हमने कांग्रेस-जनसंघ-संसोपा-भाजपा-सपा-बसपा-अवामी लीग-लोकदल-राजद-हिंदू महासभा-जमायते इस्लामी
वगैरह वगैरह के लोंदों से जो बनाया
वह भारतीय मनुष्य का फौरी पुतला है
मुझे भूरी-काली मिट्टी का एक और मनुष्य चाहिए
मुझे एक वैकल्पिक मनुष्य चाहिए.
(कोई और/देवीप्रसाद मिश्र)
देवीप्रसाद मिश्र (जन्म : 18 अगस्त 1958) का फिलहाल एक कविता संग्रह ‘प्रार्थना के शिल्प में नहीं’ प्रकाशित है. अपनी रचना प्रक्रिया पर एक जगह वह लिखते हैं – ‘मेरे लिए कविता लिखने की प्रक्रिया फोर बी पेन्सिल के उपयोग जैसी है जहाँ खुद को बार-बार शार्पनर में डालना पड़ता है. यह नोक के खोजने की निरंतरता है.’
कहना न होगा कि उनकी कविता का यह नुकीलापन आज भी बरकरार है. यह नोक सत्ता और सत्ता के आस पास एकत्र और निर्मित क्रूरता को निशाने पर लेती है. देवी उन कुछ विरले कवियों में हैं जिन्हें सत्ता प्रदूषित नहीं कर पायी है. उनकी विश्वसनीयता अटूट है.
युवा अध्येता मीना बुद्धिराजा ने देवी प्रसाद मिश्र पर बड़े ही लगाव से यह आलेख तैयार किया है.
देवी प्रसाद मिश्र का असमाप्त संघर्ष
मीना बुद्धिराजा
मीना बुद्धिराजा
तीन दशक की रचनात्मक तल्लीनता और धारा के विरुद्ध अपनी जीवन राह बनाने वाले अप्रतिम कवि ‘देवी प्रसाद मिश्र ‘समकालीन हिंदी कविता के सशक्त हस्ताक्ष्रर हैं. वाद-विवाद-संवाद के वर्तमान परिदृश्य मे वे अविचलित सार्थक लेखन कर रहे हैं. कवि, कथाकार और फिल्म-निर्माता देवी प्रसाद मिश्र जी को रचनात्मक एकांत और स्वतंत्रता बहुत प्रिय है. हिंदी सहित्य मे वे एक दुर्लभ उदाहरण बन चुके हैं. पुरस्कार, सुविधा, सम्मान और सोशल मीडिया की चकाचौंध से दूर वह जो भी रच रहे हैं. वह बहुत मानीखेज और समसामयिक है. संगोष्ठियों और बहस-विमर्श की गहमागहमी से अलग उनकी रचनाएँ गहरी सोच और विवेक पर केंद्रित है. लेखन के लिये अत्यंत गंभीर, सजग लेकिन प्रकाशन और प्रचार के मामले मे ‘देवी’जी बेहद अगंभीर हैं. उनका लेखन हमारे वर्तमान समय का जीता-जागता बयान है. हमारे समय के सबसे प्रयोगधर्मी कवि और ‘सच’के लिये प्रतिबद्ध रचनाकार जिन्हे दरकिनार करना असंभव है. उनका स्वयं मानना है-‘बहुत दु:ख की तुलना मे, बहुत सुख से खत्म होती है आत्मा’
बीसवीं सदी के महान दार्शनिक, राजनीतिक विचारक ‘अंतोनियो ग्राम्शी’ का कथन है- “उस क्षण से जब एक पराधीन वर्ग वास्तव मे स्वतंत्र और शक्तिवान हो जाता है और एक नये प्रकार के राज्य की स्थापना पर बल देता है- तब आवश्यकता पैदा होती है, एक नई बौद्धिक और नैतिक व्यवस्था के वास्तविक निर्माण की, अर्थात एक नए तरह के समाज की, और इसीलिये आवश्यकता होती है अधिकतम सार्वकालिक अवधारणाओं के प्रतिपादन की, अधिकतम संवर्द्धित और निणार्यक वैचारिक अस्त्रों की ”
आत्मग्लानि और अपराध का यह दौर जो त्रासदी और प्रहसन के रूप मे लगभग समान रूप से ही गतिमान हो रहा है, उसमे समाज व्यवस्थाएं और राज्य-तंत्र भी इस प्रक्रिया से अछूते नहीं हैं बल्कि उसमे सक्रियता से हिस्सा ले रहे हैं. इस स्मृतिविहीन समय मे सब कुछ खुले बाजार के नियमों से तय हो रहा है. एक चीज की स्थापना दूसरी चीज के विस्थापन का उपक्रम बनकर आती है. आज का यह समय कई अर्थों मे संकटग्रस्त है. ऐसा संकट जिसकी प्रकृति एकदम नई, अचानक होने वाले कोहराम की तरह है, जिसमे सभी नैतिक मूल्य, संस्कृति शब्द और साहित्य का अस्तित्व दांव पर लगे हैं. परंतु इतिहास मे ऐसा कोई काल-खंड नही रहा, जब सच्ची आलोचनात्मक स्मृति पूर्णतय: मिट गई हो, या विकल्प की चेतना और प्रतिरोध के स्वरों से खाली हो गई हो.
समकालीन कविता मे हमारे समय के कवि ‘देवी प्रसाद मिश्र’ अमानवीयता और अन्याय के विरुद्ध सबसे प्रतिबद्ध, ईमानदार और प्रखर आवाज हैं. उनके लेखन मे सच कहने का साहस बडी उम्मीद जगाता है. जब देश और समाज मे सत्ता तथा पूंजी का कोई वास्तविक विकल्प न बचे तो कविता जीवन का अंतिम मोर्चा होती है. इस लड़ाई मे साधारण व्यक्ति की नियति को ‘देवी प्रसाद’ भयंकर अन्याय मानते हैं और अनवरत लड़ रहे हैं. लीक से अलग हटकर प्रयोगों का जोखिम उठाकर वे निरंतर रच रहे हैं. उनकी कविताएँ वर्तमान सेलगातार बहस है, जिसमे वह मनुष्य की त्रासदियों को बहुत निकट जा कर देखते हैं.
‘देवीप्रसाद’ जी की वैचारिक प्रतिबद्धता और मानवीय पक्षधरता स्पष्ट है. जनसामान्य को वह सारी सुविधाएँ और स्वतंत्रता हासिल हो, जो उनका बुनियादी हक है. उनके लेखन के सरोकार व्यापक समाज से जुडे हैं. दमन और बदलाव की शक्तियो के निर्णायक संघर्ष मे ऐसा वैकल्पिक चिंतन जो सत्य के करीब, तार्किक और स्थापित व्यवस्था के विरुद्ध असहमति के रूप मे उपस्थित हो. अपने एक वक्तव्य मे उन्होने लिखा है- ‘कविता के मेरे स्रोत फिलहाल भारतीय पावर स्ट्र्क्चर की विसंगतियो और विद्रूपताओ को समझने मे है जो भारतीय संकट की मूल अंतर्वस्तु भी है.’
‘कविता लिखने की प्रक्रिया मेरे अंत:करण की दैनंदिनता है. यह प्रतिदिन की नैतिकता है.’ वास्तव मे उनकी कविता उन शक्ति-संरचनाओ को समझने की एक निरंतर प्रक्रिया है जो सिर्फ राज्य-सत्ता तक ही सीमित नही हैं, बल्कि प्रत्येक स्तर पर समाज से प्रत्यक्ष य परोक्ष रूप से संबद्ध है. यह ऐसा जटिल व्यूह है, जिस्के सभी संस्तरो को प्रकट करना और उसके प्रतिरोध का आलोचनात्मक विवेक विकसित करना ही उनकी कविताओ की केन्द्रिय चिंता है. लोकतंत्र मे साधारण नागरिको और हाशिये के लोगो से जुडे जरूरी सवालो पर चुप्पी और निष्क्रियता उनमे एक गहरी बेचैनी उत्पन्न करती है. परंतु जटिल राजनीतिक सवालो का सामना करते हुए देवी’जी वाचालता से बचते हैं. उनकी कविताएँ साधारण से लगते दिखायी देते उन बुनियादी प्रश्नो तक ले जाती है जिसका इतिहास और वर्तमान के पास कोई जवाब नही है-
जैसे भारतीय राजनीतिज्ञों जिनमे
पूंजीवादी, समाजवादी, उदारवादी,
हिंदुवादी , साम्यवादी, एकाधिकारवादी
मुस्लिमवादी वगैरह सारे शामिल हैं
एक आदर्श राष्ट्र की संरचना के
क्या क्या घटक होते हैं
वे एक आदर्श राष्ट्र नहीं बना पा रहे
और मै एक आदर्श कविता.
(राष्ट्र निर्माण की राजनीति )
देवी जी का काव्यात्मक रेटरिक काफी बेचैनी भरा है लेकिन एक बौद्धिक आवेग उसे सयंत बनाये रखता है. उन्होने मनुष्य की निराशा और सादगी को जिस तरह से साधा है, उसमे अनौपचारिक सी लगती भंगिमा के बावजूद भाषा की आंतरिक तहों मे खास तरह की विकलताएं हैं. यह असंगति, महीन ‘हयूमर’ के साथ बुनियादी प्रश्नो का ऐसा मेल है जो ताकत की दुनिया मे नैतिक प्रतिरोध का एक अनिवार्य हिस्सा लगता है. इस सादगी मे एक कसावट और सतर्कता है जो लंबे आत्मसंघर्ष व गहरे चिंतन से आयी है. इस समय जब कि कुछ भी सीधा और सरल नहीं रह गया है, ‘देवी’जी की कविताएँ तल्ख किस्म की विडंबनाओं की और हमे ले जाती है.-
यहाँ कुछ बदलता था तो नागरिक
दलित मे, मनुष्य मुसलमान मे
विवेक पूंजी मे
फोन पर षडयंत्र सारे
लीक से हटकर कहीं पर लोकतंत्र
(हर इबारत मे रहा बाकी)
उनकी कविताये खोये हुए गणतंत्र के साथ खोई हुई कविता की जगह की खोज का नैतिक उपद्रव भी बार-बार करती हैं. इतिहास की विडंबनाओ और सत्ता की कुटिलताओ के प्रति सतर्क ऐसे प्रश्नो से वे निरंतर टकराते हैं-
कह सकते हैं कि आदिवासी की बंदूक की तरह भरा हूं
लेकिन फिलहाल तो अपने राज्य और जाति और भाषा से डरा हूं
और विद्रोह के एन जी ओ से और इस समकालीन सांस्कृतिक खो-खो से
(भाषा)
उनके शब्द और वाक्य अपने मे हमेशा पूर्ण होते हैं, किसी घटना या बयान की तरह . इसके लिये वे सजग रहते हैं कि प्रतिरोध करते हुए उनकी भाषा या शिल्प कहीं खुद ही एकशक्ति संरचना मे ना बदलने लगे. भाषा को असाधारण बनाना उनके रचनात्मक-व्यवहार का अंग नही है. यहां कविता भाषा के नये आयामो एवं उपकरणो का प्रयोग करती है और रचना को वहां ले जाती है,जहां वह शब्दो से अधिक अभिप्रायों मे निवास करती है. जीवन के रोजमर्रा के द्रश्य व अनुभव कविताओ मे विंडबनाओ तथा अंतर्विरोधो से टकराते हुए सामने आते हैं-
यह भाषा को ना बरत पाने की निराशा है
या मनुष्य को न बदल पाने की असंभाव्यता
नव उदार वाद को मैने ठुकरा रखा है
और विचारधारा की एक दुकान भी खोल रखी है
जिसमे नमक हल्दी तो है लेकिन बिकता हल्दी राम है.
एक भाषा मे क्यो हैं, इतनी अफवाहें
और क्यो है इतने सांमत और नौकरशाह
और इतने दुकानदार, इतने दलाल और सांस्कृतिक माफिया
एक भाषा मे क्यो नही बोल पाता पूरा सच
एक भाषा मे क्यों नही हो पाता मै असहमत
कविता मे क्यों है सत्ता सुख
(भाषा)
व्यक्तित्व और कृतित्व का यह ऐक्य उनके समकालीनो मे दुर्लभ है. वर्तमान रचनाशीलता मे व्याप्त सरोकार विहीन, महत्वाकांक्षी, सुविधापरक और आत्ममुग्ध चुप्पी के विरोध मे कठिन और जोखिम भरे रास्ते पर चलना उनकी कविता का स्वभाव है. राष्ट्र की अमूर्त अवधारणा को ‘देवी’ एक सामाजिक परिघटना के रूप मे देखते हैं. बाजार के चमकीले यथार्थ मे निहित हिंसाये, बर्बरताये तथा विडंबनाये आज भी एक दु:स्वप्न की तरह मनुष्य की नियति को निर्धारित कर रहे हैं. देवी’जी जानते है कि समाज की चेतना के जड और गतिहीन होने का परिणाम भी सामान्य मानव को ही भुगतना होगा.वैचारिक द्वंद्व से रहित समाज मे शक्तिशाली प्रभुतासपन्न वर्ग और व्यवस्था की भूमिका पर वे स्पष्ट निर्भीक प्रतिक्रिया करते हैं-
‘तमाम लामबंदियो के खिलाफ मेरे पास एक गुलेल थी और नदियों की तरह शहरो और शिल्पों और वस्तुओ को छोड देने का वानप्रस्थ्. मेरे पास बहुत आदिम क्रोध था और सत्तावानो को घूर कर देखने का हुनर. मेरे पास यातनाये थी और खुशी मे मनहूस हो जाने का प्रतिकार, सलाहो और सत्ताओं का मुझ पर कम असर था.‘- (15 अगस्त के आस पास का अगस्त)
एक ऐसा समय जिसमे अत्याचार और अन्याय के तरीके और हथियार बिल्कुल नये हैं, संवेदंनशीलता लगभग अपराध है, एक ऐसा उन्माद और उभार जो मनुष्य को उपभोक्ता मे बदल रहा है, प्रतिरोध असहाय है. उसी परिदृश्य के बीच ‘सहने की जगह को कहने की जगह बनाते हुए’ ये कवितायें उम्मीद और प्रतिबद्धता से बंधी मूलभूत आवाज की तरह नये दुर्गम रास्ते पर निरंतर गतिशील है. सांस्कृतिक वर्चस्वके विरोध की बजाय एक यथास्थितिवाद जो आज पनप रहा है उसमे सत्ता के दुष्चक्र मे पिसते आम नागरिको के प्रति चिंताओ के साथ ही एक स्थायी, पारदर्शी मूलभूत जिद से भरी संरचना और विचारधारा उनकी कविताओ मे बनती नज़र आती है-
सत्य को पाने मे मुझे अपनी दुर्गति चाहिये
चे ग्वेरा का चेहरा और स्टीफन हाकिंग का शरीर
फासबिन्डर की आत्मा और ऋत्विक घटक का काला-सफेद
बचे समय मे मै अपने दु:स्साहस से काम चला लूंगा और असहमति से’-
(सत्य को पाने मे मुझे अपनी दुर्गति चाहिये)
उनकी इधर हाल मे प्रकाशित बहुत सी कविताये जैसे-एक फासिस्ट को हम किस तरह देखें, यातना देने के काम आती है देह, एक कम क्रूर शहर की मांग, मै अंधेरे मे ही रहने की आदत डालूं या बदलूं- समसामयिक चिंताओ और सवालो से जुडी जरूरी कविताये हैं.
कविता की परंपरागत संरचना को तोडती, आक्रामक लेकिन सच के पूरी तरह करीब ये कविताएँ शिल्प ही नही, कथ्य और शीर्षक मे भी दुर्लभ हैं. स्वयं ‘देवी’जी के शब्दो मे- ‘यहां अंतत: एक कैलेंडर बनता है जिसमे रोजमर्रा मे न्यस्त हिंसा और प्रतिरोध, अकेलापन और मदद, दुरभिमान और लोकतंत्र, नर्क और निर्वाण, दुविधा और इलहाम की कथाएं बनने लगती हैं. इस तरह शिल्पवस्तु का विस्तार कर देता है. ‘विश्व विख्यात आलोचक बेलिंस्की भी मानते है कि-‘हमारे युग की कला न्याय की घोषणा और समाज का विश्लेषण है. यदि वह कोई सवाल या किसी सवाल का जवाब नहीं, तो वह कला निर्जीव है.’
युवा कवि-आलोचक ‘अविनाश मिश्र’ को दिये एक साक्षात्कार मे ‘देवी प्रसाद मिश्र’ ने यह माना है कि-‘रचना के एक फ्रेम मे जितना अधिक प्रतिकार हो सकता है, एक ईमानदार प्रतिकार – मै वह करता हूं. लेकिन मै इसको किसी स्वांग मे नही बदल सकता. इससे वह अविश्वसनीय हो जायेगा.’ इस दृष्टि से मुक्तिबोध के बाद ‘देवी’ हिंदी कविता मे ऐसे कवि हैं जिनमे युगीन कार्यभार को उठाने की बौद्धिक क्षमता और साहस है. मध्यवर्गीय महत्वाकाक्षांओ, दुविधा और दोहरेपन के विरुद्ध जीवन की सच्चाई और मासूमियत के खो जाने का दुख उनकी कविताओं मे स्पष्ट दिखाई देता है-
लौटते हुए, गुजरते हुए बगल से दरगाह के
मैने बहुत सारी मनौतियां मांगी, कि मेरा
राजनीतिक एकांत आंदोलन मे बदल जाये
वित्त मंत्री एक भूखे आदमी का
वृतांत बताते हुए रोने लग जाए.
मेरा बेटा घड़ा बनाना सीख जाए
एक कवि का अकेलापन हिंदी की शर्म मे बदल जाये.
(निजामुद्दीन)
वस्तुत: देवी प्रसाद मिश्र की कविताए उस असमाप्त संघर्ष और मुक्ति का आख्यान है, जिसके विषय मे प्रसिद्ध कवि ‘असद जैदी’ की कविता की पंक्ति के माध्यम से कहें तो- ‘लड़ाइयां अधूरी रह जाती हैं अक्सर, बाद मे पूरी होने के लिये’. अपनी सम्पूर्ण मानवीय प्रतिबद्धता, जनपक्ष से जुडी सच्ची क्रांतिधर्मिता के साथ उनकी रचनाये तमाम तरह की विद्रूपताओं के बावजूद वैश्विक समाज के सर्वाधिक मूल्यवान शब्द ‘उम्मीद’ को खोज कर सामने ला देती हैं जो हिंदी कविता में उन्हे एक मील का पत्थर बनाती हैं-
यथार्थ दबंग है तो कहना भी जंग है.
कितने ही मोर्चे हैं, और कितनी ही लडाइयां
कितने ही डर, और कितने ही समर
न्याय मुझको चाहिये हर रोज
(हर इबारत मे रहा बाकी)
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मीना बुद्धिराजा
अदिति कालेज (दिल्ली विश्वविद्यालय)
‘निराला के आलोचनात्मक निबंध’ पुस्तक प्रकाशित
कुछ आलोचनात्मक लेख, समीक्षा तथा कवितायें पत्र- पत्रिकाओं मे प्रकाशित
meenabudhiraja67@gmail.com