झण्डों के रंग कुछ भी रहें
सत्ता का रंग वही होता है
कुछ मुद्दों पर
सत्ता की गलियों में मतभेद नहीं होता
बहस नहीं होती —
यह हमारी हवस का लोकतंत्र है
ये पंक्तियां तुषार धवल की कविता ‘हवस का लोकतंत्र’ से उद्धृत हैं जिनके लिए कविताएं उन्हीं के शब्दों में, मन के बहार-भीतर होते विस्फोटों की फोरिंसिक जांच हैं. बड़े बेलौस ढंग से उन्होंने सत्ता के चरित्र की पहचान की है. लेकिन आज की युवा कविता में यह राजनीतिक तेवर उस हद तक प्रभावी नही है जैसा सातवें और आठवें दशक के कवियों में रहा है. इसका कारण यह है कि वह दौर जनांदोलनों का था, जिनका प्रभाव कविता पर पड़ना लाजिमी था. लिहाजा कविता के मुहावरे को बदलने में एक बड़ी भूमिका इन आंदोलनों की भी रही है. पिछले दो दशकों से भूमंडलीकृत प्रभावों ने हमारे सामने नई चुनौतियां खड़ी की हैं. धीरे धीरे बढ़ते बहुराष्ट्रीय निगमों के वर्चस्व और कारपोरेट घरानों के साथ सत्ता के गठबंधन से एक नया समीकरण बना है. हमारे दौर के कुछ कवियों ने इस गठजोड़ की फलश्रुतियों को अपनी कविताओं के माध्यम से उजागर किया है. लेकिन एक बड़ी सीमा तक इसके प्रति एक उदासीनता और ठंडापन व्याप्त है. जैसे कविता अपना कार्यभार भूल गयी हो.
कविता का मौजूदा परिदृश्य बहुआयामी है. अभी अभी चुनाव संपन्न हुए हैं. नई सरकार आई है—अच्छे दिनों के वायदे के साथ. इस देश में 90 के बाद भूमंडलीकरण एवं उदारीकरण के प्रभाव में आने के साथ भी ऐसे ही सुखद भावी समय की कल्पना की गयी थी, किन्तु भूमंडलीकरण के निहितार्थ धीरे धीरे समझ में आने लगे. बाजार की हदबंदियां टूटीं तो एक नया बाजार भारत में जड़ जमाने लगा. प्रतिस्पर्धा ने भारत की कार्यकुशलता को कसौटी पर खड़ा कर दिया. पूँजी के प्रवाह ने भौतिक चीजों के प्रति अहमियत को हमारे दिलो दिमाग में दिनोंदिन पुख्ता किया. मानवीय संबंध हाशिए पर आते गए. कविता एक संवेदनशील विधा है. कविता दिल से निकलती है दिमाग से नहीं. पर आज की कविता में दिल कम, दिमाग ज्यादा प्रभावी है. इसीलिए कविता की वैचारिकी उसकी संवेदना और भावभूमि पर हावी है.
हिंदी कविता का भौगोलिक दायरा बेशक बढ़ा है. वह गांवों, कस्बों से लेकर शहरों और महानगरों तक में लिखी जा रही है. एक तरह से सामाजिक यथार्थ के सम्मुख है वह. तथापि गॉंवों और कस्बों में लिखी जाने वाली कविता में मिट्टी की महक और गांव से उभरते नए यथार्थ की प्रतिच्छाया मिलती है. हिंदी कविता की यह खूबी है कि इसमें बृहत्तर भौगोलिक-सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतिच्छायाएं और विशेषताएं रची बसी हैं. यों ही नहीं कहते अष्टभुजा शुक्ल कि बस्ती है कविता का नैहर और दिल्ली ससुराल. कविता का गोमुख गांव और कस्बे हैं, नगर और महानगर नहीं. इसलिए नगरीय कविता यांत्रिक किस्म की लगती है तो गांव और कस्बे में लिखी जा रही कविताओं में कविता का शिल्प अनगढ़ और दोटूक होते हुए भी उसका संवेदनात्मक दायरा कहीं अधिक प्रशस्त प्रतीत होता है.
जिस अर्थ में बस्ती को ‘कविता का नैहर’ कहा गया है उससे यह स्पष्ट ध्वनित है कि कविता में ताजगी की आहट ऐसी ही जगहों से आ रही है. बस्ती में अष्टभुजा शुक्ल, बनारस में ज्ञानेंद्रपति, बांदा में केशव तिवारी, गुना में निरंजन श्रोत्रिय, मध्यप्रदेश के एक छोटे से कस्बे में हरिओम राजौरिया, मोहन कुमार डहेरिया, खंडवा में प्रतापराव कदम, इलाहाबाद में अंशु मालवीयऔर ग्वालियर में पवन करण लगातार ऐसा लिख रहे हैं जिनकी कविताओं का देशकाल से गहरा रिश्ता है. लीलाधर मंडलोई की कविताओं से गुजरते हुए आम आदमी से उनके सरोकारों की आहट आती है. वे न गुढी को भूलते हैं न भोपाल की सोहबतों को, न अपने आर्थिक दृष्टि से बुरे लेकिन अच्छे और सच्चे दिनों को और मां को भी जिसने अंतिम वक्त तक प्रकृति के साथ जीने का सलीका सिखाया जो धीरज और उदारता की प्रतिमूर्ति थीं. केदारनाथ सिंह से बड़ा और कौन कवि होगा जिसने कविता में इतने सूक्ष्म प्रयोग किए हैं. किन्तु इन सूक्ष्म प्रयोगों के बावजूद उनकी कविता गांव नहीं भूलती, बाजार के यथार्थ को नही भूलती, पानी के संकट को नहीं भूलतीं, पडरौना के जीवन और परिवेश को नहीं भूलतीं. ऋतुराज वर्धा में बैठ कर कविताएं लिखते हैं तो वर्धा की प्रतिच्छाया से भी थोड़ा जुड़ जाते हैं. स्त्रियों पर उनकी कितनी ही कविताएं हैं जो उनके कविता चयन \’स्त्रीवग्ग\’ में संग्रहीत हैं. अष्टभुजा शुक्ल के संग्रहों ‘इसी हवा में अपनी भी दो चार सांस है’ और ‘दु:स्वन भी आते हैं’ में इस देश के यथार्थ पर कितनी ही तीखी टिप्पणियां हैं. चाहे वह ‘भारत ललित ललाम यार है/ भारत घोड़े पर सवार है’ जैसा गीत हो या ‘हाथा’ जैसी कविता जिसके गवाक्ष से न केवल गांव की बल्कि कविता की भी एक देशज तस्वीर सामने आती है. अपने व्यापक वस्तुबोध के साथ और ‘पद कुपद’ में तो वे कविता की प्रासंगिकता के लिए भाषा में वक्रता और व्यंजना की अंतिम हद तक जाते हैं. ज्ञानेन्द्रपति की कविताएं चाहे वे ‘गंगातट’की हों, ‘संशयात्मा‘ की या ‘भिनसार’ की, उन्हें पढ़ते हुए एक साथ स्थानीयता की गहरी ज़मीन दिखती है तो विश्व में घटते नए यथार्थ की भी तस्वीर दिखाई देती है. इनमें तथाकथित सांस्कृतिक नवजागरण के पसरते प्रभुत्व के प्रति कवि का प्रतिरोध दिखता है.
केशव तिवारी में अवध की अक्खड़ता है तो लोक स्वभाव की विश्वसनीय पड़ताल भी.
बांदा में रहते हुए वे कविता के चाकचिक्य से दूर रहते हैं और अपनी तरह की कविताएं लिख रहे हैं. \’काहे का मैं\’ में उन्होंने कस्बाई यथार्थ को निकट से पहचाना और दर्ज किया है. वरिष्ठ कवियों में जगूड़ी यथार्थ से मुँह नहीं मोड़ते बेशक उनकी कविताएं नित नई प्रतीतियों की आमद से भरी होती हैं. ‘खबर का मुँह विज्ञापन से ढँका है’ की कविताओं में बाजार के घटाटोप को कवि ने सूक्ष्म आंखों से देखा है. यहां तक कि भाषाई कौशल के धनी विनोद कुमार शुक्ल के यहां भी यथार्थ छन कर आता है जो कविताओं की शिराओं में अंतर्ध्वनित होता हुआ दिखता है. आदिवासियों की पीड़ा का निर्वचन जिस तरह उन्होंने अपने संग्रह \’ कभी के बाद अभी\’ में किया है, उसे देखकर लगता है कि वे अपनी कविता की रीतिबद्धता से लगातार लोहा लेने वाले कवियों में हैं. मलय में अमूर्तन बेशक ज्यादा है किन्तु ऐसे टेढ़े, बहुरूपिया और जोखिम भरे समय को शायद मलय अमूर्तन के माध्यम से ज्यादा असरदार ढंग से व्यक्त कर पाते हैं.
यह कहने की आवश्यकता नहीं कि नब्बे के बाद का भारत बदला है, विश्व बदला है.
उदारतावाद और भूमंडलीकरण ने चीजों की शक्ल बदली है. चीजें उतनी सहज नहीं रहीं जैसी दिखाई देती हैं. कवियों ने समय के संकटों को अपने अपने अंदाजेबयां से कहने की कोशिशें की हैं. वह बाजार और उपभोक्तावाद की चकाचौंध में ओझल होती मनुष्यता के स्वरूप को पहचानता है. बाबूशा कोहली प्रकृति और मनुष्य के रिश्ते को कविता के रूपक में ढालते हुए बरसात के बारे में कहती है कि यह—
पक्के तटबंधों की नींव बहा ले जाने वाली एक जोड़ी आँखों की बाढ़ है
भादों , महज़ ऋतु चक्र की करवट नहीं,
यह दुनिया भर के सूखेपन के ख़िलाफ़ क्रान्ति है
पुरवा नक्षत्र के जिगर से जब लहू रिसता है, तब कहीं जाकर ऐसा पानी बरसता है !(बरसात/बाबूशा कोहली)
कौन कह सकता है कि यह युवा कवयित्री ऋतुचक्र के आवर्तनों-परिवर्तनों से वाकिफ़ नहीं है. या वह प्रकृति के मन को नहीं पहचानती. पर वह बरसात को इस रूप में देखती है कि जैसे एक जोड़ी आंखों की बाढ़ हो और भादों सावन के बाद का महीना नहीं, सूखेपन के खिलाफ क्रांति हो. यह कवयित्री वसीयत लिखती है तो जैसे दुनिया जहान की पीड़ा इसकी आंखों के सम्मुख होती है. दुनिया भर के सताए लोग कतार में खड़े दिखते हैं और यह कवयित्री जैसे उनकी पीठ पर भरोसे का हाथ रख कर कवि होने का हक़ अदा कर रही हो. देखिए \’वसीयत\’ की पंक्तियां :–
बाँट देना मेरे ठहाके वृद्धाश्रम के उन बूढों में
जिनके बच्चे अमेरिका के जगमगाते शहरों में लापता हो गए हैं
टेबल पर मेरे देखना – कुछ रंग पड़े होंगे
इस रंग से रंग देना उस बेवा की साड़ी
जिसके आदमी के ख़ून से बॉर्डर रंगा हुआ है
तिरंगे में लिपट कर वो कल शाम सो गया है
शोखी मेरी – मस्ती मेरी
भर देना उनकी रग – रग में
झुके हुए हैं कंधे जिनके बस्तों के भारी बोझ से
आंसू मेरे दे देना तमाम शायरों को
हर बूँद से होगी ग़ज़ल पैदा मेरा वादा है !
मेरी गहरी नींद और भूख दे देना \’अंबानियों\’ को \’मित्तलों\’ को –
न चैन से सो पाते हैं बेचारे न चैन से खा पाते हैं !
(वसीयत/बाबूशा कोहली)
इसे पढ कर गीत चतुर्वेदी की ‘पंचतत्व’ कविता की याद हो आती है. वे लिखते हैं: मेरी देह से मिट्टी निकाल लो और बंजरों में छिड़क दो/मेरी देह से जल निकाल लो और रेगिस्तान में नहरें बहाओ/मेरी देह से निकाल लो आसमान और बेघरों की छत बनाओ/मेरी देह से निकाल लो हवा और यहूदी कैंपों की वायु शुद्ध कराओ/मेरी देह से आग निकाल लो, तुम्हारा दिल बहुत ठंडा है.
कवियों का गांव से एक सुदीर्घ नाता रहा है. आज भी है. कवियों की सारी की सारी आबादी शहरों में ही नहीं रहती. वह इसे नास्टेल्जिया के रूप में नहीं लेती. कम से कम केशव तिवारी की कुछ कविताएं यही बताती हैं. धान काटती स्त्रियों को देखकर कवि का कहना कि इनका वक्त दुनिया की घड़ियों से बाहर है, इन गँवई स्त्रियों के भाग्यफल का वाचन है. वह कहता है: कब से डटी हैं ये भूख के खिलाफ/ इनके हिस्से है इस धरती की भूख/पर इनके समय का धंसा पहिया /लाख कोशिशों के बाद भी/जौ भर नहीं जुमका(जौ भर भी नहीं जुमका/केशव तिवारी). जौ भर जुमका जैसे क्रियाविशेषण शहरी कवियों के पल्ले शायद न पड़ें. क्योंकि जौ के सूक्ष्म आयतन भर भी हिलने को जुमका कहना कविता के अभिजात प्रयोगों के दौर में शायद आंचलिक और ग्राम्य माना जाय. पर केशव तिवारी ने इन्हें जैसे पुरखों के कोठार से निकाल कर बरता है. उनके यहां वृद्ध लोकगायक के सुरों की परवाह भी है जो खेतों की उदासी को अपने सुरों से जोतता है और अभावों की शिला को तोड़ता है.
याद कीजिए केदारनाथ अग्रवाल ने उन मजदूरों की बात अपनी कविता में की है जो शिलाएं तोड़ते हैं. या ‘एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ’ कह कर मजदूरों के स्वाभिमान और सौभाग्य पर बल देते हैं, उनकी विपन्नता का रोना नहीं रोते. यह नही कहते कि एक खाने वाला घर में और आ गया. आज गांवों के नाम पर शहरी कवियों में एक तरह की तटस्थता दिखती है. वे महानगरीय संवेदना के मारे हैं. पर यदि गांवों से हमारी बेरुखी हुई तो देश की किस्मत संवारने वालो को ताकत कौन देगा. कवि कहता है यह कौन है जो इतने मीठे सुरो में गाकर खेतों की उदासी दूर करने में लगा है. यह कौन है जो किसी आभार से नहीं, कर्मठता से जिंदा है और ठूठों की गाठों में कल्ले सा कसमसा रहा है . यह कल्ले सी कसमसाहट कौन देख पाता है. नागार्जुन, त्रिलोचन, विजेंद्र, ज्ञानेंद्रपति जैसे कवि या ‘हाथा’ कविता लिखने वाले अष्टभुजा शुक्ल और केशव तिवारी जैसे कवि इस नए यथार्थ को निरख-परख रहे हैं. कभी धूमिल ने इस कसमसाहट को देखा था खेवली में जहां बटलोई कलछुल से बतियाती थी. संजीव बख्शी इसे रायपुर में निरख परख रहे हैं. उनकी कविता भी गरीबों का मर्म समझ पाती है तभी वह कहती है: एक गरीब बीमार के लिए / जरूरी है एक गरीब चिकित्सक /जो सस्ती दवाइयों के नाम जानता है/नब्ज पर हाथ धर जान ले मर्ज/पूछे न सुबह क्या खाया (एक गरीब बीमार के लिए जरूरी है एक गरीब चिकित्सक). इनकी कविताएं जीवन और ज़मीन से सरोकार रखने वाली कविताएं हैं.
इस दौर में कवयित्रियों को बहुत अहमियत मिल रही है. इसलिए नहीं कि वे बहुतायत में कविताकर्म में शामिल हैं बल्कि इसलिए कि इनमें से बहुतों के पास कविता का एक विरल शिल्प है. वे गतानुगतिकता की अनुगामिनी न होकर कविता को नए सांचे में ढाल रही हैं. हमारे समय में अनीता वर्मा, अनामिका, सविता सिंह, संगीता गुप्ता, पुष्पिता अवस्थी, निर्मला गर्ग, नीलेश रघुवंशी, प्रज्ञा रावत, सविता भार्गव जैसी कवयित्रियां जहां लगातार कविकर्म में संलग्न हैं, कवयित्रियों की एक नई पीढ़ी ने इस बीच जबर्दस्त दस्तक दी है. वंदना शुक्ल, वंदना शर्मा, अंजू शर्मा, वसुंधरा पांडेय और प्रीति चौधरी की एक नई पीढ़ी कविता में दृढता के साथ दाखिल हुई है. भले ही ये कवयित्रियॉं पहचान बनाने के स्तर पर अभी प्रयत्नशील हों पर इनके प्रयासों में एक सातत्य गोचर होता है. खास तौर पर वंदना शुक्ल जिस तरह अपनी कहानियों के साथ मेहनत करती हैं, कविताओं में भी वह संजीदगी देखी जा सकती है. हाल में उन्होंने टप्पा, चैती, कजरी, ठुमरी, विलंबित खयाल, स्वर मालिका, आरोह-अवरोह, अलंकार आदि पर कविताएं लिखी हैं. \\
ऐसे मनभावन प्रयोग अभी तक यतींद्र मिश्र के यहां ही देखे जाते रहे हैं. अंजू शर्मा ने अपने संग्रह ‘कल्पनाओं से परे का समय’ से अपनी एक जगह निर्मित की है. वे अपनी कविताओं में स्त्रीजीवन की विषण्णता नहीं परोसतीं बल्कि एक नई उभरती औरत का रोजनामचा लिखती हैं. अंजू शर्मा की कविता ‘दोराहा’ की पंक्तियां: —उन्हें चाहिए थे तुम्हारे आँसू/उन्हें चाहिए थी तुम्हारी बेबसी/उन्हें चाहिए थे तुम्हारा झुका सिर उन्हें चाहिए था तुम्हारा डर/वहां एक पगडण्डी/कर रही है इंतज़ार नए कदमों का/तय करो स्त्री आगे दोराहा है’’, ………… वे अपनी कविताओं में मनु और गांधी तक को प्रश्नांकित करती हैं. पर दिक्कत यही है कि स्त्रीविमर्श के रूढ़ हो चुके प्रत्यय उनके यहां प्राय: आवाजाही करते हैं. देखना है कि वे सम-सामयिकता के आवेग में बहने का मोह कैसे संवरण कर पाती हैं. प्रेम कविता के सहज प्रवाह में बहने से अपने को रोक पाना भी कवयित्रियों के लिए सहज नहीं होता. पर अरसे से प्रेम कविता का आइकन बनी हुई पुष्पिता अवस्थी ने हाल ही प्रकाशित ‘शब्दों में रहती है वह’ संग्रह से अपना मिजाज बदला है. वैश्विक चिंताओं की एक मानवीय वसुधा उन्होंने रची है जहां विश्व के देखे महसूसे गए अनेक कोने अँतरे उनकी संवेदना के करघे से होकर गुजरते हैं तो शब्दों को एक नई आभा मिल जाती है. उनकी एक छोटी-सी कविता जीवन में एक सूक्त की तरह है: ‘’झूठ का सच जीते जीते लोग/ भूल गए हैं सच का सुख.‘’ कविता की कार्यसूची दर्ज करते हुए वे कहती हैं: ‘’कविता को रचना है हथियार/सारे हथियारों को अपनी भाषा में/ सारे धर्मों के बाहर निकालना है धर्म को/ईश्वर नहीं आदमी के पक्ष में/कविता को अपनी भाषा में/फिर वह कोई भी भाषा हो.‘’(हथियार).
सविता भार्गव और वसुंधरा पांडेय के यहां प्रेम से भरी हुई वसुधा दीख पड़ती है तो प्रज्ञा रावत में नदी बनने की एक प्राकृतिक चाहत. संगीता गुप्ता की चित्रकारिता उनकी कविताओं को चाक्षुष बिम्बों में बदलने में मदद करती है तो अनीता वर्मा के यहॉं रोजमर्रा के जीवन से निर्मित तमाम अलक्षित बिम्ब कविता को जीवन के सम्मुख खड़ा कर देते हैं. ‘’अभी मैं प्रेम से भरी हुई हूँ, अंधकार अभी मेरे केशो में है’’ तथा ‘’मृत्यु फिर चली गई पुरानी चप्पले पहन कर’’—जैसी चित्ताकर्षी पदावलियां कहने वाली अनीता वर्मा की कविता धीरज और संयम के सहमेल से बुनी गयी है. भावों का उच्छल जलधि तरंग वहां नहीं बहता जैसा कि इधर की नई नवेली कवयित्रियों में बहता महसूस होता है. कविता में एक नई आमद बाबूशा कोहली की है जिनके भीतर कविता की एक नई लय, नया बिम्ब, नया प्रतीक-विधान के प्रति खिंचाव नज़र आता है; यानी कविता का बिल्कुल नये से नया परिधान बुनने की एक कोशिश दिखती है. ऊपर के एकाधिक उदाहरणों से यह बात सिद्ध भी होती है. ‘शब्द नदी है’ में वसुंधरा पांडेय जब पूछती नज़र आती है कि चलोगे क्या मेरी कविता की धूप में ? तो यह सहज ही लगता है कि यह कवयित्री अनुभूति और संवेदना की गुलाबी सिहरन में कविता में धूप की गरमाई सहेज रही है. अनुरागभरी उनकी व्यंजनाएं कहीं कहीं अशोक वाजपेयी की याद दिलाती हैं. उदाहरणत:इस नील स्यामल अनंतता में/धकेल कर मुझ निर्वसना को/कोई चुरा ले गया है मेरे शब्द/मेरी ध्वनियां, मेरे चित्र/ जा बैठा है न जाने किस कदंब की शाख पर.(इस नील स्यामल) अनुराग से भरी यह कवयित्री दिन और रात को दिल के दो अहसासों के रूप में देखती है. जहां कवयित्रियों की अधिकांश आबादी निज के भावात्मक अहसासों और उच्छ्वासों को ही कविता में परोस रही हैं जिसकी झलक अक्सर फेसबुक पर देखने को मिलती है, वहीं अनेक ऐसी कवयित्रियॉं भी हैं जो कवि के कार्यभार को समझती हैं. किसी आलोचक ने कहा था जैसे जैसे समय बदलेगा , कवि कर्म उत्तरोत्तर कठिन होता जाएगा. जबकि हो इसके उलट रहा है. ‘कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है’ वाली स्थिति है इन दिनों.
युवा कवि भी शब्दों के श्रृंगार में निपुण दिखते हैं. गीत चतुर्वेदी, प्रियदर्शन, अरुण देव, मोहन राणा, तुषार धवल, कुमार अनुपम, राहुल राजेश और इधर के तेजस्वी कवियों में प्रभात इसके अन्यतम उदाहरण हैं. अविनाश मिश्र के भीतर भी एक नया कवि आकार ले रहा है. अपनी मुट्ठी भर कविताओं से उन्होंने कविता की आबोहवा में अपनी आमद दर्ज़ की है. इधर तद्भव और सदानीरा पत्रिकाओं में आई कविताएं उनके कौशल का प्रमाण हैं. \’पत्थर होना बेहतर है\’ और \’घराना कबीर\’ जैसी उनकी कविताएं देखकर लगता है यह कवि को एक नये अंदाजेबयां से मुखातिब है. अरुण देव की कविता में एक खास तरह की नफासत और सहृदयता का बोध मिलता है. उनकी प्रेम कविताओं की भाषा अनूठी है. वह वैसी ही लालित्यपूर्ण है जैसी प्रकृति और लोकलय को उकेरने वाली एकांत श्रीवास्तव की कविता. अरुण देव कैसे प्रेम की अनुभूतियों को एक नई छुवन-नया स्पंदन देते हैं, देखिए-
मैं इंतजार करूंगा अपनी ज़बान के असर का कि
खुद टहनी का हरा पत्ता बन जाओ तुम
और फिर उसमें खिलने का इंतजार करूँ मैं
तुम्हारे बीच से, तुमसे ही, तुम्हारा – (ओ समय)
एक और उदाहरण:
मेरी आवाज़ के शब्द टूट कर गिर रहे हों
अर्थ की छाया में
इसकी पुकार के वैभव में मैंने जाना
शब्द बिना अर्थ के भी रहते हैं – (मै क्या)
किन्तु तुषार धवल के लिए प्रेम किसी समर्पण का आख्यान नहीं है. यह पारस्परिकता और लेवलप्लेइंग की शर्तों पर निर्भर है. वे उस पौरुषेय दुनिया की संकीर्णताओं को टटोलते हैं जहां योनि से अर्थ पाती देह है और कौमार्य अस्तित्व से भी अहम हैं. जहां हर स्त्री को यह कहते हुए अफसोस होता है कि: देह के भीतर कौन हूँ मैं, नहीं देख पाए कभी/ तुम्हारे अंधेपन पर आईना है मेरी देह.(ये आवाजें कुछ कहती हैं) प्रेम की सजल आकांक्षा रखने वाली स्त्री की यह विक्षुब्धता भी तुषार अनकहा नहीं रहने देते: तुम जंगल से निकल कहां पाए कभी/ मीठी बोली लुभावने दर्शन स्वतंत्रता के / मेरे होने का रुख तय करते रहे तुम अपनी जंगली खोलों से(वही) यही वजह है कि गीत चतुर्वेदी स्त्री प्रजाति की नग्नता को शब्दों की नुकीली चुभन से व्यक्त करते हैं जब वे ‘मदर इंडिया’ कविता के अंत में कुछ ऐसे ही असंतोष से भरे नजर आते हैं—ये स्त्रियां हैं हमारे अंदर की जिनके लिए जगह नहीं बची अंदर/ ये इम्तहान है हममें बची हुई शर्म का.(आलाप के गिरह). प्रियदर्शन की कविताओं में पत्रकारिता से जुड़े एक चौकन्ने शख्स की छवि दिखती है जहां वे कविता को निज के रागद्वेष से परे ले जाकर एक समाज विमर्श के तब्दील करने में यत्नरत दिखते हैं.
हरेप्रकाश उपाध्याय इस मायावी संसार की हकीकत पहचानते हैं तभी वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जीवन सुख दुख की एक पहेली है. इसीलिए उनकी विक्षुब्धता कविताओं में छिपी नहीं रहती:
जी नहीं रहे हम
बस अपनी उम्र के घंटे-पल-छिन गिन रहे बस
और इसी गुणा-भाग में एक लंबी उम्र गुजार कर
जो गए
उनके लिए मर्सिया पढ़ रहे हैं हम… (मायावी यह संसार)
ऐसी ही विह्वलता क्या नताशा स्नेहलवत्सा की कविताओं में नहीं दिखाई देती जो आबोहवा में व्याप रही उष्णता को लक्ष्य कर नींद और स्वप्न के समागम के लिए गवाक्ष खोल देने की बात कहती है:
हवाएँ उष्ण हो रही हैं
और माँ को नींद नहीं आ रही
जमाना हो गया चाँदनी में नहाये
रात की ख़्वाहिश है
पूरी हो लेने दो
तुम्हारे सपने तारे बन गए हैं
उसे नींद से मिल लेने दो
खिड़की खोल दो (–अब बस)
पर इधर के कवियों में जिन कवियों ने सर्वाधिक ध्यान खींचा है, जिनकी भाषा और अतर्वस्तु में संवेदना और मार्मिकता की सबसे अनछुई ताजगी है वह प्रभात और गीत चतुर्वेदी हैं. प्रभात और गीत दोनों कविता में सुबह की मानिंद हैं तरोताजा, धारोष्ण कथ्य और बिम्बों के कवि. वे कविताओं में हालात की रपट नहीं लिखते न किसी विषय के चरित्र चित्रण को कविता की फलश्रुति मानकर बैठ जाते हैं. जबकि आज ज्यादातर कवि यही कर रहे हैं. उनकी कविताएं कविता रिपोर्ताजों में बदल रही हैं. कुछ किस्सागोई की भंगिमाओं में ढल रही हैं. एक कच्चे माल की तरह अधपके अनुभव कविता में ज्यादा जगह छेंक रहे हैं. ये म्रियमाण कविताओं के लक्षण हैं.
ऐसी कविताएं सुदूर भविष्य की यात्रा न कर सकेंगी. ऐसे में भर्तृहरि का एक श्लोक याद आता है: स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् . यानी जन्म लेना उसका ही सार्थक है जो अपने कुल की प्रतिष्ठा में वृद्धि करता है. अर्थात कवि-कुल की प्रतिष्ठा उन्हीं कवियों पर निर्भर है जो सार्थक कुछ लिख रहे हैं. यही देखिए, यह दौर स्त्री विमर्श का है. स्त्री की विवशताओं, परवशताओं, उसकी पीड़ा का बयान करने वाली कितनी ही कविताएं इस दौर में लिखी गयी हैं और लिखी जा रही हैं. अनामिका, सविता सिंह, अनीता वर्मा, गगन गिल और तेजी ग्रोवर ने स्त्री को लेकर बेहतरीन लिखा है, पर जहॉं यह स्वानुभूत है, वहीं वैश्विक स्तर पर स्त्रीवादी विचारकों के प्रभाव और प्रेरणा का भी प्रतिफल है. इधर तो हर कवयित्री स्त्री विमर्श में मुब्तिला है. लेकिन कविताओं में कोई खास असर पैदा नही हो पा रहा है. स्त्री को लेकर उदयप्रकाश की ‘औरतें’ जिस टक्कर की कविता है उसे अनेक कवयित्रियां लॉंघ नहीं पाई हैं.
अनीता वर्मा, अनामिका व सविता सिंह की कुछ कविताएं बेशक विचलित कर देने वाला प्रभाव कायम करती हैं, पर इधर की अधिकांश कवयित्रियों में बाबूशा कोहली, अपर्णा मनोज को छोड़ कर वह प्रभाववत्ता नहीं दीखती जिसके होने पर ऐसी कविताऍ अर्थवती होती है. ऐसी कविताओं के अभाव के दौर में राजस्थान के युवा कवि प्रभात ने अपने पहले ही संग्रह ‘ अपनो में नहीं रह पाने का गीत’ में ‘शकु्ंतला’ जैसी हृदय विदारक कविता लिखी है. ‘शकुंतला’ ही क्यों, समारोह में मिली स्त्रियां, ऊँटगाड़ी में बैठी स्त्रियां सईदन चाची, रुदन, चारा न था, गोबर की हेल, जीने की जगह, एक सुख था, यादजैसी कविताएं बताती हैं कि पुरुष में भी एक स्त्री का दिल धड़कता है जो स्त्री होने की पीड़ा को स्त्रियों से ज्यादा महसूस करता है और व्यक्त करता है. वह स्त्री विमर्श के फैशनवादी लेखन से प्रभावित नहीं है, बल्कि उसकी कविताएं हालात की वेदना से उपजी हैं. वह साफ देख रहा है कि वे हारी हुई हैं तथा विजय सरीखी तुच्छ लालसाओं पर उन्हें ऐतिहासिक विजय हासिल है. वह गायब होते किसानों और विकास के नाम पर मुआवजों की राजनीति करने वाली व्यवस्था पर भी कटाक्ष करता है और देखता है कि किन्हीं परियोजनाओं के नाम पर इस बार बुलडोजर,क्रेन,पुलिस,आंसूगैस और रिवाल्वर के साथ प्रशासन लालबत्ती गाड़ी में जनप्रतिनिधि को बिठा कर लाया है.
प्रभात की ही भॉंति कविता के सधे हुए तेवर में उपस्थित होने वाले गीत चतुर्वेदी संग्रह
‘आलाप में गिरह’ पहले ही कविता कसौटी पर कसा जा चुका है. अपने समय के अचूक कथ्य से वाबस्ता गीत चतुर्वेदी यों तो कविता में अक्सर लंबा आलाप भरने वाले कवि हैं पर हर बार वे कविता में अपनाया अपना ही रास्ता बदलने का कौशल भी रखते हैं. एक रहस्यलोक में छलांग लगाती गीत की कविताएं कभी समसामयिकता की हड़बड़ी में नहीं दिखते. थकान से ऊब के लिए उन्हें गति चाहिए. बस कोई उनके पैरों में कोई पहिया बन जाए. गीत चतुर्वेदी की ही तरह कविता की नई किस्म रचने में रत तुषार धवल, मनोज कुमार झा, हरिओम राजौरिया और पंकज राग की कविताओं में मनुष्य की प्रवृत्तियों की गहरी अंत:पड़ताल दीख पड़ती है. लगता है धीरज और संयम के साथ रची कविताओं में भीतर ही भीतर एक अटूट आत्ममंथन चल रहा है. सुनें गीत चतुर्वेदी को जो इस दौड़ते भागते समय में पांवों में सत्वर गति चाहते हैं: तुम आओ और मेरे पैरों में पहिया बन जाओ/इस मंथरता से थक चुका हूँ मैं/थकने के लिए मुझे अब गति चाहिए.(मंथरता से थकान) ‘सारे सिकंदर घर लौटने के पहले ही मर जाते हैं’ कविता में वे कितनी मार्मिक पंक्तियां लिखते हैं: तुम जो सुख देती हो उनसे जिंदा रहता हूँ तुम जो दुख देती हो उनसे कविता लिखता हूँ/ इतना जिया जीवन कविता कितनी कम कर पाया.
प्रेम कविताओं की बाढ़ के इस मौसम में जिसकी कविताएं आहिस्ता-आहिस्ता मन के छज्जे पर बारिश की रिमझिम बूँदों की तरह गिरती हैं, वे गीत चतुर्वेदी हैं: ‘’तुम्हारी परछाईं पर गिरती रही बारिश की बूँदें/मेरी देह बजती रही जैसे तुम्हारे मकान की टीन/अडोल है मन की बीन / झरती बूँदों का घूँघट था तुम्हारे और मेरे बीच/तुम्हारा निचला होठ पल भर को थरथराया था’’(आषाढ़ पानी का घूँट है) और उनका यह कहना जैसे जीवन के सुख का कतरा कतरा बीनना है: ‘’मैं तुम्हारी देह ब्रेल लिपि में पढ़ता हूँ’’(पर्णवृंत). गीत की कविताएं अपनी हदें नहीं जानतीं. वह जीवन हो, समाज हो, दर्शन हो, प्रेम और अनुराग की विवृति हो, यातना भरे प्रसंग हो, या जलाए जाते पुस्तकालय हों, गीत कविता के दैहिक और आत्मिक कलेवर को हर बार नया-नया सा कर देते हैं, वे नीति-अनीति और रीति की सारी संभावनाएं खंगालने वाले कवि हैं. उनकी अनेक पंक्तियॉं सूक्तियों की-सी शुचिता से मंडित दिखती हैं: ‘’मुझे चूमो नख से चूमो शिख तक चूमो/आदि से चूमो अंत तक चूमो/मैं सादि हूँ सांत हूँ/सो अनंत तक नहीं करनी होगी तुम्हें कोशिश/ इसी देह में मेरे खुलने की कुंजी है/हर अंग चूमो हर कोई चूमो/एक सच्चा चुंबन पर्याप्त है मुझे खोल देने के लिए.‘’(जीसस की कीलें) . सोचिए गीत ने कविता की अनुभूति को कहां पहुंचा दिया है और कहॉं खड़े हैं आज के कवि शव्दशक्तियों के किन कोने अँतरों में दुहराई और जुठारी गयी अभिव्यक्तियों से केलि करते हुए. गीत चतुर्वेदी कविता को उन प्रतीतियों तक ले गए हैं जहॉं ले जाने की कोशिशें लीलाधर जगूड़ी, राजेश जोशी, अरुण कमल, देवीप्रसाद मिश्र,असद जैदी, मंगलेश डबराल जैसे कवियों के यहां दिखाई देती हैं.
तजेंद्र सिंह लूथरा ने अस्सी घाट का बांसुरीवाला में अपनी छोटी छोटी कविताओं से
ध्यान खींचा था. उनकी कविताएं जीवन में हो रहे व्यतिक्रम को पकड़ती हैं. ‘एक साधारण शव यात्रा’, ‘जैसे मां ठगी गयी थी’ और ‘मेरे अंदर जो नहीं मरा है’ कविताएं कवि की सूक्ष्म संवेदना का प्रमाण हैं. ‘इस बहस को रद्द कर दो/ मैं जीना चाहता हूँ/ मुझे जीने दो’ कहते हुए उन्होंने नाटकीयता की हद तक पहुंच गए इस जीवन में आदमी की जिजीविषा को टोटूक लहजे में व्यक्त किया है–
मुझे पसंद नहीं है
तस्वीर मेरी
मुस्कराने की जबरन कोशिश
और सारे सलीके निभाने की
इस टाई की गांठ खोलो
इस सूट को उतारो
मैं किसी की भी बगल में
रहूँ खड़ा
इस बहस को रद्द कर दो
मैं जीना चाहता हूँ
मुझे जीने दो |(आराम से)
हेमंत शेष को पुरानी चिट्ठियों से अंधेरे बंद तहखाने खुलते नजर आते हैं. लीलाधर मंडलोई ने ‘हत्यारे उतर चुके हैं क्षीरसागर में’ जैसी कविता लिख कर आज के दौर के क्रूर यथार्थ के फलितार्थ को जैसे उघाड़ दिया है. वे किसानों मजदूरों की आवाजों को कविता में स्वर देने वाले कवि हैं. वे अपने से अलग उस ‘दूसरे’ शख्स की बात करते हैं जो कहने को ‘दूसरा’ है पर एक बूढ़े की कातरता का पर्याय बन चुका है. जो बोलना चाहता है पर हलक से आवाज गायब हो चुकी है. कवि कहता है: ‘’उसकी अनसुनी आवाज में मैं पृथ्वी का मर्सिया सुनता हूँ और डर जाता हूँ.‘’ वे उस मीडिया की बात करते हैं जो निर्लज्ज और बाजार का पिछलग्गू हो चुका है. उन लेखकों की ओर इशारा करते हैं जो नया स्वप्न देख रहे हैं, उन अखबारों पत्रिकाओं और सोशल मीडिया पर निगाह डालता है जहां झूठभराई की रस्म अदा हो रही है और उसकी अपनी ही आवाज खो गयी है. मंडलोई की कविताएं कल्पनाओं के अतिरेक में जाने के बजाय सचाई के पहरुओं का गहराई से मुआयना करती हैं और निराश होती हैं.
आज जहां भूमंडलीकरण के विपक्ष में कविता खड़ी दिखती है, वह पर्यावरण के संकटों से भी मुखातिब दिखती है. जहां तमाम सत्ता और कारपोरेट घराने एक दूसरे के हितुआ बने हों, कविता सबसे कारगर विपक्ष है. हमारे समय के वरिष्ठ कवियों ने पर्यावरण के असंतुलन और पानी के संकट को लेकर अनेक कविताएं लिखी हैं. युवा कवियों ने भी अपनी कविताओं में इस संकट को शिद्दत से महसूस किया है. वंदना शर्मा लिखती हैं: पेंटिंग तर्पण है हरियाली का/रंग पश्चाताप है मनुष्यता का/हर दीवार किसी हरियाली की समाधि है…. कुमार अम्बुज की कविता ‘ कहीं कोई ज़मीन नहीं’ सल्फास खाकर आत्महत्या करते किसानों की बात करते हुए एक पद में यह भयानक सच इस तरह हमारे सामने रखती है कि विकास के आधुनिक माडल का हश्र समझ में आ जाता है: पृथ्वी बिल्डर की डायनिंग टेबल पर रखा एक अधखाया फल. आज हालात ये हैं कि किसानों को खेती की लागत भी वसूल नहीं हो पा रही, बुनकरों के हथकरघे ठप हैं, कारपोरेट घरानों के सामानों की कीमत पहुँच से बाहर है और बिल्डरों की निगाह किसानों की ज़मीन पर है. लिहाजा किसानों के पास सल्फास खाकर आत्महत्या करने के अलावा क्या विकल्प बचा है ? ऐसी ही एक मार्मिक कविता नरेश सक्सेना ने लिखी है:
इस बारिश में जैसी कविता के आरोह-अवरोह में हम अपनी जमीन से बेदखल होते किसानों का विलाप सुन सकते हैं: \’ जिसके पास चली गयी मेरी ज़मीन/उसी के पास अब मेरी /बारिश भी चली गयी /अब जो घिरती हैं काली घटाएं / उसी के लिए घिरती हैं /कूकती हैं कोयलें उसी के लिए / उसी के लिए उठती हैं / धरती के सीने से सोंधी सुगंध/ अब नहीं मेरे लिए/हल नही बैल नही/ खेतों की गैल नहीं/ एक हरी बूँद नहीं/ तोते नहीं, ताल नहीं, नदी नहीं, आर्द्रा नक्षत्र नहीं/ कजरी मल्हार नहीं मेरे लिए /जिसकी नहीं कोई जमीन/उसका नहीं कोई आसमान.\’ इस कविता के जरिए जैसे नरेश सक्सेना ने भूमंडलीकरण और सुधारों के फलस्वरूप बढ़ते पूँजीवादी प्रभुत्व के बीच कारपोरेट घरानों के नाम औने पौने ज़मीनें सौगात में दे दिए जाने से पैदा हालात पर एक कवि का शोकगीत लिख दिया है. और ‘तानाशाह की पत्रकार वार्ता’ लिख कर अम्बुज ने आज की माफिया संस्कृति की सीवनें उधेड़ दी हैं:
वह हत्या मानवता के लिए थी
और यह सुंदरता के लिए
वह हत्या अहिंसा के लिए थी
और यह इस महाद्वीप में शांति के लिए
वह हत्या अवज्ञाकारी नागरिक की थी
और यह जरूरी थी हमारे आत्मविश्वास के लिए
परसों की हत्या तो उसने खुद आमंत्रित की थी
और आज सुबह आत्मरक्षा के लिए करनी पड़ी
और यह अभी ठीक आपके सामने
उदाहरण के लिए
कविता में एक नया नाम अपर्णा मनोज का भी है. सोशल मीडिया पर साहित्य की
सन्निधि में रहने वाली अपर्णा सूक्ष्म संवेदना की कविताएं लिखने के लिए जानी जाती हैं. बुद्ध सीरीज की कविताओं में उन्होंने विदर्भ से गुजरते हुए बुद्ध की कल्पना की है और उनसे एक सवाल किया है: अनागत द्वार खटखटा रहा है कौन ?/तुम /भिक्षु, तुम /मेरे विदर्भ में /मृत्यु के रंगमंच से कौन मांग रहा है भिक्षा/ अब तुम आ ही गए हो विदर्भ/सब छोड़ के/तो लुम्बिनी की चाबियों से हमारे सीने खोलना/क्या हमने सच में आत्महत्या की थी?(कई बुद्ध). यतींद्र मिश्र ने ‘विभास’ में कबीर को साधा है. वे कबीर को आज के समय में उलटते पलटते और यत्र तत्र प्रश्नांकित भी करते हैं और उनके कवित्व की छाया में विश्रांति भी पाते हैं. कबीर तो चदरिया जतन से ओढ़ने वालों में थे जो उसे ज्यों की त्यों धर देने के अभ्यस्त थे, पर आज के समय में चादर को मैली होने से बचा पाना कितना मुश्किल है. इसीलिए उसे कामनाओं का चीकट धोने सुखाने के लिए साबुन चाहिए और वह धोने का सलीका भी जिससे धोबिन सारे दाग धब्बे सहजता से छुड़ा देती है. मैल धोने का सवाल आया तो बोधिसत्व अपनी एक कविता में पूछते हैं:
मुझे कौन मुक्त करेगा?
वे दरिद्र हो चुकी नदियाँ जो रोती बिलखती आती है मुझ तक
वे जिनका जीवन मरन के कगार में धंसा जा रहा है
वे मिट्टी और मांस और मैल की मारी नदियाँ
जिनकी लहरों में अब कराहने की शक्ति भी नहीं है
वे किसी को क्या देंगी भला ?(शिकायत)
कविता में आज जो बड़े माडल हैं उनमें रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह और मंगलेश डबराल जैसे बड़े कवियों के प्रति युवा कवियों में एक खास तरह का आकर्षण है. एक वक्त निराला और मुक्तिबोध बड़े माडल थे. पर केदारनाथ अग्रवाल की तरफ रुझान कम देखा जाता है. कविता में उन्हें प्रकृति और प्यार का कवि माना जाता है. मार्क्सवाद के इस योद्धा ने पूँजीपतियों के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूँका है तो मजदूरों के मनोबल को बल्लियों उछाल भी दी है. बोधिसत्व ने एक कविता में उन्हें जैसे जीवित खड़ा कर दिया है:
जिससे बात-बात पर झगड़ा वह भी तुम हो
जिससे बात-बात पर लफड़ा वह भी तुम हो
जिससे घड़ी-घड़ी पर किच-किच वह भी तुम हो
जिससे घड़ी-घड़ी पर मच-मच वह भी तुम हो
जिससे पल-पल सांस जुड़ी है वह भी तुम हो
जिससे पल-पल आस जुड़ी है वह भी तुम हो
दाना-पानी, चना-चबैना सत्तू बाटी सब कुछ तुम हो
लैआ-लाची, पान-फूल औ चंदन काठी सब कुछ तुम हो
अब तक जीवित शेष बचा हूँ
क्यों कि तुमसे रचा बसा हूँ.
हिंदी कविता में मृत्यु और अवसान पर भी काफी कुछ कवियों ने लिखा है. कुंवर नारायण से लेकर अवसान को अपने ढंग से रचने जीने वाले अशोक वाजपेयी तक ने इसे महत्व के साथ स्वीकार किया है. अनिरुद्ध उमट मृत्यु से कुछ इसी तरह पेश आते हैं: जिस क्षण तुम्हें मृत्यु लेने आएगी/उसकी आंखों में मत देखना / सिर्फ कहना / देखो तुम्हारे हाथ कितने गंदे हैं/ देखो तुम्हारी घड़ी कबसे बंद है.(मौत की घड़ी-1) पर अवसान की वेला में भी नष्ट होते हर मानवीय मूल्य को किसी कीमत पर बचा लेने की चाहत भी कवियों में कम नहीं दिखती. नीलोत्पल कहते हैा’ बचाओ अपने भीतर ध्वस्त हो रहे पहाड़ पेड़ नहीं, इंसान और वह सब जो हमें बचाए है हत्यारा होने से.(अनाज पकने का समय) तथापि, कोई कला, कविता या वैचारिकी समाज विमुख रह कर दीर्घजीवी नही रह सकती. समाज, राजनीति और साहित्य के फलक पर हुए आंदोलनों ने कविता की बेल को हरा-भरा रखा है.
विचारधारा के हामी कवियों ने भी कविता में यह खयाल रखा है कि यह उसके शिल्प और कथ्य में नमक की तरह नुमायां हो. कविता की पारिभाषिकी हर वक्त के कवियों ने अलग अलग रची है पर यह शाश्वत सत्य है कि कविता सबसे पहले मनुष्य के आनंद का उद्भावक है; वह यश:कारी है, अर्थकरी और स्वस्तिमयी है. मनुष्य चित्त के परिशोधन का इससे उम्दा उपक्रम कोई नहीं. समाज बदलने में जब शासन प्रशासन और समाजविदों के सारे उपक्रम विफल हो जाते हैं, कविता कभी नारे, कभी सूक्ति, कभी मुहावरे और कभी विज्ञापन की काया में विसर्जित होकर क्षीण हो रहे मूल्यों का मनुष्य में पुनर्वास करती है. तथापि, यह मनुष्य की पीड़ा की इबारत भी है. जब जब मनुष्यता संकट और तकलीफ में होती है, कविता का सबसे उर्वर समय वही होता है. आदि काल से अब तक सबसे अच्छी कविताएं वही हैं जिनमें मनुष्य की पीड़ा का आख्यान उपन्यस्त है. _________
साहित्य अमृत के जुलाई अंक में प्रकाश्य आलेख की मूल और अविकल प्रति