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Home » शिवपूजन सहाय : परम्परा और प्रगतिशीलता : विमल कुमार

शिवपूजन सहाय : परम्परा और प्रगतिशीलता : विमल कुमार

यह वर्ष राहुल सांकृत्यायन के साथ-साथ शिवपूजन सहाय की भी १२५ वीं जयंती का साल है, दोनों एक ही वर्ष में पैदा हुए और दोनों का निधन वर्ष भी एक ही है. आज शिवपूजन सहाय (९ अगस्त, १८९३ : २१ जनवरी, १९६३) की ५६ वीं पुण्यतिथि  है. हिन्दी नवजागरण के इस अग्रदूत को याद करते […]

by arun dev
January 21, 2019
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यह वर्ष राहुल सांकृत्यायन के साथ-साथ शिवपूजन सहाय की भी १२५ वीं जयंती का साल है, दोनों एक ही वर्ष में पैदा हुए और दोनों का निधन वर्ष भी एक ही है.

आज शिवपूजन सहाय (९ अगस्त, १८९३ : २१ जनवरी, १९६३) की ५६ वीं पुण्यतिथि  है. हिन्दी नवजागरण के इस अग्रदूत को याद करते हुए वरिष्ठ कवि विमल कुमार ने परम्परा और प्रगतिशीलता के द्वंद्व में उनके साथ राहुल जी को भी रखकर देखा है.



स्मरण

शिवपूजन सहाय
परम्परा से प्रगतिशीलता के साहित्यकार                       
विमल कुमार




रामविलास शर्मा की एक किताब है ‘परम्परा का मूल्यांकन’, जिसमें उन्होंने आचार्य शिवपूजन सहाय पर एक सुन्दर संस्मरण लिखा है और उन्हें पुरानी पीढ़ी का साहित्यकार कहा है. यह भी लिखा है कि उनका रंग-ढंग समझना आसान नही था. लेकिन जब साहित्य में आधुनिकता और प्रगतिशीलता की आंधी बही तो हम अपनी परम्परा के प्रति उदासीन हो गए और हमने  परम्परा का अर्थ रूढ़ियों से जोड़ दिया या परम्परा को दो वर्गों में विभक्त कर दिया या फिर साहित्यकारों के रंग-ढंग को समझना ही बंद कर दिया ?
क्या ‘परम्परा’ अब एक प्रतिगामी शब्द है ? क्या परम्परा के नाम पर आज जिस तरह की राजनीतिक  फूहड़ता  दिखाई दे रही  है उस से परम्परा  शब्द का  अवमूल्यन हुआ  है? मैं  परम्परा पर विचार करते हुए अपने अग्रज मित्र ‘पुरुषोत्तम अग्रवाल’ की इस बात का ज़िक्र जरुर करता हूँ कि  ‘बिना परम्परा को जाने प्रगतिशील नहीं हुआ जा सकता है’. दरअसल आधुनिकता और प्रगतिशीलता के बीच एक अन्तः सूत्र है पर हम इस अन्तः सूत्र को भूल गए है या फिर हमने कभी इस तरह विचार ही नहीं किया है  बल्कि  हिन्दी  में परम्परा और प्रगतिशीलता को एक दूसरे  के विरुद्ध खड़ा किया गया  है. 
हिन्दी में आधुनिकता और प्रगतिशीलता के बीच भी द्वन्द्वात्मक रिश्ता रहा है. क्या यह अतिवादी दृष्टि अपनाने से हुआ है? हमने साहित्य में एक लेखक को दूसरे लेखक के विलोम  में खड़ा कर दिया है और साहित्य की बहसों को ‘भारतेंदु’ बनाम ‘सितारे हिन्द’.  ‘शुक्ल’ जी बनाम ‘द्विवेदी’ जी या ‘निराला’ बनाम ‘पंत’ या ‘अज्ञेय’  बनाम ‘मुक्तिबोध’ के रूप में  पेश किया है और इसमें एक पक्ष को पूरी तरह ख़ारिज करने की कोशिश की है.
जिनकी जड़ें परम्परा में गहरी हैं, उन्हें प्रगतिशील नहीं माना जाता. आम तौर जो लोग ‘मुक्तिबोध’ को अपना नायक मानते हैं आज वे ‘द्विवेदी’ जी में कम दिलचस्पी लेते हैं और जो लोग ‘अज्ञेय’ या ‘निर्मल वर्मा’ में अधिक दिलचस्पी लेते हैं वे ‘नागार्जुन’ या ‘त्रिलोचन’ में कम रूचि लेते हैं, इसके कुछ अपवाद भी हैं. मैंने यहाँ ऊपर जो उदहारण दिए हैं उस से मुझे लगता है कि राहुल जी और शिवपूजन जी पर विचार करते  हुए हमें इन प्रश्नों पर विचार करने में सहूलियत होगी. दोनों पर एक साथ विचार करने से हम हिन्दी साहित्य का एक व्यापक स्वरुप बनायेंगे क्योंकि दोनों एक दूसरे के पूरक भी हैं.

अब तक हम  ‘प्रेमचंद’ या ‘प्रसाद’ को अलग-अलग श्रेणियों में ही समझते रहे हैं. दरअसल हमने हिन्दी साहित्य में व्यक्ति केन्द्रित आलोचना और विमर्श अधिक किया  है. ‘प्रेमचंद’ पर बात चली तो ‘प्रसाद’ को छोड़ दिया. ‘निराला’ पर बात हुई तो ‘महादेवी’ को छोड़ दिया. ‘शुक्ल’ जी की बात चली तो ‘द्विवेदी’ जी को छोड़ दिया. ‘भारतेंदु’ की चर्चा हुई तो  ‘सितारे हिन्द’ को छोड़  दिया गया. यही हाल भारतीय राजनीति  में भी हुआ. गाँधी, आम्बेडकर,  लोहिया, जे. पी. सब एक दूसरे के  विरुद्ध पेश किये गए और अब कोई पटेल को अपना नायक बनाकर अपने लिए स्पेस  तैयार कर रहा  है. लेकिन मेरा मानना है कि जब  आज़ादी की लड़ाई में  सब एक साथ थे तो साहित्य के सौंदर्यशास्त्र के संघर्ष में वे एक दूसरे के विरुद्ध क्यों कर होंगे ?
इस वर्ष राहुल जी के साथ-साथ शिवपूजन सहाय की भी १२५ वीं जयंती मनाई जा रही है. परम्परा और प्रगतिशीलता के रिश्ते को समझने के लिए  दोनों लेखकों के व्यक्तित्व को भी थोड़ा समझना होगा. आम तौर पर हम रचना से लेखक के व्यक्तित्व के भीतर पहुँचते हैं लेकिन मैं इन दोनों के व्यक्तित्व के जरिये उनकी रचनाओं में प्रवेश करना पसंद  करूँगा, क्योंकि इन दोनों लेखकों का व्यक्तित्व बहुत विराट  था. मेरा मानना है कि शिवपूजन सहाय का व्यक्तित्व ही उनके कृतित्व को खा गया. राहुल जी के साथ भी ऐसा ही हुआ. राहुल जी का नाम सुनते ही लोग कहते हैं अरे वे तो महापंडित थे, ३२ भाषाएँ जानते थे, तिब्बत श्रीलंका गए. इतनी यात्राएँ की.

शिवजी की चर्चा होने पर लोग कहते हैं- अरे वो तो संत थे, हजारीप्रसाद के शब्दों में ‘अजात शत्रु’  थे तो राजेंद्र बाबू के शब्दों में ‘तपस्वी’, तो निराला के शब्दों में ‘हिन्दी भूषण’. कोई उन्हें  ‘नींव की  ईंट’  कहता है तो कोई \’दधीचि\’.  लेकिन वे उनकी रचनाओं में ‘देहाती दुनिया’ और ‘कहानी का प्लाट’ एवं ‘मुंडमाल’ छोड कर अधिक नहीं गिना पाते. इसी तरह राहुल जी की ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो\’ या ,वोल्गा से गंगा तक. हिन्दी में आम तौर पर उन्हीं लेखकों की चर्चा हुई जिन्होंने कहानी, कविता या आलोचना, उपन्यास लिखे लेकिन जिन लोगों ने हिन्दी की जीवन भर सेवा की, ज्ञान के भण्डार को समृद्ध किया वह मुख्यधारा से बाहर रहे. तब क्या इन दोनों का बस इतना ही साहित्यिक अवदान था ?

दोनों प्रेमचंद, प्रसाद या निराला की तरह केवल निजी लेखन नहीं करते रहे, दोनों का जीवन केवल कहानी, उपन्यास तक सीमित नहीं था. शुक्ल जी ने भी अपने इतिहास में इनके योगदान को रेखांकित नहीं किया है.
राहुल जी सन्यासी से लेकर कांग्रेसी और फिर वामपंथी रहे. वामपंथी होने के कारण वाम लेखकों में राहुल जी को लेकर दिलचस्पी  रहती है लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि ‘भाषा’ और ‘इस्लाम’ के सवाल पर राहुल जी पार्टी लाइन की तरह नहीं सोचते थे शायद इसी वज़ह से वे कम्युनिस्ट पार्टी  से निकाले भी गए.
शिवपूजन जी किसी वाम दल में नहीं थे और न ही वे कांग्रेस के सदस्य  थे,  वैसे  राहुल जी ने १९४४ में एक पत्र में ‘सोवियत मैत्री संघ’ के सम्मेलन के लिए शिवपूजन जी से संदेश मांगते हुए लिखा है कि आपका सोवियत प्रेम प्रगट है. अब  क्या यह माना जाये कि वे साम्यवादी व्यस्था के समर्थक थे लेकिन मैं उन्हें प्रचलित  अर्थों में  वामपंथी नहीं मानता, उन्हें अधिक से अधिक गांधीवादी कहा जा सकता  है क्योंकि राष्ट्रीय  आन्दोलन के  अधिकतर बड़े लेखक गांधीवाद   से प्रभावित थे यहाँ तक कि प्रेमचंद  भी, लेकिन ये सभी लेखक कांग्रेस की नीतियों के कटु आलोचक भी थे. भाषा के सवाल पर राहुल जी, शिवपूजन सहाय और निराला के मत एक थे, हिन्दी-हिन्दुस्तानी के विवाद में उनमें मतैक्य था.
शिवपूजन जी और राहुल जी दोनों  का अपनी परम्परा से  गहरा  जुड़ाव था लेकिन वे परम्परावादी भी  नहीं थे. आज भले ही दक्षिणपंथी ताकतें परम्परा को हड़पने की कोशिश कर रहीं  हैं. इसका एक कारण यह भी है कि आज रामविलास शर्मा जैसे लेखक कम हैं  जो  परम्परा को ठीक से समझते हों. उन्होंने  परम्परा में प्रगतिशील तत्वों की खोज की. 

रामविलास जी १९२८ से शिवपूजन जी से पत्राचार करते रहे और एक पत्र में उन्होंने शिवपूजन जी को गुरु तुल्य   भी माना  है. उस संस्मरण में  उन्होंने लिखा है शिवपूजन जी पुरानी पीढी के साहित्यकार थे, उनका रंग ढंग  समझना   आसान   नहीं था. आख़िर  रामविलास जी का तात्पर्य पुरानी पीढ़ी से क्या था?  और उन्होंने  रंग-ढंग समझने की  बात क्यों कही? 
रामविलास जी ‘निराला की साहित्य साधना’ पुस्तक लिखने के क्रम में शिवपूजन जी से आज़ादी से पहले से  ही  संपर्क  में थे. ‘निराला की साहित्य साधना’ का प्रथम खंड उन्होंने शिवपूजन जी को ही समर्पित किया था और वह भी निराला के अनुरोध पर. आखिर निराला क्यों चाहते थे कि शिवपूजन जी को यह किताब समर्पित की जाये ? क्या वह शिवपूजन जी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना चाहते थे? क्या इसलिए कि जब निराला की ‘जूही की कली’  ‘महावीरप्रसाद द्विवेदी’ ने लौटा दी ‘सरस्वती’ से तो शिवपूजन जी ने ही उसे ‘आदर्श’ में छापा था.‘सरस्वती’ से लौटी एक और कविता को ‘माधुरी’ में छपने के लिए भेजा. निराला ने ‘पन्त और पल्लव’ नामक अपने प्रसिद्ध लेख में आदरपूर्वक इसका ज़िक्र किया है.
निराला ने अपने अंतिम  साक्षात्कार में जिन पांच व्यक्तियों  को अपना आजीवन शुभ चिन्तक  माना है उनमे एक  शिवपूजन जी थे. शिवपूजन सहाय तो विद्रोही नहीं थे निराला की तरह, फिर भी निराला शिवपूजन जी का इतना आदर   सम्मान क्यों  करते थे? निराला और शिवपूजन के आत्मीय रिश्ते को रामविलास  जी जानते थे. एक विडियो इंटरव्यू  में      रामविलास जी  शिवपूजन सहाय  और राधामोहन गोकुल जी से निराला के  रिश्ते को बताते हुए रुवांसे हो गए थे. निराला शिव जी को अग्रज मानते थे. जब हिन्दी की दुनिया में उनपर हमले हो रहे थे तो शिवजी उन्हें ‘देवात्मा’ बताकर हिन्दी का गौरव भी बढ़ा रहे थे.
राहुल जैसे व्यक्ति ने शिवपूजन जी पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ निकलने की योजना  बनाई  थी लेकिन उनकी बीमारी के कारण  वह ग्रन्थ योजना लटक गयी उसमे ‘वासुदेव शरण अग्रवाल’ जैसे इतिहासकार और ‘आचार्य विनय मोहन शर्मा’ ने भी लेख लिखे थे, राहुल जी की तीन किताबें शिवजी ने ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्’ से प्रकाशित की और उनमे से एक पर राहुल जी को  ‘साहित्य अकेडमी’ पुरस्कार मिला. 
शिवपूजन जी का व्यक्तिव राहुल जी  की तरह बहुत बड़ा है लेकिन वह गोपन अधिक है, संकोची और विनम्र भी. राहुल जी दूर से ही हिमालय  की तरह दीखते हैं. शिवजी का व्यक्तित्व समुद्र की तरह गहरा पर नदी की तरह शांत है. आप जितने उसके भीतर जायेंगे  आपको उनका व्यक्तित्व दिखाई देगा.  

फादर कामिल बुल्के ने लिखा है कि मैं स्वर्ग में जिस व्यक्ति से मिलना चाहूँगा वह शिवपूजन जी ही होंगे. जब राहुल जी एक बार उनसे ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्’ में मिले तो उन्होंने लिखा कि ऐसा सहज, सरल और आत्मीय लेखक  हिन्दी में दूसरा  है ही नहीं. 

शिवजी अपने सभी समकालीनों की प्रतिभा को निःस्वार्थ भाव से रेखांकित करते थे और स्वीकारते थे क्योंकि उनका सपना हिन्दी के  ज्ञान भंडार को समृद्ध करना था यही मकसद राहुल जी का भी था. दोनों की मैत्री का मूल आधार यही था. वह अपनी प्राचीन परम्परा  के प्रगतिशील तत्वों को आत्मसात कर प्रगतिशीलता को स्वीकार्य  करते थे हालाँकि निराला और शिवपूजन जी प्रगतिशील लेखक संघ  के कभी  सदस्य नहीं थे. राहुल जी सदस्य थे.

अगर शिवजी  विचारों से प्रगतिशील  नहीं होते तो ‘कहानी के प्लाट’  में एक स्त्री की शादी अपने बूढ़े पति के निधन के बाद सौतेले पुत्र से नहीं  करवा देते. तब वह  कितना क्रांतिकारी कदम रहा होगा उस जमाने में. भारतीय समाज आज भी ऐसे रिश्तों को स्वीकारता नहीं लेकिन शिव जी के भीतर छिपे लेखक को यह  गवारा नहीं था कि एक स्त्री भरी जवानी में विधवा हो जाये और उसका पूरा जीवन  बर्बाद हो जाये. कफ़न की तरह भी यह अपने समय पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करनेवाली कहानी थी. शिवजी अगर प्रगतिशील न होते तो उग्र का साथ वह नहीं देते ‘चाकलेट’ पर उठे विवाद पर जिसे ‘बनारसी दास चतुर्वेदी’ ने खड़ा किया था.
शिवपूजन सहाय की दस खंडों में प्रकाशित रचनावली में हिन्दी साहित्य का एक इतिहास छिपा है. उस रचनावली को जरुर पढ़ें. शिव जी अगर प्रगतिशील  न होते तो गांधी जी कि हत्या के बाद हिन्दू महासभा के एक निमंत्रण को ठुकरा न देते. शिवजी अगर प्रगतिशील  न होते तो प्रेमचंद निराला जैसे लेखकों की सोहबत  में न होते और उनका सम्मान न करते और उनके महत्त्व को रेखांकित न करते. प्रेमचंद के निधन पर प्रसाद जी के नाम उनका पत्र पढ़ लीजिये लेकिन वे प्रसाद के महत्त्व को भी जानते थे और  पर शिवजी की प्रगातिशीलता  उथली नहीं थी. उसमें प्रदर्शन नहीं था. वे तो आत्मगोपन के लिए ख्यात रहे. उनकी प्रगतिशीलता  अंतर्विरोधों से भरी नहीं थी, वह नारों में नहीं कार्यों में यकीन रखते  थी और आत्मप्रदर्शन आत्मप्रचार से दूर थी.
अज्ञेय ने भी एक पत्र में उनकी विनम्रता का जिक्र किया है. उसी रचनावली में बनारसी दास का एक पत्र शिवजी के नाम छापा है जिसमे चतुर्वेदी जी ने लिखा है कि साहित्य में  आपका  योगदान बड़ा  है मुझसे लेकिन आपको उतना प्रचार और यश नहीं मिला जिसके आप हक़दार   थे. १९२८ में ही शिव जी ने उग्र को लिखे एक पत्र में कहा कि वह कोई हिन्दी सेवी नहीं हैं और यश कामना  के लिए काम नही  करते हैं वह तो सिर्फ जीविकोपार्जन के लिए यह सब करते हैं. बनारसी दास उन्हें हिन्दी का दूसरा बड़ा हिन्दी सेवी मानते थे.
बाद में बनारसी दास राज्यसभा के सदस्य बने, शिवजी को भी राज्यसभा में भेजने की बात चली थी लेकिन उनकी डायरी से पता चलता है किवे इस तरह के झंझट और पचड़े में  पड़ना ही नहीं चाहते थे. उन्होंने अपनी अनिच्छा जाहिर कर दी बिहार के कांग्रेसी नेताओं के सामने. यह उनका संत स्वाभाव था. भारतीय परम्परा  को  इस सच्चे  संत भाव में समझा जा सकता है जिसमें सत्ता के प्रति कोई मोह नहीं था लेकिन आज दुर्भाग्यवश संत टाइप लोगों को राजनीतिक  संरक्षण प्राप्त हैं. इन्ही तत्वों ने परम्परा को बदनाम किया.
परम्परा  के नाम पर पोंगापंथी और अवैज्ञानिक चेतना को  बढ़ावा दिया गया  और दक्षिणपंथी राजनीति ने उसे प्रश्रय दिया. इस से परम्परा शब्द ही रूढ़  और संकीर्ण हो गया. लेकिन शिवजी और राहुल जी ने हिन्दी की चेतना को प्रगतिशीलता, श्रेष्ठता, ज्ञान-भण्डार-वांग्मय से जोड़ा. राहुल जी ने खुद १४० किताबें लिख कर यह काम किया तो  शिवजी ने ज्ञान विज्ञान की  कई कालजयी ग्रंथों को छापकर यह काम किया.
आज़ाद भारत में किसी एक संस्था ने  एक व्यक्ति के निःस्वार्थ प्रयासों से उतना कार्य नहीं किया जितना ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्’ ने. शिवजी ने उस ज़माने में स्त्रियों और आदिवासियों और लोक  की चिंता की जब उनदिनों इस तरह का  कोई विमर्श नहीं शुरू हुआ था. बिहार की महिलायें इसका एक प्रमाण है. इतिहास,धर्म, कला, संस्कृत से लेकर रबर और पेट्रोलियम  में भी उनकी दिलचस्पी रही. साथ ही लोक कला. लोक भाषा एवं अंचल की  की; तभी तो देहाती दुनिया जैसा नॉवेल लिखा जिस पर आंचलिक लेखन की बुनियाद  मज़बूत हुई  और एक ऐसा गद्य दिया जिसे विद्यानिवास जी ने सलोना गद्य कहा है.
निराला तो उन्हें हिन्दी का श्रेष्ठ गद्यकार मानते थे. शिवजी के गद्य में अलंकारिक रूप के साथ साथ ठेठ हिन्दी का ठाठ और व्यंग्य की मारक शैली भी है. वह सहज, सरल और ठोस भी है. उसमे एक कसाव है. एक विनम्रता और सज्जनता  भी.
विद्यानिवास  जी ने यह भी  लिखा है कि शिवजी प्रेमचंद, प्रसाद और निराला के बीच एक कड़ी थे और उनमे कलकतिया, बनारसी और लखनवी तीनो  रंग भी थे. कोलकाता में मतवाला मंडल में निराला के साथ, प्रेमचंद के साथ लखनऊ में और फिर बनारस में प्रसाद का निकट संग, वैसे यहाँ तब प्रेमचंद भी थे. शिवजी ने इन तीनों लेखकों के सानिद्ध्य में अपनी वैचारिकता का निर्माण किया. शायद इसलिए उन्हें न तो प्रेमचंद की दृष्टि से, न केवल निराला और न प्रसाद की दृष्टि से देखा जा सकता हैं. शिवजी  में एक उदात्त भाव, एक उदारता,  एक संतुलन और न्यायप्रियता शुरू से अंत तक विद्यमान  है. जिसका जितना योगदान है उसे उन्होंने  रेखांकित किया  है.

आम तौर पर हिन्दी साहित्य की छवि रामचंद्र शुक्ल के इतिहास से लोगों में बनी है लेकिन अब शिवजी के दस खण्डों में प्रकाशित समग्र को देखा जाये तो हिन्दी साहित्य का एक अन्य स्वरुप दिखाई देता है जो शुक्ल जी के इतिहास में  नहीं है. वह हिन्दी साहित्य का एक पूरक  इतिहास है. उस समग्र के लोकार्पण पर  नामवर जी ने स्वीकार  किया था कि हिन्दी साहित्य के पचास वर्ष शिवजी द्वारा निर्मित हैं.
अगर हमने अपनी  परम्परा के प्रगतिशील प्रतीकों का इस्तेमाल नहीं करते रहे तो दक्षिणपंथियों और हिंदुत्ववादियों के लिए खुला मैदान छोड़ देंगे. जरुरत है कि परम्परा प्रगतिशीलता और आधुनिकता के रिश्ते को समझा जाये. हिन्दी नवजागरण और राष्ट्रवाद के संघर्ष में यह बहस हिन्दी समाज और हिन्दी पट्टी में छिड़े तो शायद उन कारणों का पता  चले कि हम आज इतने अँधेरे में क्यों है.
मुक्तिबोध की यह  लम्बी कविता आज इतनी प्रासंगिक क्यों  हो गयी है जिसका अनुमान मुक्तिबोध को भी  नहीं रहा होगा. आज़ादी के बाद जिस तरह की प्रगतिशीलता समाज में  आयी उसकी  भाव भूमि तैयार करने में प्रेमचंद, निराला के साथ साथ  राहुल जी शिवपूजन जी   का भी योगदान है. अगर इन दोनों लेखकों  की १२५ वीं जयन्ती में हिन्दी पट्टी में हिन्दी  के विश्वविद्यालय और अकेडमिक जगत में  यह बहस हो  तो वाम प्रगतिशील तत्वों को भी आत्मवलोकन करने का अवसर मिलेगा कि आखिर उनसे कहाँ  चूक हुई  कि  मुक्तिबोध  के समय का  अँधेरा आज बढ़ता ही  जा रहा है.
जैसे गांधी जी ने कहा था कि मेरा जीवन ही मेरा सन्देश  है. शिवजी का व्यक्तित्व ही उनका चिंतन  और  साहित्य  है. शायद  रामविलास जी ने उन्हें ठीक से पहचान लिया था तब ही उन्होंने लिखा वे पुरानी पीढी के साहित्यकार थे उनका रंग-ढंग समझना आसन नहीं था लेकिन हमने न तो ठीक से अपनी परम्परा  को जाना,  न प्रगतिशीलता को और न ही आधुनिकता को. उनका कुपाठ  या अतिरिक्त पाठ ही  किया. यह हिन्दी में वाम आलोचना की त्रासदी  है. उसने एक ऐसी संकीर्णता और असहिष्णुता भी पैदा की जिसने अपनी परम्परा को ख़ारिज कर दिया.
शिव जी का जब निधन हुआ तो करीब तीन सौ लेखकों ने लेख लिखकर उनको स्मरण किया था. दस से अधिक पत्रिकाओं ने स्मृति अंक निकाले, आज हिन्दी समाज मे हम अपने बड़े लेखकों को इस तरह याद नही करते और न उनके प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त करते हैं. इसी बात में परम्परा और प्रगतिशीलता तथा हिन्दी प्रेम का प्रश्न छिपा हुआ है कि आखीर ५५ सालों में देश मे किस तरह का बदलाव हो गया है.
______
vimalchorpuran@gmail.com 

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