दूध का बल था
अब अधिकारियों के सामने
एक विकट सवाल था- एकदम अभूतपूर्व
पेड़ है कि घर- –
यह एक ऐसा सवाल था
जिस पर कानून चुप था
इस पर तो कविताएं भी चुप हैं
एक कविता प्रेमी अधिकारी ने
धीरे से टिप्पणी की
देर तक
दूर तक जब कुछ नहीं सूझा
तो अधिकारियों ने राज्य के उच्चतम
अधिकारी से संपर्क किया
और गहन छानबीन के बाद पाया गया-
मामला भिक्खु के चीवर सा
बरगद की लंबी बरोहों से उलझ गया है
हार कर पाछ कर अंततः तय हुआ
दिल्ली से पूछा जाय
और कहते हैं-
दिल्ली को कुछ भी याद नहीं था
न हुक्म
न बरगद
न दिन
न तारीख
कुछ भी – कुछ भी याद ही नहीं था
पर जब परतदरपरत
इधर से बताई गई स्थिति की गंभीरता
और उधर लगा कि अब भिक्खु का घर
यानी वह युवा बरगद
कुल्हाड़े की धार से बस कुछ मिनट दूर है
तो खयाल है कि दिल्ली ने जल्दी जल्दी
दूत के जरिए बीजिंग से बात की
इस हल्की सी उम्मीद में कि शायद
कोई रास्ता निकल आये
एक कयास यह भी
कि बात शायद माओ की मेज तक गयी
अब यह कितना सही है
कितना गलत
साक्ष्य नहीं कोई कि जाँच सकूँ इसे
पर मेरा मन कहता है काश यह सच हो
कि उस दिन
विश्व में पहली बार दो राष्ट्रों ने
एक पेड़ के बारे में बातचीत की
-तो पाठकगण
यह रहा एक धुँधला सा प्रिंटआउट
उन लोगों की स्मृति का
जिन्हें मैंने खो दिया था बरसों पहले
और छपतेछपते इतना और
कि हुक्म की तामील तो होनी ही थी
सो जैसेतैसे पुलिस के द्वारा
बरगद से नीचे उतारा गया भिक्खु को
और हाथ उठाए – मानो पूरे ब्रह्मांड में
चिल्लाता रहा वह-
\”घर है…ये…ये….मेरा घर है\’
पर जो भी हो
अब मौके पर मौजूद टाँगों कुल्हाड़ों का
रास्ता साफ था
एक हल्का सा इशारा और ठक् …ठक्
गिरने लगे वे बरगद की जड़ पर
पहली चोट के बाद ऐसा लगा
जैसे लोहे ने झुक कर
पेड़ से कहा हो- \”माफ करना भाई,
कुछ हुक्म ही ऐसा है\”
और ठक् ठक् गिरने लगा उसी तरह
उधर फैलती जा रही थी हवा में
युवा बरगद के कटने की एक कच्ची गंध
और \”नहीं…नहीं…\”
कहीं से विरोध में आती थी एक बुढ़िया की आवाज
और अगली ठक् के नीचे दब जाती थी
जाने कितनी चहचह
कितने पर
कितनी गाथाएँ
कितने जातक
दब जाते थे हर ठक् के नीचे
चलता रहा वह विकट संगीत
जाने कितनी देर तक
-कि अचानक
जड़ों के भीतर एक कड़क सी हुई
और लोगों ने देखा कि चीख न पुकार
बस झूमता झामता एक शाहाना अंदाज में
अरअराकर गिर पड़ा समूचा बरगद
सिर्फ \’घर\’ – वह शब्द
देर तक उसी तरह
टँगा रहा हवा में
तब से कितना समय बीता
मैंने कितने शहर नापे
कितने घर बदले
और हैरान हूँ मुझे लग गया इतना समय
इस सच तक पहुँचने में
कि उस तरह देखो
तो हुक्म कोई नहीं
पर घर जहाँ भी है
उसी तरह टँगा है.
_________________________________
हाथ
उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए.
(१९८०)
जाना
मैं जा रही हूँ – उसने कहा
जाओ – मैंने उत्तर दिया
यह जानते हुए कि जाना
हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है.
(१९७८)
केदारनाथ सिंह
1934, चकिया, बलिया, उत्तर प्रदेश
अभी बिल्कुल अभी, ज़मीन पक रही है, यहाँ से देखो, बाघ, अकाल में सारस, उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ, तालस्ताय और साइकिल. (कविता संग्रह)
कल्पना और छायावाद, आधुनिक हिंदी कविता में बिंबविधान, मेरे समय के शब्द, कब्रिस्तान में पंचायत, मेरे साक्षात्कार (आलोचना और गद्य)
ताना-बाना (आधुनिक भारतीय कविता से एक चयन), समकालीन रूसी कविताएँ, कविता दशक, साखी (अनियतकालिक पत्रिका), शब्द (अनियतकालिक पत्रिका)
मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, कुमारन आशान पुरस्कार, जीवन भारती सम्मान, दिनकर पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान
कविताओं के अनुवाद लगभग सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी, स्पेनिश, रूसी, जर्मन और हंगेरियन आदि विदेशी भाषाओं में भी हुए हैं.