4 मार्च, 1958 को मुक्तिबोध ने अपने प्रिय मित्र और अभावों के साथी नेमिचंद्र जैन को पत्र लिखकर राजनांदगांव में अपनी नौकरी पक्की होने की सूचना के साथ अपने जीवन की दुख भरी कहानी के बारे में भी बताया. वे इस बात से बहुत प्रसन्न थे कि –
‘वहां के लोग मुझे चाहते हैं. वहां एक दल का दल है, जो अपने यहां अच्छे–अच्छे आदमियों को बुलाना चाहता है. बढ़ता–उभरता हुआ कालेज है. कुछ ही वर्षों में, समीपवर्ती रायपुर में एक विश्वविद्यालय खुलने वाला है. इस बात की पूरी संभावना है कि मुझे वहां लाभप्रद स्थान मिले. अब आयु में प्रौढ़ हो जाने के कारण नयी पीढी के लोग मुझे हर तरह प्रोत्साहन देते रहते हैं. मेरे प्रति इस क्षेत्र में बहुत प्रेम और आदर है. शायद मैं ऐसे स्थानों में ही अपने को अधिक उपयोगी सिध्द कर सकता हूं. … मुझे आशा है कि राजनांदगांव पहुंचकर मुझे कुछ आराम मिलेगा और स्वयं के साहित्यिक कार्य के लिये कुछ फुरसत मिलेगी. शहर छोटा होने के कारण जिंदगी का अस्तित्व बनाये रखने का संघर्ष भी कुछ कम होगा. नेमि बाबू, मेरी कहानी बड़ी उदास है, कहने से क्या लाभ ?’
‘एक अर्से से लेक्चररशिप की मेरी इच्छा रही है, वह भी पूर्ण हो जायेगी. यह भी बिलकुल ठीक है कि राजनांदगांव में मैं अधिक दिनों टिक नहीं पाऊंगा. मैं अभी से कहे देता हूं. किसी काम से जल्दी ही उकता जाने का मेरा स्वभाव है.’
चालीस वर्ष की अवस्था पार कर वे अपनी प्रिय लेक्चररी के लिये राजनांदगांव जा रहे थे तब तक उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा नहीं रह गया था फिर भी मन में यह विश्वास था कि अनुकूल आर्थिक स्थिति में वे परिवार और अपने स्वास्थ्य की अच्छी तरह देखभाल कर सकेंगे. कालेज में प्राध्यापक बनने के लिये उन्होंने किस–किसको पत्र नहीं लिखे. लेकिन जीवन के उत्तरार्द्ध में वह मिलने जा रही है तो वे अत्यधिक उत्साहित हैं इसलिये कि पढ़ने–लिखने के लिये समय मिलेगा. आज कालेज या विश्वविद्यालय में प्राध्यापक जिस तरह बन रहे हैं या बनाये जा रहे हैं, उनका ज्ञान से कोई लेना–देना नहीं है. वे मुक्तिबोध की परंपरा को अंगूठा दिखाकर मोटा वेतन और दायित्वरहित आभिजात्यपूर्ण जीवन जीने के लिये प्राध्यापक बन रहे हैं. पढ़ाई–लिखाई के नाम पर जो खेल तथाकथित पत्रिकाओं में चल रहा है, उससे कोई अछूता नहीं है. कहना न होगा कि मुक्तिबोध को वह वातावरण राजनांदगांव में नहीं मिला, जिसकी उम्मीद करके वे यहां आये थे.
कालेज के मुखिया बैठकबाज थे, उनके सामने बोलने और उनकी बैठकी से अनुपस्थित रहने का साहस किसी में नहीं था. यह साहस मुक्तिबोध ने दिखाया तो वे उनसे नाराज रहते थे. ‘विपात्र’ जैसी लंबी कहानी इसी शिक्षाविरोधी वातावरण में लिखी गई थी. कहते हैं कुछ चाटुकार और चुगलखोर प्राध्यापकों ने कालेज के रहनुमा किशोरीलाल शुक्लको इस कहानी के बारे में बताया था. वे चाहते थे कि शुक्लजी मुक्तिबोध से नाराज हो जायें. शुक्लजी पहले से मुक्तिबोध की आदतों से परेशान थे, वे उनके शहर के मजदूरों में जाने, गरीब लोगों के मुहल्ले की दुकानों पर चाय पीने तथा बैठकी में अनुपस्थित रहने से बहुत नाराज रहते थे. मुक्तिबोध को इस बात का अहसास था पर उन्हें इस व्यर्थ की बैठकी से नाराजगी भी थी इसलिये वे अपने मन मुताबिक उन मुहल्लों में जाते जहां जाने पर बॉस मना करते थे.
‘विपात्र’ में वे लिखते हैं ‘मैं क्या करता हूं ? ज्यादा से ज्यादा ढीमरों, महारों और कुनबियों के मुहल्ले में चाय पीता हूं. जी हां, मैंने वहां के दृश्य देखे हैं लेकिन साफ बात है कि मैं खुद महार, कुनबी, ढीमर, मुसलमान या ईसाई नहीं हो सकता … जी हां, मेरे हमदर्दों ने मुझे हजार बार कहा कि यह छोटा शहर है, तुम यहां के बड़े आदमी हो, वहां जाकर चाय वगैरह न पिया करो. लेकिन मुझे वहां आराम मिलता है. कॉफी–हाउसों में यूं ही मेरे दिमाग में तनाव पैदा हो जाता है.’
सरकारी विश्वविद्यालयों में जिस प्रकार लेन–देन के आधार पर कुलपतियों की नियुक्तियां हो रही हैं, उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है कि वे शिक्षा के स्तर को सुधारने में मदद करेंगे, क्या वे कोई सपना या विजन लेकर विश्वविद्यालयों में जा रहे हैं ? वे जो देकर जा रहे हैं उससे कई गुणा कमाने जा रहे हैं. और निजी महाविद्यालय की चर्चा तो अब बेमानी हो गई है. एक समय तक निजी महाविद्यालय ट्रस्टों के द्वारा संचालित होते थे, जो अपनी ओर से देना तो चाहते थे लेकिन लेना बिल्कुल भी नहीं. पर अब तो निजी महाविद्यालय बेरोजगार युवकों, भूमाफियाओं, राजनेताओं तथा अपराधियों द्वारा संचालित किये जा रहे हैं, जिनके मन में शिक्षा और शिक्षकों के प्रति कोई सम्मान नहीं है, जो धन कमाने के लिये ही संचालित किये जा रहे हैं. ‘विपात्र’ के बॉस अब स्थानीय नहीं रह गये हैं बल्कि अंतरराष्ट्रीय हो गये हैं और सारी दुनिया में अपने कारोबार को फैला रहे हैं. शिक्षा के व्यापारी अपनी तिजोरी भरने के लिये क्या–क्या नहीं कर रहे, इसे शिक्षा संस्थानों में देखा जा सकता है. अब किसी प्रतिभाशाली का नौकरी पा लेना कठिन होता जा रहा है, धन, जाति और प्रभाव की मार के आगे प्रतिभा दम तोड़ रही हैं. मुक्तिबोध की खीज, बेचैनी और उदासी इसी वातावरण को देखकर थी. वे जिस उम्मीद से आये थे, उसने दम तोड़ दिया था. शरीर पहले से ही थका और बीमार था, यहां आकर वे और अधिक बीमार और असहाय होते गये.
मुक्तिबोध की कहानियां उनके अपने निजी जीवन और अनुभवों की अभिव्यक्ति हैं इसलिये अधिकतर में केंद्रीय पात्र की भूमिका वे स्वयं रहते हैं. उनके अंदर की बेचैनी और उदासी इन कहानियों में साफ–साफ देखी जा सकती है. ‘विपात्र’ के अलावा ‘समझौता’ कहानी भी उनकी मनःस्थिति को स्पष्ट करती है. जीवन में उन्होंने कोई समझौता नहीं किया पर किसी से झगड़ा भी नहीं किया फिर भी नौकरियों में जो स्थितियां बनीं, वे बहुत सुखकर नहीं थीं. नेमिबाबू को उन्होंने लिखा–
‘नौ वर्ष की सरकारी नौकरी ने कुछ नहीं दिया, तोहमत दी, राजनैतिक और सामाजिक तोहमत. प्राइवेट कंपनियों की नौकरी पर भी अब भरोसा नहीं रहा. माया मिली न राम ! ऊपर से मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य चैपट हो गया. मैंने कभी किसी से झगड़ा–झांसा नहीं किया, साथ ही अपने अधिकारियों को खुश रखने की अजहद कोशिश की, फिर भी हानि की हानि.’
‘मुसीबत आती है तो चारों ओर से. जिंदगी में अकेला, निस्संग और बी.ए. पास एक व्यक्ति. नाम नहीं बताऊंगा. कई दिनों से आधा पेट. शरीर से कमजोर. जिंदगी से निराश. काम नहीं मिलता. शनि का चक्कर. हर भले आदमी से काम मांगता है. लोग सहायता भी करते हैं. चपरासीगिरी की तलाश है, लेकिन वह भी लापता. कपबशी धोने और चाय बनाने के काम से लगता है कि दो दिनों बाद अलग कर दिया जाता है. जेब में बी.ए. का सर्टिफिकेट है. लेकिन, किस काम का !’
‘नागपुर में मैं अकेलापन अनुभव करता हूं, अलग और अंगभंग. मेरे जीवन का एक हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया है. मेरी आवाज दबा दी गई है और परिस्थितियां एकदम खराब हो गई हैं.मेरे जीवन में कोई खुशी नहीं है तथा नौकरी जाने के भय ने मुझे असहाय बना दिया है. आर्थिक और मानसिक रूप से मैं स्थायी बीमार की तरह हूं.’
‘यदि मैं बाहर बीड़ी और तीन कप चाय रोजाना पीता हूं तो इसमें मेरी विवशता हूं. मैं रोजाना घर से पैदल सुबह 9 बजे निकलता हूं और शाम को 6.30 बजे लौटकर आता हूं. मेरी पत्नी दिनभर अपने दो छोटे बच्चों के साथ घर में अकेली रहती है. लेकिन इसमें मैं क्या कर सकता हूं ? मैं असहाय हूं. मैं मानसिक रूप से अशांत हूं. ऐसी स्थितियों में मैं लिख नहीं सकता, कमा नहीं सकता तथा अपने भाइयों से भी कुछ नहीं मांग सकता.’
इन परिस्थितियों में लिखना–पढ़ना तो दूर की बात थी, केवल सामान्य जीवन जीना भी कठिन था लेकिन मुक्तिबोध ने हिम्मत नहीं हारी थी. ‘समझौता’ कहानी में अधिकारी ने जिन स्थितियों का जिक्र किया है, उन स्थितियों को मुक्तिबोध नागपुर में रोज झेल रहे थे. अधिकारी एक लोककथा के माध्यम से यह समझाता है कि नौकरी करनी है तो पशु भी बनना पड़ेगा, आदमी और वह भी संवेदनशील आदमी बनकर नौकरी नही की जा सकती. वह अपना उदाहरण देकर कहता है ‘ऐक्सप्लेनेशन देने की कला तुमको नहीं आई तो फिर सर्विस क्या की ? मैंने तीन सौ आठ एक्सप्लेनेशन दिये हैं. वार्निंग अलबत्ता मुझे नहीं मिली इसलिये कि मुझे ऐक्सप्लेनेशन लिखना आता है और इसलिये कि मैं शेर हूं, रीछ नहीं. तुमसे पहले पशु बना हूं. सीनियारिटी का मुझे फायदा भी तो है.’
अधिकारी एक सर्कस का उदाहरण देकर बताता है कि कैसे एक बी.ए. पास आदमी मजबूरी में रीछ बनने को तैयार हो जाता है. रीछ बनने की प्रक्रिया आदमी के जानवर बनने की प्रक्रिया है. उसे उसी तरह प्रताड़ित किया जाता है जैसे जानवर को किया जाता है. भूख, प्यास, अकेलापन और लगातार हंटर की मार ने उसका आदमीपन छीन लिया है, वह भूल गया है कि वह भी आदमी था, बाहर की बेरोजगारी इससे भी अधिक भयावह है इसलिये वह सब कुछ सहन कर रहा है. एक दिन एक पिंजड़े में एक शेर आता है और उसकी छाती पर सवार होकर उसकी गर्दन को खाने का प्रयास करता है, वह डर जाता है तब शेर कहता है –
‘अबे डरता क्या है, मैं भी तेरी ही सरीखा हूं, मुझे भी पशु बनाया गया है, सिर्फ मैं शेर की खाल पहने हूं, तू रीछ की. तुम पर चढ़ बैठने की सिर्फ कवायद करनी है, मैं तुझे खा डालने की कोशिश करूंगा, खाऊंगा नहीं. कवायद नहीं की तो हंटर पड़ेंगे तुमको और मुझको भी. मैं तुझे खा नहीं सकता. आओ, हम दोस्त बन जायें. अगर पशु की जिंदगी ही बितानी है तो ठाठ से बितायें, आपस में समझौता करके.’
जिस पर हम गर्व करते हैं कि हमारे पास जो तकनीकी ज्ञान है, उसके आगे अमेरिका भी पानी भरता है, वह ज्ञान नयी पीढ़ी को भय के कितने कोठारों में बंद किये हैं. बावजूद इसके अमेरिका के नये राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पद संभालते ही विदेशी लोगों के लिये नौकरियों पर प्रतिबंध लगा दिया है. वीजा मिलना कठिन कर दिया है इसलिये एक और भय व्याप्त हो गया है कि अधिकांश नौकरियां समाप्त हो जायेंगी. नौकरियां तो पहले भी बहुतायत में कहां थीं, जो थीं उन पर भी अब संकट मंडराने लगा है. समझौता करके और जानवर बनकर भी अब नौकरियां नहीं मिलती हैं. यह कैसा समाज बनाया है, शोषणविहीन मानवीय समाज की तो अब संकल्पना भी नहीं की जा सकती. चारों ओर अंधेरा व्याप्त है, भूमंडलीकरण से चैंधियाये समाज के सामने अंधेरा है, निरुत्साह है. उजाला है तो केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मालिकों और देसी धन्ना सेठों के लिये है, उनकी संपत्ति रात दिन बढ़ती जा रही है. अंबानी, अड़ानी और रामदेव की सम्पत्ति पिछले वर्षों में कितने गुना बढ़ी है, इसके आंकड़े सुनकर गरीबी बढ़ने के आंकड़ों पर सहसा विश्वास हो जाता है.
पचास वर्ष पहले लिखी गई यह कहानी आज और अधिक प्रासंगिक हो गई है, मुक्तिबोध आज होते और समझौता नहीं करते तो नौकरी से निकाल दिये जाते, उनपर झूठे आरोप लगाकर बदनाम किया जाता, उन्हें अकेला किया जाता और फिर लगातार इस तरह उत्पीड़ित किया जाता कि वे या तो पागल हो जाते या साबुत आदमी बने रहने की सजा पा रहे होते. पशु तो पशु होता है, वह शेर है या रीछ इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. एक कार्यालय में जो शेर है वही अपने से बड़े अधिकारी के सामने कुत्ता बन जाता है. यदि कुत्ता नहीं बनता तो उसे ‘समझौता’ कहानी जैसी यातना देकर कुत्ता बनने को मजबूर किया जाता है. सवाल यह है कि वह व्यवस्था आजादी के समय जिसकी हमने उम्मीद की थी तथा वह व्यवस्था जो शोषण को जड़ से समाप्त करने का संकल्प दुनिया में फैला रही थी, किसके षड्यंत्र के तहत समाप्त हो गईं. अब यह किसी से छुपा हुआ नहीं है. अब सारी व्यवस्था और सारा तंत्र आदमी को पशु, अमानवीय और असंवेदनशील बनाने पर तुला हुआ है.
‘समझौता’ कहानी का यह संदेश कितना मार्मिक है ‘यह तो सोचो कि वह कौन मैनेजर है जो हमें–तुम्हें, सबको, रीछ–शेर–भालू–चीता–हाथी बनाये हुये है.’ यह किसी से छुपा नहीं है कि वह मैनेजर कौन है जो आदमी का आदमीपन छीन रहा है. ऐसे समाज की कल्पना ही अंदर से डरा देती है, जिसमें आदमी के रूप में हिंसक पशु रहते हों. ऐसी व्यवस्था जो कमजोर, बेसहारा और भूख से बेचैन आदमी को हिंसक पशु बनाने पर तुली हुई हो, वह व्यवस्था आज अधिक फल और फूल रही है.
दीमक तो हर चीज को चट कर जाती है हरे–भरे पेड़ों से लेकर घर के चैखट–दरवाजों तक को. जैसे पंख प्रतीक हैं वैसे ही दीमक भी प्रतीक है. पक्षी नौजवान है वह भी प्रतीकात्मक है. बाजार ने ऐसा तंत्र विकसित किया है जो उनकी उड़ान और सपने ले रहा है और बदले में दीमक दे रहा है. दीमक बाजार में बिकती नहीं बल्कि उसे नष्ट करने की दवाई बिकती है. लेकिन आज दीमक और दवाई दोनों ही बिक रही हैं. जिनके सामने जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है वे अपने पंख और अपने सपने बेच रहे हैं. इन पंखों को खरीदने के लिये दुनियाभर का व्यापारी तरह–तरह से आकर्षित कर रहा है. वह व्यापारी समझता है पंखों की कीमत और पंखहीन पक्षी की दुर्गति. उसकी रुचि दोनों चीजों में है. वह न केवल पंखों को खरीदने का व्यापार करता है बल्कि दीमक जैसी निकृष्ट चीज बेचने का भी व्यापार करता है. व्यापार का एक काम यह भी है कि नौजवानों में ऐसे शौक पैदा कर दो जिसे पूरा करने के लिये वे अपने सपने भी बेचने को तैयार हो जायें. हमारा नौजवान उन आकर्षणों के व्यामोह में फंसकर कमजोर और असहाय होता जा रहा है. मुक्तिबोध लिखते हैं
‘लेकिन, ऐसा कितने दिनों तक चलता. उसके पंखों की संख्या लगातार घटती चली गई. अब वह, ऊंचाइयों पर, अपना संतुलन साध नहीं सकता था, न बहुत समय तक पंख उसे सहारा दे सकते थे. आकाश–यात्रा के दौरान उसे जल्दी–जल्दी पहाड़ी चट्टानों, पेड़ों की चोटियों, गुम्बदों और बुर्जो पर हांफते हुये बैठ जाना पड़ता. उसके परिवारवाले तथा मित्र ऊंचाइयों पर तैरते हुये आगे बढ़़ जाते. वह बहुत पिछड़ जाता. फिर भी दीमक खाने का उसका शौक कम नहीं हुआ. दीमकों के लिये गाड़ीवाले को वह अपने पंख तोड़–तोड़कर देता रहा. फिर, उसने सोचा कि आसमान में उड़ना ही फिजूल है. वह मूर्खों का काम है. उसकी हालत यह थी कि अब वह आसमान में उड़ ही नहीं सकता था, वह सिर्फ एक पेड़ से उड़कर दूसरे पेड़ तक पहुंच पाता. धीरे–धीरे उसकी यह शक्ति भी कम होती गई. और एक समय वह आया जब वह बड़ी मुश्किल से पेड़ की एक डाल से लगी हुई दूसरी डाल पर चलकर, फुदककर पहुंचता. लेकिन दीमक खाने का शौक नहीं छूटा.’
यह कहानी एक प्रकार से आज के बाजारवाद पर चोट करती है. बाजार में जो तुरत–फुरत वाले पदार्थ हैं, वे नुकसान ही कर रहे हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करने वाले युवा–वर्ग पर इतना समय नहीं है कि वह घंटों रसोई में खड़े होकर अपनी मनवांछित चीजों को पका सके, उसके पास इतना समय ही नहीं है. वह सारी चीजें तुरंत चाहता है–चाहे वे खाने की हों या अन्य प्रकार के प्रयोग में आने वाली. वह जीवन को भी इसी प्रकार लेता है इसलिये वे यह कहने में कोई संकोच नहीं करते कि आप साठ पेंसठ और इसके आगे भी स्वस्थ होकर जीते रह सकते हैं लेकिन हमारी उम्र हमें मालूम है चालीस तक जाते–जाते सब कुछ खत्म हो जायेगा. मुक्तिबोध की यह कहानी इसलिये आज अधिक प्रासंगिक है कि नवयुवकों को यह मालूम है कि उनका जीवन इस आपाधापी में नष्ट हो रहा है, जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं है जो व्यवस्थित हो, फिर भी जी रहे हैं. सब कुछ जल्दी पा लेने की सनक में वे दीमक चाट रहे हैं और अपना सुंदर भविष्य दे रहे हैं.
काठ का सपना, सतह से उठता आदमी तथा क्लाड ईथरली जैसी कहानियां मुक्तिबोध की बेचैनी को ही व्यक्त करती है. उनकी बेचैनी का कारण यह था कि वे कि उन स्थितियों से समझौता नहीं कर पा रहे थे जो स्थितियां केवल स्वार्थ की ओर ले जा रही थीं. उनके जीवन में भयानक अभाव थे, वे चाहते थे कि कुछ ऐसी व्यवस्था हो जिसमें उनका लिखना–पढ़ना निरंतर चलता रहे क्योंकि वे अपने समय का ही नहीं बल्कि भविष्य का सुंदर नक्शा बनाने का महत्वपूर्ण कार्य कर रहे थे। लेकिन व्यवस्थित जीवन जीने के लिये जिस प्रकार के समझौतों की आवश्यकता होती है, उनसे उन्हें बेहद चिढ़ थी. इसलिये ‘सतह से उठता आदमी’ के कृष्णस्वरूप के वैभव को देखकर वे गटर में थूंक देते हैं. यह थूंकना बताता है कि उन्हें इस प्रकार का बड़ा आदमी नहीं बनना. बड़ा आदमी बनने के लिये अपनी आत्मा बेचनी पड़ती है, जिसके लिये वे कभी भी तैयार नहीं थे. हिरोशिमा पर बम बरसाकर लाखों लोगों का जीवन समाप्त करने वाले ‘क्लाड ईथरली’ के पास वे इसलिये जाते हैं कि ईथरली ने वह काम नौकरी के दबाव में किया था और बाद में सारे जीवन उसका प्रायश्चित करता रहा. तंत्र प्रायश्चित नहीं चाहता, वह ऐसे आदमी को भी नहीं चाहता जिसकी आत्मा उसे धिक्कारती हो इसलिये उसे पागलखाने में डाल दिया जाता है.
मुक्तिबोध लिखते हैं
‘जो आदमी आत्मा की आवाज कभी–कभी सुन लिया करता है और उसे बयान करके उससे छुट्टी पा लेता है वह लेखक हो जाता है. आत्मा की आवाज जो लगातार सुनता है और कहता कुछ नहीं है वह भोला–भाला, सीधा–सादा बेवकूफ है. जो उसकी आवाज बहुत ज्यादा सुना करता है और वैसा करने लगता है वह समाज–विरोधी तत्वों में यों ही शामिल हो जाया करता है. लेकिन जो आदमी आत्मा की आवाज जरूरत से ज्यादा सुन करके हमेशा बेचैन रहा करता है और उस बेचैनी में भीतर के हुक्म का पालन करता है वह निहायत पागल है. पुराने जमाने में संत हो सकता था. आजकल उसे पागलखाने में डाल दिया जाता है.’
कहना न होगा कि अपनी लगातार बेचैनी के कारण मुक्तिबोध स्वयं तंत्रिका रोग के शिकार हो गये थे जिसके इलाज के लिये उन्होंने 31.10.1951 को नेमिबाबू को अर्जैंट पत्र लिखकर कहा कि ‘एक बार आपने मुझसे कहा था, मुझे पक्का याद है कि पूरे भारत में केवल कलकत्ता में ही मनोचिकित्सा का एकमात्र स्थान है.’ और बाद में लिखा कि ‘यह मरीज तंत्रिका रोग से पीड़ित है न कि किसी प्रकार के जुनून से.’ उन्होंने न्यूरोसिस और इन्सेनिटी शब्दों का प्रयोग करके इस रोग की गंभीरता के बारे में भी सूचना दी है. अपने समय के दबावों, पारिवारिक स्थितियों, कुछ नया करने की तीव्र आकांक्षाओं तथा आर्थिक अभावों के कारण मुक्तिबोध स्वयं तरह–तरह के रोगों से ग्रस्त हो गये थे जिनमें एक तंत्रिका रोग भी था जिसका उन्होंने अपने कई पत्रों में जिक्र किया है.
मुक्तिबोध की कहानियों का काल ‘नयी कहानी आंदोलन’ का ही है लेकिन उनकी चर्चा बिल्कुल भी नहीं हुई, नामवर सिंह और देवीशंकर अवस्थी ने भी नहीं की. उनके कवि और आलोचक रूप पर ही चर्चा केंद्रित रही. आज जब उनका शताब्दी वर्ष चल रहा है तब उनकी कहानियों पर भी व्यापक और विशद चर्चा होनी चाहिये जिससे उनके निजी संघर्ष और जीवन अनुभव निखर कर आ सकें. मुक्तिबोध कहानियों से स्वयं को अलग नहीं कर पाये, ऐसी कोशिश भी उन्होंने नहीं की इसलिये उनके पत्रों में जो उनका संघर्ष है उससे मिलाकर देखिये तो कहानियां खुलती जाती हैं. उन्होंने जिस प्रकार का संघर्ष किया वह आज भी रोंगटे खड़ा करता है, अंदर तक डराता है.
हिंदी का एक प्रतिभाशाली आलोचक, अनूठा कवि और ईमानदार कहानीकार जिन अभावों की दुनिया में था, वही दुनिया आज उन्हें सर–आंखों पर बिठाये हुये है, जैसे–जैसे उनका मूल्यांकन होगा, वैसे–वैसे वे और बड़े और बड़े होते जायेंगे.
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,
वर्धा 442001,
मो.09421101128