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Home » सबद भेद : अनामिका की स्त्रियाँ : राजीव रंजन गिरि

सबद भेद : अनामिका की स्त्रियाँ : राजीव रंजन गिरि

पेंटिग : हुसैन “ईसा मसीह औरत नहीं थे वरना मासिक धर्म ग्यारह वर्ष की उमर से उनको ठिठकाए ही रखता देवालय के बाहर !”   (मरने की फुर्सत: अनामिका) हिंदी कविता के मानचित्र में अनामिका का अपना मुकाम है, कविता को स्त्रीत्व (और ऐन इसी कारण उनकी यातनाएं भी) से जोड़ते हुए उसमें उन्होंने अंतर्वस्तु, भाषा […]

by arun dev
June 26, 2015
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पेंटिग : हुसैन


“ईसा मसीह
औरत नहीं थे
वरना मासिक धर्म
ग्यारह वर्ष की उमर से
उनको ठिठकाए ही रखता
देवालय के बाहर !”  
(मरने की फुर्सत: अनामिका)
हिंदी कविता के मानचित्र में अनामिका का अपना मुकाम है, कविता को स्त्रीत्व (और ऐन इसी कारण उनकी यातनाएं भी) से जोड़ते हुए उसमें उन्होंने अंतर्वस्तु, भाषा और शिल्प का एक नया धरातल निर्मित किया है.  राजीव रंजन गिरि ने अनामिका की काव्य- संवेदना और उनकी विशिष्टता को इस आलेख में देखा-परखा है.
अनामिका की स्त्रियाँ                  
राजीव रंजन गिरि


हिन्दी कविता में जिन रचनाकारों ने स्त्री-रचनाशीलता को एक कोटि के तौर पर स्थापित किया, अनामिका उनमें अग्रणी हैं. ऐसा नहीं है कि हिन्दी में स्त्रियाँ कविताएँ नहीं रचती थीं, अथवा उनकी कविताओं को जगह नहीं मिलती थी. काव्य-रचना के इलाके में अनेक स्त्रियों ने, अपनी सृजनशीलता से, अलहदा मुकाम बनाया था. इनकी रचनाओं में स्त्री की आवाज भी थी, जो इनके समकालीनों से जुदा थी. कई दफे स्त्री रचनाकारों की रचनाओं में मुख्तलिफ स्वर भी मिलते हैं. इन तमाम किस्म के स्वरों का समुच्चय थी सृजनात्मकता. इतिहास के जिस दौर में कवि अनामिका अपनी रचनात्मक ऊर्जा के साथ सामने आयीं, उस समय तक स्त्री की रचनाशीलता को एक कैटेगरी की तरह देखने का चलन नहीं था.

अकादमिक हलकों का, अगर दो मोटे किस्म का विभाजन करें, तो कहना होगा कि समाज-शास्त्र से सम्बद्ध लोग इसे दबी जुबान से सही स्वीकार करने लगे थे. परन्तु साहित्य-संसार में वह दृष्टि विकसित नहीं हो पायी थी कि स्त्री की रचनात्मकता को अलग तरीके से देखा जाए. यहाँ इशारा पुरातनपन्थी ख्याल के लोगों की तरफ नहीं किया जा रहा है अपितु तरक्की पसन्दगी का दावा करने वाले लोगों को  इसके दायरे में रखा जा रहा है. अपनी वैचारिक समझ को प्रगतिशील समझने वाले लोग स्त्री को वर्ग के वृत्त से बाहर नहीं देख पा रहे थे. वर्ग की कैटेगरी से जुडऩे के बावजूद स्त्री की एक भिन्न कोटि होनी चाहिए, हिन्दी-साहित्य के नामवरों का ऐसा ख्याल नहीं बना था. इस दौर में सक्रिय स्त्रियों पर भी इसका असर दिखता है. वे भी खुद की रचनाओं को पृथक कर देखे जाने की हिमायती नहीं थीं. हालाँकि इनकी रचनाओं में वे चिह्न मौजूद थे, जो उन्हें रचनाकारों के सामान्य वर्ग में रहने के बावजूद एक भिन्न कोटि का बतलाते थे. कहना न होगा कि उन चिह्नों के मूल में उनकी रचनाओं में निहित विशिष्ट स्त्री-तत्त्व था.

अनामिका की पीढ़ी की स्त्री-रचनाकारों की  प्राथमिक अहमियत यही है कि इन लोगों ने अपने स्वर की खासियत को देखे जाने का इसरार किया. साहित्य की व्यापकता में शामिल होने के बावजूद निज अभिव्यक्ति की खसूसियत पर अतिरिक्त बल दिया. अनामिका द्वारा सम्पादित ‘कहती हैं औरतें’ इसी इसरार का सबूत है. तब की साहित्य-समीक्षा, स्त्री-रचनात्मकता की विशिष्ट व्याख्या करने में तंग प्रतीत होती थी. ऐसे में, अनामिका ने दोनों मोर्चों पर काम किया. एक, उन कोनों-अँतरों को काव्य-स्वर प्रदान किया, जो अब तक कविता की परिधि से बाहर थे. दो, ऐसी कविताओं में अन्तर्निहित, विशिष्टता की व्याख्या भी की. इन्हें सैद्धान्तिक जामा भी पहनाया. अपने इन्हीं अवदानों से अनामिका हिन्दी स्त्री-कविता में अग्रणी बनीं.

वैचारिक विमर्श में स्त्री को एक कोटि के तौर पर स्थापित करने के लिए स्त्री-अस्मिता का अतिरिक्त रेखांकन आवश्यक है. स्त्री ही क्यों किसी भी अस्मिता की पहचान के लिए यह पहल जरूरी है. किसी भी कैटेगरी की इयत्ता को अलग समझा जाए, इसके लिए उसकी विशिष्टता को अलगाकर दिखाना अपेक्षित है. स्त्री के मामले में अपेक्षाकृत जटिल प्रत्यय है. कारण कि हर तरह की कै टेगरी में यह समाहित है और उससे अलग भी. मिसाल के तौर पर कहना होगा कि वर्ग, जाति, दलित, आदिवासी, अश्वेत (ब्लैक) आदि जितनी तरह की कोटियाँ बनायी जाएँगी, स्वाभाविक रूप से स्त्री इनमें समाहित होगी. फिर भी स्त्री की एक अलग कोटि भी बनेगी. यह जटिलता स्त्री-अस्मिता के मसले को और पेचीदा बनाती है. लिहाजा अन्य अस्मिताओं के साथ इसकी सम्बद्धता और असम्बद्धता की बारीक पहचान जरूरी है. स्त्री-अस्मिता ने अन्य अस्मिताओं के साथ ही नहीं, बल्कि अपने ‘अन्य’ पुरुष व्यक्ति सत्ता के साथ भी सम्बद्धता और असम्बद्धता की तनाव भरी रस्सी पर कदम बढ़ाया है. स्त्री ‘अन्य’ के साथ सम्बद्ध होकर भी असम्बद्ध रही है और असम्बद्ध में भी सम्बद्ध रही है. यह एक खास किस्म का विरागात्मक राग है और रागात्मक विराग, जो आज भी जारी है. अनामिका की कविताएँ, इस वैचारिक जटिलता में सन्तुलन स्थापित करते हुए, सार्थक हस्तक्षेप करती हैं.

यहाँ पर एक और आयाम गौरतलब है, सीधे-सीधे विचार की दुनिया में मुठभेड़ अलग बात है और साहित्य (यहाँ कविता के क्षेत्र में) रचते हुए विचार की प्रस्तावना अलग बात. कारण कि कविता महज विचार नहीं है. आखिर वे भिन्न अवयव ही होते हैं जो उसे काव्यात्मकता प्रदान करते हैं. इसके बगैर कोई विशिष्ट विचार तो सामने आ सकता है, पर उसे व्यक्त करने का अन्दाज उसे कविता की श्रेणी में शामिल नहीं होने देगा. अनामिका की पीढ़ी के रचनाकारों ने जिस तरह सपाट ढंग से विचारों को उगल भर दिया है, वे महत्त्वपूर्ण विचार होने के बावजूद, कमजोर कविता ही बन पायी हैं. कविता के शिल्प में विचार को अनुस्यूत करना जटिल कलात्मकता है. ऐसा कहने का मतलब कविता के स्थापत्य में किसी बदलाव से इनकार करना नहीं है. नितान्त भिन्न परिप्रेक्ष्य और अलहदा स्वर के आने से कविता या किसी भी विधा के स्थापत्य में नवाचार सम्भव है. पर यह नवाचार कविता की शर्त पर नहीं होगा. आशय यह है कि ऐसे किसी भी अस्मितावादी स्वर को पहले कविता होना होगा. कविता होने के बाद उसकी विशिष्टता का रेखांकन होगा. कहना न होगा कि अनामिका की कविताएँ इसकी सफल मिसाल हैं.

‘खुरदरी हथेलियाँ’ अनामिका की कविताओं का एक विशिष्ट संग्रह है. इस संग्रह की दो कविताओं के विश्लेषण के जरिये अनामिका की अभिव्यक्ति के अन्दाज और उसमें निहित विशिष्ट स्वर को इस आलेख में पेश किया जा रहा है. संग्रह की शीर्षक-कविता ‘खुरदरी हथेलियाँ’ में अनामिका ने कहा है कि ‘‘हालाँकि ज्योतिषी नहीं हूँ मैं. दानवीर कर्ण भी नहीं हूँ-/ पर देखी है मैंने फैलती सिकुड़ती हथेलियाँ/ कई तरह की!’’ जाहिर है कवि ने किसी की हथेली को ज्योतिषी या दानवीर की निगाह से नहीं देखी है. यहाँ ‘हथेलियों के फैलने और सिकुडऩे’ का बिम्ब काबिले गौर है. हथेलियों का फैलाव और सिकुडऩ पूरी कविता में विन्यस्त है. आखिर किसकी हथेली फैलती है और किसकी सिकुड़ जाती है? सोचने की बात यह भी है कि कवि ने कई तरह की हथेलियों को कैसे देखा है? बकौल अनामिका ‘हाथों में हाथ लिये और दिये हैं कितनी बार!’’ हाथों में हाथ लेने और देने से एक मजबूती पैदा होती है. दो हाथों की संवेदनात्मक ऊष्मा से रिश्ता प्रगाढ़ बनता है और कोमल भी.

यह एक बड़ी सच्चाई है कि ‘दुनिया का सबसे मजबूत और नाजुक पुल होते हैं. दो लोगों के बढक़र मिले हुए हाथ!’ कहना न होगा कि हाथों के जरिये दो लोगों के रिश्तों में व्यापकता आती है और गहराई भी. ‘मजबूत’ और ‘नाजुक’ को इस प्रसंग में अनामिका ने जिस तरह अभिव्यक्त किया है, वह ध्यान देने लायक है. अमूनन ‘मजबूत’ और ‘नाजुक’ को विपर्यय समझा जाता है; पर यहाँ दोनों एकाकार हो गये हैं. मजबूती के साथ नाजुक. यहाँ मजबूती न तो आक्रामक वृत्ति से जुड़ती है और न नाजुक कमजोरी के साथ.
अनामिका की यह कविता अपनी विशिष्टता के बावजूद बरबस ही हिन्दी के दो श्रेष्ठ कवियों– केदारनाथ सिंह और अरुण कमल-की कविताओं की याद दिलाती है. खास बात यह भी है कि अनामिका की यह कविता उक्त दोनों कवियों की कविताओं से जुड़ती है और अलग भी हो जाती है. केदारनाथ सिंह अपनी कविता में किसी कोमल हाथ को अपने हाथ में लेकर सोचते हैं कि दुनिया को ऐसे ही मुलायम और नर्म होना चाहिए. यह कवि की सदिच्छा भर है. इस कविता का दायरा रोमानी भावों तक सीमित है, जबकि अनामिका की कविता में दो लोगों से बढक़र मिले हुए हाथ, दुनिया का सबसे मजबूत और नाजुक पुल होते हैं. इस पंक्ति में ‘बढक़र’ शब्द, अर्थ-विस्तार करता है. हाथ बढ़ाना, रिश्ते के प्रारम्भ का सूचक है. हाथ बढ़ाने से ही हाथ बँटाने की शुरुआत होती है.

अनामिका की यह कविता का काल-बोध तीन चरणों का है. मुहम्मद रफी की आवाज के जरिये अपने बचपन को अनामिका ने समाहित किया है. जब ‘रफी साहब’ गाते थे ‘नन्हें-मुन्ने बच्चे, तेरी मुट्ठी में क्या है?’ तो अगली पंक्ति ‘मुट्ठी में है तकदीर देश की’– सुनने के पहले बालमन भोलेपन में, अपनी नन्हीं हथेली में रखे चॉक लेट को जेब में छुपाने लगता था. दूसरा चरण, युवावस्था का है; जब हाथों के तोते उड़ गये. अनामिका लोक में प्रचलित कहावतों, मुहावरों और शब्दावली से रचनात्मकता के पाट को चौड़ा करती हैं और कलात्मक भी बनाती हैं. इस कविता के विश्लेषण के दौरान केदारनाथ सिंह के अलावा अरुण कमल को भी याद किया गया था. अरुण कमल की कविता ‘खुशबू रचते हाथ’ में वर्ग-वैषम्य को उजागर किया गया है. खूशबू निर्मित करने वाले हाथ कितने अभाव और गन्दगी में जीवन बिताते हैं, इसे रचनात्मक कौशल से अरुण कमल ने चित्रित किया है. अनामिका की कविता का आखिरी हिस्सा ‘खुशबू रचते हाथ’ से, भिन्न आयाम रचता है. वैचारिक बिन्दु के हिसाब से यह भी कहना होगा कि अरुण कमल ने मजदूर वर्ग को अपनी उक्त कविता में चित्रित किया है, पर अनामिका की कविता का चित्र मजदूर की कैटेगरी में शामिल होने के साथ-साथ स्त्री पर केन्द्रित है.

अनामिका की कविता का यह अंश पढ़ें– ‘‘कल एक बरतन पोंछने वाले जूने से छिदी हुई, पानी की खायी/सुन्दर-सी खुरदरी हथेली/ तपते हुए मेरे माथे पर / ठंडी पट्टी-सी उतर आयी! मारे सुख के मैं/सिहर ही गयी!’’ झाड़ू पोंछा करने वाली मजदूरनी की, पानी की खायी खुरदरी हथेली के साथ कवि ने ‘सुन्दर’ विशेषण का उपयोग किया है. खुरदरापन सौन्दर्य के पारम्परिक शास्त्र का अतिक्रमण करता है. खुरदुरापन, अनगढ़पन सौन्दर्य के साथ नवाचार करता है. यह श्रम के कारण निर्मित हुआ है. इस प्रसंग में सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की ‘तोड़ती पत्थर’ और संजीव की कहानी ‘दुनिया की सबसे हसीन औरत’ की याद भी स्वाभाविक है. कोमल हथेली के बरअक्स कड़ी, खुरदरी हथेली को सौन्दर्य का मानक बनाना सुन्दरता के मयार को बदलने की प्रस्तावना है. जब जूने से छिदी हुई और पानी की खायी, एक सुन्दर खुरदुरी हथेलीे से तपते माथे को सहलाया तो गोया वह ठंडी पट्टी जैसी अन्दर उतर गयी. इस स्पर्श ने सुख दिया और सिहरन भी पैदा की. तपते माथे को खुरदरी हथेली अटपटी नहीं लगी. रूखड़ी भी नहीं. अनामिका का कवि-मन यहीं तक सीमित नहीं रहता. वह पानी की खायी उसकी उँगलियों को उठाकर देर तलक सोचती रहती हैं. ‘‘फिर पानी की खायी. उसकी वे उँगलियाँ उठाकर. देर तक सोचती रही. निचली सतह का तरफदार. आबदार/ सीधा-सरल होने के बावजूद. पानी खा पाता है कैसे भला. मांस-मज्जा/ दुनिया की सबसे पानीदार/नमकीन, कामगार हथेली को?’’

काम करने वाली स्त्री की सबसे पानीदार, नमकीन और कामगार हथेली की मांस-सज्जा को पानी कैसे खा जाता है, यह कवि की चिन्ता का सबब है. दुनिया की सबसे पानीदार हथेली को पानी ही खा जाता है. अनामिका ने जिस पक्ष को अपनी कविता के इस हिस्से में चित्रित किया है, वह निहायत निजी स्वर है कवि का. माथे की तपन पर हाथ ठंडी पट्टी का अहसास देती है, अगर यहीं तक सीमित होता कवि-मन तो आगे की पंक्तियाँ, जहाँ इस कविता की आत्मा है, अभिव्यक्ति पाने से वंचित रह जाती. उस मजूदर स्त्री की उँगलियाँ उठाकर कवि देर तलक सोचती है. उसे विस्मय होता है कि आखिरकार पानी कैसे खा जाता है, माँस-मज्जा को? और वह भी उस हथेली की, जो दुनिया की सबसे पानीदार नमकीन कामगार की है. विडम्बना देखिए कि पानी भी किसकी मांस-मज्जा को खाता है? ज्यादा देर तलक पानी में जो हाथ डूबा रहता है, उसी को. जो हथेलियाँ पानी के साथ अधिक वक्त बिताती हैं, उसे खा जाता है.

अनामिका ने ‘डाक टिकट’ पर एक कविता लिखी है. ‘डाक टिकट’ शीर्षक कविता में रचनाकार स्त्री-पुरुष के रिश्ते की जटिलता का बखान करती है. इसमें स्त्री-पुरुष सम्बन्ध की कोमलता और तनाव को अनामिका ने डाक-टिकट के बिम्ब से रचा है, वह बरबस ध्यान खींचता है. स्त्री-पुरुष के मध्य अन्योन्याश्रय सम्बन्ध होता है. दोनों की परस्परता और पूरकता से परिवार की रचना होती है. इस परस्परता में सत्ता-सम्बन्ध भी निर्मित होता है और रिश्ते की कोमलता के साथ-साथ तनाव भी पनपता है. अनामिका की पंक्तियाँ देखें– ‘‘बच्चे उखाड़ते हैं/ डाक टिकट/ पुराने लिफाफों से जैसे-/ वैसे ही आहिस्ता-आहिस्ता/ कौशल से मैं खुद को/ हर बार करती हूँ तुमसे अलग!’’

इस कविता की स्त्री खुद को समर्पित कर, पुरुष की व्यक्ति-सत्ता में लीन होकर, प्रसन्न-भाव से रहने वाली नहीं है. वह आहिस्ता-आहिस्ता खुद को अलगाती है. पूरी कुशलता के साथ. ऐसा लगता है कि यह स्त्री परम्परा प्रदत्त पितृसत्ता के प्रभाव से खुद को अलगाती है, जैसे प्यार से बच्चे पुराने लिफाफों से डाक-टिकट उखाड़ते हैं. इस प्रक्रि या में डाक-टिकट की मानिन्द ‘‘मेरे किनारे फट जाते हैं. कभी-कभी कुछ-न-कुछ मेरा तो/निश्चित ही/ सटा हुआ रह जाता है. तुमसे!’’ कविता समझाती है कि अलगाव के क्रम में किनारे जरूर फ टेंगे और व्यक्तित्व का कुछ-न-कुछ अवश्य जुड़ा रह जाएगा. यह कविता स्त्री-विमर्श के विकास का सूचक है. इससे पता चलता है कि स्त्री और पुरुष भिन्न व्यक्ति-सत्ता होते हुए भी एकमएक हैं. यह कविता स्त्री की तरफ से लिखी गयी है. कविता बताती है कि स्त्री का कुछ-न-कुछ पुरुष में सटा रह जाता है. आशय यह है कि स्त्री को अलगाना पड़ता है, खुद को पुरुष से. कारण कि स्त्री के व्यक्तित्व का विलय हुआ था पुरुष सत्ता में.

अनामिका की कविता इस विलय को बखूबी समझती है और अपने व्यक्तित्व की हिफाजत के लिए, अलगाव पर बल देती है. बगैर अलगाव के स्त्री व्यक्तित्व की स्थापना नहीं हो सकती है. अनामिका ने इस दौरान जो काव्य उपचार किया है, काबिलेगौर है. कविता में, अलग करने के दौरान जैसे कभी किनारे फट जाते हैं, डाक टिकट के; वैसे ही स्त्री का भी अलगाव के दौरान कुछ-न-कुछ छूट जाता है, चिपका रह जाता है. इसी वजह से ‘थोड़ा-सा विरल/झीना-सा हो जाता है. मेरा कागज. धुँधली पड़ जाती हैं. मेरी तस्वीरें. पानी के छींटे से. और बाद उसके हवा मालिक. उड़ा लिये जाए मुझे, जहाँ चाहे.’’
थोड़ा विरल, थोड़ा झीना होने की हालत में हवा का झोंका उड़ा ले जाएगा, यह रचनाकार को गवारा है. परन्तु अपने व्यक्तित्व को पुरुष-सत्ता में विलय कर देना नहीं, यह खास बात है.

कविता के जरिये स्त्री-विमर्श में हस्तक्षेप करते हुए अनामिका स्त्री और पुरुष को भिन्न कोटि में रखते हुए भी, दोनों को एक-दूसरे का विरोधी बनाकर नहीं रचतीं. स्त्री और पुरुष की आपसी सम्बद्धता और परस्पर तनाव को अनामिका कलात्मक तरीके से सृजित करती हैं. यही खूबी इन्हें अनन्य बनाती है.
________________ 

राजीव रंजन गिरि
दूसरी मंजिल, सी 1/3, डीएलएफ अंकुर विहार,
लोनी, गाजियाबाद-201102 उ.प्र.
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