पद्मश्री, साहित्य अकादमी पुरस्कार, रघुवीर सहाय सम्मान आदि से सम्मानित तथा ‘शंखमुखी शिखरों पर’, ‘नाटक जारी है’, ‘इस यात्रा में’, ‘रात अब भी मौजूद है’, ‘बची हुई पृथ्वी’, ‘घबराए हुए शब्द’, ‘भय भी शक्ति देता है’, ‘अनुभव के आकाश में चाँद’, ‘महाकाव्य के बिना’, ‘ईश्वर की अध्यक्षता में’, ‘खबर का मुँह विज्ञापन से ढँका है’ आदि कविता संग्रहों के वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी आज 75वें वर्ष में प्रवेश कर गए. उनकी सुदीर्घ काव्य- यात्रा के विभिन्न पड़ावों पर आलोचक ओम निश्चल का आलेख.
अनुभव का सामाजिक अन्वय
ओम निश्चल
ग्यारह-बारह संग्रहों के विराट काव्य फलक पर जगूड़ी को देखें तो वे एक महाकवि की सामर्थ्य रखने वाले कवि के रूप में दिखते हैं. जगूड़ी ऐसे कवि हैं जो हर बार नए प्रयोग, नई हिकमत, नई दृष्टि के साथ कविता के मैदान में उतरते हैं. यथार्थ के बहुस्तरीय छिलके उतारते हुए वे हर बार अपने अनुभवों पर नया रंदा लगाते हैं. उनकी भाषा की बुनावट इकहरी नहीं है, वे कहीं भावुक कवि की तरह पेश नहीं आते, बल्कि निरन्तर नए और पेचीदा अनुभवों के साथ जीते हैं. उनके लिए एक रचनात्मक झूठ भी सर्जना का एक बड़ा सत्य बन कर उभरता है. उनकी तमाम लंबी कविताओं से हम यह समझ सकते हैं कि वे केवल लंबी कविताओं के फैशन से परिचालित नहीं हैं बल्कि अनुभव की, समय की, तात्कालिक परिस्थितियों का एक घना प्रतिबिम्ब उनमें समाया है. ठीक से देखें तो वे आधुनिक भारत और उसके लोकतंत्र की एक निर्मम और निर्भय व्याख्या की तरह लगती हैं.
भय भी शक्ति देता है की दर्जनों कविताऍं आधुनिक अर्थतंत्र, बाजारवाद और भूमंडलीकरण की आगत आहट को लेकर लिखी गयी थीं, जब उदारीकरण और भूमंडलीकरण की चर्चाऍं भी शुरू नहीं हुई थीं और अब उनके नवीनतम संग्रह खबर का मुँह विज्ञापन से ढका है—को देखें तो यह संग्रह न तो पुराने संग्रहों की जूठन से रचा गया है न फुराने अनुभवों का नवीन विस्तार है. यहॉ पुरानी सारी प्रविधियों को अलग रखते हुए सर्वथा नए ढंग से बात कहने की कोशिश है. फूलों की खेती और उदासी, प्राचीन भारतीय संस्कॄति को अंतिम बुके, सौ गालियों वाला बाज़ार, खबर का मुँह विज्ञापन से ढका है तथा कर्ज के बाद नींद ऐसी कविताऍं हैं जो जगूड़ी जैसे कवि के भीतर बसे समाजशास्त्री, अर्थाचिंतक और मनोविश्लेषक से रूबरू कराती है. कवि आज केवल कल्पना जगत का प्राणी नहीं रहा, उसे भी जगत गति व्यापती है. बिना सांसारिक हुए जीवन की विविधताओं, विशिष्टताओं और व्याधियों से परिचित नहीं हुआ जा सकता. कवि यथातथ्य के गान के लिए नहीं बना है. वह तुकें और अन्त्यानुप्रास भिड़ाने वाला प्राणी नहीं है. सूखे समाज में लहरें पैदा करने वाली विज्ञापन टीम फर उसकी पैनी नज़र है. विज्ञापन जैसा समाज बना रहे हैं, जैसी आक्रामकता और मोहक शब्दजाल से वे हमारी जीवन-शैली में घुसपैठ कर रहे हैं, जगूड़ी की उस पर पैनी नज़र है.
शुद्ध कविता की खोज का यह समय नहीं रहा. कविता में आज का समय बोलना चाहिए. आज का वैाश्विक परिदृश्य बोलना चाहिए. कविता में आज के बदलाव को लक्षित किया जाना चाहिए. कविता से जिन्दगी का खमीर गायब हो रहा है, जगूड़ी को चिंता इस बात की है. वे बदलाव, विकास, आधुनिकता, तकनीक, आविष्कार और किसी भी वैचारिक नवाचार का विरोध नहीं करते, उसकी पूरी नोटिस लेते हैं. चार्वाक ने भले ही इसकी संस्तुति की हो, पहले कर्ज लेना बुरा माना जाता था. अभावग्रस्तता चल सकती थी, ऋणग्रस्तता नहीं. आज कर्ज तरक़्की का, आार्थिक विकास का परिचायक है. इसलिए हर जगह कर्ज और कमाई ढूढते अत्याधुनिक मनुष्य तक के मिजाज की पड़ताल जगूड़ी करते हैं. कर्ज के बाद नींद कविता में आधुनिक अर्थतंत्र की आवाज सुन पड़ती है. सरस्वती पर उनकी कुछ बेहतरीन कविताऍं ईश्वर की अध्यक्षता में और खबर का मुँह विज्ञापन से ढंका है संग्रह में हैं. आज जिस तरह लोगों ने अपने हितों के लिए सरस्वती का दुरुपयोग किया है, जगूड़ी उसे एक सुव्यस्थित रूपक में बदलते हुए इस प्रवॄत्ति की पड़ताल करते हैं.
जगूड़ी की कविता न तो पारंपरिक कविता की लीक और लय पर चलती है न आजमाए हुए बिम्ब-प्रतीकों का अवलंब ग्रहण करती है. यह कवित-विवेक के अपने खोजे-रचे प्रतिमानों और सौदर्यधायी मानदंडों फर टिकी है. रीति, रस,छंद और अलंकरण के दिखावटी सौष्ठव से परे यह आधुनिक जन-जीवन में खिलती प्रवॄत्तियों, उदारताओं, मिथ्या मान्यताओं, व्याधियों, किंवदन्तियों, क्रूरताओं का खाका खीचती है. इसमें बरते गए शब्द आधुनिकता के स्वप्न और संघर्ष की पारस्परिक रगड़ से उपजे हैं. पर्यावरण को ये कविताऍं चिंताओं और सरोकारों के नए धरातल से देखती हैं. इनमें सब कुछ के लुट जाने का और लुटते हुए को बचा लेने का हाहाकारी शोर और रोर नहीं है. क्रूरताओं और हिंसा के चितेरों को ये कविताऍं चेतावनियाँ नहीं देतीं क़्योंकि ये जानती हैं–यह काम कवि का नहीं, व्यवस्था और प्रशासन का है. जिस तरह प्रशासन और कानून के जिम्मे एक स्वच्छ नागरिक पर्यावरण का निर्माण है, इन कविताओं का काम नागरिकता के विरुद्ध होते पर्यावरण की शिनाख्त है और जगूड़ी यह काम संजीदगी से अंजाम देते हैं. मानवीय क्रूरताओं का रंगमंच बनती हुई दुनिया की शिनाख्त केवल कवि ही कर सकता है. यदि पूछा जाए कि जगूड़ी ने हिंदी कविता को क़्या दिया है तो यह सहज ही कहा जा सकता है कि उन्होंने कविता को भाषा और अनुभव के जितने झटके दिए हैं (ऐसा वे खुद भी कहते हैं), उतने ही अर्थपूर्ण मुहावरे और सुभाषित भी. बात बात पर ऐसी उद्धरणीयता जो मायकोव्स्की जैसे क्रांतिकारी कवियों की कविताओं में देखने को मिलती है. समकालीनता का शोर इन दिनों हिंदी कविता में सबसे ज्यादा है पर सच्ची समकालीनता जगूड़ी जैसे कवियों के यहाँ ही पायी जाती है. वे समकालीन कवि ही नहीं, समकालीनता के कवि हैं. जगूड़ी ने लिखा है, एक अच्छी कविता कर्म, विचार शैली और सौंदर्य का संपूर्ण विलयन अपने में लिए होती है. कविता का लक्ष्य किसी अनुभव की तत्काल अदायगी नहीं है. वह जीवनानुभवों का उपार्जन है.
जगूड़ी की कविताओं की यह उल्लेखनीय विशेषता रही है कि जब वे संग्रह प्रकाशित करने के लिए चयन करते हैं तो अपने सॄजन संसार में हर बार एक मोड़ पैदा करने की कोशिश करते हैं. सूचनाओं के विस्फोटक प्रसार के समय में जहाँ मीडिया तरह-तरह के लांछनों और व्यावसायिक प्रयोगों के दौर से गुजर रहा है, जहाँ खबरें भी कमाई का जरिया बनती जा रही हैं, ऐसे समय में खबर का मुँह विज्ञापन से ढका है का प्रकाशन हमारी आधुनिक सांस्कॄतिक चेतना को झकझोर कर रख देता है. ऐसे समय में जहाँ, रोज़ सर्वनाश की ख़बरें उड़ रही हों, जहाँ गद्य का मतलब केवल कहानी हो और कविता का मतलब भी नीरस गद्य हो, वहाँ लीलाधर जगूड़ी की कविता अपने अलग तरह के प्रयासों से हमारे डर को कुछ कम करती है. इन्हें फढ़ते हुए कविता के अल्पसंख्यक मगर महत्वपूर्ण पाठक अपने लिए कविता समझने की और उसको अफने बीच घटित होते देखने की नई दृष्टि पाने की प्रक्रिया से गुज़र रहे होते हैं. कविता का यह भी कर्तव्य रहा है कि वह अपने पाठक को किसी रूढ़ संस्कार से भी मुक़्त करे. कविता इसी अर्थ में संभवतः हमारी पहली मुक़्ति का प्रयास करती है.
सन् 1960 के आसपास जो आम आदमी हिंदी कविता में आया था, वह आम आदमी आज किस स्थिति को प्राप्त हो गया है, इसे दृष्टि से ओझल नहीं किया जाना चाहिए. राजनीतिक एजेंडे पर सदैव महिमामंडित आम आदमी को समझने के सूत्र श्रद्धांजलिकविता में दिखायी देते हैं. इक़्कीसवीं सदी वाला आम आदमी, मोबाइल वाला आम आदमी है. यहीं कवि की एक और चिंता का सूत्र हाथ लगता है एक और नामकरणकविता में, जब वह कहता है कि —श्मशान से लौटते हुए सोच रहा था/ मरने के बाद होना चाहिए हरेक का एक और नामकरण. इसी तरह बार में एक बार कविता भी एक नशे से दूसरे नशे के बीच हमारी स्मॄतियों का जो कॉकटेल बनता है, उसको चित्रित करती है और ऐसी कविता लिखने के लिए जिस धैर्य और प्रतिभा की जरूरत होती है, वह जरूर कवि में है तभी वह ऐसी विरल कविता लिख फाया है.
आज जब लगभग अधिकांश कविता शब्दों की स्फीति का कारोबार बनती जा रही है, लीलाधर जगूड़ी उन कवियों में आते हैं, जिन्होंने अनुभव और भाषा के बीच कविता को जीवित रखा है. अनुभव के आकाश में उड़ान भरने वाले वे हिंदी के एक मात्र ऐसे कवि हैं जिनके यहाँ शब्द किसी कौतुक या क्रीड़ा का उपक्रम नहीं हैं, वे एक सार्थक सर्जनात्मकता की कोख से जन्म लेते हैं. बार बार दुहराई गयी, भोगी हुई जीवन पद्धति से दुहे गए अनुभव को नए- नए रूपाकारों में व्यक्त करने का काम जगूड़ी वर्षों से कर रहे हैं, कुछ इतनी तल्लीनता और तार्किक एकाग्रता के साथ कि अनुभव की वह पूँजी, संवेदना और भाषा का वह स्रोत सर्वथा अजाना, अनछुआ और अ-व्यक़्त लगे. अनुभव को भाषा और संवेदना की नई प्रतीतियों में बदलने में निष्णात जगूड़ी जैसे कवि को भी अक़्सर किसी नई बात को कहने के लिए किसी गूँगे के शब्दकोश-सा अवाक् रह जाना पड़ता है. सरलता और सहजता के हामी कदाचित जान पाऍं कि कितना कठिन है कितने ही कठिन पर सरल-सा कुछ बोल देना. वे लिखते हैं—अपना मुख आईने में, आईना अपने हाथ पर/फिर भी अद्भुत वाणी-सा यह यथार्थ पकड़ में नहीं आता. वे भाषा को एक जैसे किटप्लाई में बदलने के खिलाफ हैं. एकरसता, एकरूफता और एकीकरण रचनात्मकता के लिए क्षरण और ऊब के कारक हैं. अनुभव, भाषा और संवेदना के वैविध्य के लिए ही उन्होंने कहा है—\’भाषाएं भी अलग-अलग रौनकों वाले पेड़ों की तरह हैं. सबका अपना अपना हरापन है, कुछ उन्हें काट कर उनकी छवियों का एक ही जगह बुरादा बना देते हैं.\’
इस तरह एक बात तो तय है कि नवीनता, जगूड़ी का पहला लक्ष्य है. अनुभव में भाषा में, संवेदना में ,कथ्य में नवता. किन्तु केवल नवीनता ही कविता बनने का अचूक उपाय नहीं है. भाषा की नवीनता मात्र कविता नहीं है, न ही संवेदना के नएपन से कविता का कोई रूपाकार बन सकता है. वह तभी बनता है जब कुल मिला कर यह लगे कि वाकई एक नई कविता का जन्म भी हुआ है. हर बार कलफदार भाषा, वक़्तॄता का प्रभावी उदाहरण नहीं हो सकती यदि वह अनुभव में पगी हुई न हो. जगूड़ी ने भाषा को एक रचयिता की तरह बरता और माँजा है. उसका निर्माता बनने का दंभ उनमें नहीं है, गो कि अपने समकालीन कवियों में भाषा के सर्वाधिक नए प्रयोग उन्होंने ही किए हैं.
1

कवितामय जीवन के वरण के शुभारंभ में ही उनके भीतर प्रकृति को, ऋतुओं को, देश को, पहाड़ को, सौंदर्य को, प्रेम को समझने-बूझने की एक अद्भुत व्यग्रता दीख पड़ती है, और इस बातचीत में कहे अनुसार, अगले जन्म में भी कवि-जीवन ही उन्हें काम्य है. उनके पहले ही संग्रह शंखमुखी शिखरों पर की ज्यादातर कविताएं मंत्र की तरह गूँजती और सम्मोहित करती हैं. वे लिखते हैं: मेरी आकाशगंगा में कभी बाढ़ नहीं आई/ मेरे पास तट ही नहीं है जिन्हें मैं भंग करने की सोचूँ/एक साँवला प्यार है मेरे पास सेबार जैसा/ जिसे पाने के लिए बहुत बार भेजे हैं/ धरती ने बादलों के उपहार. यही वह रोमांचक दौर है जब प्रकॄति के साथ उन्होंने मानवीय संबंधों की छुवन महसूस की. इस यात्रा में संकलित अ-मृत में वे इस अनुभूति की बानगी देते हैं—हमेशा नहीं रहते पहाड़ों के छोये/ पर हमेशा रहेंगे वे दिन जो तुमने और मैंने एक साथ खोए. (इस यात्रा में) यह स्वप्निल, रोमानी और कोमल गाँधार की सी अनुगूँज-वाली पंक़्तियाँ जगूड़ी के भीतर के बुनियादी स्वभाव का भी एक परिचय देती हैं. फर जगूड़ी स्निग्धता के कवि नहीं हैं, वे अनुभव के जटिल पठारों फर यात्रा करने वाले कवि हैं, जहाँ जीवन का अयस्क और खनिज बिखरा है. यथार्थ की यह वह विन्ध्याटवी है, जिसमें सेंध लगाने से प्रायः कवि घबराते हैं. पर जगूड़ी अपनी कविताओं में यथार्थ की अपनी विन्ध्याटवी रचते हैं. वे स्वप्निल-सी शुरुआती दुनिया छोड़ कर धूमिल के संग-साथ तुरत फुरत आजाद हुए देश के लोकतंत्र का एक नकक़्शा खींचते हैं, तो तमाम विद्रूपताऍं उनका पीछा करती हैं. नाटक जारी है इन्हीं दिनों और ऐसे ही खुरदुरे अनुभवों की उपज हैं.
सन् साठ आजादी के बाद के मोहभंग का एक ऐसा मोड़ है जिसने केवल राजनीति की दिशा ही नहीं बदली, साहिात्यिक विधाओं के कथ्य और फैब्रिक को भी दूर तक प्रभावित किया. कविताओं को देखें तो साठोत्तर पद इसी मोड़ का परिचायक है. अकविता के उन्माद को चीर कर आगे बढ़ना तब वाकई कठिन था. पर धूमिल और जगूड़ी ने एक रास्ता बनाया. विक्षोभ और मोहभंग को तार्किकता में रूपायित करने की चेष्टा की. संसद से सड़क तक में यदि धूमिल अपने समय को रूपायित करते हैं तो नाटक जारी है में जगूड़ी अपने समय को . बाद के दिनों में प्रकाशित रात अब भी मौजूद है, बची हुई पृथ्वी, घबराए हुए शब्द, भय भी शक़्ति देता है–उस वक़्त की राजनैतिक, आार्थिक और सामाजिक हलचलों, अन्तर्ध्वनियों का ही काव्यात्मक विस्फोट हैं. भय भी शक्ति देता है, अनुभव के आकाश में चाँद और ईश्वर की अध्यक्षता में जैसे बेहतरीन संग्रह जगूड़ी ने दिए पर उन्हें समझने वाला समाज न मिला. उनकी कविताओं को लेकर भरोसेमंद टीकाओं का अभाव है. कदाचित यह कारण हो कि वे बहुत ही पेचीदा, जटिल और बहुस्तरीय अनुभवों के कवि हैं, जिन्हें समझना कठिन है. उनकी कविताऍं एक बार में ही पूरा नहीं खुलतीं. जितना हम उन्हें समझने का दावा करते हैं, उतना ही अबोध वे हमें घोषित करती हैं. यों तो हर अच्छी कविता की विशेषता यही है कि वह बार बार पढ़ी जा कर भी नई की नई बनी रहे. उसकी भाषा-संवेदना हर बार ताज़ा लगे. जगूड़ी की कविताओं में यह खूबी है. वे अपने प्रतीकों, बिम्बों, उपमानों, उत्प्रेक्षाओं को मैला और बासी नहीं होने देते. यही वजह है कि पेड़ और बच्चे के प्रतीक और बिम्ब से रची उनकी अनेक कविताऍं ऊब का निर्माण नहीं करती हैं. वे रोमांचित कर देने वाली अनुभूति और प्रतीति कराती हुई एकरसता का भंजन करती हैं. उस समय की एक कविता का एक आखिरी हिस्सा है—
जड़ों के सत्संग से लौटकर
मौसम के सामूहिक कीर्तन में हिल रहे थे पेड़. या
पेड़ कविता का यह अंश—
जड़ों के सत्संग से लौटकर
मौसम के सामूहिक कीर्तन में हिल रहे थे पेड़. या
पेड़ कविता का यह अंश—
उसकी आँखों में अनेक इच्छाओं के कोमल सिर हैं
जिन्हें जब वह निकालेगा तो बचपन की मस्ती में
हवा, रोशनी और सारे आकाश को दूध की तरह पी जाएगा…….
आओ और मुझे सिर ऊँचा किए हुए उससे ज्यादा जूझता हुआ
उससे ज्यादा आत्मनिर्भर कोई आदमी बताओ
जो अपनी जड़ें फैला कर मिट्टी को खराब होने से बचा रहा हो.
वे जीवन से ही नहीं, पौराणिक संदर्भों तक से आधुनिक चेतना को खँगालते हैं और राजनीति, धर्म, साहित्य, अर्थतंत्र और बाज़ार के जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को एक कवि की तरह आँकते हैं. लंबी कविताओं के तो वे जैसे बेहद लोकप्रिय कवि माने जाते हैं. बलदेव खटिकके अनेक मंचन हुए—कविता के रंगमंच को विकसित करने में इस या इन जैसी तमाम कविताओं की अपनी भूमिका है. महाकाव्य के बिना में संकलित तमाम लंबी कविताऍं इस बात का परिचायक हैं कि ये कविताऍं रचनात्मक आपद्धर्म का परिणाम हैं. लंबी कविताओं की थियरी रचने के बजाय उन्होंने कविताओं में ही उसकी सैद्धांतिकी और निर्मिति के बीज बोए हैं. यों तो वे लंबी कविताओं के विस्तार में जितनी बौद्धिकता और तार्किकता के साथ वे कथ्य के विराट फलक फर खेलते हैं, उनकी छोटी कविताऍं भी उतनी ही प्राणवान और संवेदना-सिक़्त लगती हैं. इसका एक उदाहरण तो शीर्षक कविता है—
जब उसने कहा कि अब सोना नहीं मिलेगा
तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा
पर अगर वह यह कहता कि अब नमक नहीं मिलेगा
तो शायद मैं रो पड़ता.
यह कवि के सरोकारों को जताने वाली कविता है.
भय भी शक्ति देता है की दर्जनों कविताऍं आधुनिक अर्थतंत्र, बाजारवाद और भूमंडलीकरण की आगत आहट को लेकर लिखी गयी थीं, जब उदारीकरण और भूमंडलीकरण की चर्चाऍं भी शुरू नहीं हुई थीं और अब उनके नवीनतम संग्रह खबर का मुँह विज्ञापन से ढका है—को देखें तो यह संग्रह न तो पुराने संग्रहों की जूठन से रचा गया है न फुराने अनुभवों का नवीन विस्तार है. यहॉ पुरानी सारी प्रविधियों को अलग रखते हुए सर्वथा नए ढंग से बात कहने की कोशिश है. फूलों की खेती और उदासी, प्राचीन भारतीय संस्कॄति को अंतिम बुके, सौ गालियों वाला बाज़ार, खबर का मुँह विज्ञापन से ढका है तथा कर्ज के बाद नींद ऐसी कविताऍं हैं जो जगूड़ी जैसे कवि के भीतर बसे समाजशास्त्री, अर्थाचिंतक और मनोविश्लेषक से रूबरू कराती है. कवि आज केवल कल्पना जगत का प्राणी नहीं रहा, उसे भी जगत गति व्यापती है. बिना सांसारिक हुए जीवन की विविधताओं, विशिष्टताओं और व्याधियों से परिचित नहीं हुआ जा सकता. कवि यथातथ्य के गान के लिए नहीं बना है. वह तुकें और अन्त्यानुप्रास भिड़ाने वाला प्राणी नहीं है. सूखे समाज में लहरें पैदा करने वाली विज्ञापन टीम फर उसकी पैनी नज़र है. विज्ञापन जैसा समाज बना रहे हैं, जैसी आक्रामकता और मोहक शब्दजाल से वे हमारी जीवन-शैली में घुसपैठ कर रहे हैं, जगूड़ी की उस पर पैनी नज़र है.
शुद्ध कविता की खोज का यह समय नहीं रहा. कविता में आज का समय बोलना चाहिए. आज का वैाश्विक परिदृश्य बोलना चाहिए. कविता में आज के बदलाव को लक्षित किया जाना चाहिए. कविता से जिन्दगी का खमीर गायब हो रहा है, जगूड़ी को चिंता इस बात की है. वे बदलाव, विकास, आधुनिकता, तकनीक, आविष्कार और किसी भी वैचारिक नवाचार का विरोध नहीं करते, उसकी पूरी नोटिस लेते हैं. चार्वाक ने भले ही इसकी संस्तुति की हो, पहले कर्ज लेना बुरा माना जाता था. अभावग्रस्तता चल सकती थी, ऋणग्रस्तता नहीं. आज कर्ज तरक़्की का, आार्थिक विकास का परिचायक है. इसलिए हर जगह कर्ज और कमाई ढूढते अत्याधुनिक मनुष्य तक के मिजाज की पड़ताल जगूड़ी करते हैं. कर्ज के बाद नींद कविता में आधुनिक अर्थतंत्र की आवाज सुन पड़ती है. सरस्वती पर उनकी कुछ बेहतरीन कविताऍं ईश्वर की अध्यक्षता में और खबर का मुँह विज्ञापन से ढंका है संग्रह में हैं. आज जिस तरह लोगों ने अपने हितों के लिए सरस्वती का दुरुपयोग किया है, जगूड़ी उसे एक सुव्यस्थित रूपक में बदलते हुए इस प्रवॄत्ति की पड़ताल करते हैं.
2

चालीस में जन्मे जगूड़ी ने अब तक की सुदीर्घ काव्य यात्रा में समय के बदलते हुए चेहरे को नजदीक से देखा है. आजादी उनके पैदा होने के सात साल बाद मिली, पर वयस्क होते होते उन्हें आजादी की निरर्थकता समझ में आने लगी. विकास का नेहरूवियन माडल लोकतंत्र के निस्तेज चेहरों की परवाह नहीं करता था. लिहाजा पंचसाला योजनाएं बेशक चलाई गयीं, उनके उपयुक़्त परिणाम नहीं मिले. समय समय पर चलाए गए आार्थिक कार्यक्रमों का भी कोई बड़ा प्रभाव देश के स्वास्थ्य पर नहीं पड़ा. पचहत्तर की इमरजेंसी ने बताया कि सत्ता की निरंकुशता किस हद तक जा सकती है. नक़्सलवाद का कोई हल आज तक नहीं निकला है. गए वर्षों में गरीबी हटाओके मुग्धकारी नारे के बावजूद, गरीबी रेखा भले ही थोड़ी ऊपर उठी हो, गरीब हमेशा उस रेखा के नीचे ही रहता आया है. धीरे धीरे गरीबी ही बीमारी का रूप लेती गयी और गरीब को यह लगने लगा कि जिस बीमारी से वह ग्रस्त है, उसका नाम गरीबी है और उसे डाक़्टर नहीं मिटा सकते. देश पर लदे कर्ज का हिसाब यह है कि तमाम सामाजिक आार्थिक और शैक्षिक परियोजनाएं विश्व बैंक के अनुदान से चलायी जा रही हैं. विज्ञापनों ने न केवल सतही लोकरुचि के निर्माण में दिलचस्पी ली बाल्कि एक रणनीति के तहत,कवि के शब्दों में : वे चुपचाप हर चीज़ में घुस गए/ पहाड़ में , रेत में, खेत में और अभिप्रेत में/ वे घास और काई की तरह स्वाभाविक लगने के बजाय जंग की तरह स्वाभाविक लग रहे थे. समाज का हाल यह कि एक अप्रत्याशित सीधा सादा मगर कारगर गुंडा सामाजिक न्याय बाँटने वाले के रूप में दिख सकता है. हम अक़्सर सभ्यता-समीक्षा की बात दुहराते हैं. खबर का मुँह विज्ञापन से ढका है—के जरिए लीलाधर जगूड़ी एक बड़े सामाजिक सत्य से पर्दा उठाते हैं. वे जताते हैं कि जैसे स्वर्ण पात्र से सत्य का मुँह बंद हो जाता है उसी तरह खबर का मुँह विज्ञापन ने ढक लिया है. यानी जो खबर है वह खबर नहीं, विज्ञापन है. अर्धसत्य है. जगूड़ी की कविता तमाम अर्धसत्यों का उद्घाटन है. वह मानव सभ्यता का वाच टावर है जहाँ से वे समाज की व्याधियों, विडंबनाओं, क्रूरताओं का सटीक जायज़ा लेते हैं.
भले ही लीलाधर जगूडी का जन्म 1 जुलाई 1940 को हुआ हो लेकिन उनके कवि का जन्म 1960 के आस-पास हुआ. पचास वर्ष की निरंतर काव्य यात्रा में उन्होंने हमें साक्षात्कारों के एक संकलन सहित 12 कविता संग्रह दिए. उन्होंने समय समय पर कविता, समाज, समय , व्यवस्था, धर्म, राजनीति और पर्यावरण फर जो लेख लिखे हैं उनके संकलन आने बाकी हैं. उनकी डायरियों में उनका पचास वर्ष का जो सोच-विचार अंकित हैं, वह संग्रहाकार प्रतीक्षित है. लीलाधर जगूड़ी के बारह कविता संग्रह हिंदी कविता के बारह पड़ावों की तरह हैं. हर संग्रह में एक नई शुरुआत दिखायी देती है. उन्होंने अपनी तरह की कविताऍं लिखी हैं. बहुत सी तो ऐसी हैं जो अलग तरह की आलोचना दृष्टि पैदा करने की क्षमता रखती हैं और वे भविष्य की कविताएं लगती हैं. समकालीनता से दीर्घकालीनता में जाने का अद्भुत गुण उनकी कविताओं में मौजूद है.
3
1960 से हर दशक में उनकी कविता ने हिंदी में एक काव्यांतर पैदा किया है. जगूड़ी एक ट्रेंड-सेटर कवि के रूप में अग्रगामी रहे हैं. चाहे आजादी के बाद का अकाल, भुखमरी , अव्यवस्था और बेराजगारी हो, चाहे आपातकाल का समय हो, उन्होंने हर बार एक नई काव्यभाषा अर्जित करके हिंदी कविता के अभिव्यक़्ति कौशल को अत्यधिक सामयिक रखते हुए भी अपने समय को लाँघने की मार्मिकता के साथ रचा है. उनकी कविताओं से नए शब्दों, मुहावरों का चयन किया जाए तो एक अलग कोश बनाने लायक सम्पदा वहाँ है. उनकी कविताओं में सूक़्तिपरकता और उद्धरणीयता इतनी अधिक है कि सूक़्तियों का भी एक अलग कोश तैयार किया जा सकता है. आपातकाल में रात अब भी मौजूद है, बची हुई पृथ्वी और घबराए हुए शब्द के माध्यम से उन्होंने चिडिया, माँ, फूल, चाँद, बच्चे और बलदेव खटिक जैसी रचनाएं देकर एक बार हिंदी में इन शब्दों को ही मुहावरे में बदल दिया था. प्रकॄति के बिम्ब उन दिनों कविता से विदा हो चुके थे, लेकिन उनको, अपनी कविता की भट्ठी में डाल कर उन्होंने नया धात्विक रूप प्रस्तुत किया. याद आती है इमरजेंसी के दिनों में भेद कविता में उस पुलिस वाले की जिसे खेल ही खेल में कुछ बच्चे रस्सी से बांध देते हैं और पुलिस लाइन में पुलिस पर पुलिस हँसती है.
ऐसी ही एक अविस्मरणीय कविता अंतर्देशीयहै, जो इमरजेंसी के आतंक को एकदम अलग ढंग से व्यक़्त करती है. इस पत्र के भीतर कुछ न रखिए–इस सरकारी छपित वाक़्य से कविता शुरू होती है और पूरी तत्कालीन भारत सरकार, बिना नाम लिए उस कविता के घेरे में आ जाती है. लीलाधर जगूडी की कविता में बच्चे और पुलिस बिल्कुल अलग ढंग से आते हैं. इमरजेंसी में चिड़िया उनकी कविता और आजादी दोनो का प्रतीक बन गयी थी. बाद में सारी हिंदी कविता मॉ, बच्चे और चिडियों से भर गयी. जगूड़ी की इस देन को अलग से रेखांकित किया जाना चाहिए कि हर दशक में उन्होंने कविता को नई भाषा और नए संदर्भों की कमी से उबारा है. उनके कविता संग्रहों के नाम ही एक कथा का आख्यान करने लगते हैं. उनकी कविता में कथा उस तरह चलती है जैसी वह किसी नाटक में घटित हो रही हो.
ऐसी ही एक अविस्मरणीय कविता अंतर्देशीयहै, जो इमरजेंसी के आतंक को एकदम अलग ढंग से व्यक़्त करती है. इस पत्र के भीतर कुछ न रखिए–इस सरकारी छपित वाक़्य से कविता शुरू होती है और पूरी तत्कालीन भारत सरकार, बिना नाम लिए उस कविता के घेरे में आ जाती है. लीलाधर जगूडी की कविता में बच्चे और पुलिस बिल्कुल अलग ढंग से आते हैं. इमरजेंसी में चिड़िया उनकी कविता और आजादी दोनो का प्रतीक बन गयी थी. बाद में सारी हिंदी कविता मॉ, बच्चे और चिडियों से भर गयी. जगूड़ी की इस देन को अलग से रेखांकित किया जाना चाहिए कि हर दशक में उन्होंने कविता को नई भाषा और नए संदर्भों की कमी से उबारा है. उनके कविता संग्रहों के नाम ही एक कथा का आख्यान करने लगते हैं. उनकी कविता में कथा उस तरह चलती है जैसी वह किसी नाटक में घटित हो रही हो.
अगर किसी आलोचक ने अपने समय में उनकी कविताओं को अपनी पत्रिका में सबसे ज्यादा जगह दी तो वे हैं डॉ.नामवर सिंह. लेकिन यह भी आश्चर्यजनक तथ्य है कि वे ही जगूड़ी कविता के बारे में सर्वाधिक मौन दिखायी देते हैं. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अपने समय के किसी महत्वपूर्ण कवि और उसके अवदान के प्रति आलोचक का मौन रहना भी आगे चलकर उसकी संवेदना और गुट-निरपेक्ष दृष्टि को कटघरे में खड़े कर देता है. वैसे भी हिंदी के बड़े आलोचकों ने जगूड़ी के जमाने से प्रारंभ करने वाले किसी भी कवि पर अलग से कोई काम किया ही नहीं है. अब समय आ गया है कि कवियों और आलोचकों के पिछले पचास वर्षों के अवदान पर खुल कर बात की जाए.
लीलाधर जगूड़ी जैसे कुछ और कवियों को भी अलग तरह का होने का दंड उनकी उपेक्षा करके देने का प्रयास इन कवियों की प्रचंड प्रतिभा से ध्वस्त हो गया है और होकर रहेगा. आखिर रचना ही है जो हर काल में कवि को पुनर्जन्म देगी. जगूड़ी का बॄहद रचना संसार आज विशद विवेचन की माँग करता है और उसी में से कविता के अगले सूत्र भी निकलेंगे. खबर का मुँह विज्ञापन से ढका है–यह संग्रह इक्कीसवीं सदी की काव्यप्रवॄत्तियों का जनक संग्रह लगता है. बाजार और अर्थशास्त्र, बाजार और समाजशास्त्र के बीच लीलाधर जगूड़ी की कविताओं की सीधी और कहीं कहीं सांकेतिक आवाजाही, सब कवियों से भिन्न तरह की है. प्रेम में प्रवेश को वे प्रेम में निवेश मानते हैं. जगूड़ी की आज की कविताओं को मुक़्तिबोध, धूमिल अथवा अज्ञेय और रघुवीर सहाय की कविताओं जैसा नहीं समझा और व्याख्यायित किया जा सकता. उनकी कविताओं का संसार और उस संसार की चिंताएं बिल्कुल अलग तरह की हैं. उनकी कविताओं से ही उनके अंतरराष्ट्रीय बाजार की व्याख्या के सूत्र निकाले जा सकते हैं. आज उन्हीं के यहॉ अपनी सरस्वती की अंदरूनी खबर ली जा रही है. लीलाधर जगूड़ी इक़्कीसवीं सदी की हिंदी कविता का एक आधुनिक मोड़ हैं. उनमें हर बार एक नई छलांग, एक नया आत्मोल्लंघन दिखायी देता है.
भारतीय कविता की जड़ों से जगूड़ी का गहरा परिचय है. यही कारण है कि वे अतीत की अभिव्यक्ति संपदा और भविष्य के तकनीकी गूँगेपन को एक साथ रख पाते हैं. आधुनिक विकासवादी और परिवार्तित होते मनुष्य समाज को उनकी कविताओं में बिल्कुल अलग ढंग से देखा जा सकता है. एक समय था, जब कर्ज के बाद मनुष्य का सारा चैन नष्ट हो जाता था, लेकिन उनकी कविता के चित्रित पात्र को कर्ज के बाद नींद आती है. सामाजिक अनुभूतियॉ किस तरह बदल रही हैं. बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ऋण से जो आत्मनिर्भर खुशहाली लोगों के जीवन में आ रही है—इस तरह के विषयों को हिंदी कविता प्रतिरोध या प्रसन्नता के लिए कहीं भी छूती हुई नहीं दिखायी देती. टेक़्नालॉजी वाले समाज के जो सुख-दुख हैं, उनकी आहट सबसे पहले और सबसे ज्यादा जगूड़ी की कविताओं में सुनाई देती है. उनकी कविताओं की स्त्री का अलग ही रंग ढंग है. पूरी हिंदी कविता में वैसी स्त्री या स्त्रियाँ नहीं मिलेंगी. जगूड़ी सत्तर वर्ष के होने जा रहे हैं. वे अब ऊर्ध्वरेता हो गए हैं. उनकी कविता साठ पार करते हुए एक विचित्र इतिहास से गुजरने का मौका देती है जिसे लगता है कि समय ने बनाया है लेकिन जब हम उनकी काव्यभाषा से गुजरते हैं तो लीलाधर जगूड़ी के अनुभव के कायान्तरण को देख और समझ पाते हैं. तब उनके सृजन का नवोन्मेष और कलावंत रूप सामने आता है.
4
जगूड़ी को पढ़ने समझने के लिए चिर सजगता चाहिए. इसके लिए कान खुले रखने पड़ते हैं. इंद्रियों की लगाम थामे रहनी होती है. एक भी पंक्ति की चूक आस्वाद भंग कर सकती है. वे कविता में जो कहते हैं उसका समसामयिकता से ज्यादा लेना देना नहीं होता. वे इतने पते की बात कहते हैं कि हमारी अक़्ल के बंद दरवाजे भी खुल उठते हैं. रोज एक कमकविता में रोज एक न एक के चले जाने की बात करते हुए वे जब कहते हैं, ताज्जुब है कभी भी उस एक का खाना नहीं बचता/ कभी भी उस एक के सोने की जगह सूनी नहीं रहती—तो पूरी कविता हमें विचलित कर देती है और बताती है कि इस दुनिया में कोई भी अपरिहार्य नहीं है. हत्यारा और तानाशाह को लेकर हिंदी में तमाम कविताएं होंगी. पर जगूड़ी की कविता हत्यारा बिल्कुल अलग है. हमारे समय में ऐसे तत्वों को जो नायकत्व हासिल हुआ है, उसे पूरी सांकेतिकता से जगूड़ी हमारे सामने रखते हैं. इस तरह कि हम उन हत्यारों को लोकेट कर सकते हैं. उनकी लड़ाईकविता अपने दौर की चर्चित कविताओं में है जिसमें उन्होंने लिखा है—दुनिया की सबसे बड़ी लड़ाई आज भी एक बच्चा लड़ता है/ फेट के बल, कोहनियों के बल और घुटनों के बल. और इस कविता की इन पंक़्तियों के लिए आज भी उन्हें याद किया जाता है—
मेरी कविता हर उस इंसान का बयान है
जो बंदूकों के गोदाम से अनाज की ख्वाहिश रखता है
मेरी कविता हर उस आँसू की दरख्वास्त है
जिसमें आँसू हैं
इसी कविता में उनका यह भी कहना है कि दुनिया का मैदान लड़ाई का मंच न बने क़्योंकि यह बच्चे के खेल का मैदान है. कवि की यह शुभाशा उसके स्वच्छ, निर्मल मन की गवाही देता है. पेड़ की आजादी के माध्यम से उन्होंने एक नागरिक की स्वतंत्रता की अभिलाषा से जुड़े कुछ सवाल उठाए हैं जिससे यह पता चलता है कि आजादी सिर्फ उत्सवता की एक संज्ञा भर है, सचमुच की आजादी से उसका लेना देना नहीं. मुझे अफ्रीकी कवि डान मातेरा की एक कविता याद आती है, जिसमें शासक गुलाम व्यक्ति को यह अहसास दिलाते हुए कि वह कुछ माँगे, वह खेत माँगता है, रोटी और कपड़ा माँगता है और यह सब उसे मिलता भी है. फिर धीरे धीरे शासक की उदारता पर भरोसा करते हुए एक दिन आजादी की ख्वाहिश कर बैठता है. यही बात शासक को स्वीकार्य नहीं है. वह खेत वापस ले लेता है और उसे जंजीरों में जकड़ देता है. आजादी इतनी आसान होती तो अफ्रीका में अफ्रीकी नेशनल काँग्रेस को एक लंबा संघर्ष न छेड़ना पड़ता. अंग्रेजों से ही आजादी पाने में हमें कितने बरस लगे. इसलिए पेड़ की आजादी कविता पढ़ते हुए स्वतंत्रता और शोषण के व्यापक भावबोध से गुजरना पड़ता है. गुमशुदा की तलाश भी एक ऐसी ही कविता है .
शहरों में रोज ब रोज दाखिल होते ऐसे बेशुमार चेहरों की भीड़ देख सकते हैं जिनके पास खोने को कुछ नहीं है और पा सकना भी एक दु:स्वप्न है. कवि को वह घबराए हुए शब्दकी तरह लगता है. क़्या हमें ऐसे चेहरे अक़्सर नहीं दिखाई देते जो होते हुए भी गुमशुदा जैसे हैं. आजादी के इतने सालो बाद भी हम इन्हें वह सम्मानजनक पहचान और रिहाइश नहीं दे पाए हैं जिनके ये हकदार है. रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने लिखा था, भगवान अब भी बच्चों को धरती पर भेज रहा है. इसका अर्थ यह है कि वह मानव जाति से अभी निराश नहीं हुआ है. जगूड़ी लिखते हैं, बच्चा पैदा होने का मतलब है फिर एक आदमी खतरे में पड़ा. वे भविष्य के कवि हैं. उन्हें भविष्य में रोटी, कमड़ा, मकान, पानी , अन्याय और विषमता के तमाम संकट अभी से दीख रहे हैं. जीवन की आगामी मुश्किलों का उन्हें अंदाजा है.
शहरों में रोज ब रोज दाखिल होते ऐसे बेशुमार चेहरों की भीड़ देख सकते हैं जिनके पास खोने को कुछ नहीं है और पा सकना भी एक दु:स्वप्न है. कवि को वह घबराए हुए शब्दकी तरह लगता है. क़्या हमें ऐसे चेहरे अक़्सर नहीं दिखाई देते जो होते हुए भी गुमशुदा जैसे हैं. आजादी के इतने सालो बाद भी हम इन्हें वह सम्मानजनक पहचान और रिहाइश नहीं दे पाए हैं जिनके ये हकदार है. रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने लिखा था, भगवान अब भी बच्चों को धरती पर भेज रहा है. इसका अर्थ यह है कि वह मानव जाति से अभी निराश नहीं हुआ है. जगूड़ी लिखते हैं, बच्चा पैदा होने का मतलब है फिर एक आदमी खतरे में पड़ा. वे भविष्य के कवि हैं. उन्हें भविष्य में रोटी, कमड़ा, मकान, पानी , अन्याय और विषमता के तमाम संकट अभी से दीख रहे हैं. जीवन की आगामी मुश्किलों का उन्हें अंदाजा है.
5
जगूड़ी की कविता में भाषा अलग से चमकती है. पर वह भाषा का उत्सव नही है. वह दुर्निवार अभिव्यक्ति के लिए भाषा का कारगर इस्तेमाल है. आत्मविलाप कविता में जैसा जगूड़ी लिखते हैं यह उस कौल करार का एक निर्वचन भी है जिसके जरिए वे शब्दों को पुनरुज्जीवित करना चाहते हैं. यह एक जीवंत कवि का कर्तव्य भी है कि वह शब्दों का परिष्कार करे और देखे कि भाषा में फूटते नए कल्ले शब्द की कोशिकाओं को पूरी आक़्सीजन दे रहे हैं–
अपनी छोटी और अंतिम कविता के लिए
मुझमें जो थोड़ा सा रक़्त शेष है
मैं कोशिश करूँगा वह दौड़ कर
शब्द के उस अंग को जीवित कर दे
जो भाषा की हवा से मर गया है
ऐसा नही कि जगूड़ी की कविता किसी तार्किक निष्कर्ष तक पहुँचाने वाली कविता है किन्तु वह दूध का दूध और पानी का पानी करने की क्षमता से अवश्य लैस है जहाँ रूढि़बद्ध, पवित्र, और नैतिकता के ताप से समुज्ज्वल परंपरागत आशय भरभरा कर गिर पड़ते हैं और साफ दिखाई देता है कि गिरावट, अवसरवादिता, मूल्यहीनता और क्रूरता किस हद तक हमारी जीवन शैली में घुस गयी है.
समय के एक बड़े अंतराल में ऐसा कभी-कभी ही होता है कि कोई कवि अपनी भाषा, शैली और कथ्य के बल पर हमारे समय की व्याधियों, विडम्बनाओं से टकराता है और अपनी अभिव्यक्ति के लिए सर्वथा एक नयी सरणि चुनता है. समकालीनता के रूढ़बद्ध व प्रचलित रास्ते पर न चल कर अभिव्यक्ति के खतरे उठाने के जोखिम से गुजरते हुए वह इस बात से बिल्कुल अनासक़्त रहता है कि उसके प्रयोग पारंपरिक काव्यास्वाद में रमे-जमे पाठकों पर क़्या प्रभाव डालेंगे. जगूडी का कविता संग्रह खबर का मुँह विज्ञापन से ढका हैबिल्कुल आज की काव्यभाषा का एक नया मसौदा है.
हिंदी में कविता का समाज दिनोदिन सिकुड़ता जा रहा है . कविता का समाज विकसित हो, हृदय -संवेद्य कविता से लेकर बौद्धिकता से निर्मित कविता तक को सुनने-सराहने वाला समाज बन सके, ऐसा कोई उद्यम हिंदी हल्के में नहीं हुआ. ऐसे में लीलाधर जगूड़ी की कविताएं, उनकी ही नहीं, हिंदी कविता के ढाँचे और साँचे से बिल्कुल अलग नज़र आती हैं, लगभग अलग तरह के अनुभवों, संशयों, तार्किकताओं, वक्रताओं और प्रेक्षणों की उपज हैं, बल्कि कहें कि उनकी कविताएं स्वनिर्मित काव्यभाषा का विरल उदाहरण हैं. अपने काव्यात्मक कौशल से आर्जित यह काव्यभाषा प्रेक्षण के बहुस्तरीय प्रयत्नों का प्रतिफल लगती है जहाँ कोई भी शब्द भावना के वशीभूत होकर किसी कविता में नहीं आ टपकता, बल्कि उसका होना, कविता के स्थापत्य के औचित्य से सुनिश्चित होता है. कहना न होगा कि कविता में यह विरल लीक जगूड़ी ने खुद के बलबूते खींची है जो अब एक अकेले कवि की परंपरा बनती जा रही है, और यह अच्छी बात है.
6

परिदृश्य में उपस्थित कवियों के बीच लीलाधर जगूड़ी को एक ऐसे कवि के रूप में देखा जाता रहा है जो केवल हृदय से नहीं, समस्त बौद्धिक इंद्रियों से कविताऍं लिखता है . उन्हें देख कर ही यह उक्ति चरितार्थ होती हैः कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू. जगूड़ी ने अपने अनुभवों को बहुत आँजा और माँजा है. कविता को कविता जैसा न दिखने देने के लिए अनुभव और संवेदना से गहरी मुठभेड़ें की हैं. अपनी काव्यभाषा पाने के लिए जगूड़ी ने यथार्थ के बहुस्तरीय रूपांतरणों के मध्य संतरण किया है. वे कविता की कंडीशानिंग को तोड़ते हुए लगातार आगे बढ़ते रहे हैं और कविता में समाज के प्रतिबिम्ब के साथ परिस्थितियों का प्रतिबिम्ब उकेरते रहे हैं. उनकी कविता की जटिलता दरअसल परिस्थितियों और पारिस्थितिकी की जटिलता है.
अपना कौशल, अपना हस्ताक्षर, अपनी शख्सियत और अपनी काव्यभाषा ही कवि होने का प्रमाण है. निराला की काव्यभाषा के लिए एक ही उदाहरण देना पर्याप्त होगा–क्षीण का न छीना कभी अन्न/ मैं लख न सका दृग वे विपन्न/ अपने आँसुओं अतः बिम्बित/ देखे हैं अपने मुख-चित/ दुख ही जीवन की कथा रही/ क़्या कहूँ आज जो नहीं कही. यहाँ हम क्षीण को किसी दूसरी संज्ञा से स्थानापन्न नहीं कर सकते. लख न सका क्रिया उनके लिए निर्विकल्प है. यहॉ देखने भर से बात नहीं बनने वाली. दृग से टपकते दारिद्रय के लिए विपन्न से ज्यादा ठोस कोई शब्द उन्हें नहीं सूझता. पूरी की पूरी कविता का ढाँचा अविच्छिन्न मति से आर्जित है. इसी भाँति जगूड़ी की कविता आँजे हुए जीवनानुभवों से मँजी हुई काव्य-भाषा का उपार्जन है.
जगूड़ी कहते हैं, कविता हमारी आत्मा का इतिहास बताती है, हमारी आत्मा की खबर देती है. किन्तु खबर का मुँह विज्ञापन से ढका है, यानी दूसरे शब्दों में–हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितम् मुखम् अर्थात, सत्य का मुँह सोने के पात्र से आच्छादित है. ऐसे में, सचाई से रूबरू हो पाना कितना मुश्किल हो गया है. सर्वम् सत्ये प्रतिष्ठितम् के प्रचलित विश्वास को भंग करता हुआ यह नव कथन सत्य पर फूँजी के अंतर्निहित दबावों का उद्घाटन है. सर्वे गुणाःकांचनमाश्रयन्तिकी तरह जहाँ सारे जीवनादर्श और मानवीय गुणधर्म पूँजी के प्रलोभनों से घिरे हैं, कवि सचाई पर पड़े स्वर्णपात्र को हटा देना चाहता है, ताकि पूँजी के भार से दबे सत्य का अनावरण किया जा सके. यह सच के लिए लोहा लेने वाले कवि का आत्मचिंतन है, आधुनिक सभ्यता के धब्बों की निशानदेही करने वाले कवि के सत्य के साथ किए गए कुछ अनूठे प्रयोग हैं. अपना पूर्वज होने का संस्मरणमें वह कहता है–पृथ्वी जानती है/कैल्शियम पहचानने के लिए कितना मैंने लोहा लिया/ जो अब नहीं रहीं, वे परिस्थितियाँ जानती हैं/ कब किस धातु का कब किस मिट्टी का बना निकला मैं. ये कविताऍं बिना बाजार-बाजार चिल्लाए बाजारवाद की व्याधियों की निशानदेही करती हैं. भाषा के हिंसक और रौद्र रूप का इस्तेमाल किए बिना निष्करुण मीडिया और हिंसा की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर गतिविधियों को पहचान पाती हैं. बड़े देशों की आक्रामकता और भूमंडलीकरण की हकीकत को दर्ज करते हुए गरीब देशों पर लादे गए पेटेंटीकरण के व्यापारिक भाईचारे का हश्र भी जानती-बूझती हैं.
जगूड़ी की इन कविताओं का प्रारूप बहुत बदला हुआ है. इससे पूर्व के संग्रह ईश्वर की अध्यक्षता में की कविताओं का साँचा इस सीमा तक बुद्धि-बल से शासित नहीं था. यहॉ कवि की चिंता किसी भावुकता का अवलंब नहीं ग्रहण करती, वह चीजों की तह में जाती है, गहन अनुसंधान करती हुई अलक्षित अर्थ के बीहडों में उतरती है. मीडिया, बाजार, उदारतावाद, मानवीय उच्चादर्श, प्रचलित विश्वास और अवधारण के विरुद्ध कवि कोई वक़्तव्यबाजी नहीं करता है, बाल्कि उसे वह प्रतीतियों के आस्वादन में बदल देती है. जगूड़ी की कविता में झटके बहुत हैं—कह सकते हैं कि लटके-झटके दोनों. पर दोनों सचेत भंगिमाओं के साथ प्रकट हुए हैं. यह सच है कि कविता का जन्म स्वाभाविक रूप से व्यथा की कथा कहने के लिए हुआ है, किन्तु व्यथाएं भी जटिल से जटिलतर हुई हैं. यहाँ शब्दों का संयोजन और समन्वय भर नहीं है, बल्कि कविता की सुसंयत पारिभाषिकी–द बेस्ट वर्ड्स इन वेस्ट आर्डर को निरर्थ बनाते हुए अनुभव के अन्वय से बनी कविता का आस्वादन मिलता है. यह कविता का नया सेन्टेकक़्स है. बौद्धिक माँसपेशियों को उद्वेलित और सक्रिय करने वाली कविता, जहाँ व्यर्थ का रुदन और भावात्मक आस्फालन नहीं है. इसमें जितनी समसामयिकता और तात्कालिकता है, उतनी ही दीर्घकालिकता. यह समय को लाँघते अनुभवों का रोमांचक दस्तावेज़ है.
7
लीलाधर जगूड़ी दरअसल कविता के ऐसे वैद्य हैं जो समाज की नाडी-संरचना का अध्ययन कर रुग्णताओं की पहचान करने में सिद्धि रखते हैं. उनका काव्य कविता के प्रतिमानीकरण में लगे आलोचकों के आगे चुनौती फेंकता है और महज शब्दों की शोभायात्रा सजाते कवियों को हा धिक् की नज़र से देखता है. यह वही जगूड़ी हैं जिसने रात अब भी मौजूद है में लिखा था, \’\’अब तक की हर हरियाली के हम अंतिम परिणाम हैं/ हम जब जलेंगे तो धरती दूर से ही काली दिखाई देगी/ काली और उपजाऊ.\’\’ और आज वे कहते हैं, \’केवल शिल्प या कौशल ही नहीं है कविता/कही सुनी झेली का नया अंदाज भी वह हो सकती है/टेरीलीन की पैंट की तरह/बहुत घिसाई के बाद भी क्रीज पहनने लायक रह जाती हो जिसमें.\’ उन्हें मालूम है कि कविता का अमीर और गरीब से कोई ताल्लुक नहीं है क़्योंकि हो सकता है अमीर की कविता से जिन्दगी का खमीर गायब हो. यहाँ यह देखना रोमांचक होगा कि कवि किन-किन नई घटनाओं से मुलाकात करता है. हर बार भिन्न, अजानी, अज्ञात किस्म की विषय वस्तु, यहॉ तक कि फंतासियों तक में वह घुसफैठ करता है और हर बार वह अफने अनुभव को भाषा के नए सामाजिक अन्वयों में बदल देता है. चाँद पर चित्रकार की फंतासी गढ़ता हुआ कवि पृथ्वी की पीड़ा को महसूस करना चाहता है जो तमाम निर्मम जलवायु के बावजूद कारखानों के बोझ से झुकती जा रही है,पोर-पोर में जहरीले रसायन और तेज धार हथियार चुभे हैं, उर्वर भूमि अनुर्वर कालोनियों की भेंट चढ़ रही है. खुशबुओं के प्रणेता फूलों की उदासी की अपनी वाजिब वजहें हैं. यह फूल-जैसी पृथ्वी के उदास होने के लक्षणों की पहचान करना भी है.
इस संग्रह की कविताओं से पता लगता है कि कविता कितनी आवश्यक है लेकिन कवि-कर्म की कठिनाइयाँ, जिम्मेदारियों के रूप में, कितनी बढ़ गयी हैं. उस पर भी कवि ने अफने लिए जहाँ से रास्ता निकाला है, वह बताता है कि सचमुच हम मानवता को समाप्त करने के सर्वाधिक हिंसक दौर में फहुँच गए हैं. अर्थात हम इकक़्कीसवीं सदी में पहुँच गए हैं. जो दुविधाएं हैं उनमें से एक यह कि हथियारों के साये में मातॄभूमि के साथ संबंध नैतिक कैसे रह सकते हैं ? …हमने गुस्से को भी निशस्त्र नहीं रहने दिया है….. विश्व बैंक तो वीर्य बैंक भी खोल देगा पर सहवास नहीं सिर्फ निषेचन चलेगा…ये चिंताएं साधारण हिंदी कविता में देखने को नहीं मिलतीं. —अराजकता, हथियारों के सस्ते होने के कारण है….दिखाया जाता है छह-सात सौ ग्राम फैला ताजा रक़्त. शोकमग्न दिखता है रंगीन टीवी…मारे गए व्यक्ति की कोई संतान न थी…भ्रष्टाचार का उन पर एक भी आरोप न था—यह कहते हुए दिखाई गयी मॄतक की विधवा बीबी. यथार्थवादी विचारक भी आयुध विशेषज्ञ की तरह घटनाओं का विश्लेषण कुछ इस तरह करते हैं—इस घटना को भी देखो तो उत्फादन की गुणवत्ता प्रयोग से ही सिद्ध होती है. हत्यारे के फास सिर्फ एक कलम निकली(पेन फिस्तौल) , जो लिखने के नहीं, बोलती बंद करने के काम आती है. यह उस हथियार का सफल हो जाना है, जिसकी कंपनी पिछले साल से पड़ी हुई थी दिक़्कत में…..एक अन्य जघन्य विज्ञापन में बताया गया कि आतंक के कारण सतयुग वापस आ गया है. एक बड़े नगर के रेलवे स्टेशन पर पड़ी बड़ी अटैची को किसी ने नहीं छुआ–आतंक से कितना यह समाज नैतिक हुआ है. ये व्यंग्य केवल इकक़्कीसवीं सदी की सामाजिक विडंबना की ओर ही संकेत नहीं करते बाल्कि हमारी मनःस्थितियों की नासमझी पर परिवर्तनकारी गुस्सा भी दिलाते हैं. ऐसे अनेक स्थल इस कविता संग्रह में हैं जिन्हें हिंदी कविता की स्थापित आलोचना की परंपरा से व्याख्यायित नहीं किया जा सकता. मीडिया आज कंपनियों की और बाजार की नीतियों का शिकार कैसे हो रहा है—एड्स के डर को कहीं ज्यादा फैलाकर पत्नी को पतिव्रता और पति को पत्नीव्रत बना दिया/ जो कोई धार्मिक कथा न कर पायी/ इसका श्रेय कंडोम बनाने वाली कंपनियों को जाता है/ जो अपने मुनाफे का पांच प्रतिशत ऐड्स के प्रचार पर खर्च करती हैं. इस तरह के अखबारी और रोज़मर्रा के चिंताजनक विषय कविता में आते हैं तो लगता है कि समाज की आबो-हवा वाकई बाजार की मुट्ठी में है. समाचार माध्यमों को भी बाजार ने अपने प्रचार का कारगर हिस्सा बना लिया है.—वे हथियारों और संक्रामक रोगों को आतंक का दूत बनाकर/अपने सारे विज्ञापनों को खबर या फीचर में छपवाकर/ हत्या को हथियार के मुफ्त विज्ञापन में बदलवाते हैं……
कविताओं की निर्मिति और उगाही का जगूड़ी का तौर तरीका का बिल्कुल अलग है. अपनी सरस्वती की अंदरूनी खबर से लेकर खबर का मुँह विज्ञापन से ढका है तक चौंतीस कविताओं का भाष्य बहुआयामी है. ज्ञान-निर्भर युग में सरस्वती की भूमिका बदल चुकी है. वरदपुत्रों की फलदायी मूर्खताओं से लेकर मनुष्य जाति के लिए खतरे पैदा करने वाले लक्ष्मीपुत्रों तक पर उनकी असीम कृपा है. कवि की कठिनाई को लेकर व्यक़्त कविता में सरलता की हाँक लगाने वाले तत्वों की पूरी खबर ली गयी है. वे कहते हैं– भाषाऍं भी अलग अलग रौनकों वाले पेड़ों की तरह हैं. सबका अपना अपना हरापन है. किन्तु जगूड़ी की शिकायत उन लोगों से हैं जो उन्हें काट कर उनकी छवियों का बुरादा बना रहे हैं और भाषा को एक जैसी किटप्लाई में बदल रहे हैं. उनकी चिंता यह है कि कहीं कविता जैसी कविता गढ़ने की सरल बेसब्री कविता के माहौल को एकरस न बना दे. जगूड़ी की कविता इसी एकरसता के विरुद्ध बदलती जीवन शैलियों, आपराधिक वॄत्तियों ,चीजों, वस्तुओं, आदतों,राजनीतिक व्याधियों, फलश्रुतियों, जैव तकनीकी से फूलों की खेती में फूल-फल रही उदासी, फूलों के सामूहिक संहार के आनंद में निमग्न सांस्कॄतिक अनुष्ठानों और विदेशी फूलों की खेती के इस दौर में मधुमक़्खियों की मधुकरी पर होते वज्रपात का बारीक अध्ययन और निरूपण है. यहॉ पर्यावरण की चिंता को नए परिप्रेक्ष्य में देखा गया है.
जगूड़ी जहाँ तमाम अपराधों के फीछे गरीबी की बीमारी को न देख पाने वाली व्यवस्था को रेखांकित करते हैं, वहीं फर्नीचर की एक दूकान के गूँगे कारीगर से संवाद के जरिए एक कविता उठाते हुए कहते हैं–गूंगे कारीगर के बातूनीपन से इतना वह पलंग मुखर हो उठा था/ कि छटफटाते मन का आखिरी विश्रामालय लगने लगा था.(गूँगे का शब्दकोश) आार्थिक उदारतावाद की छाया में पनपते आधुनिक अर्थतंत्र की आवाज कर्ज़ के बाद नींद में सुन पड़ती है. कविता कहती हैः एक से एक नया रास्ता जानने वाले पुराने मनुष्य के भीतर/ हर जगह कर्ज और कमाई ढूढ़ता एक अत्याधुनिक मनुष्य चल रहा होता है/ जो गाँव में भी लोन पाने की जुगत में फाया जाता है. जगूड़ी ने इस कविता में जेनेटिक विरोधाभासों को अलंकार बनाने वाली कुदरत की बात की है. वे खुद कविता की जेनेटिकक़्स के इंजीनियर कहे जाते हैं जिन्होंने पारंपरिक आस्वाद वाली कविता को आमूल बदल दिया है. उनके लेखे मातॄभूमिका आज वही अर्थ नहीं रह गया है, जैसा कोशकार बताते हैं. एक सप्लायर के लिए मातॄभूमि का वही अर्थ नहीं है जो टिम्बर व्यापारी,प्रापर्टी डीलर अथवा एक ठेकेदार विधायक के लिए है या एक चरवाहे, एक डाक़्टर के लिए है. बाढ़ और सूखे और अन्य प्राकॄतिक आपदाओं से निपटने के बहाने राहत कोषों की लूट की कामधेनु बनी मातॄभूमि के अलग-अलग निहितार्थ हैं. कवि अपने साठ-साला सफर में प्रकॄति और परिस्थितियों के मिले जुले कितने ही पतझरों का साक्षी है. उसके पास अपनों की दी हुई विपत्तियों के बहुतेरे अनुभव हैं. इस तरह साठ पार करते हुए वीर्य के ऊर्ध्वरेता होने की कविता है–साठ-साला नागरिकता और अनुभव के एकांत में तिकड़में तलाशते लोगों के बीच जोखिम के साथ जिए गए जीवन की कथा है. उसे सामाजिक न्याय बाँटने वाले व्यक्ति के भीतर छुपा गुंडा अचरज में नहीं डालता, न ही सूखे समाज में लहरे पैदा करने योग्यताऍं रखने वाले विज्ञापन टीम के सदस्य क़्योंकि उसे खबर और विज्ञापन की दुरभिसंधियों की पूरी खबर है. आखिरकार कवि के ही शब्दों में , खबर वाले जानते हैं यह किस मतलब का विज्ञापन है/ विज्ञापन वाले जानते हैं, यह किस मतलब की खबर है.
खबर का मुँह विज्ञापन से ढका है में आज का ज्वलंत परिदृश्य रेखांकित हुआ है. हमारे समय की सच्चाई को निरावॄत करने की बेहद काव्यात्मक कोशिश का परिणाम है यह कविता. भिखारी समस्या फर केंद्रित जुर्माना कविता वास्तव में संग्रह की उपलब्धि है, जिसमें धैर्यधनी भिखारी से लेकर लोगों की करुणा के किवाड़ तोड़ते खुद के लिए दया और सुनने वाले के लिए शर्म पैदा करते भिखारियों की पूरी जमात का दृष्टांत मिल जाता है. एक सुघर आख्यान के रूप में रची यह कविता संभवतः हिंदी कविता परिसर में अकेली कविता होगी जो भिखारियों के आचरण का इतना बारीक विश्लेषण करती है. और तो और, जमाने में होते बदलाव से उनकी कविता अत्यंत वाकिफ एवं चौकस दिखती है. सौ गलियों वाला बाज़ार कविता दस अनुच्छेदों में है और हमें अनोखे ढंग से एक से एक पेशेगत व्यवसाय के अंतःपुर में ले जाती है. कबीर अपने को बाजार में खड़ पाते थे, लेकिन जगूड़ी अपने को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में खड़ पाते हैं. कबीर के हाथ में लुकाठी थी, जगूड़ी के हाथ में भाषा का कैमरा है, जो मनुष्य और मनुष्यता के अंतिम पतन-बिन्दु तक उसका पीछा करता है.
यह कविता विपणन की नई से नई तकनीक के परिणामों का खुलासा है. समाज में तब्दीली की कछुआ रफतार विज्ञापन युग के रणनीतिकारों को स्वीकार्य नहीं है, जिन्होंने ठीक से साक्षर भी न हुए समाज को विज्ञापनों से बदल डालने का बीड़ा उठा लिया है. फलतः पानी के संकट से जूझते समाज में लहरें पैदा करने की तरकीबों को अंजाम देने का काम जिस बखूबी चल रहा है, उसमें अचरज नहीं कि स्त्री किसी ब्रांड की पहचान बन चुकी है, देह को दरी के रूप में विपणनयोग्य बनाने की कार्रवाई चल रही है . आज के विपणनकारों व कारपोरेट सौदागरों के लिए विचार-विनिमय वस्तु-विनिमय की सीढी-भर है. चवन्नी भर ढकी लड़कियाँ अठन्नी भर मूड बोने के लिए हैं और बिना बीमे की मौतें आार्थिक हानि के नमूने के रूप में देखी जा रही हैं. मीडिया और विज्ञापकों की परस्परता ने एक एसे अतियथार्थवाद को जन्म दिया है जो सचाई से कोसों दूर है, यानी ऐसे युग में ही यह कहा और बर्दाश्त किया जा सकता है कि –इस कंपनी की साड़ियाँ स्त्रियों को आत्महत्या से बचाती हैं. बकौल कवि, वे चुपचाप हर चीज में घुस गए/ पहाड़ में, रेत में, खेत में और अभिप्रेत में. वे घास और काई की तरह स्वाभाविक लगने के बजाय जंग की तरह स्वाभाविक लग रहे थे.
आज का समय हर तरह से आर्थिक समय है. भारत में पहले भौतिकवादी होना गाली माना जाता था, लेकिन आज नहीं माना जाता. यह प्रगतिशील विश्लेषणों का परिणाम हो या आार्थिक चिंतन का, लेकिन यह परिवर्तन निस्संदेह मनुष्य के बेहतर सामाजिक जीवन का प्रतिबिम्ब —कर्ज के बाद नींद–कविता में उस पिता के रूप में साकार हो उठता है जो अपने बेटे के बेहतर व्यवसाय और जीवन के लिए कर्ज लेने की फिराक में है, लेकिन पिता-पुत्र के दृष्टिकोणों में जो द्वन्द्व है वह हमारे घरेलू अर्थशास्त्र को और आवारा पूँजी के हस्तक्षेप को अत्यंत रोचक ढंग से प्रस्तुत करके स्मरणीय बना देता है. इस संग्रह की एक विलक्षण कविता है, आधुनिक शब्द–जो इस तरह शुरू होती है कि —आधुनिक शब्द में ही ठोकर सी है जिससे चाल बदल जाती है/ और देखना सँभल जाता है.—यह कविता विलक्षण इस मामले में है कि आधुनिकता के विश्लेषण के ऐसे लक्षण न पूर्ववर्ती किसी कविता में मिलते हैं और न ज्ञात विश्व कविता में. इस कविता से टकराने के बाद सचमुच एक ठोकर-सी लगती है और आलोचक का भी देखना सँभल या बदल जाता है. निराशा भी यहाँ आशान्वित करने लगती है. इस कविता को पढ़ कर कोई समझदार पाठक एक और कविता सपने का सपना की यह पंक्ति दोहरा उठेगा कि सपनों को जब सपने देखने होते हैं मेरे जीवन में चले आते हैं. जीवन और जगत की सारी निरर्थकताओं के बीच से कविता को कैसे नए सिरे से पाया और लाया जा सकता है, यह कोई जगूड़ी से सीखे. उन्हीं के स्वर में स्वर मिलाकर कहने की इच्छा होती है कि अन्याय को ईश्वर की तरह सर्वव्यापक देख कर, आज मैंने स्वयं से घॄणा की. यह घॄणा सारी निरर्थकता को सार्थकता में बदल देती है.
8

सारांश यह कि जगूड़ी की कविता न तो पारंपरिक कविता की लीक और लय पर चलती है न आजमाए हुए बिम्ब-प्रतीकों का अवलंब ग्रहण करती है. यह कवित-विवेक के अपने खोजे-रचे प्रतिमानों और सौदर्यधायी मानदंडों पर टिकी है. रीति, रस,छंद और अलंकरण के दिखावटी सौष्ठव से परे यह आधुनिक जन-जीवन में खिलती प्रवॄत्तियों, उदारताओं, मिथ्या मान्यताओं, व्याधियों, किंवदन्तियों, क्रूरताओं का खाका खीचती है. इसमें बरते गए शब्द आधुनिकता के स्वप्न और संघर्ष की पारस्परिक रगड़ से उपजे हैं. पर्यावरण को ये कविताऍं चिंताओं और सरोकारों के नए धरातल से देखती हैं. इनमें सब कुछ के लुट जाने का और लुटते हुए को बचा लेने का हाहाकारी शोर और रोर नहीं है. क्रूरताओं और हिंसा के चितेरों को ये कविताऍं चेतावनियाँ नहीं देतीं क़्योंकि ये जानती हैं–यह काम कवि का नहीं, व्यवस्था और प्रशासन का है. जिस तरह प्रशासन और कानून के जिम्मे एक स्वच्छ नागरिक पर्यावरण का निर्माण है, इन कविताओं का काम नागरिकता के विरुद्ध होते पर्यावरण की शिनाख्त है, कविता को रिपोर्ट की शक़्ल देना नहीं. हाँ, इनका काम खबर में छिपी कविता को निकाल लेना है. पलटवार और एक खबर–खबरों के अंबार से ही निकाली गयी कविताएं हैं. पलटवार कविता में एक निरपराध व्यक्ति का अपराधी बन जाना आज के समाज की हकीकत का डरावना वर्णन है–
पीटे जा रहे शरीफ आदमी को लगा कि कर्मठ कल्पनाशील जीवन
जिसके लिए मॉ-बाप दवा और दुआ करते नहीं थकते
फिचकुर फेंकता जिबह होने जा रहा है
अगली चोट ने मौत की आखिरी चेतावनी दी
जीवित रहने की अंतिम इच्छा ने वहीं के वहीं पलटवार किया
पता नहीं कैसे हत्यारे के हथियार ने ही हत्यारे की हत्या कर दी….
और मनुष्य के भीतर छिपी पशुता और पशुओं के भीतर छिपी मनुष्यता का प्रतिशत ज्ञात कर लेना जैसे कवि का बुनियादी ध्येय हो– और ऐसी ही परिस्थितियों में ही टुनकीबाई और गरीब वेश्या की मौत जैसी कविताएं जन्म लेती हैं.
लीलाधर जगूड़ी की कविता विपत्ति में भी एक पुल का निर्माण करती है. वे बेहद तात्कालिक सामाजिक विषयों को जीवन-पद्धति से अदृश्य कारणों तक ले जाते हैं जहाँ चीजें भी मनुष्यों के बारे में सोच रही होती हैं. इसीलिए कवि कहता है कि चीजों के बारे में सोचना अब सरल नहीं रह गया है. इसी की तर्ज पर मैं कहना चाहता हूँ कि कविता करना और समझना भी अब वैसा सरल नहीं रह गया है, जैसा हमने उसे समझना सीखा था. जगूड़ी की प्रत्येक कविता का कथ्य और विन्यास देख कर लगता है कि अब कविता खुद अपने नए औजार पैदा कर रही है. उन्हें पुराने औजारों से नहीं जाँचा जा सकता. कविता की यह सीढ़ी, कवि कहता है कि मुझे रोज बनानी पड़ती है. फिर आलोचक या समीक्षक ही अपनी पुरानी नसैनी से यहाँ कैसे चढ़ सकता है—पहाड़ों पर खाइयों में नदियों में रास्ते-सी सीढि़याँ गिरी पड़ी दिखती हैं/ फिर भी जिस-जिस रास्ते से जाना होता है/उसे वह सीढ़ी खुद बनानी होती है/ एक एक कदम कविता में जैसे छोटे-छोटे वाक़्य/ हर नए कदम फर नए डंडे बिठाने पड़ते हैं–हवा में/….तब कहीं एक कविता उतर पाती है पृथ्वी पर…और चढ़ पाती है बिना शीर्षक के शीर्ष पर भी.-–यही सीढ़ी उस रास्ते तक पहुँचाती है जो एक मजदूर दम्पति के जीवन में जाता है लेकिन जिस रास्ते से वे बिल्कुल किनारा किए रहते हैं. उसी तकलीफ को समझने से पत्रकारिता की भाषा में वह कविता लिखी जा सकी जो एक रिपोर्ट जैसी है और जिसका उद्देश्य न प्रथमतः, न अंततः कविता होना नहीं था. भाषा, हालत का साथ नहीं दे रही है. जैसे रखे-रखे उड़ गया हो पानी का बोझ और गुस्सा.
बेशक, दुनिया का सबसे बड़ा रचनात्मक झूठ एक कवि ही लिख सकता है, किन्तु रचनात्मकता में ज़मीनी हकीकत भी वही बोता है. फूलों की खेती और उदासी, तथा प्राचीन संस्कृति को अंतिम बुके जैसी कविताएं लिख कर जगूड़ी ने यह सिद्ध कर दिखाया है कि वे रचनात्मकता के उत्खनन में अभी बूढ़े नहीं दिखते. उन्हें किसानी तथा देश के अर्थतंत्र की पूरी समझ है. वे देश के मालियों की माली हालत और मधुमक़्खियों को मधुकरी(जीविका) के मौलिक अधिकार का मामला कविता की संसद में उठा कर यह जताते हैं कि जो कुछ भी उनकी कविता बना रही है, उसका सामाजिक खराबियों से कोई न कोई संबंध अवश्य है. एक बात यह भी कि कविता में नई प्रतीतियों और नए प्रतीकों की आमद कुछ इधर घट गयी-सी लगती थी, लेकिन लगभग आठ-दस साल के अंतराल से प्रकाशित लीलाधर जगूड़ी का यह कविता संग्रह एक अलग तरह की खुशी और दृष्टि दोनों देता है. जगूड़ी का यह सारा काव्यात्मक उपक्रम भाषा की एक-जैसी किटप्लाई तैयार करने विरुद्ध अपने देशी रंदे के इस्तेमाल से एक ऐसी काव्यभाषा रचना या पाना है जो किसी स्थापित भाषा के अदेखे-अ-सुने को प्रकट करने के लिए गूँगे कारीगर के अंदाजे-बयाँ जैसा हो. तभी शायद कविता भी छटपटाते मन का विश्रामालय बन सके.
9
\’\’मेरी आत्मा लोहार है
ज़िन्दगी से रोज लोहा लेती है
मेरी आत्मा धोबी है
मन का मैल ऑंसुओं से धोती है
मेरी आत्मा कुम्हार है
सपनों की मिट्टी से आकार बनाती है
मेरी आत्मा बढ़ई है
रोज़ कोई न कोई विचार खराद देती है
किसी भी आत्मा की कोई एक जाति नहीं होती
यहां किसी भी एकराम से काम नहीं चलने वाला
मैं आत्माराम भी हूँ, सिर्फ मोचीराम ही नहीं
रोटीराम भी हूँ, सिर्फ रामरोटी ही नहीं.\’\’
ये पदावलियॉं लीलाधर जगूड़ी के नए कविता संग्रह \’\’ जितने लोग उतने प्रेम\’\’ से उद्धृत हैं. जिन्हें भाषा की शक्तियों से, शब्दों की निस्सीमता से खेलना आता है, शब्द से अर्थ और अर्थ से अनेक अर्थात् बना लेने की जिनमें क्षमता है जो शब्दों के बीहड़ से अभिप्रायों की नदी बहा सकता है, जो भाषा को हवा की तरह बॉंधे लेने में हुनरमंद है, वह कौन हो सकता है भला —लीलाधर जगूड़ी के सिवा. कविता के शिल्प में उत्तरोत्तर बदलाव की जिसकी चुनौती धूमिल ने भी स्वीकारी थी, जो \’गरीबी हटाओ\’ की तर्ज पर भूख को एकदम से खत्म करने की मॉंग के सर्वथा विरुद्ध रहा है और जो यह कहता हो: \’\’आपदाओं में कुछ अच्छे गुण वाली आपदाऍं भी होती है/ जिन्हें खोना नहीं बल्कि बोना चाहती हूँ सबमें जैसे कि भूख/ भूख मिट जाए भले ही पर मरे न कभी, वरना मेरे तुम्हारे रोमांच मिट जाऍंगे.\’\’ अमिट भूख के रोमांच से कविता के विरल रोमांच तक संतरण करने वाले इस कवि की कल्पनातीत होती पतंग को सहज ही काट पाना मुमकिन नहीं है. लीलाधर जगूड़ी के पिछले संग्रह \’\’खबर का मुँह विज्ञापन से ढँका है\’\’ पढे हुए कई साल हो गए, पर लगता है उसे पढने का रोमांच अभी ताज़ा है. इस ताज़ा ताज़ा रोमांच को शब्द और शब्दों के रोमांच को अभिप्रायों के रोमांच में बदलने वाले जगूड़ी का यह संग्रह \’जितने लोग उतने प्रेम’ ‘जितनी आत्माऍं उतने ख़तरे’,’ जितने रास्ते उतने कुशल क्षेम’ की अवधारणाओं के साथ सामने आया है.
परिस्थितियों से पारिस्थितिकी तक जगूड़ी के शब्द यात्रा करते हैं और इन्हीं शब्दों, अभिप्रायों में जगूड़ी का कवि विचरता है: \’परिभू स्वयंभू\’ कवियों की तरह जो मजबूत से मजबूत लोहे जैसे विचार को भी शब्दों के घन से पीट-पीट कर एक लचीली काया में बदल देता है.
प्रेम एक ऐसा विषय है जिस पर जितने मुँह उतनी बातें. प्रेम का अनुभव हर एक का अपना होता है, उसके बखान के तरीके अलग हो सकते हैं. जो अपने अनुभव का बखान नहीं कर सकते वे भी इसके संक्रमण को महसूस करते हैं. जो जीवनानुभव का परिणाम है, लीलाधर जगूड़ी उसे अपने 53 वर्ष के काव्यानुभव का नतीज़ा मानते हैं—-जीवनानुभव से काव्यानुभव तक प्रेम के इस संक्रमण, अनुभवन और प्रस्फुटन को उन्होंने एक नई अवधारणा में पिरोया है: \’जितने लोग उतने प्रेम\’ कह कर.
अपने पसंदीदा कवि को पाठक उसके उत्स से समझना चाहता है. बरसों जगूड़ी के सान्निध्य में रह कर यह जानना मुश्किल नहीं है कि वे कविता में निरंतर रचनात्मक तोड़फोड़ करने वाले कवि रहे हैं. \’नाटक जारी है\’ से लेकर आगे के सभी संग्रहों में उन्होंने अपने को उत्तरोत्तर बदला है. कहा होगा अज्ञेय ने —\’राही नहीं, राहों के अन्वेषी\’. पर जगूड़ी के इन प्रयोगों में भाषा, अनुभव और कथ्य का एक सर्वथा बदला हुआ संसार दीखता है. वे निरंतर ही नहीं, उत्तरोत्तर अपने प्रयोगों में प्रगति की कामना से भरे दिखते हैं कविता लिखते हुए वे वस्तु और रूप की समस्या से भी मुक्त दिखते हैं. फिर जो कवि \’कविता जैसी कविता से बचो\’—का हामी हो और जो भाषा को उत्तरोत्तर नए ढंग से बॉंधने के उपक्रम में तल्लीन हो, उसके प्रयोग निस्संदेह भाषा और कथ्य की अजानी-अपहचानी युक्तियों के अनाविष्कृत संसार तक ले जाते हैं. एकरसता और ऊब के निर्माण के विरुद्ध उनकी कविता हर बार अपना चेहरा-मोहरा बदल लेती है जैसे करवटें सुकूनदेह नींद के लिए जरूरी हैं—जगूड़ी की कविता बार-बार उद्विग्नता में करवटें बदलती है, जो हर पल कवि की व्यग्रता – नया रचने और रूढ़ियों को तोड़ने की हिकमत का परिचय देती है.
प्रेम जीवन में एक ही बार होता है, ऐसा कहने वाले बहुतेरे होंगे पर जितने लोग उतने किस्म के प्रेम की अद्वितीयता का अपना खास अर्थ है. हर व्यक्ति के भीतर प्रेम, करुणा तथा अन्य मानवीय भावनाओं का उदय और प्रकटन अपनी तरह से होता है—यानी अपनी प्रकृति, अपने व्यवहार, अपनी समाहिति और चेतना में किसी भी दूसरे से भिन्न—इसीलिए जगूड़ी का यह चिंतन प्रेम की एक ही मनोभूमि पर \’जितने लोग उतने प्रेम\’ की अवधारणा लेकर सामने आता है. कहने के लिए यह ऊपर से प्रेम कविताओं के संग्रह जैसा दिखाई देता है, पर यह प्रचलित अर्थों में प्रेम की रूढ़िबद्ध छवि से बाहर निकलने की कोशिश भी है. इतने चालू, सतही, दैहिक और सांसारिक खानापूर्ति की तरह लिये जाने वाले प्रेम से जगूड़ी पहले ही अपना पल्ला झाड़ते हुए चलते हैं. इसीलिए वे उस रास्ते पर जाने को बरजते हैं जिस रास्ते का निर्माण और खोज पहले ही की जा चुकी है. कविता में, जीवन में, प्रेम में—नई नई सरणियों और प्रमेयों की खोज कवि को काम्य है जिससे कवि के शब्दों में—नई सॉंसों के लिए धड़कते हुए संघर्षरत जीवन की भाषा मिल जाए और आलोचक को नया जन्म मिल सके.
जगूड़ी की कविता यह बताती है कि वे अभिव्यक्ति के लिए किस हद तक जोखिम उठाते हैं. मुक्तिबोध जब यह कहते हैं कि \’अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने ही होंगे/ तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब\’—तो केवल स्थूल अर्थों में ही नहीं, आभ्यांतरीकृत चेतना के सभी स्तरों पर वे परिवर्तन और उथल-पुथल की मॉंग कर रहे होते हैं. प्राय: कवियों की यह कामना होती है कि उन्हें व्यापक रूप से समझा और सराहा जाए. वे जन जन तक संप्रेषित हों. किन्तु हिंदी के कुछ कवि ऐसे हैं जो अपनी शर्तों और धुन पर कविता लिखते हैं. विनोद कुमार शुक्ल के बाद जगूड़ी ही ऐसे कवि हैं जो कविता लिखते हुए कविता लिखने जैसे किसी रोमांच के वशीभूत नहीं होते. विनोद कुमार शुक्ल ने \’खिलेगा तो देखेंगे\’ उपन्यास लिखा था; जगूड़ी की एक कविता का शीर्षक है: \’लिखे में भी न खिले मेरी उदासी तो\’. उन्होंने अपनी एक कविता को किसी प्रकार की भावुकता की आबोहवा में नहीं खिलने देकर भाषा के अजाने रहस्यों, अनखिले अर्थों और अभिप्रायों की क्यारियों में खिलने दिया है. परंपरागत अर्थ देने वाले मंतव्य उनके यहॉं लगभग पस्त नज़र आते हैं. कवि के रूप में उन्होंने कभी अच्छी तुकें खोजी हैं तो कभी नए गद्य की गढ़न का सुख भी लिया है, जैसे वे \’कविता जैसी कविता\’ न लिखे जाने का बीड़ा उठाए हुए हैं, वैसे ही वे अपनी कविता के लिए \’आलोचना जैसी आलोचना\’ को नाकाफी मानते हैं. वे चाहते हैं, जैसे उनकी कविता शब्दों के अजाने अभिप्रायों में ले जाती है, वैसे ही कुछ जोखिम आलोचना भी उठाए. वे गद्य को लय और श्वासानुक्रम से बॉंधने के प्रयासों के तुलसी के बीजमंत्र ‘भाषानिबद्धमतिमंजुलमात्नोति’ से प्रेरणा लेते दिखते हैं.
10
जगूड़ी ने भाषा को सदैव कविता में एक आयुध की तरह बरता है. उनके यहां जीवनानुभव भाषा का अनुभव बन कर प्रकट होते हैं. उनकी कविता अपनी पंरपरा खुद निर्मित करती है; वह निरंतर अनुसंधान और अभ्यास का प्रतिफलन भी है. इसीलिए साधारण पाठक के वह ज्यादा काम की नहीं दीखती. जगूड़ी की विचारधारा पर जिन लोगों को संशय हो, उन्हें उनकी ‘मिलाप’ कविता पढनी चाहिए. जिसमें वे कहते हैं, ‘ थोडी सी श्रद्धा.थोड़ी सी मातृभूमि. थोड़ी सी राष्ट्रभक्ति से भरे जो मनुष्य मिलते हैं हमेशा मुझे संशय में डाल देते हैं.‘ वे परिसीमित राष्ट्रीयता के विरोधी हैं. इसलिए उनका कहना एक उदारचरित कवि का कथन है: ‘सीमित नागरिकता के बावजूद मेरे पास असीम राष्ट्र है/ और असीम मातृभूमि/ मुझे आल्प्स से भी उतना ही प्यार है जितना हिमालय से.‘ जगूड़ी की कविताओं में जितनी आधुनिकता दिखती है, परंपराओं से उनका कवित्व उतना ही संवलित भी जान पड़ता है. ‘न ययौ न तस्थौ’ जैसी कविता का जन्म परंपरा की इसी ज़मीन पर हुआ है. संस्कृत काव्य के क्लैसिकीय तत्वों से उनका गहरा परिचय रहा है. तभी तो वे ‘संकट के बादल’ में लिखते हैं: ‘कवियों से मिलना हो/तो पहाड़ झेलते कवि के पते पर रहते हैं/ कालिदास, नागार्जन और बादल.‘ किन्तु हर बार कविता की एक नई प्रजाति को जन्म देने के आकांक्षी जगूड़ी यह कहने से गुरेज़ नहीं करते कि \’\’विचारों के ओम-तोम और जीनोम से पैदा हुआ/ परंपराओं का आधुनिक संस्करण हूँ मैं.\’\’
कवि का जन्म ही शायद शब्दों, प्रतीकों, अलंकरणों, रसों, भावों, अनुभावों और भाषा के सौंदर्यविधायक तत्वों से खेलने के लिए होता है ताकि सार्थक कुछ का जन्म हो सके. कविता की अदायगी विनोद कुमार शुक्ल के यहॉं भाषा के भीतर से प्रकट होती है—मंद मंद खुलती और उदघाटित होती हुई तो ज्ञानेंद्रपति के यहॉं वह शब्दयुग्मों से खेलती नज़र आती है. जगूड़ी कविता-कला की इंजीनियरिंग के उस्ताद लगते हैं, वे भी कहीं-कहीं \’विस्मित\’ से \’सस्मित\’, \’चोचक\’ से \’रोचक\’, \’जिया\’ से \’पिया\’ और \’चला\’ से \’खला\’ की तुक मिलाते दिखते हैं. वे छाते को केवल भीगने से बचाव का उपकरण नहीं मानते बल्कि भाइयों में छाते की तरह अपने बड़े होने और अब व्यक्तिवादी और अकेली हो चली छतरियों से लेकर आसमान को एक उड़े हुए छाते के रूप में देखते हुए धूप में पेड़ जैसे लगते छातों तक की परिकल्पना कर लेते हैं. हमारा अड़ोस- पड़ोस जहॉं एक-दूसरे की पोलीथीन की आवारा थैलियों और टीवी के शोर से तनातनी में रहता हो वहॉं परस्पर सौहार्द के नाम पर कैसे किसी खुरपे से करुणा की पीठ खुजलाई जा सकती है? कवि पूछता है. जगूड़ी का कवि अपनी जिद और धुन में प्रयोगों का हामी बेशक हो, वह जीवन के अंदर और अभावों के नेपथ्य और स्त्री की सुबकियों में किस खूबी से जा घुसता है, ‘दर्द भरे नाले’ कविता इसका परिचायक है. पानी के अभाव को लेकर केदारनाथ सिंह की \’पानी की पार्थना\’ और \’पानी था मैं\’ जैसी मार्मिक कविताऍं हम पढ चुके हैं. \’पानी का प्लांट\’ जगूड़ी की जल-चिंता का एक नया दृष्टिकोण है. \’पानी-पत्ता\’ में वे पानी के गिरने और पत्ते के गिर कर उड़ने और धूल में लिथड़ने तक से सीख लेने को प्रेरित करते हैं. पर जगूड़ी के इस कविता–कौशल में जब हम उनकी संवेदना की जामा-तलाशी लेते हैं तो बहुत कम कविताएँ हाथ आती हैं. जबकि मंगलेश डबराल जैसे कवियों में संवेदना का रसायन अब भी अक्षुण्ण है. \’नये युग में शत्रु\’ तक उनकी संवेदना शब्दों की मार्मिकता को सम्हाले रहती है. उनकी एक कविता \’आखिरी मुलाकात\’ है जिसमें मरणासन्न मॉं को देखने आने वाले बेटे का बयान दर्ज़ है. \’उस कहानी\’ में अपना गीत और गद्य ओढ़ती-विछाती हुई दादी का चित्रण मिलता है तो \’सुंदर स्त्री के दुख\’ मध्यवर्गीय स्त्री का एक रोचक वृत्तांत है. कई अन्य स्त्री विषयक कविताओं सहित \’कुछ स्त्रियॉं याद आती हैं\’ स्त्री की नियति का हालचाल बताने वाली कविता है जिसमें जीवन के खटराग से जूझती हुई स्त्रियों के वृत्तांत हैं. पर इनमें भी वह चुम्बकीय संवेदना नहीं है जो हृदय को बॉंध लेती हो. हॉं, वह कवि के ज्ञान से अभिभूत अवश्य करती है.
\’जितने लोग उतने प्रेम\’ को पढ़ते हुए जगूड़ी के भीतर पैदा होती कविता की यांत्रिकता हमें विस्मित भी करती है तो चकित भी. यों तो \’छब्बीस जनवरी 2009\’, \’अध:पतन\’, \’सार्वजनिक औरत\’, \’गिलहरी और गाय\’, \’एकोहंबहुस्याम:\’,\’जवाबी चेहरा\’, \’नए जूते\’, \’एक छिपुर की डायरी\’, \’प्रेम\’ व \’नीरस जमाने में सरस कवि\’ जैसी कविताओं में हम जगूड़ी के कवित्व के आरोह-अवरोह को पूरी यति-गति में अवलोकित कर सकते हैं पर कहीं न कहीं यह प्रश्न अवश्य उठता है कि ये आखिर किस प्रजाति के पाठकों की कविताऍं हैं. जोखिम उठाकर रच रहे लीलाधर जगूड़ी ने बहुतेरी कालजयी कविताऍं लिखी हैं तो अपने लिए दुरूहता की चुनौती-भरी खाइयॉं भी उत्खनित की हैं जिन्हें लॉंघ पाने में आलोचक तक लड़खड़ा पड़ें. यह \’कविता को कविता जैसा न रचने\’ की उनकी हिकमत का प्रमाण भले हो, रेत से तेल निकाल पाने जैसी मशक्कत भी यहॉं पाठकों को कम नहीं करनी पड़ती . अचरज नहीं, कि प्रायोजित समालोचना के इस दौर में जगूड़ी जैसे ज्ञान-सिद्ध कवि से आलोचक पहले से ही दूर भागते रहे हैं, ऐसे में जिस भोगे-भुगते और अध्ययन-जुगते आलोचक की बात वे अपनी भूमिका में करते हैं, ऐसे समर्पित आलोचक अब इने-गिने ही होंगे. नई कविता रचने की तरह नए आलोचक पैदा करने की जगूड़ी की यह कोशिश बेशक एक सद्प्रयास है किन्तु कविता में नवाचार की यह जुगत उन्हीं के शब्दों में ‘चित्तविहीन आलोचक’ को कहीं और ‘चित’ न कर दे.
—————————
डॉ.ओम निश्चल,
जी-1/506 ए,
उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059
फोन: 08447289976/मेल: omnishchal@gmail.com