सुमन केशरी
1984 में पहली बार गजानन माधव मुक्तिबोध की कहानी ‘मैत्री की माँग’ पढ़ी थी. पढ़ कर मन जाने कैसा तो हो गया. उसके बाद कुछ नहीं तो पाँच–छह बार तो पढ़ ही ली होगी यह कहानी.
पर जब भी इस कहानी को पढ़ा तो कानों में गूंजने लगा यह गीत– ‘हमने देखी है उन आँखों की महकती खुशबू, हाथ से छूके इसे रिश्तों का इल्जाम न दो’.(बस ये ही शब्द, यही पंक्ति– हाथ से छूके इसे रिश्तों का इल्जाम न दो.)
क्यों पढ़ती हूँ मैं इस कहानी– ‘मैत्री की मांग’– को यूँ बार बार?
क्या इसीलिए तो नहीं कि यह कहानी एक स्त्री के भावों को बहुत ईमानदारी से गूंथती है. क्या यह सच नहीं कि कितनी ही बार स्त्री, किसी पुरूष से आपसी लिंग–भेद से मुक्त ऐसी मित्रता करना चाहती है जो दो स्वतंत्र व्यक्तियों के बीच होती है, बिना लैंगिक आकर्षण के. ऐसी मित्रता जो ज्ञान–विज्ञान की बातों, क्रांति–आंदोलन से जुड़ी मुलाकातों वाली, गप्पें लगाने वाली, दुख–सुख साझा करने वाली एक खालिस दोस्ती हो और घर–समाज भी जिसे दोस्ती भर माने, उस पर रिश्ते न थोपे न रिश्तों से उसे परिभाषित करने को कहे. ऐसी दोस्ती जो हवा के चलने, नदी के बहने, सांस लेने जैसी प्रकृत हो, उन्मुक्त हो. सरल–सहज हो. वैसी ही जैसी आमतौर से दो पुरूषों या दो स्त्रियों में होती है.
स्त्री–पुरूष के बीच ऐसी दोस्ती क्या असंभव है?
क्या ‘मैत्री की मांग’ की नायिका सुशीला की मांग असंभव की मांग है?
एक रूप की प्रधानता हो जाने से अक्सरहा व्यक्ति के दूसरे रूप नेपथ्य में चले जाते हैं और वे वहीं दब कर, छिप कर रह जाते हैं. जितनी बार भी मैंने ‘मैत्री की मांग’ को पढ़ा उतनी बार ही रंगमंच से संबंधित यह रूपक मेरे सामने प्रकट हो गया. कहानी फिर भी छिपी रही नेपथ्य के किसी अंधेरे कोने में.
मुक्तिबोध पर बात करते हुए हम उनके राजनीतिक तेवर की रचनाओं पर ही चर्चा में उलझ जाते हैं. निश्चित रूप से उनकी राजनीतिक चेतना बहुत प्रखर है और साहित्य की विविध विधाओं में उसका प्रकटन भी बहुत प्रभावी ढंग से हुआ है. ‘अंधेरे में’ की छाया उनके साहित्य के मूल्यांकन में दीख ही पड़ती है, परंतु मुक्तिबोध जैसे संवेदनशील प्रखर व्यक्ति की दृष्टि सिर्फ प्रत्यक्ष राजनीतिक मुद्दों पर ही सीमित रहती तो उनमें संवेदना की वो गहराई न दीख पड़ती जो बहुत साफ है. और तो और अगर राजनीतिक शब्दावली में ही देखें तो आत्मीय– पारिवारिक संबंधों में निहित पितृसत्तात्मक–सामंती सोच की राजनीति से वे भला तटस्थ कैसे रह सकते थे. जिस कवि–लेखक को कदम-कदम पर चौराहे दिखते हो बांहें फैलाए, वह स्त्री–पुरूष संबंधों के एकाधिक रूपों पर कलम न चलाए यह कैसे हो सकता था भला?
‘मैत्री की मांग’ कुल ग्यारह पेज की छोटी–सी कहानी है. 1942 से 1947 के बीच लिखी यह कहानी स्त्री मन की सरल–सहज भावनाओं और चाहतों को बुनती है. यह स्त्री–पुरूष संबंधों की पड़ताल करती कहानी है. कोई कह सकता है कि यहाँ भी विवाहेतर संबंध की संभावनाओं को उकेरा गया है पर अगर औरत की नजर से कहानी पढ़ें तो ये संबंध प्रेम–त्रिकोण के संबंध नहीं है. ये दाम्पत्य को नकार कर प्रेमी के साथ संबंध बनाने और उसके मजे लेने वाले संबंध भी नहीं है. सुशीला के लिए यह पति से इतर किसी अन्य पुरूष से ‘सहज मैत्री’ का संबंध बनाने की मांग है.
मुक्तिबोध ‘सहज मैत्री’ पद का प्रयोग बार बार करते हैं– सुशीला की ओर से. ध्यान करें सुशीला की ओर से– अन्य किसी पात्र की ओर से नहीं. क्योंकि यह सुशीला के मन की सोच है. बाकियों के लिए तो स्त्री–पुरूष के बीच बिना किसी नाम के, मैत्री असंभव ही है. यहाँ तक कि उस व्यक्ति– माधवराव के लिए भी, जिससे सुशीला मैत्री रखना चाहती है. वह भी इस तरह के मैत्री भाव को समझ नहीं पाता. कहानी के तीन मुख्य पात्र हैं– सुशीला, रामराव और माधवराव. जैसा कि ऊपर कहा गया है, सुशीला वह स्त्री है जिसके इर्द–गिर्द यह कहानी गूंथी गई है. रामराव सुशीला का पति है और माधवराव, इलाहाबाद से उस कस्बे में जहाँ सुशीला अपने पति और सास के साथ रहती है, कुछ दिनों के लिए आया वह व्यक्ति है जिससे मैत्री करने के लिए सुशीला का मन आतुर है. सुशीला अपने लिए एक खालिस मित्र चाहती है जिससे वह बराबरी से बात कर सके. जो उसका स्वामी न हो और जिसके प्रति गृहस्थी से, संस्कार से, देह से जुड़े उसके कर्तव्य न हों. जो रामराव की तरह उसे मायके जाने से मना न कर दे. जो माधवराव से उसके मिलने–जुलने से परेशान न हो. वह तो अपने पति रामराव, अपनी सास और कुएं वाली अपनी सखी चंपा से भी इसकी अपेक्षा करती है कि वे सहज समझ लें कि माधवराव के प्रति उसका रुझान एक व्यक्ति के प्रति उसका रुझान है.
यह स्त्री पुरूष का लैंगिक आकर्षण नहीं है. सुशीला की सास और चंपा वे दो अन्य चरित्र हैं, जो अपनी उपस्थिति से ही जीवन के ताने बाने को प्रभावित करते हैं. वे सीधे कुछ नहीं कहते पर उनकी सोच, उसी परंपरागत सोच को मजबूत करती सोच है, जिनके लिए स्त्री और पुरूष दो अलग अलग दुनिया के बाशिंदे हैं. वे बृहतर समाज के प्रतिनिधि हैं. उनके लिए स्त्री और पुरूष के बीच केवल सामाजिक खांचों के भीतर पनप और अँट सकने वाले संबंध– यानी पिता, भाई, पति, पुत्र और तद्निर्भर संबंध ही जायज हैं. कोई स्त्री इससे अधिक की माँग अपने तईं करे, यह वे सोच भी नहीं सकते.
सच कहें तो कहानी मुख्यतः सुशीला की ही कहानी है, उसके जीवन और उसके मन के ताने–बाने की कहानी. रामराव, सुशीला का पति होने को कारण उसके जीवन को निर्धारित करने वाला, उसे नियमित–व्यवस्थित करने का अधिकार रखने वाला पुरूष है. माधवराव वह व्यक्ति है जिसके प्रति सुशीला का “आकर्षण तो मात्र उस व्यक्ति की सज्जनता के चारों ओर, विद्या, सम्पन्नता और शिष्टता के तेजोवलय के प्रति था..” और यह भी कि “सुशीला के कल्पना–प्रिय मन ने उस व्यक्ति के आस–पास चक्कर काटा था. कारण?”
कारण पर बात करते हुए कहानीकार एकदम साफ़ है– वह मानो सुशीला के मन को, गहरे पैठ कर देख–पढ़ पा रहा है.
मुक्तिबोध कहते हैं– “कारण, कारण– सुशीला से न पूछो. वह स्वयं नहीं जानती. पर क्या वह रामराव के मूर्त सजीव आधार और आध्यात्मिक आश्रय को मात्र फूहड़पन में त्यागने का संकल्प कर सकती है? संकल्प क्या, कल्पना भी कर सकती है? अगर लेखक स्वयं सुशीला को जाकर यह पूछे तो एक जोरदार चाँटे के अलावा और कुछ न मिलेगा. …वह जान न सकी थी कि उस व्यक्ति (माधवराव) के प्रति उसका जो आकर्षण है वह रामराव के पतित्व और अपने पत्नीत्व के आधार को कहीं भी धक्का नहीं पहुँचाता.”
सुशीला का मन साफ है कि वह माधवराव से मैत्री करना चाहती है ताकी वह अपनी समझ का विस्तार कर सके. जान सके इलाहाबाद और अन्य जगहों के बारे में. अपनी दैनंदिन निर्धनता को भूल सके.इसीलिए तोसुशीला का कल्पना–प्रिय मन उस व्यक्ति के आस–पास चक्कर काटना चाह रहा था. कहानी कहती है कि
“बालटी को ऊपर खींचते समय भी वह (सुशीला का) मुख दो खंभों के बीच बार बार दीख जाता था. परंतु माधवराव को फिर अंतिम बार उस स्तब्ध पूर्ण मुख (पर) दो नारी आँखें अपनी सहज मैत्री का भाव कह गईं.… सुशीला की आँखों में ऐसा कुछ न था जिसका लज्जा–लावण्य से कोई संबंध हो. फिर भी उसमें स्तब्ध मांग थी. एक बूझ थी कि तुम कौन हो जो यहाँ चले आए हो इलाहाबाद से…सुशीला की आँखों में कल्पनाएँ ही कल्पनाएं (छा जाती) थीं”.
क्यों नहीं था सुशीला को कोई संकोच क्योंकि वह खुद को और माधवराव को क्रमशः स्त्री–पुरूष…नर–मादा की तरह नहीं बल्कि व्यक्तियों की तरह देख रही थी. यह बात न तो चंपा को समझ आ सकती है न रामराव नामक सुशीला के पति को, जिनके लिए स्त्री–पुरूष संबंध की केवल एक व्याख्या हो सकती है और वह है शरीर और संबंधों के दायरे के भीतर !
और जब अंततः सुशीला और माधवराव एक संध्या खिड़की के आर–पार से बात करते हैं तो उससे बात करने के बाद सुशीला के हृदय में मीठे आँसू के सौ–सौ– फ़व्वारे फूटना चाहने लगे. पर इसे विडंबना ही कहें या कि पुरुष मन को ठीक–ठीक बूझती, लेखक की गहरी अंतर्दृष्टि कि स्वयं माधवराव भी इस परंपरागत सोच से विलग नहीं है. वह जो कादंबरी देता है, सुशीला के पढ़ने के लिए उसमें सुशीला के शब्दों में
“ ..पर उस स्त्री के ‘इतने’ थे पर मित्र तो एक भी न था! सुशीला ने मित्र शब्द इतने जोर से कहा कि माधवराव समझते हुए भी कुछ नहीं समझा. सुशीला के चेहरे से उसे ऐसा लगा मानो वह पूछ रही हो, “ तुम मेरे मित्र हो सकते हो?”
ये इतने क्या थे? पुरूष थे– “प्रेमी”?? के रूप में या शरीर के रूप में..
माधवराव ने देखा था कि मैत्री की माँग करने वाली सुशीला की आँखों में संकोच का लेश भी न था, यानी उसकी ‘मैत्री की माँग’ एक अलग किस्म की माँग थी, पर वह उसे न बूझ सका. वह उसके लिए वही कादंबरी लाया जिसमें एक स्त्री के कई “पुरूष” थे पर मित्र एक न था!
मित्र माने जिससे दिल खोल कर बिना किसी अपेक्षा के बात की जा सके. अपेक्षा– संबंधों की ..सामाजिक ताने–बाने के मर्यादा की.
सुशीला को मित्र की दरकार थी. जिससे सुशीला हर तरह के सवाल नदी के समान बेरोक होकर पूछ सके.
‘मैत्री की मांग’ कहानी की एक विशेषता यह भी है कि मन के भीतर की भावनाएँ और बाहर के परिवेश को मुक्तिबोध साथ साथ लेकर चलते हैं. कहानी शुरू होती है सुशीला के जीवन के बंदरंग होते चले जाने से, जिसमें उस परिवार की विपन्नता से लेकर बाहर मैदान के धूसरपन तक पर लेखक की सजग दृष्टि है– “झखंड बिरवे, कँटीली झाड़ियाँ, जो जमीन से एक फुट भी ऊपर नहीं उठ पाती हैं, तपती पीली जमीन के नंगे विस्तार को ढांपने के बजाय उग्र रूप से उघाड़ रही हैं.” और ऐसे में बाल–बच्चे रहित सुशीला का “अलोना” जीवन, जिसे उसका परिवेश और उभार कर रख देता है– “सुशीला ने आँखें फैलाकर कचहरी की गेरुई इमारतों की ओर देखा. एक निसंग एकस्वरता सब दूर काँप रही थी. आजकल सुशीला को अपना जीवन अलोना अलोना–सा लग रहा है.” और इस स्त्री की उम्र है मात्र उन्नीस साल! और इस उन्नीस साल की युवती “सुशीला का हृदय–पथ समय के नालदार जूतों और उसकी ठोकरों से घिसकर घनी निर्जीव धूल की एकरूपता में परिवर्तित हो गया है. अब उसके हृदय में कोई आनंद, कोई मोह, कोई स्वप्न, ऐसा कि जिसको वह अपना कह सके, नहीं रहा.”
कभी कभी लगता है कि पहले, खासतौर से स्वतंत्रता पूर्व और उसके कुछ सालों बाद तक, भारत की स्त्रियाँ कितनी जल्दी बड़ी हो जाती थीं, उनके बचपन और जवानी का वय कितना अल्प रहा करता होगा. उन्नीस साल की सुशीला कई संतानों को धारण कर चुकी है और उसकी एक संतान तो दो साल जीकर और अनेक कष्ट देकर और पाकर काल–कलवित हो चुकी है. देखें तो, यह कहानी उस काल के भारत में स्त्रियों की सामाजिक अवस्था, उनके स्वास्थ्य की दारुण स्थिति पर भी कमेंट करने वाली कहानी है. उस समय और बाद में भी और सच कहें तो आज तक, निम्नमध्य वर्गीय पर–निर्भर स्त्रियों का जीवन कैसा अलोना–बेरंग जीवन है, जिसमें वे कोई भी निर्णय स्वयं नहीं ले सकतीं बावजूद इसके कि बकौल कथाकार, रामराव और सुशीला दोनों के जीवन में आधुनिकता प्रवेश कर गई थी. और आज तो हम आधुनिक क्या उत्तर आधुनिकता के भी उत्तर युग में हैं.पर सुशीला और आज की निम्न–वर्ग की पर–निर्भर स्त्रियों के जीवन क्रम में इस दृष्टि से कोई खास फर्क नहीं आया.
तो मुक्तिबोध पूरी कहानी में लगातार बाहरी वातावरण और सुशीला के मन के रंग को गोया समानांतर पेंट करते चलते हैं. माधवराव से मुलाकात के बाद सुशीला का मन उल्लसित है, तो माधवराव को शाम के समय सफेद पैंट शर्ट में आते देख न केवल आसमान बल्कि पेड़ भी सधन और रंगीन हो उठते हैं. औरसुशीला और माधवराव की पहली बातचीत के बाद सांझ आकाश में खिल उठती है.
इसे ऑब्जेक्टिव को–रिलेटिव ही कहेंगे.
पर सुशीला की यह मैत्री परवान नहीं चढ़ती. रामराव को सुशीला के मुँह से माधवराव के बारे में बातचीत और उसकी प्रशंसा रास नहीं आती– “रात को सुशीला रामराव के पास जब माधवराव के बारे में अधिक बात करना चाहने लगी, तो उसके पति को ताव आ गया.… सुशीला समझी कि रामराव उसे माधवराव से बात करने से मना कर रहे हैं, जो कि समाज–मर्यादानुकूल पति का कर्तव्य है.” चंपा को भी उनका यूं मिलना कुछ सुहाता नहीं. कहानी में केवल एक बार रामराव, सुशीला को यूँ खुलेआम माधवराव से मिलने–जुलने को टोकता है. सीधे–सीधे मना तब भी नहीं करता. पर संस्कार का दबाव हम सबके चित्त में इतना होता है कि सुशीला को यह बात समझ में आ जाती है कि पति को उसका माधवराव से मिलना पसंद नहीं. खुद रामराव भी तो वापस जाते हुए मिलने आए माधवराव को जल्द से जल्द रवाना कर देने को आतुर है. पितृसत्तात्मक समाज इसी तरह संस्कार के स्तर पर स्त्रियों के कदम रोकता है. हर बात को शब्द नहीं दिया जाता, जेस्चर ही काफी हैं. मुक्तिबोध इसे बखूबी व्यक्त करते हैं.
इस तरह सुशीला की मैत्री की सहज सरल मांग स्त्री–पुरूष आकर्षण के भार तले दब जाती है, जिसे सुशीला भारी मन से ही सही स्वीकार कर लेती है और खुद के जीवन को और अंधकार से भर देती है. वह उस समय कुएँ पर जाना छोड़ देती है, जबकि माधवराव आता जाता था. जो जो माधवराव के फुरसत के समय थे तब सुशीला जानबूझकर काम में अधिक व्यस्त हो जाती है. यही नहीं जब माधवराव वापस जाने के पहले भी उसके घर पर रामराव (?) से मिलने आता है तो भी सुशीला की छाया तक को वह नहीं देख पाता, उसके कपड़ों की सरसराहट को भी नहीं सुन पाता. रामराव को हड़बड़ी है कि माधवराव जल्दी चला जाए ताकी उसकी बस न निकल जाए ,मानो कहीं वह फिर बस्ती में ही रुक न जाए, क्योंकि पहले भी वह अपना जाना टाल चुका है. पुरूष मन के लिए जाने की बात टालना अलग मायने रखता है पर स्त्री मन के लिए वह पुरुष की चंचलवृत्ति का सूचक है. सुशीला को “खेदमय आश्चर्य होता है कि पुरुष कैसे होते हैं जो अपना वचन नहीं रख सकते.” यानी अगर फलाँ तारीख को जाने के लिए सोच लिया तो चले जाओ. कहा जा सकता है कि मुक्तिबोध को स्त्री मन की भी गहरी समझ है. आमतौर पर सुशीला सरीखी साफ समझ की स्त्रियाँ तीन–तेरह में नहीं पड़तीं.
पर जो स्त्री माधवराव की मौजूदगी में अपनी झलक तक नहीं दिखलाती, क्योंकि उसे इस बात का क्रोध है कि उसका पति और जीवनसाथी उसकी ‘मैत्री की मांग’ का अर्थ न बूझ पाया और उसने कह दिया था कि “माधवराव से इतना अधिक बोलना जन–लज्जा के कुछ प्रतिकूल है.” वही सुशीला एक बार फिर अपनी चाहत को अभिव्यक्त करने से खुद को रोक नहीं पाती. यह वह पल है जब मन की बात को न कह देना अपने और उस व्यक्ति के साथ अन्याय होता जिससे उसने ‘मैत्री की मांग’ की थी, उसके दिए कादंबरी के अभिप्राय से अलगाते हुए मैत्री की मांग– “और क्या आज्ञा है?” कह कर माधवराव ने अकस्मात् सुशीला का ठंडा गीला हाथ अपने हाथ में ले लिया. उस निर्जन में सूर्य की लाल किरणें उन दोनों के बीच में से कुएँ पर छा रही थीं.
सुशीला ने हाथ तुरंत खींच लिया. कहा, “दी हुई कादम्बरी पढ़ ली.”
“अच्छी लगी?” माधवराव ने पूछा.
“अच्छी है, पर उस स्त्री के ‘इतने’ थे पर मित्र तो एक भी नहीं था!”
सुशीला ने ‘मित्र’ शब्द इतने जोर से कहा कि माधवराव समझते हुए भी कुछ नहीं समझा. सुशीला के चेहरे से उसे लगा मानो वह पूछ रही हो.”तुम मेरे मित्र हो सकते हो?”
(यह सब साभिप्राय दुबारा लिखा गया है.)
इस घटनाक्रम के परिप्रेक्ष्य में कहानी का अंतिम दृष्य और मार्मिक हो जाता है. दरअसल इसी बातचीत के दौरान चंपा उन्हें देख लेती है और इसी के बाद रामराव, सुशीला को माधवराव से ज्यादा बातचीत करने को मना करता है.
कहानी के अंत में, यानी माधवराव के चले जाने के बाद, यूँ तो सड़क किनारे खड़ा पीपल सूने में अपनी डाल हिला विदा करता है किंतु उसके ठीक पहले–तांगे के चल देने के बाद माधवराव यकायक देखता है कि “रामराव के रसोईघर की काली खिड़की खुली, और वही स्तब्ध पूर्णमुख, आँखों में न्याय्य मैत्री की माँग करने वाला करुण दुर्दम चेहरा, वही स्तब्ध मूर्त भाव.
माधवराव के हृदय की मानो खड़ाखड़–खड़ाखड़ (खिड़कियाँ) खुल गईं और एक बेरौक प्रकाश का तूफान अंदर घुस गया और छाने लगा”.
यहाँ “न्याय्य” शब्द का प्रयोग मानीखेज है, जिसे रेखांकित किया जाना आवश्यक है. यह कवि–अनुकूल प्रयोग है– सटीक और मंतव्य को एकदम व्यंजित करता हुआ.
क्या इसका अर्थ यह मानें कि जाते हुए माधवराव को सुशीला की मैत्री का मर्म समझ में आता है और उसके हृदय की खिड़कियाँ खड़ाखड़ खड़ाखड़ खुल जाती हैं और माँग की न्याय्यता उसके पल्ले पड़ जाती है…या फिर… वह अभी भी सुशीला को एक स्त्री के रूप में ही देख रहा है, एक ऐसी स्त्री जिसे वह छू सके. मुक्तिबोध सुशीला और माधवराव के दो बार हुए संक्षिप्त मुलाकात में दोनों बार माधवराव की स्त्री को छूने की पुरुषोचित इच्छा को रेखांकित करना नहीं भूलते और इस बात को भी कि सुशीला अपना हाथ छुड़ा लेती है…वह स्पर्श से रिश्ते को दूर रखना चाहती है (हाथ से छू के इसे रिश्तों का इल्जाम न दो…) मुक्तिबोध ऐसा करते हुए इस पर गोया बल देना चाहते हैं कि सुशीला को एक दोस्त की दरकार थी और माधवराव भी अंततः एक पुरूष निकला. पर कहानी के अंत में … वापस जाते हुए माधवराव के हृदय की खिड़कियाँ खुलने और “बेरोक” प्रकाश छाने का अर्थ…क्या मुक्तिबोध का नायक, स्त्री मन को बूझ ले गया…यह प्रश्न मन में बना रह जाता है…
“मैत्री की मांग” कहानी की प्रासंगिकता इस तथ्य में भी है कि जिस निखालिस मैत्री के लिए सुशीला बीसवीं सदी के चौथे दशक में लालायित थी, किसी हद तक स्त्री–पुरूष की वह निखालिस मैत्री आज भी एक मृगमरीचिका ही है !
तो क्या औरत के मन की बात कि…हाथ से छू के इसे रिश्तों का इल्जाम न दो…मन में ही रह गई या वह गूंजी माधवराव के मन में भी…
क्या हम यह कह सकते हैं?
स्त्री–पुरूष की मैत्री को स्त्री की नजर से देखने वाले मुक्तिबोध सचमुच में एक बड़े रचनाकार हैं…प्रासंगिक रचनाकार हैं…
परकाया प्रवेश की बेहतरीन उदाहरण है, ‘मैत्री की मांग’ नामक यह कहानी और बेहद समसामयिक भी है और देशकाल की सीमा को लांघने वाली भी…
शुक्रिया मुक्तिबोध स्त्री के मन की तहों को यूँ साफ़ साफ़ बूझने के लिए._________________
सुमन केशरी
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