उदय प्रकाश सर्वाधिक लोकप्रिय कथाकारों में से हैं. हिंदी कहानी को उन्होंने संवेदनशील भाषा दी है, यथार्थ के अंकन की एक नई शैली ईजाद की है. युवा कथाकरों पर उनका ज़बरदस्त प्रभाव है. उनके कथा तत्व का जादू अभी भी बरकरार है. इसके साथ ही वह एक श्रेष्ठ कवि और विचारक भी हैं. उनकी रचनाओं के देशी और विदेशी भाषाओँ में अनुवाद हुए हैं.
कवि समीक्षक प्रेमचंद गाँधी ने उनकी कुछ कहानिओं को आधार बनाकर उनमे घर-परिवार की उपस्थिति की देखा परखा है. विस्थापन को वह उदय प्रकाश की रचनाशीलता का एक महत्वपूर्ण उत्प्रेक-कारक मानते हैं. इसके साथ ही उदय प्रकाश की दो कहानियाँ भी दी जा रही हैं जिनका ज़िक्र इस लेख में हैं.
उदय प्रकाश की कहानियों में घर-परिवार
प्रेमचंद गांधी
मुझे उदय प्रकाश की कहानियों में ‘नेलकटर’ सबसे ज्यादा पसंद है. इसके बाद ‘छप्पन तोले का करधन’, ‘तिरिछ’ और ‘अपराध’. यूं उनकी और भी कहानियां मेरी पसंदीदा कहानियों में हैं, लेकिन इन तीन कहानियों में भारतीय समाज में मां, पिता, भाई, बुआ, चाचा, दादी और दादा के जो चित्र हैं, उनके आधार पर मैं एक पाठक की हैसियत से कुछ कहने की कोशिश करूंगा. सभी कहानियां मानवीय संबंधों की कहानियां होती हैं. लेकिन मनुष्य के तौर पर हमारा पहला संबंध अपने परिवार के सदस्यों से ही बनता है जो हमारे बनने की दिशा तय करता है कि हम आगे जाकर क्या और कैसे बनेंगे. मेरी पसंद की इन कहानियों में आपको एक रचनाकार के तौर पर उनके अपने बनाव की बुनियादी चीजें मिलेंगी तो संबंधों की गहराई और कचोट भी इतनी ही तीव्रता से महसूस होगी. ये कहानियां अपनी बुनावट में हिंदी कहानियों में अब क्लैसिक का दरजा पा चुकी कहानियां हैं. मैंने कोशिश की है कि इन कहानियों के आधार पर समय और समाज के साथ पारिवारिक रिश्तों को देखा जाए. उनकी बहुत सी कहानियों में इन संबंधों की गहन विवेचना देखी जा सकती है, लेकिन मैंने अपनी पसंद से ये चार कहानियां ही चुनी हैं. वैसे उदय प्रकाश की एक बेहद छोटी कहानी है ‘घर’. पहले आप इस कहानी को देखिये:
\’बहुत देर से नक्शे को देख रहा था. फिर उसने वह नदी खोज निकाली जो उसके घर के पास से बहती थी. फिर उसने वह पहाड़ भी खोज निकाला जो उसके घर से मुश्किल से तीन किलोमीटर दूर था और जहां गर्मियों में वह चारा तोड़ने जाता था.यहां, इस जगह पर कहीं घर होना चाहिये. उसने नक्शे पर एक जगह पेंसिल की नोक रखी
तभी उसने ध्यान दिया – नक्शा जिस देश का था, वह वर्षों पहले खत्म हो चुका था.‘
हम सब ही कहीं न कहीं से विस्थापित लोग हैं या कहें कि दुनिया की अधिकांश आबादी या तो विस्थापित है या विस्थापन की राह पर है. तो हम सब इस कहानी के पात्र की तरह नक्शों में अपना मूल घर-गांव तलाश कर रहे लोग हैं. हमसे वो नदी-पहाड़-जंगल छूट गये हैं या कि छूटते जा रहे हैं, जिनके साथ हमारा पुरखों जैसा रिश्ता रहा. अब हमारे पास ऐसा कुछ भी नहीं बचा है, जिसे हम नक्शों में भी खोज सकें. इस कहानी की आखिरी पंक्ति बहुत मार्मिक है, लेकिन इसे जादुई यथार्थवाद या कि उड़ती हुई कल्पना न समझें, यह एक बहुत भयावह यथार्थ है, हमारे पास अपने मूल घर-गांव के जो भी नक्शे हैं, वे सचमुच बरसों पहले खत्म हो चुके देशों के हैं. हमारे पास अब देश या राष्ट्र की वो शक्ल ही नहीं रह गई है, जिसमें हम बड़े होकर जीना चाहते थे.
पहले विश्वयुद्ध के समय से ही नहीं, इससे भी बहुत पहले, कहना चाहिये कि जब से मनुष्य ने अपने लोभ और लालच के लिए धर्म या सत्ता के नाम पर इलाकों को जीतने का सिलसिला शुरु किया तभी से सामान्य आदमी विस्थापन के लिए विवश हुआ है. सोचिये कि मानव सभ्यता ने इतिहास में कितने हमले सहन किये हैं और उन हमलों में कितने करोड़ लोगों को अपना घर-संसार ही नहीं सामाजिक-पारिवारिक संस्कार भी छोड़ने पड़े होंगे. आज हम नहीं जानते कि असल में हमारा मूल क्या है. तमाम सभ्यताएं पहाड़ों के पास बहने वाली नदियों के आंचल में विकसित हुई हैं, तो हम किस नदी का पानी पीकर फैले हुए कबीले के वंशज हैं, हम नहीं जानते. हम नहीं जानते कि हमारे आदिम संस्कार क्या थे और कैसे वो जंगल, नदी, पहाड़ और देश खत्म हो गये. उदय प्रकाश की बहुत-सी कहानियों में इस विस्थापन के दर्द को बेहद तनाव के साथ महसूस किया जा सकता है और इस तनाव में आप मनुष्य के सबसे नजदीकी रिश्तों को देखेंगे तो मन हाहाकार कर उठता है.
‘नेलकटर’ कहानी का पूरा वातावरण देखें तो बारिश के दिनों का वर्णन है. ऐसा आत्मीय वर्णन जिसमें कुदरत के साथ मनुष्य के संबंध इतने सहज हैं कि आज के समय उन दृश्यों की कल्पना ही रूमानी-सी लगती है. ‘इसी महीने राखी बंधती है. कजलैंया होती है. नागपंचमी में गोबर की सात बहनें बनाई जाती हैं. धान की लाई और दूध दोने में भरकर हम सांपों की बांबियां खोजते फिरते हैं.‘ ऐसी बारिश के दिनों में मां अपनी अंतिम सांसें गिन रही है. एक ऐसी मां, जिसकी आवाज बीमारी ने छीन ली है और जो गले में डॉक्टरों द्वारा लगाई गई नली से ही भोजन लेती है और उसी से सांस ले पाती है. उसी नली से उनकी यांत्रिक-सी आवाज निकलती है. ‘मां को बोलने में दर्द बहुत होता होगा. इसलिए बहुत कम ही बोलती थीं. उस यंत्र जैसी आवाज में हम मां की पुरानी अपनी आवाज खोजने की कोशिश करते. कभी-कभी उस असली और मां जैसी आवाज का कोई एक अंश हमें सुनाई पड़ जाता. तब मां हमें मिलती, जो हमारी छोटी-सी स्मृति में होती थी.‘
इस मां की व्यथा को उदय प्रकाश ने बहुत मासूम बच्चे की तरह व्यक्त किया है. वह बच्चा उदय प्रकाश की तमाम कहानियों में किसी ना किसी तरह मुझे मौजूद दिखाई देता है. खुद उदय प्रकाश कहते भी हैं कि यह कहानी उन्होंने अपनी मां पर ही लिखी है. लेकिन सिर्फ इसलिये ‘नेलकटर’ मुझे उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानियों में पहले स्थान पर नहीं लगती है, बल्कि इस कहानी में उस बेहद निजी संसार को जितनी सघनता से उन्होंने व्यक्त किया है, उसकी वजह से मुझे बहुत प्रिय है. उस बच्चे के लिए मां को खो देने की कल्पना ही भयानक है. जाहिर है किसी भी बच्चे के लिए मां के न होने की कल्पना बहुत पीड़ादायक होती है. लेकिन सबको एक दिन जाना होता है और उनके जाने के बाद हम उन्हें उन चीजों से याद करते हैं, जो आखिरी समय में उनसे जुड़ी रह जाती हैं, जैसे इस कहानी में नेलकटर.
इलाहाबाद के कुंभ मेले से पिताजी का लाया हुआ नेलकटर. चीजों के साथ ऐसा आत्मीय बर्ताव कि उनकी स्मृति बहुत कारुणिक लगती है, उदय प्रकाश की कहानियों में बहुतायत से मिलेंगी. उस नेलकटर से बालक अपनी मां की मृत्यु से एक रात पहले नाखून तराशता है. ‘एक घंटा लगा. मैंने उनकी एक उंगली ही नहीं, सारी उंगलियों के नाखून खूब अच्छे कर दिये. मां ने अपनी उंगलियां देखीं. यह कितना कमजोर और हार का क्षण होता है, जब नाखून जीवन का विश्वास देते हैं. कितने सुंदर और चिकने नाखून हो गये थे.’ इस पूरे अंश में पहली दो पंक्तियां देखें जो उस बच्चे की भाषा है और चौथी पंक्ति आपको लेखक की पंक्ति लगेगी. सिर्फ एक वाक्य में लेखक उपस्थित है और बाकी सब जगह वो बच्चा. वैसे इस कहानी में शायद तीन ही जगह लेखक उदय प्रकाश की मौजूदगी दिखाई देती है, बाकी जगह तो वह बच्चा ही रहता है जो हमें कहानी सुना रहा है. इसीलिये शायद यह मेरी प्रिय कहानियों में है. ‘दरियाई घोड़ा’में भी ऐसे ही कैंसग्रस्त पिता के लंबे नाखून हैं, लेकिन वह एक अलग ही त्रासद कहानी है, वह भी उदय प्रकाश ने अपने पिता पर लिखी है.
यह कहानी एक मां के साथ उस नेलकटर के ही खो देने की कहानी नहीं है, बल्कि उन पूरी स्मृतियों को भी खो देने की कहानी है, जिनमें गांव हैं, बारिश के दिन हैं, और बारिश के साथ जुड़ी तमाम जातीय परंपराएं भी, जो हमारे तेजी बढ़ते शहरीकरण में खो गई हैं. विस्थापन सिर्फ जगहों से नहीं होता, वह हमारे संस्कारों का भी होता है. और दुर्भाग्य से दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यह विस्थापन पूरी दुनिया में बहुत तेजी से हुआ है. शीत युद्ध की समाप्ति के बाद बदली हुई वैश्विक परिस्थितियों में नव औपनिवेशिक इजारेदारी ने विस्थापन को बहुत गहरा कर दिया है. अब हम सबके मूल स्थलों पर जिस तरह कार्पोरेट निगाहें गड़ी हुई हैं, उनसे दुनिया के अधिकांश मूल बाशिंदे प्रभावित हो रहे हैं और उनके प्रतिरोध को कुचलने के लिए लगता है विश्व की तमाम सरकारें एकजुट हो गई हैं.
पिता पर उदय प्रकाश की ‘दरियाई घोड़ा’ भी अपनी तरह की बेहद मार्मिक कहानी है. लेकिन पारिवारिक रिश्तों पर उदय प्रकाश की मेरी पसंद की दूसरी कहानी है ‘तिरिछ’, जो अपने शिल्प में और कहन में अनुपम है. इसका शिल्प बहुत साधारण है, लेकिन साधारण का जो आकर्षण है, वह इस कहानी में पूरी शिद्दत से व्यक्त हुआ है. यह कहानी भी एक पुत्र की ओर से कही गई है, जिसके केंद्र में पिता हैं. एक सामान्य भारतीय परिवार के पिता-पुत्र की इस कथा में तिरिछ एक मेटाफर की तरह प्रकट होता है. इस कहानी के सूत्र इसकी पहली तीन पंक्तियों में ही मिल जाते हैं. ‘इस घटना का संबंध पिताजी से है. मेरे सपने से है और शहर से भी है. शहर के प्रति जो एक जन्म-जात भय होता है, उससे भी है.‘ यानी पिता, स्वप्न और शहर की घटनाएं ही असल में तिरिछ की तरह जानलेवा हैं. बहुधा हम सबने देखा है कि अन्यान्य कारणों से पिता का सम्मानजनक स्थान पुत्र और परिजनों को रहस्यमयी भी लगता है और अच्छा भी, जैसा कि इस कहानी में है. एक ऐसे सम्मानित पिता जो परिवार के लिए एक सुरक्षित दुर्ग की तरह होते हैं और पूरा परिवार जिन पर गर्व करता है. लेकिन जीवन में कुछ घटनाएं या कि दुर्घटनाएं ऐसी होती हैं कि बेहद सम्मानित व्यक्ति को भी अपमान और तिरस्कार के ऐसे भयावह दौर से गुजरना पड़ता है कि उन हालात में इंसान को न जाने कितनी बार मरना पड़ता है. ऐसी ही परिस्थितियों से इस कहानी में पिता का सामना होता है.
यूं तिरिछ एक सच है और तिरिछ को लेकर ग्रामीण समुदाय में जितने तरह के विश्वास प्रचलित हैं, वे भी इस कहानी में बहुत सघनता के साथ आये हैं. लेकिन जैसा कि मैंने कहा तिरिछ यहां एक मेटाफर है और वह लोकविश्वास से लेकर पुत्र के स्वप्नों में बहुत गहराई से व्याप्त है. सामान्य इंसान के लिए कहानी में आया तिरिछ दरअसल एक ऐसी स्थिति को बयान करता है जो किसी के साथ कभी भी घट सकती है. यानी अच्छे खासे सम्मानित व्यक्ति को अपमान और तिरस्कार का तिरिछ, जो कहीं भी पाया जा सकता है या कि अक्सर छुपा रहता है, वह कहीं से भी आकर दबोच लेता है और अगर उसका प्रतिकार न किया जाये और उसको तुरंत न मार दिया जाये तो वह आपकी जान लेने तक आपका पीछा करता रहता है. कहानी में पिता को जिस तिरिछ ने काटा, उसे पिता ने तुरंत मार दिया और घर आ गये. अब आगे की कहानी में तिरिछ के कई रूप हैं जो एक-एक कर प्रकट होते हैं. दरअसल जानवर तिरिछ ने पिता को जो काटा तो उससे उनकी मौत शायद नहीं होती, लेकिन इसके बाद जो कई किस्म के तिरिछ उन्हें गांव से शहर तक की यात्रा में काटते हैं, उन्होंने ही पिता की हत्या की. हम गांव को चाहे जितना अंधविश्वासी मानें, लेकिन वहां जो देशज ज्ञान है वह इंसान को बचाने की आदिम कोशिशों में हमेशा लगा रहता है. इसीलिये पिता गांव की झाड़फूंक से नहीं मरे, जैसा कि पुत्र कहता है, ‘उस रात देर तक हमारे आंगन में भीड़ रही आयी. पिताजी की झाड़फूंक चलती रही. काटे के जख्म को चीर कर खून भी बाहर निकाला गया और कुंए में डालने वाली लाल दवा (पोटेशियम परमैंग्नेट) जख्म में भरा गया. मैं निश्चिंत था.‘
कहानी में इसके बाद असल तिरिछों का आगमन होता है, जो पिता की जान ले लेते हैं. अदालती सम्मन का तिरिछ और अदालत पहुंचने के दौरान मिले अपमान, तिरस्कार, शहरी लोगों के संदेहास्पद व्यवहार और अवैज्ञानिक किस्म की चिकित्सा के तिरिछ. धतूरे के बीजों का काढ़ा बिना किसी चिकित्सकीय परामर्श के पिला देने से पिता की चेतना चली गई. जिस असल तिरिछ के काटे जाने के करीब पंद्रह घंटों बाद भी पिता ठीक ठाक थे, उसके बाद नियति के तिरिछ ने उन्हें विषपान कराया. इसके बाद पिता की अचेतावस्था में जो कुछ उनके साथ गुजरा वह शहर और अदालत के चक्कर में एक सम्मानित ग्रामीण व्यक्ति को कदम-कदम पर काटने वाले तिरिछों का एक अंतहीन सिलसिला है. इन्हीं तिरिछों के भय से पिता शहर जाने से घबराते हैं और ये ही तिरिछ पुत्र के स्वप्नों में आते हैं.
इन्हीं के डर से पिता बहुत कम बोलते हैं और इन्हीं के डर से रहने का एकमात्र घर खो देने का भय पिता को आत्मकेंद्रित कर देता है. कहानी के अंत में पुत्र अपने स्वप्नों का एक रहस्य खोल देता है और वही दरअसल तिरिछ का सूत्र है कि पुत्र असल में जंगल में नहीं शहर में है और ठीक उसी हालत में है, जिससे गुजरकर पिता मारे गये यानी असल तिरिछ जंगल से गायब होकर शहर में आ गया है और वह कई रूपों में फैल गया है. शहरों ने जिस तरह गांवों को लील लिया है और जंगलों को साफ कर दिया गया है, ऐसे हालात में सामान्य आदमी को दर-दर की ठोकरें खाकर अपमान और तिरस्कार के तिरिछों के काटे से मरना पड़ता है. आप चाहे जितना उनका सिर कुचल दो, असल तिरिछ से आप बच भी जायेंगे, लेकिन ये शहरी तिरिछ आपको कभी नहीं छोड़ेंगे.
इस कहानी में पिता के लिए पुत्र की जो गहरी बेचैनी है वह कदम-कदम पर दिखाई देती है. आरंभ से ही पुत्र कहता है कि पूरा परिवार कोशिश करता कि उन्हें कम से कम बोलना पड़े. क्योंकि वे जिस किले में कैद हैं, वहां से आने में उन्हें तकलीफ ना हो. अपना एकमात्र घर खो देने के भय का जो किला है, वह इन्हीं तिरिछों के कारण निर्मित हुआ है. और जब पिता की तमाम यातनाओं को याद करता हुआ पुत्र आखिरी वाक्य में एक सवाल करता है कि ‘मुझे आखिरकार अब तिरिछ का सपना क्यों नहीं आता?’ तो लगता है कि जैसे पुत्र ने पिता के चौबीस घंटों में इतने किस्म के तिरिछों को देख लिया है कि अब तिरिछ स्वप्न नहीं हकीकत है और जो चीज हकीकत में घटित हो जाती है, वह फिर स्वप्न में नहीं आती.
इस कहानी में जो एकमात्र घर को खो देने का भय है, वह हमारे ग्रामीण-आदिवासी भारत की सबसे क्रूर सच्चाइयों में से एक है. अपनी जगह से विस्थापित होने का भय, अपने गांव, जंगल से विस्थापित होकर शहर के तिरिछों के बीच पल-पल काटे जाने का भय यानी विस्थापन से उपजे दर्द और तकलीफों का एक अंतहीन सिलसिला. जहां अदालत का रास्ता कोई नहीं बताता, प्यासे को पानी तक नहीं पिलाता, सम्मानित ग्रामीण को सिर्फ उसकी भाषा और भाव-भंगिमा तथा वेशभूषा के आधार पर संदेह की नजरों से देखा जाता है और जिस अदालत में न्याय के लिए इंसान जाता है, वहां पहुंच ही नहीं पाता, यानी वह अपमान और तिरस्कार के अंतहीन दौरों से गुजरकर न्याय की प्रतीक्षा में मरने को अभिशप्त है.
पारिवारिक संबंधों की एक बेहद मार्मिक कहानी है ‘छप्पन तोले का करधन’, जो अपनी व्याप्ति में जितनी पारिवारिक लगती है उतनी ही हमारे देश के नवउदारवादी दौर की पूर्वपीठिका के रूप में एक राजनैतिक कहानी भी है. यहां जो घर है वह बेहद जर्जर है जिसमें, ‘छप्पर की हर लकड़ी में, हर मयार, बीम और बड़ेरी में घुन के कीड़े लगे थे, जो दिन भर सफेद बुरादा नीचे गिराते रहते थे.‘ और इतना ही नहीं, ‘घर की दीवारें भीतर-भीतर खोखली हो चुकी हैं और वहां पर एक दूसरा ही जीवन और संसार चल रहा है. यह संसार चूहों, कई रंगों के विचित्र कीड़ों और ऐसे अदृश्य प्राणियों का संसार था, जिन्हें हम कभी नहीं देख पात थे. वहां का अपना अलग ही नियम रहा होगा. हमारा बाहर का संसार, उस दूसरे संसार के लिए खाद और हवा की तरह था. हम सब घर के खत्म हो जाने के बारे में जानते थे. यह कभी भी अचानक चुक सकता था.‘ इस घर को आप यह कहानी लिखे जाने के दौर के संदर्भ में देखेंगे तो आपको इसमें पूरा देश-काल दिखाई देगा. यह कहानी 1984 में लिखी गई थी. यही वह समय था जब सामंतवाद आखिरी सांसें ले रहा था और बड़े से बड़े सामंत सड़कों पर आ गये थे.
यह कहानी जितनी एक सामंती परिवार के पतनशील दौर की कहानी है उतनी ही देश में हो रहे परिवर्तनों की भी है. दीवारों के भीतर चल रहा वो अज्ञात संसार उन तमाम घृणित लोगों की ओर इशारा करता है जो देश को खोखला कर रहे थे. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी के उदय होने का समय था यह, जिसमें पूंजीपतियों की खास दिलचस्पी थी कि देश का नया नेतृत्व शायद उनके लिए बहुत से दरवाजे खोल देगा. लेकिन कहानी में इसे दूसरे स्तरों पर महसूस किया जा सकता है. यह एक नष्ट होते घर की कहानी है, जिसमें एक अच्छा खासा समृद्ध परिवार अंग्रेजों से दुश्मनी मोल ले लेने के कारण सब कुछ गंवा बैठा. जहां उन दो बेटों को जो राज कर सकते थे, मामूली नौकरियां करनी पड़ती हैं और उनकी विधवा बहन को वापस पीहर लौटना पड़ता है. इस घर में चार स्त्रियां हैं जिनके कार्यकलाप को एक बालक देखता रहता है और उसी के मुंह से यह मार्मिक कहानी बयां की गई है. बच्चे की सारी बालसुलभ जिज्ञासाएं और उसकी उत्सुकताएं अत्यंत सहज ढंग से पूरी कहानी को भारतीय आख्यान परंपरा में महत्वपूर्ण बनाती हैं.
सामंतवाद के पतनकाल में किस तरह हमारे पारिवारिक संबंध बदल रहे थे, यह भी इस कहानी में स्पष्ट देखा जा सकता है. इस कहानी की दादी हमें सीधे प्रेमचंद की बूढ़ी काकी से जोड़ देती है. लेकिन प्रेमचंद के यहां बूढ़ी काकी का संताप दूसरा था, लेकिन घर के बुजुर्गों की हालत लगता है प्रेमचंद के काल से ही निरंतर गिरती चली गई है. एक समाप्त होता हुआ घर है, जिसे बचाने के लिए एकमात्र रास्ता है वह छप्पन तोले का करधन, जो दादी के पास बताया जाता है. लेकिन वह करधन कहानी खत्म होने तक नहीं मिलता है. यहां भी करधन एक मेटाफर की तरह है, जिसके मिलने से ही जैसे सबके दिन बदल जाएंगे. दाने-दाने को मोहताज एक परिवार की आखिरी आस है वह करधन, जिसका कहीं अता-पता नहीं, जिसके लिए घर को कई बार खोद डाला गया, बूढ़ी दादी से उसका पता करने के सारे जतन कर लिए गये. दादी भी जैसे पतन होते सामंतवाद की एक प्रतीक बन जाती है, जिसे खत्म कर देने की परिवार की सारी कोशिशें दम तोड़ती जाती हैं, लेकिन वह अपनी जर्जर अवस्था में भी बचे-खुचे सामंती अवशेषों की तरह जीवित रहती है.
सामंती समाज के पतनशील दौर के बारे में हमारी जितनी जानकारियां हैं वे इस कहानी में रेशा-रेशा सामने आती जाती हैं. दादा के प्राचीन गौरव की गाथा घर में खूब सुनाई जाती है, लेकिन उसकी सच्चाइयां संदिग्ध हैं. हमने तो राजस्थान में ऐसी पारिवारिक गाथाएं बहुत सुनी हैं और इस कहानी के लिखे जाने के दौर में सामंती परिवारों की महिलाओं को दूसरों के घरों में नौकरानी जैसे काम भी करते देखा है. लेकिन यह कहानी उस हालत में पहुंचने से ठीक पहले की कहानी है, जहां एक आखिरी आस बची हुई है. वैसे भी सामान्य तौर पर हम देखते आये हैं कि घरों में बुजुर्गों के पास कोई अज्ञात खजाना होने की बातें चलती आई हैं. पुराने जमाने में लोग चोरों आदि से बचाने के लिए अपनी कीमती चीजें घरों में गाड़ देते थे. ऐसे गड़े हुए खजाने की कहानी से दादी जैसी कई महिलाएं अपना बुढ़ापा कुशलता से काट लेती हैं. लेकिन इस कहानी में बुआ, मां और चाची का दादी के प्रति जो व्यवहार है वह बहुत चकित कर देने वाला है. आपको ऐसी महिलाएं जीवन में शायद कम ही देखने को मिलें. लेकिन आप उस परिवार की हालत देखेंगे तो अनुमान लगा सकते हैं कि यह क्यों है. एक पिता ही हैं, जो दादी के प्रति नर्मदिल हैं, जबकि दादी की अपनी बेटी यानी बुआ तक का व्यवहार बहुत दहला देने वाला है. चाचा कहानी में आते हैं लेकिन उनकी उपस्थिति नहीं होती, बस उनका जिक्र होता है. ऐसा लगता है जैसे चाचा गोहाटी में कहीं बंधुआ मजदूर जैसी हैसियत में हैं, जो कभी पचास रुपये का मनीऑर्डर भेज देते हैं. हालांकि उनके बारे में प्रचलित लोकविश्वास के अनुसार पूर्व की जादू-टोना कर अपने वश में कर लेने वाली किसी महिला का संबंध बताया जाता है. और यह भी कि चाची के कोई बच्चा नहीं हुआ, जिसके कारण चाचा नहीं आते, जबकि पिता आते रहते हैं.
हालांकि उदय प्रकाश के जेहन में इस कहानी का कोई राजनैतिक आशय संभवत: नहीं रहा होगा, लेकिन अगर इस तरह की कोशिश में इस कहानी के पात्रों के व्यवहार को आप देश के हालात पर लागू करके देखेंगे तो इसके अर्थ कई स्तरों पर खुलेंगे. लाइसेंस और परमिट के उस दौर में दादी को आप सरकार के तौर पर देखें और पात्रों को पूंजीपतियों के रूप में. और करधन फिर एक मेटाफर के तौर पर प्रकट होगा, यानी जो कुछ बचा है वह हमें दे दो, तो हमारे भी दिन सुधरें और घर के भी यानी देश के भी. इसे हमने 1990 के बाद शुरु हुए आर्थिक उदारीकरण में बहुत साफ तौर पर देखा है जब नवरत्न कंपनियों से लेकर तमाम सार्वजनिक उपक्रम पूंजीपतियों के हवाले कर दिये गये. हमने राजस्थान में देखा कि ढहते हुए सामंतवाद के दौर में जर्जर होते सामंती गढ़-किलों को हेरिटेज के नाम पर सरकार और बैंकों से लोन दिलवाकर होटलों में बदला गया. और यह भी सामंती परिवार से संबंध रखने वाले मुख्यमंत्री स्व. भैंरो सिंह शेखावत की ही दृष्टि रही थी.
उदय प्रकाश के लेखन में एक बच्चे की उपस्थिति इतनी गहरी है कि कई बार लगता है कि उनकी कहानियां उस बच्चे की मानसिकता से ही रची गई हैं, जो बेहद संवेदनशील है. दो भाइयों को लेकर हिंदी में बहुत-सी कहानियां लिखी गई हैं और प्रेमचंद की ‘बड़े भाई साहब’ तो अद्भुत है ही. लेकिन उदय प्रकाश की कहानी ‘अपराध’ मेरे खयाल से दो भाइयों के आपसी प्रेम की सबसे मार्मिक कहानियों में से एक है. ऐसी कोई दूसरी कहानी मैंने नहीं पढ़ी है. पोलियोग्रस्त अपाहिज और छह साल बड़े भाई के साथ भ्रातृत्व भाव की यह कहानी छोटे भाई का बयान है. बड़ा भाई हमेशा छोटे के साथ रहता है और उसे बहुत स्नेह करता है. लेकिन एक दिन खेल में बड़े ने छोटे की जो उपेक्षा की उसका नतीजा यह हुआ कि छोटे ने गलती से खुद के सिर में चोट लगा ली और घर पर मां को बताया कि बड़े भाई ने मारा है. इस पर पिता बड़े भाई की बुरी तरह पिटाई करते हैं और बड़ा भाई पिटते हुए अपेक्षा करता है कि छोटा भाई सच बोल दे. लेकिन यह नहीं होता. बरसों पुरानी बचपन की इस घटना के अपराधबोध से ग्रस्त छोटा भाई सजा भुगतना चाहता है, माफी मांगना चाहता है, लेकिन बड़े भाई को याद ही नहीं कि ऐसा कुछ हुआ भी था. इस कहानी की अंतिम पंक्तियां इसे एक शोकांतिका में बदल देती हैं.
‘तो इस अपराध के लिए मुझे क्षमा कौन कर सकता है? क्या यह ऐसा अपराध नहीं है जिसके बारे लिया गया जो निर्णय था, वह गलत और अन्यायपूर्ण था, लेकिन जिसे अब बदला नहीं जा सकता?
और क्या यह ऐसा अपराध नहीं है, जिसे कभी भी क्षमा नहीं किया जा सकता? क्योंकि इससे मुक्ति अब असंभव हो चुकी है.‘
उदय प्रकाश की संवेदनाएं इन चार कहानियों में जितनी पारिवारिक और निजी-आत्मीय ढंग से व्यक्त हुई है, वह उनके समूचे रचनाकार का कदाचित मूलसूत्र है. विस्थापन एक ऐसी विकट सच्चाई है कि वह उदय प्रकाश की कहानियों में निरंतर विद्यमान रहती है. हम संबंधों में भी विस्थापित होते हैं, क्योंकि बहुत से कारणों से हमें नये संबंध बनाने होते हैं और समय के साथ पुराने संबंध बदलते जाते हैं. लेकिन पारिवारिक संबंध हमें अंतिम समय तक याद रहते हैं और उनका विस्थापन हमें लगातार कचोटता रहता है. इसीलिये ‘अपराध’ कहानी की अंतिम पंक्ति ही हमें बताती है कि संबंधों से मुक्ति असंभव हो चुकी हैं. मुझे लगता है कि उदय प्रकाश ने ‘नेलकटर’ के अंत में जो बात चीजों के बारे में कही है, वह उनकी कहानियों में संबंधों के बारे में भी उतनी ही सच है. ‘क्योंकि चीजें कभी खोती नहीं हैं. वे तो रहती ही हैं. अपने पूरे अस्तित्व और वजन के साथ. सिर्फ हम उनकी वह जगह भूल जाते हैं.‘
____________________________
प्रेमचन्द गाँधी
कविता, नाटक, लेख , फ़िल्म और सामाजिक आंदोलनों में भागीदारी.
ई पता : prempoet@gmail.com
_______________________
प्रेमचन्द गाँधी
कविता, नाटक, लेख , फ़िल्म और सामाजिक आंदोलनों में भागीदारी.
ई पता : prempoet@gmail.com
_______________________
नेलकटर : उदय प्रकाश
सावन में घास और वनस्पतियों के हरे रंग में हल्का अँधेरा-सा घुला होता है. हवा भारी होती है और तरल. वर्षा के रवे पर्तों में तैरते हैं.
मैं नौ साल का था.
इसी महीने राखी बँधती है. कजलैयाँ होती है. नागपंचमी में गोबर की सात बहनें बनाई जाती हैं. धान की लाई और दूध दोने में भरकर हम साँपों की बाँबियाँ खोजते फिरते हैं.
हरियरी अमावस भी इसी महीने होती है. मैं बाँस की खूब ऊँची जेंड़ी बनाकर उस पर चढ़कर दौड़ता था. मेरी ऊँचाई कम से कम बारह फुट की हो जाती होगी.
माँ दक्षिण की ओर के कमरे में रहती थीं. बम्बई के टाटा मेमोरियल अस्पताल से उन्हें ले आया गया था. सिर्फ अनार का रस पीती थीं. वे बोलने के लिए अपने गले में डॉक्टरों द्वारा बनाई गई छेद में उँगली रख लेती थीं. वहाँ एक ट्यूब लगी थी. उसी ट्यूब से वे साँस लेती थीं.
बहुत बारीक, ठंडी और कमज़ोर आवाज़ होती थी वह. कुछ-कुछ यंत्रों जैसी आवाज़. जैसे बहुत धीमे वाल्यूम में कोई रेडियो तब बोलता है जब बाहर खूब ज़ोरों की बारिश हो रही हो और बिजलियाँ पैदा हो रही हों, या तब जब सुई किन्हीं बहुत दूर के दो स्टेशनों के बीच कहीं अटक गई हो.
माँ को बोलने में दर्द बहुत होता होगा. इसलिए कम ही बोलती थीं. उस यंत्र जैसी आवाज़ में हम माँ की पुरानी अपनी आवाज़ खोजने की कोशिश करते. कभी-कभी उस असली और माँ जैसी आवाज़ का कोई एक अंश हमें सुनाई पड़ जाता. तब माँ हमें मिलती, जो हमारी छोटी-सी समृति में होती थी.
लेकिन माँ सुनना सब कुछ चाहती थीं. सब कुछ. हम बोलते, लड़ते, चिल्लाते या किसी को पुकारते तो व्याकुलता से वे सुनतीं. हमारे शब्द उन्हें राहत देते होंगे.
उनकी सिर्फ आँखें बची थीं, जिन्हें देखकर मुझे उम्मीद बँधती थी कि माँ कहीं जाएगी नहीं मेरे पूरे जीवन भर रही आएँगी. मैं हमेशा के लिए उनकी उपस्थिति चाहता था. चाहे वे चित्र की तरह या मूर्ति की तरह ही रही आयें. और न बोलें.
लेकिन उनके जीवित होने का विश्वास भी रहा आये, जैसा कि चित्रों के साथ नहीं होता.
मैं कभी-कभी बहुत डर जाता था और रोता था. अपने जीवन में अचानक मुझे कोई एक बहुत खाली-बिल्कुल खाली जगह दिख जाती थी. यह बहुत डरावना होता था.
उस दिन माँ ने मुझे बुलाया. बाहर मैदान में घास का रंग गहरा हरा था. बादल बहुत थे और हवा में भार था. वह भीगी हुई थी.
माँ ने अपनी हथेली मेरे सामने फैला दी. दायें हाथ की सबसे छोटी उँगली की बगलवाली ऊँगली का नाखून एक जगह से उखड़ गया था. उससे उन्हें बेचैनी होती रही होगी.
इस उँगली को सूर्य की उँगली कहते हैं.
मैं समझ गया और नेलकटर लाकर माँ की पलंग के नीचे फर्श पर बैठ गया. नेलकटर में लगी रेती से मुझे उनकी उँगली का नाखून घिसकर बराबर करना था. माँ यही चाहती थीं. वह नेलकटर पिताजी इलाहाबाद से लाए थे, कुंभ के मेले से लौटने पर, दो साल पहले. नेलटकर में नीले काँच का एक सितार बना था.
माँ की उँगलियाँ बहुत पतली हो गई थीं उनमें रक्त नहीं था. पीली-सी त्वचा. पतंगी कागज़ जैसी. पीली भी नहीं, ज़र्द. और बेहद ठंडी. ऐसा ठंडापन दूसरी, बेजान चीज़ों में होता है. कुर्सियों, मेज़ों, किवाड़ों या साइकिल के हैडिल जैसा ठंडापन.
और हाथ उनका इतना हल्का कैसे हो गया था ? कहाँ चला गया सारा वज़न ? वह भार शायद जीवन होता है, जिसे पृथ्वी अपने चुबंक से अपनी ओर खींचा करती है. जो अब माँ के पास बहुत कम बचा था. उन्हें पृथ्वी खींचना छोड़ रही थी.
मैंने उसकी हथेली थाम रखी थी. और नाखून को रेती से धीरे-धीरे घिस रहा था. मैं उनके नाखून को बहुत सुन्दर, ताज़ा और चिकना बना डालना चाहता था.
मैं एक बार हँसा. फिर मुस्कराता ही रहा. माँ को ढांढस बँधाने और उन्हें खुश करने का यह मेरा तरीका था. मैंने देखा, माँ को नाखून का हल्का-हल्का रेती से घिसा जाना बहुत अच्छा लग रहा है. उसके चेहरे पर एक सुख था, जो एक जगह नहीं बल्कि पूरे शरीर की शान्ति में फैला हुआ था, उन्होंने आँखें मूंद रखी थीं.
एक घंटा लगा. मैंने उनकी एक उगली ही नहीं, सारी उँगलियों के नाखून खूब अच्छे कर दिये. माँ ने अपनी उँगलियाँ देखीं. यह कितना कमजोर और हार का क्षण होता है, जब नाखून जीवन का विश्वास देते हैं. कितने सुदंर और चिकने नाखून हो गये थे.
माँ ने मेरे बालों को छुआ. वे कुछ बोलना चाहती थीं. लेकिन मैंने रोक दिया.
वे बोलतीं तो पूछतीं कि मैं सिर से क्यों नहीं नहाता? बालों में साबुन क्यों नहीं लगाता? इतनी धूल क्यों है? और कंघी क्यों नहीं कर रखी है?
रात में ठंड थी. बाहर पानी ज़ोरो से गिर रहा था. सावन में रात की बारिश की अपनी एक गम्भीर आवाज़ होती है. कुछ-कुछ उस तरह जैसे दुनियाँ की सारी हवाएँ किसी बड़े से घडे़ के अन्दर घूमने लग गयी हों. हर तरफ से बन्द.
सुबह पाँच बजे आँगन में पाँच औरतें रो रही थीं. यह रोना नहीं था, विलाप था, पता चला माँ रात में नींद में ही खत्म हो गयीं. माँ खत्म हो गयीं.
मैंने फिर कभी उनके घिसे हुए नाखून नहीं देखे. मैंने उस रात सोने से पहले अपने तकिए के नीचे वह नेलकटर रख दिया था. उसे मैंने बहुत खोजा. बल्कि आज तक. कई वर्षों बाद भी. लेकिन वह आज भी नहीं मिला. वह पता नहीं कहाँ खो गया था.
हो सकता है वह किसी बहुत ही आसान-सी जगह पर रखा हुआ हो और सिर्फ़ मेरे भूल जाने के कारण वह मिल नहीं पा रहा हो. मैं अक्सर उसे खोजने लगता हूँ.
क्योंकि चीज़े कभी खोती नहीं हैं वे तो रहती ही हैं. अपने पूरे अस्तित्व और वज़न के साथ. सिर्फ़ हम उनकी वह जगह भूल जाते हैं.
अपराध : उदय प्रकाश
मेरे भाई मुझसे छह साल बड़े थे. आश्चर्य था कि पूरे गाँव में सभी लड़के मुझसे छह वर्ष बड़े थे. मैं इसलिए सबसे छोटा था और अकेला था. सब खेलते तो उनके पीछे मैं लग जाता. मेरे भाई बचपन से अपाहिज थे. उनके एक पैर में पोलियो हो गया था. लेकिन वे बहुत सुदंर थे. देवताओं की तरह. वे आसपास के कई गाँवों में सबसे अच्छे तैराक थे और उनको हाथ के पंजों की लड़ाई में कोई नहीं हरा सकता था. घूँसे से नारियल और ईंटें तोड़ देते थे. जबकि मैं दुबला-पतला था. कमज़ोर और चिड़चिड़ा. मुझे अपने भाई से ईर्ष्या होती थी क्योंकि उनके बहुत सारे दोस्त थे. मैं सबसे छोटा था इसलिए मैं भाई के लिए एक उत्तरदायित्व की तरह था. वे मुझसे प्यार करते थे और मेरे प्रति उनका रूख एक संरक्षक की ज़िम्मेदारी जैसा था.
सब खेलते और मैं छोटा होने के कारण अकेला पड़ जाता तो भाई आकर मेरी मदद करते. जोड़ी और पानी वाले कई खेलों में वे मुझे अपनी पाली में शामिल कर लेते थे. कोई दूसरा लड़का अपनी पाली में मुझे शामिल करके हार का खतरा नहीं उठाना चाहता था. अक्सर भाई मेरी वजह से ही हारते. फिर भी वे मुझसे कभी कुछ नहीं कहते थे. मैं उनकी ज़िम्मेदारी था और वह उसे निभाना चाहते थे. जहाँ तक मुझे याद है, उन्होंने कभी मुझे नहीं मारा.
जो कुछ मैं बताने जा रहा रहा हूँ उसका सम्बन्ध भाई और मुझसे ही है. यह बहुत महत्त्वपूर्ण घटना है. ऐसी घटना जो जीवन भर आपका साथ नहीं छोड़ती और अक्सर स्मृति में, बीच-बीच में, कहीं अचानक सुलगने लगती है. किसी अंगारे की तरह.
हुआ उस दिन यह कि मैं भाई के साथ खेलने गया. उस दिन बारिश हो चुकी थी और शाम की ऐसी धूप फैली हुई थी जो शरीर में उल्लास भरा करती है. ऐसे में कोई भी खेल बहुत तेज़, रतिमय और सम्मोहक हो जाता है. सभी लड़के खड़ब्बल से खेल रहे थे. लकड़ी की छोटी-छोटी डंडियाँ हर लड़के के पास थीं. पूरी ताकत से खड़ब्बल को ज़मीन पर, आगे की ओर गति देते हुए, सीधे मारा जा रहा था. ताकत और संवेग से नम धरती पर गिरा हुआ खड़ब्बल गुलटियाँ खाते हुए बहुत दूर तक जता था.
मुझमें न इतनी ताकत थी, न मैं इतना बड़ा था कि खड़ब्बल उतनी दूर तक पहुँचाता, जबकि वहाँ एक होड़, एक प्रतिद्वंद्विता शुरू हो चुकी थी. कोई भी हारना नहीं चाहता था. यह एक ऐसा खेल था जिसमें कोई पाली नहीं होती, कोई किसी का जोड़ीदार नहीं होता. हर कोई अपनी अकेली क्षमता से लड़ता है.
भाई भी उस खेल में डूब गये थे. वे कई बार पिछड़ जाते थे. इसलिए गुस्से और तनाव में और ज़्यादा ताकत से खड़ब्बल फेंक रहे थे.
वे मुझे भुला चुके थे. और मैं अकेला छूट गया था. छह वर्ष पीछे. कमज़ोर. उस दिन, उस खेल में शामिल होने के लिए मुझे छह वर्षों की दूरी पार करनी पड़ती, जो मैं नहीं कर सकता था. भाई जीतने लगे थे. उनका चेहरा खुशी और उत्तेजना में दहक रहा था. उन्होंने एक बार भी मेरी ओर नहीं देखा. वे मुझे पूरी तरह भूल चुके थे.
मुझे पहली बार यह लगा कि मैं वहाँ कहीं नहीं हूँ. मुझे रोना आ रहा था और भाई के प्रति मेरे भीतर एक बहुत ज़बर्दस्त प्रतिकार पैदा हो रहा था. मैं अपने खड़ब्बल को, अकेला अलग खड़ा हुआ था एक पत्थर पर पटक रहा था. मैं ईर्ष्या, आत्महीनता, उपेक्षा और नगण्यता की आँच में झुलस रहा था.
तभी अचानक मेरा खड़ब्बल चट्टान से टकरा कर उछला और सीधा मेरे माथे पर आकर लगा. माथा फूट गया और खून बहने लगा. मैं चीखा तो भाई मेरी ओर दौड़े. खेल बीच में ही रुक गया था.
‘क्या हुआ ? क्या हुआ ?’ भाई घबरा गये थे और मेरे माथे को अपनी हथेली से दबा रहे थे मेरा गुस्सा मिटा नहीं था. मैं भाई को अपनी उपेक्षा का दंड देना चाहता था.
(कहानी का एक अंश)
______________
ई पता : udayprakash05@gmail.com
ई पता : udayprakash05@gmail.com
(मूल रूप से यह आलेख \’शीतल वाणी\’ के उदय प्रकाश विशेषांक के लिए लिखा गया है जो शीर्घ प्रकाश्य है.)