कुबेर दत्त हिंदी के कवि और दूरदर्शन के साहित्यिक-वैचारिक कार्यक्रमों के प्रसिद्ध प्रस्तोता थे. आचार्य किशोरी दास वाजपेयी, प्रेमचंद और डा. रामविलास शर्मा पर उनके बनाये वृत्त चित्र आज भी याद किये जाते हैं, इसके अलावा उन्होंने तोल्सतोय, सार्त्र, चेखव, लूशुन, मायकोवस्की, देरिदा, एडवर्ड सईद, नोम चोमस्की, प्रसाद, निराला, त्रिलोचन, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, महादेवी, बच्चन, शमशेर, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, नामवर सिंह आदि आदि हस्तियों पर भी कार्यक्रम का निर्माण किया. ‘काल काल आपात’, ‘धरती ने कहा फिर…, ‘केरल प्रवास’, ‘कविता की रंगशाला’, ‘अंतिम शीर्षक’ ‘इन्हीं शब्दों में’ और ‘शुचिते’ उनके प्रकाशित कविता संग्रह हैं. उन्होंने पेंटिग्स भी बनाये.
आलोचक-समीक्षक ओम निश्चल ने कुबेर दत्त को आत्मीयता से याद करते हुए उनके कविता संग्रहों का भी सम्यक मूल्यांकन किया है. माना कि जहाँ बहुत अधिक कला होती है वहां परिवर्तन नहीं होता है पर यह भी कि जो साहित्य को बेहतर ढंग से प्रस्तुत नहीं कर सकते वे एक बेहतर समाज का स्वप्न भी भला कैसे देख सकते हैं ? कुबेर दत्त की ‘प्रस्तुतियों’ का अभी मूल्यांकन शेष है.
कैसे हिसाब दूँ अपनी कविताओं का ?
कविता के रस्मोरिवाज़ बदलने वाला एक नाराज़ कवि : कुबेर दत्त
ओम निश्चल
फिर अगले दिन मैंने मनुहार कर मना लिया. वे मान गए. कसमें उठाते रहे. मिलने का वायदा किया कि 6 अक्तूबर को आपके अपार्टमेंट में आकर मिलूँगा. आपको जी भर कर सुनूँगा. किन्तु …….6 अक्तूबर के पहले 2 अक्तूबर को ही वे इस दुनिया से कूच कर गए. चार बजे सायं प्रो. रविभूषण का फोन आया. मंगलेशजी ने सूचित किया कि कुबेर नही रहे. पटना में डीडी भारती का वह उनका अंतिम कार्यक्रम था. वे तनाव में दिखते थे. उनकी ऑंखों के नीचे दोनों तरफ काफी सूजन थी. जैसे कई रातों से न सोये हों. दूरदर्शन पटना का गेस्ट हाउस भी उनके रहने के बहुत अनुकूल न था. पर दिल्ली लौट कर न जाने क्या हुआ उन्हें. शायद कमलिनी जी बाहर गयी थीं; लौटीं तो देखा दरवाजा बंद है. न खुलने पर तुडवाकर खुलवाया और कहते हैं कि वे निष्प्राण पड़े थे. अपनी कविताओं के जरिए शब्दों में प्राण फूँकने वाला विदा हो चुका था. पर एक लेखक भौतिक रूप से विदा होकर भी विदा नही होता, वह अपने शब्दों में जिंदा रहता है. कुबेरदत्त इन्हीं शब्दों में जिंदा हैं.
भाषण पर भाषण देता है दुशासन
उनकी इसी मिजाज की एक और कविता देखें—
दुख का पारावार भले हो
डॉ.ओम निश्चल,
कुबेर दत्त को याद करना हिंदी में एक ऐसे नाराज़ कवि को याद करना है जो अपनी धुन और रास्ते का राही था. वह जिस इलाके के थे बिटावदा, मुजफ्फर नगर—पश्चिमी उत्तरप्रदेश के इस इलाके के आसपास के जिलों से ही अनेक कवियों-गीतकारों का उदय हुआ. बलबीर सिंह रंग, रामावतार त्यागी, किशन सरोज, गोपाल सिंह नीरज, भारतभूषण, रमेश रंजक, भारत भूषण अग्रवाल सभी एक से बढ़ कर एक. कुबेरदत्त इसी पश्चिमी उत्तरप्रदेश की उपज हैं. उनके भीतर छंद, संगीत और नाट्य के गुण समाहित थे. इसलिए दूरदर्शन में आने के बाद उन्हें जब अपनी प्रतिभा को मांजने का अवसर मिला तो उन्होंने कविता की वाचिक अदायगी को प्रमुखता दी. धीरे धीरे छंद में महारत अर्जित की. प्रेम शर्मा इस मामले में उनके गुरुवर थे. वे छंद के कुछ महारथियों पर लघु फिल्में बनाना चाहते थे पर शायद नियति ने इसका अवसर उन्हें नहीं दिया. उनकी कविताओं का प्राणतत्व संगीत और प्रगीतात्मकता है. उनके प्रिय कवियों में नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल थे. दोनों प्रगतिशील कविता के धुरंधर कवि. जीवन के कवि. कुबेर के दूरदर्शन कक्ष की दीवाल पर इन दोनों कवियों की सुचित्रित पदावलियां देखी जा सकती थीं.
1.
दूरदर्शन के कुछ चुनिंदा प्रोड्यूसरों में अपनी मौलिक सूझबूझ, लेखन और गंभीर आवाज़ की वजह से अलग से ही पहचाने जाने वाले कुबेर दत्त के असमय अवसान का अर्थ हिंदी कविता में एक और प्रतिरोधी स्वर की विदाई है जिसमें गुस्सा धूमिल की तरह और प्रतिभा राजकमल चौधरी जैसी थी. सितंबर 11 के आखिरी हफ्ते वे डीडी भारती की ओर से गोपाल सिंह नेपाली जन्मशती समारोह के आयोजन के लिए पटना में थे. 24 सितंबर 11 की भीगी हुई शाम को रवीन्द्र भवन,पटना के सभागार में यह कार्यक्रम पूरी भव्यता से सम्पन्न हुआ. 25 सितंबर को घोर बारिश में भी वे पटना दूरदर्शन के गेस्टहाउस में अपने मित्र लेखकों, कवियों का आतिथ्य करते रहे. जब मैं 25 सितंबर को उनसे मिला तो वे पिछली रात अरुण कमल, प्रो रविभूषण, कृष्ण कल्पित व नचिकेता के साथ हुई गप्प गोष्ठी का बखान करते रहे. उन दिनों वे दूरदर्शन की अनेक परियोजनाओं पर काम कर रहे थे. आर्काइव की सार-सम्हाल उनके जिम्मे थी. वाराणसी में डीडी भारती की ओर से शमशेर पर प्रस्तुत उनका कार्यक्रम अद्भुत था. शमशेर की कविता पर ज्ञानेंद्रपति का सम्मोही वक्तव्य, मंगलेश डबराल का सहृदय मूल्यांकन, शमशेर की आवाज़, उनकी ग़जलें, कविताएं सब एक पटकथा का अंग लगते थे. वह अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और गोपालसिंह नेपाली का जन्मशताब्दि वर्ष था जिन पर वे सिलसिलेवार कार्यरत थे. शब्द शताब्दी शीर्षक से शताब्दी वर्ष के कवियों, उनके जीवन और उनकी कविताओं को लेकर फिल्म प्रदर्शन की एक समावेशी स्क्रिप्ट भी उन्होंने तैयार कर रखी थी जो उन दिनों उनकी टेबुल पर उनके संशोधनों से भरी दिखती थी.
दूरदर्शन के सलाहकार के रूप में गोपाल सिंह नेपाली शताब्दी समारोह के आयोजन के लिए वे पटना आए थे. डीडी भारती प्रभारी कृष्ण कल्पित द्वारा सौंपे गए दायित्व के तहत मुझे तत्विषयक परिसंवाद का संचालन करना था. इस कार्यक्रम में आलोकधन्वा, अरुण कमल, रविभूषण, नचिकेता, सत्यनारायण आदि लेखक सहयोजित थे. दूरदर्शन के महानिदेशक त्रिपुरारीशरण विशेष रूप से इस कार्यक्रम के लिए पटना पधारे थे. 24, 25 दोनों दिन उनसे भेंट हुई. 26 सितंबर को वे पटना से दिल्ली लौटे. शाम हालचाल लेने के लिए वाराणसी लौट कर फोन किया तो कदाचित वे सो रहे थे. 27 सितंबर को रात को उनका फोन आया पर बातें न हो सकीं. पटना से बनारस आते हुए मैं भी बहुत थक चुका था. गाड़ी 7 घंटे लेट थी. अगले दिन रात में लंबी बातचीत हुई. देर तक बतियाते, गाते रहे वे. उन्होंने फोन पर शमशेर की अधूरी ग़ज़ल के मक्ते को पूरा कर पूरी गजल सुनाई. ग़ज़ल का आखिरी शेर यों खत्म होता था: जैसे आयत कुरान से जाए. क्या आवाज, क्या अदायगी ! हालांकि यह मिसरा शमशेर के ग़ज़ल संग्रह ‘सुकून की तलाश’ में नहीं है. वह उनसे मेरी आखिरी बातचीत थी. उस रात करीब 50 बार टेलीफोन कटा. पहले समझा उन्होंने कि मैं काट रहा हूँ, बाद में उन्हें यकीन आया कि यह दूरसंचार की फाल्ट है. फिर 2 बजे रात तक राग, महाराग, अनहद में खोना और मुझे भी भिगोना. हालांकि, 27 सितंबर की रात फोन नहीं उठाने पर नाराज होकर एसएमएस कर बैठे— “कितने चेहरे हैं तुम्हारे/एक बनारसी, एक देहलवी, एक पटनवी, एक….इस खराब वक्त में सर्वाइव करने के लिए ये धंधा तुम्हें सूट करता है. मुझे माफ करो. ‘’
दूरदर्शन के सलाहकार के रूप में गोपाल सिंह नेपाली शताब्दी समारोह के आयोजन के लिए वे पटना आए थे. डीडी भारती प्रभारी कृष्ण कल्पित द्वारा सौंपे गए दायित्व के तहत मुझे तत्विषयक परिसंवाद का संचालन करना था. इस कार्यक्रम में आलोकधन्वा, अरुण कमल, रविभूषण, नचिकेता, सत्यनारायण आदि लेखक सहयोजित थे. दूरदर्शन के महानिदेशक त्रिपुरारीशरण विशेष रूप से इस कार्यक्रम के लिए पटना पधारे थे. 24, 25 दोनों दिन उनसे भेंट हुई. 26 सितंबर को वे पटना से दिल्ली लौटे. शाम हालचाल लेने के लिए वाराणसी लौट कर फोन किया तो कदाचित वे सो रहे थे. 27 सितंबर को रात को उनका फोन आया पर बातें न हो सकीं. पटना से बनारस आते हुए मैं भी बहुत थक चुका था. गाड़ी 7 घंटे लेट थी. अगले दिन रात में लंबी बातचीत हुई. देर तक बतियाते, गाते रहे वे. उन्होंने फोन पर शमशेर की अधूरी ग़ज़ल के मक्ते को पूरा कर पूरी गजल सुनाई. ग़ज़ल का आखिरी शेर यों खत्म होता था: जैसे आयत कुरान से जाए. क्या आवाज, क्या अदायगी ! हालांकि यह मिसरा शमशेर के ग़ज़ल संग्रह ‘सुकून की तलाश’ में नहीं है. वह उनसे मेरी आखिरी बातचीत थी. उस रात करीब 50 बार टेलीफोन कटा. पहले समझा उन्होंने कि मैं काट रहा हूँ, बाद में उन्हें यकीन आया कि यह दूरसंचार की फाल्ट है. फिर 2 बजे रात तक राग, महाराग, अनहद में खोना और मुझे भी भिगोना. हालांकि, 27 सितंबर की रात फोन नहीं उठाने पर नाराज होकर एसएमएस कर बैठे— “कितने चेहरे हैं तुम्हारे/एक बनारसी, एक देहलवी, एक पटनवी, एक….इस खराब वक्त में सर्वाइव करने के लिए ये धंधा तुम्हें सूट करता है. मुझे माफ करो. ‘’
फिर अगले दिन मैंने मनुहार कर मना लिया. वे मान गए. कसमें उठाते रहे. मिलने का वायदा किया कि 6 अक्तूबर को आपके अपार्टमेंट में आकर मिलूँगा. आपको जी भर कर सुनूँगा. किन्तु …….6 अक्तूबर के पहले 2 अक्तूबर को ही वे इस दुनिया से कूच कर गए. चार बजे सायं प्रो. रविभूषण का फोन आया. मंगलेशजी ने सूचित किया कि कुबेर नही रहे. पटना में डीडी भारती का वह उनका अंतिम कार्यक्रम था. वे तनाव में दिखते थे. उनकी ऑंखों के नीचे दोनों तरफ काफी सूजन थी. जैसे कई रातों से न सोये हों. दूरदर्शन पटना का गेस्ट हाउस भी उनके रहने के बहुत अनुकूल न था. पर दिल्ली लौट कर न जाने क्या हुआ उन्हें. शायद कमलिनी जी बाहर गयी थीं; लौटीं तो देखा दरवाजा बंद है. न खुलने पर तुडवाकर खुलवाया और कहते हैं कि वे निष्प्राण पड़े थे. अपनी कविताओं के जरिए शब्दों में प्राण फूँकने वाला विदा हो चुका था. पर एक लेखक भौतिक रूप से विदा होकर भी विदा नही होता, वह अपने शब्दों में जिंदा रहता है. कुबेरदत्त इन्हीं शब्दों में जिंदा हैं.
कुबेरदत्त की कविताएं इस बात की गवाही देती हैं कि समाज को लेकर उनके आब्जर्वेशन्स कितने क्रिटिकल और क्रांतधर्मी थे. उनकी कविता विपक्ष की आवाज है, प्रतिरोध का मंच है. उनके दिमागी तहखाने में कविता, कला, साहित्य, संस्मरण को लेकर कितनी ही परियोजनाऍं थीं, जिन पर वे लगातार कार्यरत थे. टेलीविज़न पर कई कार्यक्रमों की देसी जरूरतों के अनुरूप प्रस्तुति ने उन्हें लोकप्रियता की ऊँचाइयों पर रखा. आप और हम, जन अदालत, पत्रिका, फलक और कई विशेष आयोजनों में उन्होंने समय और उसके प्रश्नों को हमेशा ध्यान में रखा. कवि, कथाकार, पटकथा लेखक, फ़िल्मकार और चित्रकार कुबेर दत्त दूरदर्शन से चीफ़ प्रोड्यूसर के पद से सेवानिवृत्त हुए थे तथा दूरदर्शन के सलाहकार की हैसियत से उसके महत्वपूर्ण कार्यक्रमों की प्रस्तुतियों से सम्बद्ध थे. उनके पाये के लोग आज भी दूरदर्शन और मीडिया में कम हैं.
2.
मुझे याद है, कुछ बरस पहले 9 जून, 2008 को बहुत खराब शिल्प में अनुभव प्रकाशन द्वारा छापी गयी पुस्तक \’धरती ने कहा फिर\’ भेंट करते हुए वे बहुत भावुक हो गए थे. पटना में उनसे मिल कर लगा कि उन दिनों वे जल्दी जल्दी अपने काम समेट रहे थे, जैसे किसी सुदूर यात्रा पर जाने की तैयारी हो. दूरदर्शन के साहित्यिक कार्यक्रमों वे सलाहकार थे ही. अपनी पांडुलिपियां भी कम न थीं. कह रहे थे, रामविलास जी पर काम जल्दी पूरा करना है. दो कविता संग्रहों की पांडुलिपियां बस तैयार हैं. किशोरीदास वाजपेयी पर उनका काम बहुत अनूठे किस्म का है जिसे बस आकार भर लेना था. उनके संस्मरण, उनकी ब्लेड सी तीखी धार वाली आलोचना के आस्वाद लेने का समय तो अब आने वाला था. उसकी आधी अधूरी गवाहियॉं वे दे भी रहे थे. ‘पुस्तक वार्ता’ में लगातार वे लिख रहे थे. वे गीतों के अद्भुत रचयिता थे और आवाज के जादूगर. जिन्होंने आधी रात की निस्तब्धता के बीच उनका महाराग सुना है, वे उन्हें भूल न पाऍंगे. आखिरी दिनों वे गजलों के रियाज में लगे थे. उसकी बानगी भी फोन पर यदा कदा सुनने को मिलती रहती थी. \’धरती ने कहा फिर’ में उनकी ये पंक्तियॉं नहीं भूलतीं-
जितनी भी हैं स्वरलिपियॉ हमारे-तुम्हारे मौन के बीच
आओ उतारें उन्हें
आत्माओं के अम्लान पृष्ठों पर
न सही आज/कल ही सही
पूरब या पश्चिम के
उत्तर या दक्षिण के
बालक बालिकाऍं गाऍंगे उन्हें……………….……\’
वे विरल संवेदना वाले, अनूठी और अचूक सू्झबूझ वाले तथा साहित्य में सौंदर्य की सत्ता की पहचान करने वाले लेखक थे. कैमरा, संपादन, डबिंग एडिटिंग पर उनकी जबर्दस्त पकड़ थी तो साहित्य उनकी धमनियों में बहता था. यही कारण है कि 1985 में शुरु हुए जनवाणीकार्यक्रम का प्रस्तुतीकरण उनके निर्देशन में लाजवाब बन सका. जिस सरकारी मीडिया पर सब कुछ जनोनुकूलित दिखाया सुनाया जाता है, उसके कार्यक्रम में पूछे गए सवालों से मंत्री तक की बोलती बंद हो जाए, ऐसा कार्यक्रम अपने आप में अनूठा था. तब दूरदर्शन के अलावा चैनल न थे. पूरे देश की निगाह इस कार्यक्रम पर होती थी. प्रधान मंत्री राजीव गांधी की मुहिम पर शुरु इस कार्यक्रम के बहाने वे अपने मंत्रियों का सोशल आडिट कराना चाहते थे कि जनता में एक सकारात्मक और जवाबदेह सरकार की छवि जाए पर यही उनके प्रतिकूल गया. सीलबंद लिफाफों में भीतर क्या रखा है, इस बात की जानकारी एंकर तक को नही होती थी कि मंत्री तैयार होकर आएं. वे जनता के सवालों से सीधे रूबरू होते थे. कार्यक्रम की सफलता के बावजूद जिस आंतरिक तनाव से कुबेरदत्त गुजरते थे, उसका बयान उन्होंने एक कार्यक्रम में किया था. कुबेर को इसका दंड भुगतना पड़ा क्योंकि हर सत्ता अपनी कायरता ढँकने के लिए अंतत: हिंसक कार्रवाइयों पर उतरती है. उनके निधन के बाद बेटियों पर छपी कविता कृति शुचिते में उनकी बेटी पुरवाधनश्री ने कितने क्षुब्धमन से लिखा है: \’\’अप्पा की चिता को मैंने अग्नि दी, उनकी अस्थियों को गंगा में बहाया. पर कई बार सोचती हूं तो लगता है उनके जीवन काल में कितनों ने उनकी चिता जलाई.\’\’
पुरवाधनश्री ने उन्हें एक अच्छे गायक के रूप में स्मरण किया है कि कैसे वे दूरदर्शन से आते ही अपने कविखाने में चले जाते थे. कैसे आखिरी के कुछ वर्षों में उन्होंने चित्रकला को पकड़ा, अनगिनत चित्र बनाए, जहां मिले, वहीं चित्र बनाया. घर में तमाम चीजों पर अप्पा ने चित्रकारी की. लिफाफों पर– यहां तक कि किताबों के कितने ही कवर बनाए व चश्मे के खोल तक पर चित्रकारी की. वह कहती है: ‘‘कई बार शाम के आसमान को देखती हूं तो लगता है अप्पा ने पेंट किया है. बादलों के बीच से मीठी मीठी मुलायम धूप जब मुझे छूती है तो अप्पा का स्पर्श महसूस करती हूं. उनके शब्द मेरे आंसुओं को पोंछते हैं और मैं उनके साथ गाती हूं –आमी आनंद आनंद करिये छे.‘’ कैसे उनके सख्त काव्यानुशासन के बीच भी एक बाप का दिल धड़कता था, कैसे वे देर रात होते ही लोकोत्तर हो उठते थे—कि उनके कवि मिजा़ज में सुरसरि का प्रवाह उतर आता था. वे कभी रोने लग जाते थे और अचानक गा उठते थे. वे कई मामलों में अद्भुत और अद्वितीय थे. अब शायद ही कोई किसी को इतनी रात बिना किसी अपने काम के जगाता हो और इस साहित्य, संस्कृति, राजनीति, कला और कविता के प्रहसन बनते जाने के विरुद्ध आवाज़ उठाता हो.
3.
कुबेर दत्त ने जीवन भले ही मात्र 63 साल का जिया पर उनसे मुक्तिबोध का यह सवाल नहीं किया जा सकता था, अब तक क्या किया? जीवन क्या जिया? वे सरकारी मीडिया में रहे पर अपने जनोन्मुख उत्तरदायित्वों से कभी विमुख नहीं रहे. उनकी कविता शिल्प की नही, कथ्य की कविता है. सामाजिक उत्तरदायित्व की कविता है. वह यथार्थ के गहरे धरातल के आर-पार उतरती है और अपने पैने सवालों से अंतश्चेतना को छीलती और छलनी करती हुई जनता के पक्ष में गुहार लगाती है. कुबेर दत्त साहित्य की दुनिया में पहले से ही थे पर संग्रहबद्ध जरा देर से हुए. उनका पहला कविता संग्रह काल काल आपात 1994 में आया. जबकि उनसे दसियों साल छोटे कवियों के पहले संग्रह \’85 के आसपास आ चुके थे. पर संग्रहबद्ध होकर देर से आने का अर्थ यह नहीं कि वे प्रकाशन से कहीं उदासीन रहे हों, शायद वे कविता में अपनी दशा-दिशा तय कर रहे थे. कम से कम काल काल आपातऔर कविता की रंगशाला तथा बाद के वर्षों में धरती ने कहा फिर—जैसे संग्रहों की कविताओं के मिजाज़ में ही कुबेर की कविता की आभा चमकती है. वह पंक्तिपावनों और सत्ताधीशों की मिजाज़पुर्सी में खर्च नही होती बल्कि उनके छद्म मोर मुकुटों को ध्वस्त करने का बीड़ा उठाती है.
कविता में समय समय पर विभिन्न प्रभावों की अन्विति महसूस की जाती रही है. समय को घटा कर जैसे किसी भी समय की सच्ची कविता लिख सकना मुमकिन नही है, कविता को उस पर पड़े प्रभावों को घटा कर देखना उसे एकायामी बना देना है. कविता पर एक समय यानी साठोत्तर दौर में राजनीति का प्रभाव अथवा दबदबा इतना सबल रहा है कि उसके अन्य गुण धर्म इसके सामने गौण-से प्रतीत होते रहे हैं, यहां तक कि नितांत गैर राजनीतिक कविता लिखने वाले अशोक वाजपेयी ने भी इस तथ्य को स्वीकारा है कि राजनीति का दवाब इतना आक्रामक और तीव्र होता गया है कि उससे बचना वयस्क कविता के लिए मुमकिन नहीं रह गया है. समकालीन सचाई राजनीतिक कर्म, इच्छा, तथ्यों से उलझी हुई सचाई है और बिना राजनीति से दो-चार हुए उसका साक्षात्कार अधूरा और अप्रामाणिक रहेगा.(आलोचना-6) लगभग इसी अनुभव के समानांतर हम कुबेरदत्त के कविता संग्रहों – काल काल आपात व कविता की रंगशाला की चर्चा करते हुए उनकी कविताओं में इलेक्ट्रानिक माध्यम के प्रभावों की परिणति के रुप में उसके बाहरी भीतरी आकर्षण, विकर्षण ,जटिल, रोमांचक, ऐंद्रिक, मानवीय एवं अमानवीय परिदृश्य का गहरा रचाव पाते हैं.
उनकी कविताओं में एक सतत नाराज कवि का चेहरा बोलता था. जिन्होंने \’कविता की रंगशाला\’ कविता पढ़ी है या \’काल काल आपात\’ की कविताओं से गुजरे हैं वे जानते हैं कि कविता में वे पिछलगुआपन पसंद नही करते थे. न तो वे समझौतेवादी थे न उनकी कविताओं के स्वभाव में ऐसा है कि वे किसी कुलीनतावादी प्रवृत्ति का अनुसरण करती दिखें. उनके इर्द गिर्द किशोरीदास वाजपेयी, नागार्जुन या केदारनाथ अग्रवाल की तस्वीरें और उनकी कविताओं के पोस्टर लगे रहते थे, जिन्हें देख कर लगता था कि उनकी कविता की अंत:प्रक्रियाओं में इनका योगदान है. वैयाकरण किशोरीदास वाजपेयी के होने का अर्थ है भाषिक अनुशासन, जो कुबेर के रचना संसार में बखूबी झलकता था. उनका प्रतिष्ठानविरोधी तेवर उनकी कविताओं सहित उनके कार्यकलापों में भी देखा जा सकता था.
कुबेर का अंत:करण कविता में व्यक्त ऐसे ही विक्षोभों से लबालब भरा था. उनका रास्ता श्रीमंतों के राजपथ से होकर नही जाता था. वे गली कूचे के रहवासियों से अपना नाता जोड़ते थे. इधर उभरे उनके भीतर के कलाकार ने उनके कवि से एक होड़ सी कर रखी थी. कई बार उनके चित्र हमें आश्चर्य में डाल देते थे. न जाने ऐसे कितने चित्र उन्होंने बनाए होंगे जो उनकी कविता के संदेशों के मूकप्रचारक जैसे लगते थे. उनकी कविताओं में एक साथ केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन और निराला का मिलाजुला मिजाज बोलता था. केरल प्रवास की कविताओं में उनका रंग एक गृहस्थ-जैसा दिखता है. वे प्रकृति की सन्निधि में तल्लीन हो जाते थे, खो-से जाते थे. पत्नी के उपचार के तईं समर्पित कवि का मन इन कविताओं में एक बालसुलभ मस्ती के साथ प्रकृति को अगोरता और उससे एक खिलंदड़ा रिश्ता स्थापित करता चलता है.
4.
कुबेर दत्त की कविता की विन्ध्याटवी में प्रवेश करने से पहले मुझे पहल 37 के कवितांक में प्रकाशित उनकी वह कविता (कविता की रंगशाला) याद आती है जिसमें कविता को मनोरंजनवादी वस्तु बना देने की कोशिशों के विरोध में वे ऐसे कवियों और कविता प्रवृत्तियों की तीखी आलोचना करते हैं जो कविता के कोमल शरीर पर अँटा सड़ता मलवा हटा देना चाहते हैं, उसमें हिंसक शब्दों का आखेट वर्जित कर देना तथा उसे बच्चों की नकली हँसी, रात रानी, सुहानी शामों, फीरोजी होठों, सुनहरे गेसुओं, युवा वैभव में एकत्र स्त्री देह के नखशिख वर्णनों से भर देना चाहते हैं. याद रहे यही कविता उन्होंने रक्तवर्णी आंख की पुतली में शीर्षक से 2006 में आए कविता संग्रह धरती ने कहा फिर में संकलित किया. कविता की रंगशाला की शुरुआती सतरें ही बता देती है कविता का क्या उन्वान है. कविता के रजवाड़ों के राजप्रासादों की रक्त रंजित सीढ़ियों पर तने खड़े हैं कविता के पादरी, पंडे, सेनापति, राजकवि शिरोमणि… यह कविता ही कुबेरदत्त के कवि व्यक्तित्व की मुनादी है कि वे किस तरह के कवि हैं. गौरतलब है कि लगभग मनोरंजनवादी इलेक्ट्रानिक माध्यम के इस दौर में मीडियाकर्मी कुबेरदत्त की कविताएं उसके बहुआयामी अथवा उसके मायावी प्रभावों से संपृक्त होते समाज की मानसिकता को पूरी नाटकीयता से व्यक्त करती हैं. यहां तक कि इससे उनकी कविताएं समकालीन कविता के प्रचलित विन्यास से बिल्कुल अलग ही दीख पड़ती हैं. तीखे व्यंग्य और तिलमिला देने वाले विशेष्य-विशेषण-भरे वक्तव्यों से मन मथने में सक्षम ये कविताएं आज के मीडियाचालित समाज के हालात का सम्यक् जायज़ा लेती हैं.
कुबेर दत्त ने लिखा है कि ‘हम उस दौर में जी रहे हैं जो दृश्य-श्रव्य माध्यमों के संजाल की व्याप्ति का दौर है. दुनिया न सिर्फ छोटी हुई है बल्कि पारदर्शी भी. यह स्थिति रचनाकार की लिए नई चुनौतियॉं खड़ी करती है. नया सूचना समाज बन चुका है और ग्लोब पर कई हेर-फेर भी हो गए . मेरी रचना प्रक्रिया इन स्थितियों से जूझती रही है.‘ कुबेर दत्त की इन कविताओं में मौजूदा हालात पर आघात-प्रत्याघात करते हुए कवि का विनोदी स्वभाव देखने को मिलता है. वे अपने समय की स्थितियों का जायज़ा लेने वाले खिन्नमन कवियों में नहीं थे, जिनकी कुंठाएं कविताओं के सिर पर बोलती नज़र आती थीं, बल्कि ऐसे नि:संकोची साहसी कवियों में थे जो श्रव्य-दृश्य माध्यमों से गहरी संलग्नता रखते हुए भी उनके प्रभावों से बनने वाले नए परिष्कृत-विकृत-सुसंस्कृत समाज की स्थितियों पर खुला व्यंग्य कर सकने का साहस रखते थे. शायद इसीलिए उनकी कविता और उनके कवि रूप पर भगवान सिंह की यह टिप्पणी अचूक है कि वे अपने उद्वेगों को ऐसे संकेतों में बदलने के स्थान पर, जिन्हें पढ़ने वाले सिर धुन-धुन कर सराहना चाहें और सराहते हुए सिर धुनते रहें, सजल करते हुए, उन लोगों तक पहुँचने का प्रयास करते हैं, जिन्हें कविता और संस्कृति से वंचित कर दिया गयाहै (काल काल आपात की भूमिका)
काल काल आपात को ही लें—- संपादकीय, धरा फिर ले रही आलाप, वीरान में उत्सव, अंगूर की बेल, और टैंक, यह समय और प्रायोजित विपर्यास, तथा काल काल आपात जैसे शीर्षक खंडों की व्याप्ति में समाहित इस संग्रह की कविताएं मूलत: व अंतत: अपने और अपने समाज पर आयरनी व विट भरी दृष्टि फेरने वाली कविताएं लगती हैं. अपने संयोजन में कहीं-कहीं आवर्तन-शब्दावर्तन का-सा(अथवा खिलंदड़े संयोजन) अहसास कराती हुई ये कविताएं यूँ तो अपने प्रकट आशय में कभी-कभी उपहास उड़ाती-सी नज़र आती हैं, परंतु वास्तव में इन या इन जैसी कविताओं का अप्रकट अथवा वास्तविक आशय, कवि के विनोदी, आयरनिकल एवं विटी स्वभाव में निहित सांस्कृतिक विद्रूपता को पिन-प्वाइंट करने वाली तत्वभेदी मुद्रा तक पहुँचने पर ही समझा जा सकता है.बड़े सीधे-सपाट ढंग से वे अपसंस्कृति के उद्भावक दृश्यतंत्र की विभीषिका पर चोट करते हुए कहते हैं —
‘भेड़िये आते थे पहले जंगल से
बस्तियों में होता था रक्तस्राव
फिर वे आते रहे सपनों में
सपने खंड खंड होते रहे
अब वे टीवी पर आते हैं बजाते हैं गिटार
पहनते हैं जीन्स
गाते चीखते हैं
और प्राय: अंग्रेजी बोलते हैं.‘(टीवी पर भेड़िये)
प्राय: अंग्रेजी बोलते हैं से हमारे देसी समाज और संस्कृति पर गुलामी के संस्कारों के पदार्पण का जबर्दस्त संकेत मिलता है. कुबेर दत्त ने अपने जीविकोपार्जन में कैमरे को न केवल निकट से जाना बल्कि उसे निरंतर भोगा और इस्तेमाल भी किया. कैमरे की नकली आंख का साक्षी कुबेर दत्त से बेहतर और कौन हो सकता है. इस नए तीव्रगामी सूचना समाज में जहां मुद्रित शब्दों की अर्थवत्ता दिनोंदिन संदिग्ध हो रही हो और दुनिया कैमरे की आंख से देखने की अभ्यस्त हो गयी हो, वहां जो कुछ दिखता या दिखाया जाता है, वह कितना नकली, असली और पारदर्शी होता है, इसका भेद एक पेशेवर दृश्य रंगकर्मी कवि कुबेरदत्त को जीवन और समाज के समकालीन अंतर्विरोधों,अंतर्पीड़ा, छायोन्मुख मानव-संवेदना, खुलते हुए ग्लोबल संसार में मूल्यहीनता के प्रति बढ़ती जनासक्ति को समझने और उसे कलात्मक तरीके से व्यक्त कर सकने का अवसर दिया है. होश संभालते ही वे कैमरे के नेपथ्य में रहे. इसलिए कैमरेका सच उनसे बेहतर भला कौन जान सकता है! कैमरे पर प्रस्तुत दो कविताओं में कुबेर दत्त ने कैमरे की इसी अवास्तविक संसार की ओर हमारा ध्यान खींचा है –
सिर्फ दृश्य ही नहीं पकड़ता कैमरा
दृश्यों के रंग भी बदलता है
खुद नहीं रोता
दर्शकों के तमाम ऑंसुओं को
श्रीमंतों के पक्ष में घटा देता है
चमड़े के सिक्कों को बदलता है स्वर्ण मुद्राओं में
भाषा नहीं है कैमरा
लेकिन गढ़ सकता है रत्नजडि़त भाषा
……सजाता है बंदनवार शवों पर
मुर्दाघर को कर सकता है सराबोर
समृद्ध शास्त्रीय संगीत से
गैस पिए कंकालों के ढेर पर
रच देता है विश्व कविता मंच(कैमरा : एक, पृष्ठ 19)
कविता में उपस्थित कैमरे का यह सत्य जहॉं दृश्य तंत्र के आधुनिकतम उपयोग का इष्ट है, वहीं यह हमारे जीवन में समाती जा रही उत्सवधर्मिता की ओर भी संकेत है. एक साथ यह कविता चाक्षुष माध्यमों की निलज हकीकत और भोपाल में गैस त्रासदी के तुरंत बाद विश्व कविता उत्सव आयोजित करने की करुणारहित असंपृक्त मानवीयता का उदाहरण भी पेश करती है. पर्दे पर मृत्यु तक को भी समारोहपूर्वक दिखाने तथा एक गहरे मेकप से चेहरे की उद्विग्नताओं को ढकने का जो सलीका इलेक्ट्रॉनिक चैनलों ने विकसित कर लिया है, उसने हमारे संवेदनतंत्र को निरंतर संकुचित और परुष बनाया है तथा हमें दुनिया को एक सजे-सँवरे डिपार्टमेंटल स्टोर के रूप में देखने का अभ्यस्त. इस पर्दे में आज हमारी चेतना के पर्दे को इस कदर अपने सम्मोहनों-विज्ञापनों से ढक लिया है कि हम टीवी के प्रमुदित दृश्य फलक पर सचिवालय के पार्श्व में रोते भारत के दारिद्र्य को नहीं देख पाते.
कविता में अयोध्या की उपस्थिति अब आकस्मिक नहीं रही. 1992 का अयोध्या प्रसंग भारतीय राजनीति का एक ऐसा अपिरहार्य प्रसंग बन गया है, जिसकी धुरी पर राजनीति का पहिया आज भी डोलता है और जिसे लेकर न केवल भारतीय मानस में तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं व्याप्त रही हैं, बल्कि बौद्धिक साहित्य चेतना को भी इसने गहरे आंदोलित किया है. कुबेर दत्त ने अयोध्या को खड़ाऊँ बनाने वाले बाकर अली की दुकान जला दिए जाने के मार्ग प्रसंग के रूप में देखा है. इसी संदर्भ में कुंवर नारायण की अयोध्या–1992 शीर्षक कविता का स्मरण भी स्वाभाविक है. लगभग एक ही काल खंड में लिखी दोनों कविताओं का मिज़ाज अलग-अलग होते हुए भी पैथेटिक और करुणाविद्ध प्रतीत होता है: ’एक दिन जला दी गई बाकर मियॉं की दुकान/जल गईं खड़ाऊँ तमाम/मदिरों तक जिन्हें जाना था हे राम!’ कहकर कुबेर दत्त की अंतश्चेतना जहॉं परदुखकातर हो उठती है, कुंवरनारायण का प्रभु से यह सविनय निवेदन कि ‘लौट जाओ किसी पुराण, किसी धर्म ग्रंथ में/सकुशल सपत्नीक…../अब के जंगल वो जंगल नहीं/ जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक.‘ युगीन धर्मान्धता, बर्बरता के मद्देनजर समय की परवशता का ही एक कारुणिक अनुरोध प्रतीत होता है. यह मात्र संयोग नहीं है कि अयोध्या त्रासदी पर दो समकालीन कवि एक –सा दुखकातर, अनुतप्त और समयविद्ध दीख पड़ते हैं, बल्कि यह एक ऐसी उद्वेलित कर देने वाली पीड़ा है जिससे कविता आज भी आहत प्रतीत होती है.
5.
स्त्रियों को लेकर कुबेर की दृष्टि सदैव निर्मल और करुणाधायी रही है. वह पत्नी हो, प्रेयसी हो या मजदूरन, कवि की स्त्री-चिंता का पाट उत्तरोत्तर चौड़ा हुआ है. यहां तक कि वे आगे चल कर दुनिया भर की बेटियों के नाम शुचितेकी कविताएं लिखते हैं. उन्हें निर्भय बनने की सीख देते हैं. धरा फिर ले रही आलाप खंड के अंतर्गत ‘चिदग्निकुंडसंभूता’ तथा ‘काली औरतें’’ शीर्षक कविताओं में स्त्री चेतना की खुदबुदाहट अविस्मरणीय है. पुरुष दर्प के खिलाफ अपनी बेटी को भरत नाट्यम सिखानेवाली एक मां द्वारा (दर्प पर) किए जाते आघात-प्रत्याघात के संदर्भ में बुदबुदाते हुए कविवर निराला के रुदन का बानक रचते हुए कुबेर दत्त अपने इस विचार के प्रति निश्चय ही पाठकीय सहमति अर्जित कर लेते हैं:–
रो रहा हूँ याद कर
मृतप्राय उन नुची चुसी बुझी बुझी मॉंओं को
कुछ भी जो सिखा नहीं पा रही
बेटियों को दर्प के खिलाफ
रो रहा हूँ याद कर उन पुरुषों को
जीत जो चुके पुरुष उन्माद
बँधे मगर जो पड़े हैं
चमड़े की जबान वाले
भविष्यवक्ताओं की कारा में…..(काल काल आपात, पृष्ठ 42)
काल काल आपात के वीरान में उत्सव तथा अंगूर की बेल और टैंक शीर्षक खंडों की कविताएं क्रमश: श्रृंगार और प्रकृति-मूलक हैं. जीवित पांडलिपि, रोशनी के शहतीर पर, क्या वह थीं तुम, पूर्व काल से उत्तर काल तक तुम तथा किताबवह आदि कविताओं में कुबेर दत्त ने जीवन के रागदीप्त क्षणों को अपनी सुकोमल शब्द-संवेदना से भास्वर बनाया है. प्रणय के उत्स को कुबेर दत्त ने जीवन की अजस्र ऊर्जा धारा के रुप में देखा है जो विराग को राग से वीरान को उत्सव से तथा आदमी की सहज गुनगुन को शास्त्र में बदलने की क्षमता रखती है. प्रणय के इस काल्पनिक अक्ष पर कवि अपनी प्रेयसी को रोशनी के शहतीर पर बैठे पाता है तो कभी उसे मालवा के एकांत किनारे शाम की अलसाई नीरोग रोशनी में टहलती हुई ‘कत्थई मजदूरन’ की गुलाबी आंखों की आभा में महसूस करता है. कवि के गार्हस्थ्य अनुराग की प्रतीति भी यहां मौजूद है जिसमें वह पत्नी की आंखों में बसे वक्त की खुशियों के एक-एक असली रंग और वक्त के दुखों के प्रिज्म के समानांतर दृश्यों की उपस्थिति पाता हुआ भी उसकी सद्य:स्नाता छवि को शिद्दत से महसूस करता है.
कुबेर दत्त अपनी नाटकीय व्यंग्यान्विति में भी प्रकृति के लुभावने दृश्यों से बचकर नहीं रह पाए हैं. केरल प्रवास श्रृंखला की कविताएं इसका परिचायक है. इस श्रृंखला की पहली ही कविता में उनका कवि अभिमान तिरोहित हो उठता है : मेरा सब अभिमान तिरोहित / मैं कुर्बान देख कर ऐसी संध्या लोहित– वास्तव में केरल के रमणीयप्राकृतिक दृश्यों में कवि जीवन की ऊर्जा का नर्तन महसूस करता है.
6.
कुबेर की कविता का एक निजी कोना भी है. वे जैसे एक एक्टीविस्ट कवि थे. राजनीति समाज साहित्य संस्कृति के कल्मष को बर्दाश्त नही कर पाते थे. पर जैसे ही वह निजी कोने में अपना आसन जमाते थे, उनका हृदय रागात्मकता से भर उठता था. यह कला और संगीत के प्रति उनकी रागात्मकता ही है कि उन्होंने शुचिते में दुनिया भर की बेटियों के लिए कविताएं लिखीं. उन्होंने एक कविता में लिखा:
अमरबेल न बनना
चलना, अपने बूते चलना
गिरगिर संभलना…पकड़ना हाथ कमजोर सुत सुताओं का
बन जाना अकाट्य हथियार डरी डरी माओं का…
(शुचिते)
कागजों पर पानी बन कर रहना
गल जाएं इबारतें वे
लिखी–छपीं जो आदमी के विरुद्ध
छोड़ देना सुरक्षित शब्द वे
पंक्तियॉं
निवास जहां करती आदमी की धार…
(शुचिते)
निजी भावबोध की इन कविताओं में केरल प्रवास की कविताएं भी आती हैं जब आर्थराइटिस ग्रस्त पत्नी कमलिनी दत्त के उपचार के लिए उन्हें कुछ वक्त कोट्टक्कल, केरल में रहना पड़ा. उन्होंने उन क्षणों को भी कवितामय बनाने की चेष्टा की तथा बाद में इन्हें संकलित कर एक संग्रह का रूप दिया. केरल के प्राकृतिक सांस्कृतिक वैभव की जो छाप कुबेर दत्त पर पड़ी यह संग्रह उसका मूर्तरूप है. पत्नी की पीड़ा एक तरफ, केरल का सौंदर्यबोध दूसरी तरफ—विरुद्धों के सामंजस्य का यह युग्म कुबेर की कवि-आंखों में चित्रित होता है. उनके प्रिय विष्णुचंद्र शर्मा कहते हैं, \’\’ कुबेरदत्त की कविताएं हमारे समय की –कवि समय की–कविता है. कवि मलयाली भाषा की आंखों की गली में उतर कर हिंदी भाषा को एक नया अर्थ देता है. यह अनूठा प्रयोग है. \’\’ ओ केरल प्रिय! से शुरु होकर कोट्टक्कल प्रसंग, पद्म प्रसंग, भेषज प्रसंग से होते हुए उत्तर प्रसंग में वे इस विदूषक समय, बेस्वाद बेशर्म समय से टकराते हैं. उन्हें केरल में भी राजधानी से मिलती खबरों को देख निराशा होती है जहां विचारों का जनम उरूज़ पर है/ विचारों के प्रसूतिगृह सब हाउसफुल…./ प्रजनन कष्ट से क्षुब्ध बताई जाती हैं राजधानियां.—-और फिर राजधानियों के विकारों के जितने वैशिष्ट्य हैं वे सब इस कविता में रेटारिक की तरह आते हैं. कभी जब वे समुद्र के एकांत में होते हैं तो कहते हैं: मुझे लगता है, मैं समुद्र की सांस का एक कतरा हूँ/ समुद्र से बाहर छिटका हुआ. (समुद्र एकांत) . पर इस निजी प्रसंग में भी भेषज प्रसंग के माध्यम से उन्होंने आयुर्वेदिक औषधियों को रूपकीय संरचना में तब्दील करने का यत्न किया है. पर कविता केंद्र में केवल पत्नी ही नहीं, उपचारिकाओं के वृत्तांत भी हैं. पद्म प्रसंग में परिचर्या में लगी परिचारिकाओं को केंद्र में रख वे उनकी निष्ठा करुणा और परिचर्या और उनकी सुघर दाक्षिणात्य हिंदी में पगे संवादों को आधार बनाकर कविता की साकार प्रतिमा रचते हैं.
कहना न होगा कि एक वक्त कविता में कुछ चीजें इतनी रूढ़ होती गयीं कि वे हर कवि की कविता में जगह बनाने लगीं. कविता रचने के कुछ अचूक फार्मूले कवियों ने ईजाद कर लिए. बच्चे फूल, चिड़िया, स्त्रियां और नखशिख चित्रण में ही निमग्न होती जाती कमनीय कविता के विरुद्ध उन्होंने इस कविता से एक जबर्दस्त हस्तक्षेप किया. यह कविता के रस्मोरिवाज को बदलने की पहल थी. यह उस रीतिबद्धता के खिलाफ एक मुनादी थी जिसकी एक कमान कुबेरदत्त के हाथ थी. आज वे होते तो साहित्यिक महोत्सवों के अंत:पुर की पटरानी बनी कविता की खाल उधेड़ देते. पर बाजार ने आज जैसे कविता और कवियों को भी पण्य बना दिया है. एक तरफ मंच की मनोरंजनवादी कविता, दूसरी तरफ समकालीनता और आधुनिकता के नाम पर वही फूल पत्तियां काढ़ने वाली कवि बिरादरी —वे कुलीनतावादी कवियों की मंशा भांप रहे थे जो कविता के कोमल शरीर पर अँटा सड़ता मलबा हटाने, कविता का प्रासाद बुहारने और कविता का नंदनवन साफ करने की नीयत से दुष्प्रेरित हो रही थी. वह कविता को नंदन वन बनाए रखना चाहती थी. कुबेरदत्त की कविता इसका प्रत्याख्यान रच रही थी, भले ही ऐसा करते हुए वह नारे की हद तक अपने विन्यास और रेटॉरिक में छूट चाहती थी.
7.
जहॉं तक कुबेर दत्त के कवि मिज़ाज को पहचानने की बात है, काल काल आपात के खंड ‘यह समय और प्रायोजित विपर्यास‘ की इतिवार्ता:, संगीत :1, संगीत :2, रथयात्रा का पहला पड़ाव, विपर्यास के रसिक, कविता लिवेंडर अहा,अहा, कविता-पत्तन, इक्कीसवीं सदी का चरक, विचारों के लारवा तथा शब्दविचार : 1 व 2 जैसी कविताओं से ही कुबेर दत्त के कवित्त का असली रंग पहचाना जा सकता है. इन कविताओं में कुबेर दत्त की चिंता युगीन विसंगतियों को लेकर और गहरी हुई है. ‘शब्दों के द्वारा विचार हो रहा है शब्द पर’ कहते हुए कवि की चिंता ग़ैर मामूली-सी नहीं प्रतीत होती, बल्कि वह इस बहाने ‘शब्दों में ही विचार श्री इतिश्री’ कर देने के चलन पर भी एक शालीन क्षोभ प्रकट करता है. विचारों के नकली हो-हल्ले में वह पाता है कि ‘पोलित ब्यूरो में (भी) सिर्फ विचारों के कार्बन प्रेत बाएं-दाएं, दाएं-बाएं कर रहे हैं’, ‘वार्ताओं के गलों में ठूसा जा चुका है मलबा और बारूद’. विसंगत यथार्थ को खोलती इन कविताओं में इस सदी का विद्रूप चेहरा उभरकर सामने आया है. कवि की प्रश्नाकुल मुद्रा ऐसे समय आलोचक, उपदेशक, राजनैतिक जन, कवि, पुजारी—सभी पर एक-सी चोट करती है. उदाहरण स्वरूप कुछ पंक्तियॉं :
सिर के बल खड़े ओ आलोचक,
क्या होता है तब
जब तुम्हारी निब की करतूतों पर बैठकर
एक मक्खी विसर्जन का सुख लेती है
(इक्कीसवीं सदी का चरक, पृष्ठ 107)
–ऐसी कविताओं में कवि का स्वर प्राय: व्यंग्यात्मक हो उठा है.
राजनीतिक रथ यात्राओं का हश्र जनता देख चुकी है. आम जनता की ख़ुशियॉं तो इन्हीं रथ- यात्राओं, बोफोर्स घोटालों की भेंट चढ़ चुकी हैं. ऐसे राजनीतिक प्रसंगों में कवि का व्यंग्य अनायास ही मुखर हो उठा है. एक कवितांश :
करोड़ों लोगों की टोपी उछाल रहे हैं
कुछ चंदा स्वामी
कुछ कंडा स्वामी
बोफोर्स की नली पर लहरा रहा भगवा
समाजवादी रंगपटल पर
उभर रहा है उलटा मांगलिक चिह्न
मटक रहा है गोएबल्स
राष्ट्रभवन की बुर्जी पर…..
माफियामेकर की काली मवाद भरी हँसी के
फव्वारे छूट रहे हैं
जनता की छाती पर भाले-सा गड़ा है
रथयात्रा का यह पहला पड़ाव. (काल काल आपात, पृष्ठ120)
कुबेर दत्त के शब्दों में ‘विकास के लिए चल रहे योजना आयोग (अब नीति आयोग) के केंद्र में कुंडली मार कर बैठे प्रतिभूति सम्राट जिसकी तेरह भुजाओं मेंएक में माला, दूजे में भाला, एक में रोली चंदन, दूजे में पिस्तौल, तीसरे में गंगाजल, चौथे में ज़हर, पॉंचवें में पलीता, छठे में लक्ष्मण, राम, सीता, सातवें में दंगे, आठवें में संविधान, नौवें में साहूकार, दसवें में राष्ट्रीय मौन, ग्यारहवें में तराज़ू, बारहवें में तीन बंदर, तेरहवें में वक्त की उलटी खाट है’— इनकी ही आज के विकास तंत्र में पौ बारह है. कवि इन्हें विपर्यास का रसिककहता है—विकास के तमाम अनुप्रासों को निगलने वाला समुदाय. कवि के ही शब्दों में, ‘वे शरीरों में सेंध लगाते हैं/ख़ुद को झाड़ते, पोंछते, छूते तक नहीं/ वे भाषा ख़रीदते-बेचते हैं/ बेचते हैं संस्कृति का तंदूरी संस्करण/ख़ुद निखद्द/ भाषाहीन’ (विपर्यासके रसिक, पृष्ठ 138)
हमारी संस्कृति, जातीयता और भाषा को गंदला बनाने की ऐसी पेशेवर ताकतों का घिनौना खेल अब किसी से छिपा नहीं है. यह हमारी अखंड संस्कृति और बहुभाषिक सामाजिकता पर नियोजित आक्रमण है, जिससे कुबेर दत्त की कविताएं साहसिकता से टकराती हैं. कवि विपर्यास के रसिकों की नाभि के पीछे भरे विष-समुद्र तथा चेहरे व कंठ से चिपके साखी, सबद, भजन-उच्चारण के भक्तिभाव की असलियत को अपनी कुशल वक्रोक्ति किंवा उत्तराधुनिक व्यंजना से उघाड़ता है. वह यह विस्मृत नहीं होने देता कि ये ही सयाने लोगों को चूने की बावड़ी में धकेल कर जीवित रक्त पीने वाले लोग हैं.
व्यंग्य विपर्यय विपर्यास संत्रास कुबेरदत्त के कवि कर्म की परिचित खूबियां हैं. सीधी सादी गाय सरीखे स्वभाव वाली कविता की कुबेरदत्त से अपेक्षा करना उनके कवि मिजाज को अनदेखा करना है. उनकी कविता सजे सँवरे कथ्य का विन्यास नहीं है बल्कि वह जीवन में व्याप्त विपर्यास में भी कवित्व-तत्व की खोज कर लेने वाली कविता है. कविता की रंगशाला में प्रवेश करते हुए उनकी कविता सदैव कविता के सौंदर्यधायी प्रतिमानों के तथाकथित अधिष्ठाताओं की खिल्ली उड़ाती आई है और इस अर्थ में उनकी कविता की मनोभूमि और उसके अनुभव-संसार में जनकवि नागार्जुन के बीज शब्द छितरे दिखाई पड़ते हैं.
8.
कुबेरदत्त की कविता, जैसा कि मैंने कहा, सीधी सादी गाय-सरीखी कविता नहीं है. वह राजनीति के विदूषकों की सम्यक् आरती उतारती है. वह सत्तारुढ़ राजनीति के गलियारे की कविता नही है बल्कि विपक्ष के मोर्चे पर तैनात शब्द-सैनिकों की सुनियोजित कार्रवाई है. उनकी कविताओं की एनाटॉमी में नागार्जुन व केदार जैसी निर्मितियां हैं तभी कविता की रंगशाला की पहली ही कविता \’हट जा.. हट जा..हट जा\’ से शुरु होती है.
आम रास्ता खास आदमी
हट जा हट जा हट जा.
खास रास्ता
आम आदमी
हट जा, हट जा, हट जा, हट जा.
धूल फांक ले
गला बंद कर
जिह्वा काट चढ़ा दे—
संसद की वेदी पर
बलि का कर इतिहास रवॉं तू,
मोक्ष प्राप्त कर ,
प्रजातंत्र की खास सवारी का —पथ बन जा.
हट जा, हट जा, हट जा, हट जा.
उनकी कविता के निशाने पर सर्वोच्च संसद है. कभी धूमिल ने आजादी के तीन थके हुए रंगों की खबर ली थी. संसद से सड़क तक का एक अचूक मुहावरा यथार्थ की आबोहवा में उछाला था. कुबेर धूमिल और दुष्यंत कुमार जैसे कवियों के वंशज हैं. दुष्यंत कहा करते थे, न हो कमीज तो पांवों से पेट ढकते हैं. ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए. धूमिल ने तथाकथित लोकतंत्र से आजिज आकर ही दूसरे प्रजातंत्र की तलाश तेज कर दी थी. पटकथा, मुनासिब कार्रवाई और रोटी और संसद जैसी कविताएं कुबेर के लिए मंत्र सरीखी थीं. वे उनकी कविता-प्रस्तावना के लिए हरी झंडियों की तरह थीं. कुबेर जी ने संसद में संसद कविता लिखी और लिखा कि संसद में संसद ही टके सेर बिक रही है. सारे मूल्य बिना मूल्य बिक रहे हैं. एक दृश्य देखें :
भाषण पर भाषण देता है दुशासन
अनुशासन की चीर जॉंघ
सजा धजा हत्यासन
कविचारण, कलावंत, पत्रकार, कलाकार
भाट रचनाकार करते संकीर्तन
द्रौपदी का चीरहरण फिर जारी
बृहन्नला बने खड़े हैं—
जबर-बबर-रबर-शेर
संसद में बिकी संसद टके सेर. (संसद में संसद)
खबरों की निष्पक्ष आवाज कही जाने वाली बीबीसी पर भी कुबेर की वक्रदृष्टि पड़ी है:
नहीं दिखाता लंदन की वेश्याओं की दुर्गति,
ढाका, दिल्ली कराची कोलंबो
की सड़कों पर छिन्न भिन्न पड़े
मानव अंगों को दिखाता है
दिखाता है लेनिन-गांधी के टूटे बुत
स्तालिन के टूटे दॉंत
बोलशेविकों का दर्प मर्दन
ज़ार का रक्त रंजित सर्कस मगर
नही दिखाता दास कैपिटल का मुख पृष्ठ
फटी चिंथी दास कैपिटल दिखाता है
आईएमएफ की
हजारों मील लंबी जीभ दिखाता है
शेखों की खूँखार आंखें दिखाता है
अफ्रीकी -एशिया
लातिन अमरीका की अँतड़ियां दिखाता है
नहीं दिखाता—
पोप के पेट का पाप कुंड……(बीबीसी)
अपने चिंतन, अपने अनुभवों और अपने बौद्धिक क्षोभ की अभिव्यक्ति के लिए कुबेर दत्त ने जिस भाषा-शैली का उपयोग किया है, वह कविता के सनातनी साधु आलोचकों को भले ही नागवार लगे, परंतु कविता लिवेंडडर की सुगंध में सॉंस लेते समाज को यथार्थ के अति आधुनिक परिदृश्य की ओर खींच लेने में अवश्य समर्थ है. शब्दों की पारस्परिक आवृत्ति से कविता का खेल-सा रचते हुए कुबेर दत्त ने वाच्यार्थ में जो अचूक और अनूठा आकर्षण पैदा किया है, वह समकालीन कविता में अपनी तरह का पहला उदाहरण कहा जा सकता है. यह देखकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि कवि सामाजिक स्थितियों की तीखी आलोचना करता हुआ भी भविष्य के प्रति अत्यंत सदाशयी भाव रखता है और छंद तो बिल्कुल केदारनाथ अग्रवाल-सरीखा, जिन्हें कुबेरदत्त ने एक मार्गदर्शक की तरह अपनाया —
पर हित – जन हित के ध्वज फहरें
राजमहल पर प्रासादों पर
दहर-दहल जाएं
भूपतियों के कातिल संवत्सर
स्वर्ण बिस्कुटों की जाजम बिछ जाए
वहॉं जनपथ पर
जनता के घायल पद दल से
फूटे नव दिनकर
क्रांति राग के सम्मुख हारे
ख़ूनी शंख ढपोल
बोल अबोले बोल
अबोले बोल . (बोल अबोले बोल : पृष्ठ 144)
उनकी इसी मिजाज की एक और कविता देखें—
दुख का पारावार भले हो
जीवन-गति लाचार भले हो
हे सूरज हे चांद सितारो
आंखों में रहना
मतिभ्रम का बाजार भले हो
हे समुद्र
हे निर्झर, नदियो
आंखों में रहना. (इन्हीं शब्दों में)
इन्हीं शब्दों में पढते हुए मेरी निगाह जिस छोटी-सी कविता ‘मैं अनाम धारा’ पर पड़ती है, उसे पढते हुए सदियों से चली आ रही कवि-परंपरा की याद हो आती है. साहित्य की इस अजस्र धारा में कवि अपने को जैसे मैंअनाम धारा कह रहा हो. फक्कड़ अंदाज में ऐसा कोई आधुनिक कबीर ही कह सकता है:
कौन पिता कौन मेरी महतारी
कहां मेरा परिवार सारा. मैं अनाम धारा.
कुछ ने पिया मुझे/ कुछ ने गंदला किया/
कुछ ने दीं मालाएं/ कुछ ने बस यूँ ही बैठ किनारे मेरे
जिया मुझे…जिया मुझे.
कुछ ने फेंके कंकड़ / कुछ ने गुलदस्ते
कुछ ने संवाद किए कुछ ने संवाद हरे
कुछ मुझमें सम्हले
कुछ मुझसे डरे
कुछ ने संताप दिया
कुछ ने संताप लिया
कुछ ने दी मुझे क्रूर कारा
मैं अनाम धारा. (इन्हीं शब्दों में, पृष्ठ 73)
दुख है कि ऐसी कबीराना ठाठ वाली कविताई के दिन अब नहीं रहे.
कुबेर दत्त ने जीवन में साहित्य को मिशन की तरह अपनाया. उसका उनकी जीविका और जीवन दोनों से वास्ता था. उन्होंने कविता के द्वार जनता के लिए खोले. उन्होंने कई कवियों को केंद्र में रख कविताएं लिखीं. आमीन मुक्तिबोध पर, बरौनियों पर शहद नागार्जुन पर, अंतिम शीर्षक विष्णुचंद शर्मा पर, रक्ताभ रेखांकन कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह पर, कहें केदार केदारनाथ अग्रवाल पर. कविता उनके लिए शास्त्र और शस्त्र दोनों थी. पर वे कविता के शास्त्र को शास्त्रीय और कलावादी आग्रहों से आच्छादित न कर उसे संप्रेष्य और वाचिक बनाना चाहते थे. उनकी कविता में नुक्कड़ नाटक जैसी प्रभावान्वितियॉं है. वह तनिक असंसदीय होकर भी जनता के सुख दुख की टोह लेती है. समाज की राजनीति की विसंगतियों को उघाड़ने में वे मुक्तिबोध से सीख लेते हैं. वे संस्कृतिकर्मियों और बुद्धिजीवियों पर वैसा ही प्रहार करते हैं जैसा कभी मुक्तिबोध ने किया. पूंजीवाद से वे ऐसे ही टकराते हैं जैसे कभी केदारनाथ अग्रवाल टकराए थे. कविता में वे ऐसे ही मुखर होते हैं जैसे कभी नागार्जुन हुआ करते रहे हैं. कटाक्ष में वे पीछे नहीं रहे. मित्र-सरीखे लोगों को भी उन्होंने सदैव अपनी कलम की नोंक पर रखा: आपको जैराम जी की/ आपको नमस्ते/ आज मगर बिके आप खूब-खूब सस्ते.(इन्हीं शब्दों में) पर अच्छे कवि केवल शब्दों के प्रक्ष्येपास्त्र नहीं चलाते, वे मानवीय विश्वासों की रक्षा भी करते हैं. उनके शब्द जीवन के लिए आश्वासन की तरह हैं.
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(\’कल के लिए\’ के कुबेर दत्त एकाग्र अंक में प्रकाश्य)
(\’कल के लिए\’ के कुबेर दत्त एकाग्र अंक में प्रकाश्य)
डॉ.ओम निश्चल,
जी-1/506ए, उत्तम नगर,नई दिल्ली-110059
फोन: 8447289976/मेल : omnishchal@gmail.com