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समकालीन हिंदी कविता ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य (ओम निश्चल) : शुभा श्रीवास्तव
प्रसिद्ध लेखक-आलोचक ओम निश्चल की इसी वर्ष प्रकाशित ‘आलोचनानुशीलन’ की पुस्तक ‘समकालीन हिंदी कविता ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य (1980-2020) \’विजया बुक\’ प्रकाशक से छपी है जो सदी के अंतिम बीस वर्षों की हिंदी कविता का लेखा-जोखा रखती है. इस किताब को परख रहीं हैं शुभा श्रीवास्तव. कविता की सदी के अंतिम दो दशक […]
प्रसिद्ध लेखक-आलोचक ओम निश्चल की इसी वर्ष प्रकाशित ‘आलोचनानुशीलन’ की पुस्तक ‘समकालीन हिंदी कविता ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य (1980-2020) \’विजया बुक\’ प्रकाशक से छपी है जो सदी के अंतिम बीस वर्षों की हिंदी कविता का लेखा-जोखा रखती है. इस किताब को परख रहीं हैं शुभा श्रीवास्तव.
कविता की सदी के अंतिम दो दशक
शुभा श्रीवास्तव
कविता के साठोत्तरी इतिहास पर एक मुकम्मल किताब बहुत समय बाद आई है जिसकी आवश्यकता एक लंबे समय से हिंदी साहित्य के पाठक महसूस कर रहे थे. ओम निश्चल की यह पुस्तक साठोत्तरी कविता से लेकर वर्तमान समय की कविता की शोधपरक पड़ताल करती है. यहां हमें काल की प्रवृतियां और प्रमुख कवि ही नहीं मिलेंगे बल्कि उस समय की गहन पड़ताल भी मिलेगी. काल विभाजन की सीमाओं को जानने के कारण निश्चल जी ने इतिहास को दशक के रूप में वर्गीकरण किया है.
आलोचना में सत्य कहने का साहस बहुत महत्वपूर्ण होता है नहीं तो आलोचना एक प्रशस्ति पत्र बन कर रह जाती है. ओम जी ने इस पुस्तक में सत्य को कहा है और यहां किसी का भी प्रशस्ति गान नहीं है. इस तथ्य के कई उदाहरण पुस्तक में आए हैं. जैसे वह कहते हैं कि आखिरकार कविताएं नंदकिशोर नवल जैसे आलोचकों के काव्य अनुशासन के लीक पर चलने के लिए क्यों प्रतिश्रुत हों. इसके अतिरिक्त एक स्थल पर वह लिखते हैं कि आलोचना पत्रिका ने कई तेजस्वी कवियों पर प्रायोजित प्रहार किया. ज्ञानेंद्रपति उनमें से एक हैं. रचना की वस्तुनिष्ठता पर बात करने वाले आलोचक आलोचना की गलीज शब्दावली उछालने लगे. (पृष्ठ 60)
कविता को परिवेश से जोड़ने के कारण यह पुस्तक पाठक को सरलीकृत करके हिंदी कविता का इतिहास समझने में मदद करती है. परिवेश को ओम जी ने कई बिंदुओं में पैठकर देखा है जैसे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, छठे दशक में भारत, सातवें दशक का अंतः संघर्ष, आठवें दशक का राजनीतिक परिदृश्य तथा नवें दशक का राजनीतिक परिदृश्य. इसके पश्चात वह सामाजिक सांस्कृतिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य पर भी चर्चा करते हैं.
ओम जी एक व्याख्यात्मक दृष्टि लेकर चलते हैं जो कविता, उसकी प्रवृत्तियों को व्यक्त करने में सहायक होती है. वे कहते हैं कि नवें दशक के नए कवियों ने आठवें दशक की कविता से अलग रखने का ऐलान तो किया किंतु आठवें दशक के कवियों की सजगता उनमें न थी. लिहाजा सत्ता और पूंजी के गठजोड़ के प्रति जो रूख आठवें दशक के कवियों का रहा वह रुख नवें दशक के कवियों में विरल दिखता है. आठवें दशक में पेड़ पत्ती फूल बच्चे जहां प्रतीक रूप में थे नवें दशक की कविता में वे वस्तु बनते गये. तथापि नवें दशक के कवियों में कलात्मक सौंदर्य बोध कविता को कहीं अधिक परिचालित करने लगा था.(पृ0 11)
छायावाद से प्रयोगवाद के बीच में चौथा सप्तक पर काफी व्यापक अनुशीलन मुझे इस पुस्तक में देखने को मिला. यूँ तो चौथा सप्तक के कवि समग्रत: आत्मान्वेषण की धूरी पर ही घूमते हैं परंतु यह सभी कवि साठोत्तर काल के हैं अतः इन में काल विशेष की चेतना भी यत्र-तत्र दिखती है. चौथा सप्तक की कविताएं किसी विचारधारा का समर्थन नहीं करती इसलिए आकस्मिक नहीं कि इनमें विचारों की टकराहट का अभाव है. चौथा सप्तक के सभी कवियों पर बारी-बारी से वृहत चर्चा ओम जी करते हैं. कवियों पर चर्चा के बाद आलोचना के सूत्र देना ओम जी की नहीं भूलते हैं. वस्तुतः समालोचक की यही विशेषता भी होती है कि वह सारा संक्षेपण करके उसे सूत्र बद्ध करें. यह ओम जी की निजी विशेषता है. इससे पाठक वर्ग में तथ्य को समझने में आसानी होती है.
ओम जी नई कविता में पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका से लेकर पाश्चात्य प्रभाव तक विचरण करते हैं. यह उनके गहन अध्ययन का परिचायक है. वह कहते हैं कि परिमल और विवेचना की बहस तलब गोष्ठियाँ नई कविता के विकास में ऐतिहासिक महत्व रखती हैं. नई कविता में प्रयोग एवं कथ्य की नवीनता निश्चय ही रूस यूरोप और अमेरिका के नए साहित्य की देन है.
आज की कविता के अंतर्गत कविता के विभिन्न वादों पर परिचर्चा बेहद रोचक पूर्ण तरीके से इस पुस्तक में देखने को मिलती है. विभिन्न काव्य आंदोलनों की चर्चा और उनका अवसान बड़े विस्तृत रूप में प्रस्तुत किया गया है. प्रत्येक वाद की उसके प्रारंभ होने की परिस्थिति उसका विशेषता व उसके अवसान के कारणों से पाठक पहली बार रूबरू होता है. काव्य के क्षेत्र में इतने आंदोलन चले हैं कि उन्हें याद रखना अत्यंत कठिन है पर यह पुस्तक उन काव्य आंदोलनों, उनके जनक को ही नहीं बताती बल्कि उसकी प्रवृत्तियों को भी उद्घाटित करती है.
वस्तुतः इस पुस्तक का उद्देश्य साठोत्तरी कविता के उन मुख्य आधारों का पता लगाना है जो काव्य आंदोलनों को आगे बढ़ाने में सहायक हुए हैं तथा कविता में वैचारिक ऊर्जस्विता के स्रोत हैं. बिना किसी आंदोलन के किसी प्राजोजित प्रचार के साठ –सत्तर वें दशक के अधिकांश कविताएं प्रचुर जनचेतना, वैचारिक पक्षधर थी और कलात्मक सरोकारों से सराहना का केंद्र बनी है. कविता ने कविता पन को कायम रखने के लिए निरंतर संघर्ष किया है. इसी को रेखांकित करने का कार्य इस पुस्तक के रूपा कार का कारण है.
\’ प्रस्तुत पुस्तक में ओम निश्चल रचनाकारों पर भी एक विशद विवेचन करते हैं. उनके विवेचन का आधार युगीन परिस्थितियां और उनके बीच में आलोचित रचनाकार का वैशिष्ट्य केंद्र में रहता है. परंतु किसी भी रचनाकार के संदर्भ में वह उनकी रचनाओं के भीतर से होकर के गुजरते हैं. भीतर से गुजरने की प्रक्रिया ऐसी होती है कि पाठक बिना उस रचनाकार की रचना को पढ़े ही उसके रचना के केंद्र की संवेदना को समझ सकता है. यह कार्य अत्यंत कठिन है परंतु इस कसौटी पर ओम निश्चल खरे उतरते हैं. प्रत्येक रचनाकार का अपना अलग वैशिष्ट्य होता है उस वैशिष्ट्य को ओम निश्चल पकड़ते ही नहीं है बल्कि पाठक के भीतर उस अनुभूतियों को महसूस भी कराते हैं. इसलिए समालोचक की दृष्टि से यह कार्य जितना कठिन है उतना ही इसे ओम जी ने सरल बनाया है. आलोचना के शास्त्रीय औजारों के बिना कविता की बिना छंद लय आदि की पड़ताल की है. आलोचना के शास्त्रीय औजारों के बिना ही कविता के केंद्र को सामने प्रस्तुत करना ओम जी की अपनी खास विशेषता है
किसी भी कवि पर विचार करते हुए ओम निश्चल यह मानते हैं कि कवि दृष्टि वह है जो थके हुए की थकान पहचान ले, सूने पल में मन के भीतर के सन्नाटे को परख लें. उनकी विचारधारा कविता के भाव पक्ष के ज्यादा निकट है और साथ ही एक भावात्मक प्रवाह भी आलोचना में अनायास ही चलता रहता है. कवि की आलोचना को पढ़कर लगता है कि कवि ने तो बहुत सुंदर गीत लिखा है. उस गीत पर टिप्पणियां भी स्वयं एक कवि की है, समालोचक की हैं. जो एक लय और भावनाओं में गूंथी हुई होती हैं. आलोचना का यह बिंदु शायद इसलिए है कि ओम निश्चल जी स्वयं एक अच्छे कवि हैं.
सविता सिंह और अनीता वर्मा को विवेचन करते हुए वह कहते हैं कि–
“एक मौन उनके संग्रह में मुखरित है. एक यात्रा जैसे शब्दों को साक्षी मानकर चुप है, किंतु दुख की हिलकोर से भीतर कुछ-कुछ टूटता गिरता रहता है. यह कैसा जीवन है जो विश्वास भंग की भंगिमा से भरा है.“
अब इस कथन के लिए किस शास्त्रीय औजार या मानदण्ड की बात की जाय.
कवियों के संदर्भ में चर्चा करते समय ओम निश्चल जी उनका परिचयात्मक विवरण ही नहीं देते हैं बल्कि उनके काव्य की विशेषताओं को विश्लेषणात्मक दृष्टि से भी देखते हैं. अशोक वाजपेई को विश्लेषण करते हुए वह कहते हैं कि अपने कवि कर्म से जिस तरह पिछले 50 वर्षों से प्रतिष्ठित रहे हैं वह उनके समकालीनों में उन्हें सर्वाधिक सक्रिय इकाई के रूप में स्थापित करता है. अपनी ताजा नूतन कल्पनाओं उपमान रूप में उसे भरी कविता के दिनों शहर अब भी संभावना है से होते हुए वे कम से कम के अंधेरे समय तक आए हैं. तो रास्तों और सफरिंग के निशान उनकी कविताओं में ना आए हो ऐसा मुमकिन नहीं है. (पृष्ठ 123)
कवि की विशेषताओं ही नहीं बल्कि उसकी रचना प्रक्रिया के दौरान होने वाली सृजन प्रक्रिया पर भी ओम जी दृष्टि डालते हैं. विष्णु खरे के संदर्भ में जब वह बातें करते हैं तो कहते हैं कि सुंदरता और कल्पनातीत कविता को लिखना भी एक अदम में पीड़ा से गुजरना है. इसी प्रकार राजेश जोशी ने अपनी कविताओं में समय के संकटों की पहचान की है और अपनी पीढ़ी में वे ऐसे कवि हैं जिनका गद्य पद्य सब सांचे और संयम में ढला है.
कवियों के संदर्भ में चर्चा परिचर्चा में भी तुलनात्मकता को भी महत्व देते हैं और साथ ही कवि या कविता विधा किस दिशा में जा रही है इस पर भी वह चर्चा करते चलते हैं. भगवत रावत के संदर्भ में बात करते हुए वह कहते हैं कि क्या यह सादगी त्रिलोचन या रामदरस जैसी है या किसी नैरेटिव के स्थापत्य में या विमुक्त कर देना वाले पदों प्रतियों के अभाव से लैस है. इसके साथ ही वह कहते हैं कि कविता में भगवत रावत किस परंपरा से जुड़ने वाले कवियों में हैं. क्या वे निराला से जुड़ते हैं, त्रिलोचन या नागार्जुन से या अपनी ही मातृभूमि बुंदेलखंड के कवि केदारनाथ अग्रवाल से. कहना होगा कि वे इन सबसे अलग हैं ना उनकी
कविता निराला की परंपरा में है ना त्रिलोचन और नहीं नागार्जुन की परंपरा में. वह अपनी अलग पहचान के साथ कविता के संसार में दाखिल होती हैं और खुद पर किसी परंपरा और वैशिष्ट्य की छाया नहीं पढ़ने देते. ओम जी का यह कथन इस बात को पुष्ट करता है कि वह परंपरा के साथ ही समकालीन कवियों या उस विधा की विशेषताओं के आधार पर भी कवियों का मूल्यांकन करते चलते हैं.
कविता की बातें करते-करते अपनी निजी मान्यताओं को भी बीच-बीच में ओम निश्चल व्याख्यायित करते चलते हैं. उनका मानना है कि कविता शब्द संयम मांगती है यह न तो बयान है ना सपाट बानी न सुभाषित है ना निंदा पुराण या शिकवा शिकायत. यह दुनिया भी हकीकत से उपजा जीवन सारांश है. सच कहें तो कभी अपनी कविताओं में एक बार और जन्म लेता है. जाहिर सी बात है कविता के संदर्भ में इतने उच्च विचार रखने वाला समालोचक कविता की कितनी खूबसूरती से पड़ताल करेगा यह उपर्युक्त पुस्तक में अनायास ही उपस्थित हो जाती है.
ओम निश्चल का मानना है कि कविता सदैव नई चेतना और नए विचार से समाज को उत्कृष्टता देती है. कविता में स्वतंत्रता आवश्यक गुण है और कविता का परिप्रेक्ष्य काफी विकसित रहा है.
अब कुछ चर्चा भाषा पर कर ली जाए. मैंने ओम जी से ही सीखा है कि भाषा सहज व सरल होनी चाहिए जिससे पाठक सहजता से सामग्री को ग्रहण कर सकें. अपनी पूरी पुस्तक में ओम जी ने बेहद ही सरल और सहज भाषा का प्रयोग किया है. चाहे वह विधा रही हो, युगीन परिस्थितियां रही हो या फिर कवि के बारे में चर्चा रही हो. सभी स्थलों पर उन्होंने एक सरल व सपाट भाषा का उदाहरण प्रस्तुत किया है. परंतु यह भाषा का वैशिष्ट्य है कि वह अपनी सहजता में ही सारे तथ्यों को पाठक के सम्मुख उपस्थित कर देता है.
वीरेन डंगवाल के संदर्भ में चर्चा करते हुए ओम जी की भाषा का सौंदर्य का एक उदाहरण देखते ही बनता है. वह अपने उपमान को भी काव्य के समान ही रखते हैं और कहते हैं —–
“वीरेंद्र की कविताओं में वैचारिक सरोकार आकाश में उदित नखत की तरह चमकते दिखते हैं. वीरेंद्र संगीत के प्रेमी कवियों में हैं. शास्त्रीय संगीत से सघन नाता रखने वाले किंतु मोहल्ले में आवाज लगाते फिरते कबाड़ी की संगीतमय पुकार पर मुग्ध हो उठते हैं और उस ध्वनि को तत्काल अपनी कविता में ले आते हैं.“
(पृ0 133)
इस पुस्तक में कुछ कमियां भी हैं जैसे इसमें उद्धरण बिना कोड किए हुए दिए हैं. ऐसे में पता ही नहीं चलता है यह कहां किसी पुस्तक का अंश है और कहां लेखकीय वक्तव्य. कहीं-कहीं एक परिच्छेद के उद्धरण, फिर दूसरे पुस्तक के उद्धरण एक माला के रूप में बन गये है. बीच में लेखक कुछ भी नहीं कह रहा है. ऐसा कई स्थानों पर हुआ है. ऐसे में भाव का तारतम्य छूट जाता है.इस पुस्तक में प्रिंट की समस्याएं भी रही हैं जैसे छायावाद की जगह छायादार भूदान की जगह मूदान, लामबंद के स्थान पर लाभ बंद जैसी छोटी-छोटी प्रिंट की समस्याएं प्रूफ रीडिंग में पकड़ में नहीं आई है. जो पढ़ने में थोड़ी सी खटकती हैं. इन सब के बावजूद यह पुस्तक साठ के बाद से लेकर समकालीन कविता का पूरा इतिहास प्रस्तुत करने में सक्षम है. (समकालीन हिंदी कविता ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य (1980 -2020)/ओम निश्चल/ विजया बुक्स/ प्रकाशनवर्ष : 2020 / मुल्य: 495 रूपये) ______