बटरोही
हम लोग, जिन्होंने अपनी पहली साँस हिमालय की गोद में ली, इस जिज्ञासा के साथ बड़े हुए हैं कि हिमालय के ऊँचे शिखरों के पीछे जो देवता रहते हैं वे लोग कौन हैं? बचपन से ही बर्फीली चोटियों के पीछे हमारी रखवाली कर रहे उन देवताओं को हम अपनी कल्पना में रचने की कोशिश करते और आस-पास मौजूद अपने वीर परिजनों की छवि के अनुसार उनके रूपाकार गढ़ने की कोशिश करते. जंगलों-पर्वतों के एकांत में हम उन्हें पूजते और उनके साथ अपने सुख-दुःख बांटते. हमारे ये देवता एकदम हमारे ही जैसे होते, उनकी और हमारी भाषा भी एक होती जो दिमाग के बदले दिलों से पैदा होती; हमारा चेहरा-मोहरा ही नहीं, पशुओं और वृक्षों की छाल से बनी हमारी पोशाकें, चट्टानों, टीलों, गुफाओं और नदियों से निर्मित हमारे आवास, पशु-पक्षियों के हमारे वाहन और समस्त जीव-जंतुओं के साथ एक परिवार की तरह रहने वाला हमारा समाज, सभी-कुछ समान था… सुख-दुःख साझा करते हम और वे देवता… दुख-तकलीफ के पलों में हम बिना बताए एक-दूसरे का दर्द महसूस करते हुए उनके पास पहुँच जाते और ख़ुशी के क्षणों में वे देवता हमारे पास आकर हमारी ही तरह नाचने-गाने लगते.
लेकिन आगे बढ़ते चले जाने के साथ हमने पाया कि वे देवता गायब होते चले गए. हमने उन्हें उस दिशा में बहुत खोजा, जिस ओर वे गए थे, मगर वे हमें कभी नहीं मिले. हमें बताए बगैर न जाने कहाँ चले गए हमारे वे देवता?
एक दिन कुछ अपरिचित-से लोग हमारे पास आए. उन्होंने बताया कि वे हमारे बिछुड़ गए देवताओं को हमें भेंट करने आए हैं. उन्होंने ही हमें बताया कि देवताओं के बिना कोई भी जीवित नहीं रह सकता… न हम, न वे… इसीलिए वे हमारी स्मृतियों में अपने देवताओं को डालने आए हैं. ये देवता भव्य मंदिरों और प्रासादों में रहते थे मगर हम उन्हें पहचान नहीं पाए. हमें लगा, ये तो हमारे देवता हैं ही नहीं. हमने उन परदेसी शुभचिंतकों से कहा कि अपनी स्मृतियों की यात्रा करते हुए हम युग-युगों तक अपने देवताओं को तलाशते रहे हैं, मगर वे हमें कभी नहीं मिले. जितना ही हम उनके नजदीक पहुँचने की कोशिश करते, वे उतना ही पर्वत-श्रृंखलाओं के बीच छिपते हुए हमसे दूर होते चले जाते!… हमने उनसे पूछा कि हम इस बात पर कैसे यकीन कर लें कि जिन्हें वे लोग हमारे लिए लाये हैं, वे हमारे ही देवता हैं! उन्होंने जवाब दिया कि वे हमारे ही सगे भाई हैं जो उनसे अतीत में हमसे बिछुड़ गए थे. उन्होंने हमारे वनों, पर्वतों और नदियों को काटकर अपने लिए नए रास्ते और आवास बनाए, अपने नए देवता गढ़े, नया समाज बनाया. उन्होंने हमारे सामने प्रस्ताव रखा कि अब हम सारे परिजन अपनी यात्रा मिल-जुल कर नए सिरे से शुरू करेंगे.
अपने सगे भाइयों का यह प्रस्ताव हमें अटपटा जरूर लगा मगर हमारे पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था कि हम उनके देवताओं से अपनी दुनिया बसा लेते…
अब मैं अपने मुख्य विषय पर आता हूँ.
कलाओं में उसके भौगोलिक क्षेत्र का क्या महत्व है? प्रत्येक कला एक निश्चित भौगोलिक सीमा के बीच से ही अंकुरित होती है मगर क्या रच जाने के बाद रचना अपने भौगोलिक क्षेत्र से मुक्त हो जाती है या कि उसका भूगोल ही रच जाने के बाद अपने सीमा-क्षेत्र से रचना को मुक्त कर देता है.
इसी से जुड़ा हुआ सवाल यह भी है कि एक रचनाकार जिस भौगोलिक क्षेत्र का अपने लिए कच्चे माल के रूप में इस्तेमाल करता है, क्या रचना को जन्म देने के बाद उसे अपने भौगोलिक क्षेत्र से मुक्त हो जाना चाहिए? और क्या रचनाकार का परिवेश और उसका भौगोलिक क्षेत्र एक ही चीज हैं या रचनाकार और उसके भावक के लिए इसका सन्दर्भ अलग-अलग है?
ये ऐसे सवाल हैं जो रचनाकार के ही नहीं, शायद उसकी रचना के मन में भी कभी-न-कभी उठते हैं. रचना से मतलब उस परिवेश से है जिसके बीच वह रच जाने के बाद अपना विस्तार कर लेती है. लेकिन अगर परिवेश और भौगोलिक क्षेत्र रच जाने के बाद भी एकाकार नहीं हो सके हैं, अपनी स्वतंत्र अस्मिता बनाये हुए हैं, ऐसे में क्या इसे रचनाकार की असफलता मान लिया जाना चाहिए? सवाल यह है कि रचनाकार की सफलता क्या है? यह सफलता उसके अपने मन का संतोष है या कि उसकी रचना के परिवेश का संतोष?
कुछ विस्तार से अपनी बात समझा दूँ. पिछली सदी के आखिरी वर्षों में जब मैं यूरोप के एक खूबसूरत शहर बुदापैश्त (हंगरी) में था, वहाँ मुझे भारतीय दूतावास के स्टोर के कोने में फालतू चीज की तरह फैंका हुआ एक वीडियो कैसेट मिला जिसमें महान भारतीय कलाकारों के अनेक कार्यक्रम संकलित किये गए थे. इस कैसेट में अनेक दूसरे कार्यक्रमों के अलावा नृत्य सम्राट उदय शंकर के अल्मोड़ा स्थित ‘इंडिया कल्चरल सेंटर’ में उनकी पत्नी अमला शंकर के निर्देशन में आयोजित पहाड़ी घसियारिनों का नृत्य भी शामिल था. बाद में जब मैंने वह नृत्य देखा तो भौंचक रह गया. हमारे लोक जीवन की भंगिमाओं को जिस आत्मीय कलात्मकता के साथ उसमें प्रदर्शित किया गया था, वह मेरे खुद के लिए अपनी ही संस्कृति का नया पाठ था. इससे भी बढ़कर बात यह थी कि उस नृत्य-गीत के बोल छायावादी कविता के प्रमुख स्तम्भ सुमित्रानंदन पन्त ने लिखे थे, यही नहीं, गीत का पुरुष स्वर भी पंतजी का ही था.
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उदय शंकर भट्ट |
भारत लौटने के काफी समय के बाद एक दिन जब मैं नेट पर संसार के चर्चित नृत्य-गीत टटोल रहा था, मुझे उदय शंकर के इसी केंद्र में निर्मित ‘अस्त्रपूजा’ शीर्षक से एक और नृत्य मिला जो असल में कुमाऊँ का अत्यंत लोकप्रिय परंपरागत लोक-नृत्य ‘छोलिया’ है. यह नृत्य भी उदय शंकर के ही निर्देशन में प्रस्तुत किया गया है, मगर उसकी पूरी संरचना ठेठ कुमाऊनी है. इतिहास-क्रम में सस्ती लोकप्रियता की आड़ में छोलिया नृत्य काफी विकृत हो चुका है, मगर इस नृत्य को देखकर मूल नृत्य की गरिमा और भव्यता बहुत साफ महसूस होती है. यह नृत्य मूलतः योद्धाओं का नृत्य है, जो बाद में क्षत्रियों की बारात में अपनाया जाने लगा. धीरे-धीरे यह विभिन्न पर्वों और आयोजनों में भी प्रस्तुत किया जाने लगा मगर आज यह नृत्य सस्ते मनोरंजन और कलाकारों के द्वारा चमत्कार दिखाकर पैसा जुटाने का माध्यम बन गया है.
दूसरा उदाहरण मैं विश्व-कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर का देना चाहूँगा जो बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में अपनी बेटी के स्वास्थ लाभ के लिए नैनीताल के पास रामगढ़ में आए थे. प्रख्यात कवयित्री महादेवी वर्मा ने अपने एक लेख में इस बात का उल्लेख किया है कि टैगोर इस जगह के प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर इतने प्रभावित हुए कि विश्वभारती की अपनी परिकल्पना वह यहीं साकार करना चाहते थे, लेकिन बेटी की अकाल मृत्यु के कारण उन्होंने रामगढ़ में विश्वभारती स्थापित करने का अपना विचार त्याग दिया और उसे शान्तिनिकेतन ले गए.
सर्वोच्च भारतीय मेधा, संस्कृति और कला का प्रतिनिधित्व करने वाले इन दो मनीषियों का संसार को परिचय देने की जरूरत नहीं है. सवाल यह है कि संसार के अनेक क्षेत्रों में घूमने के बाद उन्हें इस छोटे-से पहाड़ी इलाके में ऐसा क्या लगा कि यहीं वे अपनी कला को मूर्त रूप देना चाहते थे!
इन सवालों पर अगर हम हिंदी साहित्य के वर्तमान सन्दर्भ में सोचें तो शायद ही सहमति के किसी बिंदु पर पहुँच सकेंगे. ऐसा नहीं है कि पहले ऐसा नहीं था, मगर आज यह कई कारणों से मुश्किल हो गया है.
मसलन एक कारण तो वह जगह है, जहाँ पर हम इस वक़्त एकत्र हुए हैं. देहरादून हिंदुस्तान के एक छोटे-से नवनिर्मित पहाड़ी राज्य की आधी-अधूरी राजधानी है. इस स्थान का मैं इसलिए जिक्र कर रहा हूँ क्योंकि हिंदी साहित्य को इस देश की सबसे पवित्र समझी जाने वाली नदी गंगा की तटवर्ती संस्कृति के आईने में झांककर ही देखा जाता रहा है. कैसी विडंबना है कि यह प्रदेश गंगा का उद्गम क्षेत्र है लेकिन अपने गर्भ से निकलने के बाद यह नदी अपनी अस्मिता को परिभाषित करने का अधिकार खो बैठती है. यह सच है कि नदी कभी अपने मूल की ओर बहती हुई नहीं देखी गई है लेकिन साहित्य और कलाओं की यात्रा तो हर समाज, देश और काल में अपनी जड़ों से जुड़ने की ही यात्रा रही है.
गंगा की जीवन-यात्रा इसी प्रदेश के एक अनजाने से इलाके गौमुख से शुरू होती है, लेकिन अपने मैदानी संगम-क्षेत्र प्रयाग और वाराणसी में पहुँचते ही वह उस रंग में इतना सराबोर हो जाती है कि अपने मूल को भूलकर अपने विस्तार को ही अपनी पहचान बना लेती है. मैं यहाँ बोलियों और भाषा की उस बहस में नहीं पड़ना चाहता कि भाषा से संस्कृतियाँ जन्म लेती हैं या बोली से, मेरी चिंता का सबब सिर्फ इतना है कि हिंदी क्षेत्र में ऐसा क्यों होता रहा है कि बोली और भाषा में से एक के समर्थ होने पर वह दूसरे के साथ सम्बन्ध-विच्छेद करना शुरू कर देती है. जिस खड़ीबोली हिंदी को हम आज की साहित्यिक भाषा का प्रस्थान-बिंदु और मानक मानते हैं, उस पर गंगा-यमुना के दोआब क्षेत्र की भाषाओँ और संस्कृति का आज तक इतना आतंक है कि भले ही हम उनकी भाषाओँ को अनुवाद के साथ पढ़ें, आधुनिक हिंदी की जड़ें हमें आज भी वहीँ दिखाई देती हैं.
महान देव भाषा संस्कृत, उसका कालजयी साहित्य और समूचा मध्यकालीन हिंदी साहित्य उसी की धारा के रूप में है यद्यपि इस बीच अनेक परस्पर विरोधी धाराएँ और दृष्टिकोण भी कम नहीं उभरे हैं. मजेदार बात यह है कि लोक और नागर अभिव्यक्ति का यह अंतर भाषा के मानकीकरण और बोली-भाषाओँ के अस्तित्व का ही मसला नहीं है, उस समूची सौन्दर्याभिरुचि, सौंदर्यशास्त्र और सांस्कृतिक मूल्यों से भी जुड़ा है जिससे इस पूरे क्षेत्र की पहचान निर्धारित होती है. इस बात का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि हिंदी के सौन्दर्य-शास्त्र की चर्चा आज भी एक सदी पहले के आचार्य रामचंद्र शुक्ल से शुरू की जाती है और अमूमन हमारे पंडित समुदाय के बीच वहीँ पर ख़त्म भी हो जाती है. इतने विशाल भारतीय साहित्य के बीच हिंदी लेखन में ही यह विरोधाभास क्यों मौजूद है ?
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रसूल हमज़ातोव |
वर्षों पहले मैंने आर्मीनियाई-रूसी कथाकारों का एक संग्रह पढ़ा था – ‘हम पर्वतवासी’. उसी के आसपास मशहूर दागिस्तानी लेखक रसूल हमजातोव का आत्मकथात्मक उपन्यास – ‘मेरा दागिस्तान’ भी पढ़ा. अगर इसे क्षेत्रीय भेदभाव न समझें तो काला सागर और कैस्पियन सागर के मध्य स्थित छोटे-से देश आर्मीनिया और उसके पडौसी जॉर्जिया से लगा दागिस्तान हमें इसीलिए अपने लगते हैं क्योंकि हम भी पर्वतवासी हैं. यही नहीं, हम लोग एक-दूसरे से सीखकर आज भी अपनी कठिन राहें सुलझा सकते है. क्या कारण है कि 1999 में दागिस्तान पर चेचन्या के विद्रोहियों ने जब आतंक फैलाया था, हमें अपनी सीमाओं का काश्मीर याद आया था. ‘मेरा दागिस्तान’ को पढ़ते हुए अपनी गंगा-जमुनी संस्कृति याद आई थी, जिस पर आज उन्हीं की तरह मानो घुन लग गया है… कहना यह चाहता हूँ कि भारत के हम पर्वतवासी लेखकों को हिंदी-लेखकों की अपेक्षा ये दागिस्तानी और आर्मीनियाई लेखक अपने समाज के अधिक निकट क्यों लगते हैं? फर्क सिर्फ इतना ही तो है कि हम हिमालय के समाज हैं और वे आल्प्स पर्वत श्रृंखलाओं के.
रसूल हमजातोव ने अपनी मातृभूमि दागिस्तान और अपने देश रूस को याद करते हुए लिखा है कि ‘मैं अपनी मातृभाषा ‘अवार’ का ऋणी हूँ क्योंकि उसने मुझे पैदा किया और राष्ट्रभाषा रूसी का इसलिए कि उसने मुझे पाला-पोसा.’ हिंदी समाज के साथ विडंबना रही है कि वह अपनी जड़ों से जुड़ी नैसर्गिक गौमुख-संस्कृति को कभी याद नहीं करता जब कि दोआब क्षेत्र की अर्जित संस्कृति में बहकर अपने मूल से लगातार कटता चला गया है. कट ही नहीं गया है, उसे याद करने की जरूरत भी नहीं समझता. अगर याद करता भी है तो सिर्फ एक पर्यटक के रूप में जहाँ सिर्फ ‘हवा खाने’ जाया जाता है.
“मैं अवार कवि हूँ.” रसूल हमजातोव लिखते हैं, “मगर अपने दिल में मैं केवल अवारिस्तान, केवल दागिस्तान, केवल सारे देश के लिए नागरिक के उत्तरदायित्व को अनुभव करता हूँ. यह बीसवीं सदी है. इसमें सिर्फ ऐसे ही जिया जा सकता है.”
रसूल आगे लिखते हैं, ”मुझे बताया गया कि मेरे जन्म के फ़ौरन बाद मेरे पिताजी को नौकरी के सिलसिले में अस्थायी रूप से हरादारीह गाँव में जाना पड़ा. पिताजी के घोड़े के साथ दो सफरी थैले, दो खुरजियाँ लटकी हुई थीं. एक में तो हमारा घरेलू सामान था – कपड़े-लत्ते, बचा-खुचा आटा, दलिया, चरबी और किताबें; दूसरे थैले में से मेरा सर बाहर झाँक रहा था…
“इस सफ़र के बाद मेरी माँ सख्त बीमार हो गई. हम जिस गाँव में पहुँचे, वहाँ एक ऐसी गरीब और एकाकी औरत मिल गई, जिसका बच्चा उन्हीं दिनों चल बसा था. वही मुझे अपना दूध पिलाने लगी. वह मेरी धाय, मेरी दूसरी माँ बन गई…
“तो इस तरह दुनिया में दो नारियाँ हैं, जिनका मैं ऋणी हूँ. मेरी उम्र चाहे कितनी ही लम्बी क्यों न हो और इन नारियों के लिए चाहे मैं कुछ भी क्यों न करूँ, उनके नाम पर कोई भी कारनामा न कर दिखाऊँ, उनके ऋण से कभी उऋण नहीं हो पाऊँगा…
“मेरी जनता, मेरे छोटे-से देश, मेरी हर किताब की भी दो माताएँ हैं… मेरी पहली माँ है – मेरी मातृभूमि दागिस्तान. मेरा यहाँ जन्म हुआ, यहीं मैंने पहले-पहल अपनी मातृभाषा सुनी, उसे सीखा और वह मेरे जीवन का अभिन्न अंग बन गई. यहीं मैंने पहले-पहल अपनी जनता के गीत सुने और खुद पहला गीत गाया. यहीं मैंने पहले-पहल पानी और रोटी को चखा. नुकीली, तीखी चट्टानों पर चढ़ते हुए बचपन में कितनी ही बार मुझे चोटें लगीं मगर मेरी मातृभूमि के पानी और जड़ी-बूटियों ने मेरे सभी घावों को अच्छा कर दिया. पहाड़ी लोगों का कहना है कि ऐसी कोई भी तो बीमारी नहीं है, जिसके इलाज के लिए हमारे यहाँ पहाड़ी जड़ी-बूटियाँ न हों.”
अंत में रसूल हमजातोव लिखते है, “मेरी दूसरी माँ है – महान रूस, मास्को. उसने मुझे शिक्षा-दीक्षा दी, मुझे पंख दिए, मुझे बड़े रास्ते पर पहुँचाया, असीम क्षतिज दिखाए, सारी दुनिया को मेरे सामने उभारा… बेटे के रूप में मैं दोनों माताओं का ऋणी हूँ.”
जाने कितनी ही बार रसूल की इस किताब को पढ़ते हुए मैं एक विचित्र निष्कर्ष तक पहुँचा हूँ. मेरे निष्कर्ष को सुनकर आप चौंक सकते हैं, असहमत भी हो सकते हैं, मगर मुझे तो यही सच लगता रहा है.
अगर मैं कहूँ कि आधुनिक खड़ीबोली-हिंदी का आरम्भ ‘एशिया की पीठ पर’ नामक पुस्तक में संकलित हिमालय क्षेत्र के एक जमीनी सर्वेक्षणकर्ता नैन सिंह रावत (1830-1895) की रचनाओं से होता है तो इसे महज क्षेत्रवादी सोच कहकर टाल देना ठीक नहीं होगा. यह किताब कुमाऊँ विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. उमा भट्ट और डॉ. शेखर पाठक द्वारा सम्पादित की गई है यद्यपि उनसे पहले हिंदी के एक अन्य विद्वान डॉ. राम सिंह इस सामग्री को प्रकाश में ला चुके थे. ‘एशिया की पीठ पर’ मुझे इसलिए उल्लेखनीय लगती है क्योंकि इस पुस्तक में पहली बार नैनसिंह का सारा रचनाकर्म एक साथ शामिल किया गया है, जिसमें उनकी पहली डायरी – अल्मोड़ा से काठमांडू होकर ल्हासा यात्रा 1865-66, ठोक ज्यालुंग डायरी 1867 और यारकंद-खोतान का रोजनामचा 1873-74 के अलावा 1871 में प्रकाशित ‘अक्षांस दर्पण’ नामक विज्ञान-लेखन से जुड़ी पुस्तक शामिल है जो प्रामाणिक वैज्ञानिक तथ्यों को लेकर लिखी गई हिंदी की पहली विज्ञान-पुस्तक है.
हिंदी साहित्य के विद्वानों ने हिंदी गद्य के उद्भव का श्रेय फोर्ट विलियम कॉलेज के भाषा-मुंशियों और भारतेंदु मंडल के रचनाकारों को दिया है. इनमें से बाद के अधिकांश लेखक नैनसिंह से उम्र में छोटे हैं हालाँकि इन सभी की भाषा की तुलना में नैन सिंह रावत की भाषा खड़ीबोली हिंदी समाज के अधिक निकट है.
नैन सिंह रावत को सोलहवीं से उन्नीसवीं सदी तक हिंदी गद्य में लिखने वाले दर्जनों लेखकों के स्थान पर स्थापित करने के पीछे मेरा तर्क है कि उन्नीसवीं सदी में निर्मित हो रहे नए हिंदी समाज का जातीय चरित्र पहली बार नैन सिंह रावत के गद्य में दिखाई देता है. रामप्रसाद निरंजनी और दौलत राम तो रीतिकालीन-ब्रजभाषा कविता की परम्परा के गद्यकार हैं, फोर्ट विलियम कॉलेज के चारों भाषा-मुंशी भी भाषा के खड़ी-बोली विन्यास के बावजूद हिंदी समाज का कोई अपना चरित्र निर्मित करते नहीं दिखाई देते. निश्चय ही भारतेंदु-मंडल के गद्यकारों से यह प्रवृत्ति शुरू होती है, ध्यान देने की बात यह है कि इनमें से ज्यादातर लोग या तो नैनसिंह रावत से उम्र में छोटे हैं या उनके समकालीन हैं. इस सन्दर्भ में भी खास बात यह है कि नैनसिंह का गद्य उस गौमुख-समाज की भाषा है, जहाँ से जन्म लेकर आधुनिक खड़ीबोली हिंदी का भारतीय चरित्र उभरा. इसलिए नैनसिंह के गद्य को सिर्फ एक नई जन्म ले रही भाषा के नमूनों के रूप में नहीं, नए बन रहे हिंदी समाज की अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाना चाहिए.
जरा नैनसिंह की भाषा पर नजर डालें. नीचे दिए गए उद्धरण उमा भट्ट और शेखर पाठक द्वारा सम्पादित किताब ‘एशिया की पीठ पर’ के दूसरे खंड से लिए गए हैं.
“लामे लोग वड़े वड़े आसनों में वैठकर पोथी पढ़कर पूजा में लगे रहते हैं पर तमाशा यह है कि पूजा के समय मास कोई नहीं खाता जहां तक मास की मुमानियत है कि जिस किसी लामा ने अपने रहने के मकान में मास खाया हो तो पूजा के समय जव तक थोड़ी सी सत्तू न फांक लेवे पूजा की पोथियों को न पढ़ने लगे सत्तू का फांक लेना इन लोगों का दतून और कुल्ली करना है” (पेज 210)
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नैन सिंह रावत |
अब जरा नैनसिंह रावत का यह विवरण देखें. भाषा और कथन-भंगिमा में किस कदर लयात्मकता और व्यंग्यात्मकता है –
“क्या खूव हमारे कुमाऊ के पन्त पांडे जोशी लोग अपनी सेखी और बढपन के मारे जव वाजार के भीतर जाते हैं तो पानी का छीटा लेते हैं जब वही लोग नैपाल को जाते हैं इनके रसोई चौके के टहल में नेवार जाति के भैंस और मुर्गी अंडेखोर नजर आते हैं” (पेज 211)
यह है खड़ीबोली हिंदी का प्रारंभिक गद्य.
नैनसिंह रावत एक सर्वेक्षक थे जिन्होंने भले ही औपनिवेशिक शासकों के गुप्तचर के रूप में बर्फीले हिमालय के बीच एक नया रास्ता खोजा, मगर वह खुद नहीं जानते थे कि इस यात्रा के दौरान उन्होंने एक और बड़ी यात्रा तय की, जो थी आधुनिक भारत की संपर्क भाषा के राजपथ के निर्माण के लिए रोपा गया मील का पहला पत्थर.
अंत में, ‘हम पर्वतवासी’ कहानी-संग्रह की भूमिका में प्रसिद्ध आर्मीनियाई आलोचक ग्रान्त मारतीरोसियान के द्वारा अपने देश के युवा लेखकों के लिए लिखे गए इन शब्दों को उद्धृत करना चाहूँगा जो आज नैनसिंह रावत के युवा उत्तराधिकारियों के लिए भी उतने ही प्रासंगिक हैं :
“युवा पीढ़ी को प्रशिक्षित करने का कार्य आज के आर्मीनियन कहानियों के सम्मुख उपस्थित बहुत से भिन्न-भिन्न दायित्वों में एक है. कहानी लेखन की ओर अधिक-से-अधिक नए-नए आर्मीनियाई लेखक आकृष्ट हो रहे हैं. जिस तरह आर्मीनियाई साहित्य प्रतिभा संपन्न है, उसी तरह इस साहित्य का निर्माण करने वाले लोग भी प्रतिभाशाली हैं. जब तक आर्मीनियाई कथाकारों ने अपने सुन्दर देश का भविष्य अपने हाथों में नहीं ले लिया, इनका दो हजार साल पुराना इतिहास कई परीक्षाओं से गुजरता रहा है.”
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लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’