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Home » सत्यपाल सहगल की कविताएँ

सत्यपाल सहगल की कविताएँ

पंजाब की मिट्टी का असर वहाँ की उगी कविताओं में है चाहे उसकी भाषा कोई भी हो. सत्यपाल सहगल की कविताएँ पढ़ते हुए यह अहसास बना रहता है. गहन उदासी की यह परत जो इन कविताओं में फैली है उसमें बहुत कुछ इतिहास का है और यह ठीक आज का भी है. जैसे एक पूरी सभ्यता इससे ढंक गयी हो. आकार में ये छोटी-छोटी बीस कविताएँ सुगठित और मार्मिक हैं.

by arun dev
December 18, 2020
in कविता
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सत्यपाल सहगल की कविताएँ
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सत्यपाल सहगल की कविताएँ

 

1.

एक कविता और लिखूँ
पहचान लूँ अपनी उदासी का पत्थर
किसी दूसरे कवि का छिला टखना
हरी घास के हरेपन पर
सँवारूँ कुछ बेतरतीब ख़्याल

एक और कविता लिखूँ
उठवा दूँ ज़िंदगी का भारी गट्ठर
किसी भाई का

एक और कविता लिखूँ
औ’ सो जाऊँ
तुम्हारी सुबह में जागने तक

 

 

2.

अक्तूबर आते ही
बंदीगृह में पड़े किसी
दर्द की ग़ैरत जाग उठती है

सिक्के की तरह उछाला गया
दिन का सूरज
रात के चौराहे पर
आन गिरता है.

एक रूमाल
सारा साल जिस पर काढ़ता रहा

एक फूल
पूरा हो जाता है
तेरी बहुत याद आती है.

 

3.

मैं फिर से ढूँढने चला
हैरानी का समाजशास्त्र
अपने शहर को
एक खिलौने की तरह तोड़ डाला

एक बच्चे की तरह
चोट की स्क्रीन घूरता रहा
फिर, दृश्य बदल दिया

पराये देशों में
सपनों में जा जाकर
जितनी भी गर्द इकट्ठा की
एक सुबह उसे धो डाला

 

 

4.

ओ दूर देस के चाँद

मेरे आँगन में झाँक

मैंने तमाम चीख़ें संभाल कर रक्खी हैं.

तू उन पर पड़.

 

मैं अपने से वैसे ही दूर हूँ

जैसे कोई अपने देस से होता है.

मेरी आवाज़

किसी सिंध, चनाब या रावी में

गिर गयी है.

 

मेरी नाव तट पर बंधी है.

 

5.
आ, आवेग, मुझे उठा

कि खोल दूँ अपना द्वार

बाहर, तेज़ हवा

पुकारती है.

 

आसमान का एक टुकड़ा

घर के बाहर गश्त पर है.

रास्ता

डायरी के पन्ने की तरह खुला है.

 

मेरी हथेली की बेतरतीब हरकत

उठा ले पत्तियाँ गिरी

एक स्वप्न यहाँ से गुज़रेगा.

 

 

6.
नींद को तलवार की तरह चमकाओ

एक हसीन रात में

दुख का बदन चूम लो

 

अपनी बहती रूह को

किनारे ठेल दो

अपने सुख पर

धूप की तरह चमको

 

उसका ख़याल लाओ

फिर लाओ

उसका ख़याल

नहीं छोड़ना कभी.

 

 

7.
ओ सुबह के फड़फड़ाते पंछी

मैं एक मुँडेर हूँ

आ बैठ जा,फिर उड़ जाना

 

एक दीवार बन जाता हूँ

अपनी छाया उस पर गिराना

 

हो सके तो ले जाओ मेरी याद

जहाँ भी जाना

दिनों का रेला लिए

 

मैं एक मुँडेर हूँ

औ’ मेरे सामने एक खुला

मैदान है.

 

 

8.
यह तीसरी दुनिया की धूप है श्रीमान

यह गाय-भैंसों

औ’ खपरैलों पर पड़ती है

यह मूर्ख है

यह कूड़े के ढ़ेर पर भी पड़ती है

 

इसकी शर्ट के बटन खुले हैं

तमाम दीवारों के साये खदेड़ती रहती है

इसे मैंने अक्सर हाफंते देखा है

रेवड़ों के पीछे

इसे मैंने पहाड़ों पर देखा था

 

रेले की तरह

सड़क पर जाती है.

 

 

9.
उदासी की भीड़ मेरे पीछे

मधुमक्खियों का छत्ता

मैं बचता फिरता

 

मैं उसे लट्ठ की तरह छीलता रहता

उसकी तेज़ लहरों में

डोलती रहती मेरी नाव

उसका फूल सूंघता

औ’ नशे में भर जाता

 

कटी पतंग की तरह थी

अब वह भी नहीं

कहाँ उड़ायी जाती अब पतंगें .

 

 

 

10.
नाम उसका कोई और रहा होगा

मैं प्यार से उसे उदासी कहता

वह अपने से प्यार करती थी

मैंने नोट किया

 

रस्सी पर सूखती चूनर की तरह

मेरे सामने फैली रहती

मैं क़स्बा था

शहर से बड़ी दूर

 

वहाँ मुझे वह पहली बार मिली

एक पता पूछती हुई.

 

 

11.
दुख होता है नदी का किनारा

टूटता रहता है

किनारा तो रहता है

सदा वही नहीं रहता है

 

दुख, सूरज का गोला है

दोपहर में चमकता

शाम को डूब जाता है

 

तुम दुख की नाव में बैठ कर

मेरे पास आए

चाहे, मैं एक सुख था

जैसा तुम कह रहे हो.

 

 

12.
बिल्कुल इस हवा की तरह

कहानी बहती है

देखो, दुनिया में इक हवा ही है

जो लौट आती है

 

वह तुम्हारी जेब में भी है

तुम्हारे फेंके पत्थर से लिपटी

पेड़ पर रेंगती रहती है

जब पत्ते कहते फिरते हैं

हमें नहीं पता कहाँ हवा

 

वह सब के घर जाती

सोचा कभी…

 

 

13.
उदासी हरा पत्ता है

सदाबहार हरा पत्ता

हमारे सपनों के खेत में

 

हमारा ख़ून है

घर के सामने की सड़क

लिखने की टेबल

 

वह आकाश

जो हमारे भीतर है.

 

 

14.
अपनी उदासी से बाहर जाओ

पर शाम तक लौट आओ

 

हत्या हत्या के शोर में

उदासी सम्भाल कर रखना

माँ की अमानत

बाप की आशा

 

साफ़ रखना

उदासी का घर

एक कमरा

अजनबियों के लिए रखना

भूले-भटके.

 

 

 

15.
वह दबे पाँव नहीं आयी

अकेले भी नहीं…

पूरे लश्कर के साथ

 

हथियार न डालता

तो क्या करता

 

उस से किया इश्क़

जिसने दी शिकस्त

हज़ार बार

 

बंदी बना उसका

पाश में बँधा.

 

 

16.
पंछी था पिछले जन्म

इच्छा थी

मनुष्य बनूँ इस जन्म

 

पूरी नहीं हुई कामना

फिर बना पंछी

 

आकाश में घर

जंगल में घरौंदा

शाम से पहले

नहीं लौटा

अपने वन तक

 

परवाज़ को देखो मेरी

औ’ बताओ

कैसी है…

 

 

17.
पुल था

गुज़रता पथिक था

पुल का.

 

पुल हूँ

गुज़रता पथिक हूँ

पुल का.

 

सरहद

जो फ़र्लांग दी जाती है.

कँटीली बाड़

जो काट दी जाती है.

 

बूँद था

पाँव से बहते

लहू की.

 

 

18.
नदी के किनारे फैंके

सूखी लकड़ियों के गट्ठर की तरह

पुराने दुख

 

बिजली की तार पर बैठा

पंछी उड़ जाता है

पुराने दुख की तरह

 

पुराने दुख लौट आ

 

यह तुम्हारा ही घर है

पुराना

औ’ पुश्तैनी.

 

 

19.
लौट आता है पुराना दुख

सकुचाता

नदी के रास्ते

 

पहाड़ की चोटियाँ फलाँगता

अनाम गड़रिया कोई

 

मृत भाषा की तरह

पुराने दुख का उल्लेख होता है

 

वही मुझे समझता है

शेष सब

सभ्यता है.

 

 

20.
इतना दुख था पास

कैसा दुर्भाग्य?

उसे गँवाता रहा

जो मेरा अपना था

 

दुख, तू मेरी बहन के

बेटे जैसा है.

 

ओ, दुर्लभ प्रजाति

वे शहर मिट रहे हैं

जहाँ तू मिल जाता था

 

पुराने दुख आजा

तुझे खोया बहुत मैंने.

 

कवि, आलोचक और अनुवादक, सत्यपाल सहगल का सम्बंध भारत पाक विभाजन के फलस्वरूप विस्थापित परिवार से है. सुनाम ( पंजाब) में जन्म और सिरसा ( हरियाणा) में कालेज तक की शिक्षा, एम. ए. और पीएच.डी (हिंदी) पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ से. वही हिंदी विभाग में पिछले तीन दशक से अध्यापन, वर्तमान में प्रोफ़ेसर. विभागाध्यक्ष भी रहे. लगभग एक दर्जन पुस्तकें प्रकाशित. प्रसिद्ध पंजाबी कवि लाल सिंह दिल की प्रतिनिधि कविताओं का हिंदी में अनुवाद. कुछ आलोचनात्मक लेखन अंग्रेज़ी में भी.

satyapalsehgal@gmail.com 

 

Tags: कविताएँ
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