समय की मलिनताओं को निहारते कुँवर नारायण
ओम निश्चल
एक दौर था, कविता अपने समय के पूंजीवाद और साम्राज्यवाद से लड़ रही थी. इज़ारेदारों के विरुद्ध राजनीतिक सत्याग्रह सरीखी कविताओं में मुक्तिबोध का कोई सानी नहीं है. एक अकेला कवि जिसके सामने पूरी मानवता के विरुद्ध सक्रिय शक्तियों की पहचान में कोई चूक न हो, उस दौर की मनुष्यता की नियति को प्रभावित करने वाली ताकतों के विरुद्ध न केवल ‘नया खून’ के संपादकीयों में बल्कि अपनी कविताओं में भी प्रत्याख्यान कर रहा था.
मुक्तिबोध की परंपरा में परिगणित होने की लालसा तो तमाम कवियों में रही किन्तु उन जैसा आत्मसंघर्ष अन्य कवियों में बहुत कम का रहा. आलोचकों में हमारे समय की व्याधियों को चिह्नित करने के बजाय अज्ञेय और मुक्तिबोध का विवाद खड़ा करने की चेष्टाएं ज्यादा प्रबल रहीं जिसके चलते अज्ञेय को हाशिए पर डाल कर मुक्तिबोध का महिमामंडन भी खूब किया गया जब कि होना यह चाहिए था कि दोनों हिंदी काव्य की अप्रतिम प्रतिभाएं हैं तथा कविता में एक दूसरे की पूरक हैं और अपनी अपनी अद्वितीयताओं के अपूर्व उदाहरण हैं.
मुक्तिबोध में राजनीतिक आर्थिक व्याधियों और उनकी चुनौतियों से टकराने की अपूर्व ताकत थी तो अज्ञेय में हिंदी की खूबसूरती को कविता व गद्य में सहेजने की अपूर्व लालसा. लिहाजा मुक्तिबोध की कविता और आलोचना अपने समय के अदब की जड़ताओं पर प्रहार कर रही थी तथा मनुष्य के भीतर सुषुप्त चेतना जगाने का काम कर रही थी तो अज्ञेय का साहित्य मनुष्य के भीतर के अंतर्द्वंद्व, कल्पनाशीलता, प्रकृति और पुरुष के सनातन साहचर्य और संबंधों को एक नए तरीके से व्याख्यायित कर रही थी. यायावरी ने अज्ञेय को एक अप्रतिम शब्दशिल्पी में बदल दिया. उनकी कलादृष्टि की तुलना मुक्तिबोध से संभव ही नहीं है. ‘चांद का मुँह टेढ़ा है’ जैसी कल्पना केवल मुक्तिबोध कर सकते थे और ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ की कल्पना केवल अज्ञेय.
ऐसे समय अज्ञेय और मुक्तिबोध के उत्तराधिकार का वहन करते हुए जो कवि अगली पीढ़ी में सामने आए उनमें कुँवर नारायण प्रमुख थे. मुक्तिबोध ने उन पर कभी कुछ लिखा भी था. मुक्तिबोध के साहित्य–आलोचना व कविता में कुँवर जी की पैठ व दिलचस्पी तो थी पर कभी उन्होंने मुक्तिबोध के नक्शेकदम पर चलने का प्रयास नहीं किया. इसके बरक्स वे समाजवादियों के नजदीक ज्यादा रहे तथा कविता की सामाजिक व निजी दोनों भूमिकाओं को जानते मानते रहे. ऐसा नहीं कि मुक्तिबोध के जमाने वाला पूंजीवाद व साम्राज्यवाद कुँवर नारायण के जमाने में कहीं तिरोहित हो गया था और पूरी दुनिया सत्य और अपरिग्रह के मार्ग पर चलने लगी थी; बल्कि मानवीय सभ्यता की उत्तरोत्तर आधुनिकतावादी दृष्टियों के बावजूद दुनिया नस्लवाद, मजहबपरस्ती और हिंसा व युद्ध के रास्ते पर डटी रही. भौतिक उन्नति का रास्ता आत्मिक उन्नति से कहीं अधिक काम्य था. कुँवर नारायण भौतिकता के हिमायती न थे. वे आत्मिक उन्नति व आत्मबल के पैरोकार कवि थे. लिहाजा उन्होंने पूंजीवाद व साम्राज्यवाद पर मुक्तिबोध की तरह प्रहार न कर मनुष्य की नियति, उसके नैतिक आग्रहों, समाज के साथ उसके नैतिक तालमेल, सत्य पर अडिग रहनेकी गांधीवादी लोहियावादी कोशिशों का साथ दिया. परिवार में मृत्युओं से उनके भीतर जो नैराश्य और अवसाद जन्मा, जो दार्शनिक सोच पैदा हुई उसका प्रतिफलन ‘चक्रव्यूह’ में दिखा. यह हालांकि पहला ही संग्रह था पर उसमें एक अबूझ किस्म की दार्शनिकता थी. अनेक प्रश्नाकुलताएं थीं जो कविता में उभर कर सामने आईं. चक्रव्यूह, परिवेश:हम तुम, आत्मजयी और अपने सामने तक उनकी कविता का एक अलग ही दौर है.
आत्मजयी ने उन्हें कवि का गौरव तो दिया किन्तु कठोपनिषद के मिथक से टकराने और उन्हें कविता में पुनर्जीवित करने की उनकी चेष्टाओं को आत्मकेंद्रित ही माना गया. जीवन और मृत्यु की जिज्ञासाओं का भला आम आदमी से क्या लेना देना था. यों तो उपनिषद हों या हमारे अन्य आदि ग्रंथ- मिथकों का एक अपना अवास्तविक किस्म का संसार है जिसमें प्रवेश करना एक साहित्यकार के लिए जोखिम का काम है. इससे उसे अतीतजीवी कहा जा सकता है जैसे कभी नामवर सिंह ने रामविलास शर्मा को वैदिक अघ्ययनों के कारण उनके इन प्रयासों को ‘इतिहास की शवसाधना’ कह कर खिल्ली उड़ाई थी. यद्यपि तब प्रबंधकाव्यों या खंड काव्यों का आधार किसी उपजीव्य ग्रंथ का कथानक ही हुआ करता था. फिर भी प्रबंधकाव्यों की कोटि में आत्मजयी को अग्रगण्य कृति माना गया, जिसे पढ़कर दिनकर भी डोल उठे थे.
आत्मजयी नचिकेता के आत्मसंघर्ष और उसकी निर्भयता की कहानी है किन्तु मिथकों से समकालीनता का कुछ-कुछ रिश्ता वे ‘वाजश्रवा के बहाने’ में जोड़ते हैं. तब यह कृति मिथक को केवल मथती ही नहीं, उसे आज के जीवन में किंचित उपजीव्य भी बनाती है.
दो |
नब्बे के बाद का भारत और विश्व पहले जैसा न रहा. विश्व व्यापार की हदबंदियॉं टूटीं तो उदारीकरण ने पूरे विश्व को बाजार और विनिमय का ग्लोबल आंगन बना दिया. इंटरनेट और सोशल मीडिया का प्रभुत्व बढ़ने लगा. चैनलों का संजाल बढ़ने लगा. संस्कृतियां एक दूसरे देश की संस्कृति से संक्रमित होने लगीं. पश्चिमी संस्कृति की बयार ने विकासशील देशों को अपने प्रभामंडल में लपेटा. ब्रांड के प्रति आकर्षण बढ़ा. भारतीय संस्कृति की विशिष्टताओं सत्य अहिंसा अपरिग्रह साधना ध्यान इत्यादि मूल्यों को एक झटका सा लगा. चीजें पश्चिमी प्रभाव से लिपट रही थीं. विदेश यात्राओं को कैरिकुलम विटे का आलोकित हिस्सा माना जाने लगा. इस झटके से हमारा देश भी अप्रभावित न रहा. भारतीय बैंकों की दशा दिशा बदली, बैंकिंग के मानदंड बदले, एनपीए का कान्सेप्ट बदला, कर्ज की संस्कृति प्रगाढ़ हुई. ऋणम् कृत्वा घृतम पिबेत् की धारणा आम लोगों में प्रबल होती गयी. लगा जैसे बाजार हमारे घरों में हीं नहीं हमारे भीतर मन में प्रवेश कर रहा है. बाजारवाद के नियामक हर चीज को बाजारवादी नजरिये से देखने के हामी होते गए. विपणन रणनीति ने बाजारवाद को खासा बढ़ावा दिया. अब हम अपने घर के कोने में रहते हुए विश्व के उत्पाद की विशिष्टताओं से अछूते नहीं रह सकते थे. यही वह दौर था जब एक कवि कह रहा था कि ‘खबर का मुंह विज्ञापन से ढका है’ . यानी एक तरह का बाजारवाद, विज्ञापनवाद, प्रदर्शनकारिता हमारे जीवन में प्रवेश कर रही थी. यौगिक कौशल भी बाजार में बेजा जा रहा था.
न केवल इससे भारत जैसे देश का अर्थशास्त्र व वाणिज्य प्रभावित हो रहा था बल्कि विश्व का भी. उदारीकरण का लाभ ही सच कहा जाए तो विकासशील देशों के बजट को सकारात्मक रूप से प्रभावित करने वाला था. राजनीति में संप्रदायवाद नए सिरे से सिर उठा रहा था. इससे पहले देश में कांग्रेसी सरकारों की प्रतिश्रुतियां व विफलताएं हमारे सम्मुख थीं तथा गैरकांग्रेसवाद की मुहिम का समर्थन साहित्यकार भी कर रहे थे. पर उन्हें न पता था कि कांग्रेस के विरोध में आई पाटियों का गठबंधन भी बहुत अस्थायी है. कांग्रेस के पराभव के बाद जनता पार्टी का खिचड़ी विप्लव हम देख चुके थे. एक नए तरह का राष्ट्रवाद राष्ट्रप्रेम के रैपर में उभर रहा था और नब्बे आते आते एक तरफ विश्व व्यापार की खिड़की खोलने की मुहिम शुरू हो चुकी थी दूसरी तरफ देश में राष्ट्रवाद का उफान जोर मार रहा था जिसे दक्षिणपंथी राजनीति का पूरा समर्थन था. इस मुहिम में बाबरी मस्जिद ध्वंस व राम मंदिर निर्माण की दुरभिसंधि संप्रदायवाद का एक नया मोर्चा खोल रही थी. हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण ऐसी राजनीति का उद्देश्य था तथा बाबरी मस्जिद का कायम रहना इस काम में बाधा प्रतीत होता था. राम का सीधा विरोध न कांग्रेसी करते थे न दीगर पार्टियां. उन्हें भी इससे अपने वोटर गँवाने का अप्रत्यक्ष चिंता थी. लिहाजा 92 में बाबरी ध्वंस से हिंदू शक्तियों को उभरने का मौका मिल गया. बाबरी के ध्वंस को ही हिंदू राष्ट्रवाद की राह में एक बड़ी सफलता मानने वाले दबे स्वरों में काशी मथुरा बाकी है का नारा भी दे रहे थे, हालांकि अभी यह इच्छा किसी विध्वंसक मुहिम का हिस्सा नहीं बन पायी है. यह सच है कि एक समय हिंदू मुस्लिम का मजहबी ताना बाना बहुत अच्छा न था तथा मुगलों के शासनकाल में कहीं न कहीं हिंदू धर्मस्थलों के मुकाबिल अपनी इबादतगाहें तैयार करायी गयीं किन्तु कालांतर में ये चीजें विवेकी सरकारों के कारण ध्वंस या राजनीतिक उबाल का मंच न बन सकीं. लेकिन नब्बे के बाद का दौर रथयात्राओं का रहा जिससे कि हिंदुत्ववादी शक्तियों की बासी कढ़ी में उबाल लाया जा सके और 92 में इसे अंजाम देकर जैसे इसे राजनीति में एक नए युग का सूत्रपात माना गया.
काशी में हो रहे परिवर्तनों को ‘उनये हैं सांस्कृतिक विद्युत्गर्भ’ कह कर ज्ञानेंद्रपति सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बखिया उधेड़ रहे थे. राम की अयोध्या पर कुँवर नारायण की कविता ‘अयोध्या 92’ इसका एक साक्ष्य है कि कवियों में इसे लेकर कैसी विकलता महसूस की जा रही थी. इस दौर की अप्रत्याशित उथल पुथल को कुँवर नारायण बहुत बेचैनी के साथ देख रहे थे. शायद यही कारण है कि उन्हें अपने भीतर कहीं न कहीं उस मनुष्यता का अभाव भी महसूस हो रहा था जिसके अभाव में ऐसी सांप्रदायिकता सिर उठा रही थीं. उन्होंने लिखा:
अब की अगर लौटा तो मनुष्यतर लौटूँगा. सबके हिताहित को सोचता पूर्णतर लौटूँगा.
(कोई दूसरा नहीं)
यह वही दौर था जो कवि के शब्दों में भारत से महाभारत में बदल रहा था. वे लिखते हैं,
“न धर्मक्षेत्रे न कुरुक्षेत्रे
सीधे सीधे चुनाव क्षेत्रे-
जीत की प्रबल इच्छा से
इकट्ठा हुए महारथियों के ढपोरशंखी नाद से
युद्ध का श्रीगणेश
दलों के दलदल में जूझ रहे
आठ धर्म अठारह भाषाएं, अट्ठाईस प्रदेश.”
(कोई दूसरा नहीं)
यह विश्वास के खोने का दौर था जब उन्हें एक कविता में लिखना पड़ा कि,
”आज मैं शब्द नहीं
किसी ऐसे आदमी की खोज में हूँ
जिसे आदमी में पा सकूँ.”
एक दूसरे अर्थ में पूँजी फिर सत्ता में प्रभावी हो रही थी. पूँजी और सत्ता का गठजोड़ एक नए समीकरण तय कर रहा था जब कवि इस युग को इस तरह डिकोड कर रहा था कि
“अगर तुम मालामाल हो
तो हर आदमी एक बिकाऊ माल है
आज जब कि हर चीज़ का दाम सिर्फ बढ़ने की ओर है
आदमी की कीमत में भारी छूट का शोर है.”
(कोई दूसरा नहीं)
जहां पूंजी और कारपोरेट घराने तेजीसेबढ़ चले जाने और बाजार पर कब्जा जमाने की फिराक में थे, वहीं इस कर्जखोर व्यवस्था को पहलेसे ही भांपकर कुँवर नारायण लिख रहे थे-
“मै अस्वीकार करता हूँ
रियायती दरों पर
आसान किस्तों में
अपना भुगतान.”
(कोई दूसरा नहीं)
यह पूंजीवाद और बाजारवाद के प्रभुत्व का शुरुआती दौर था जब कुँवर नारायण में इसके प्रभाव धीरे-धीरे प्रतिबिम्बित हो रहे थे. सब इतना असमाप्त संग्रह में दी गयी ग़ज़लों में एक ग़ज़ल यह बताती है कि नब्बे के बाद दौर मजहबी यकीनों का था और मजहब नफरतें फैलाने का काम कर रहे थे. उनके मृत्योपरांत छपी ग़ज़ल के अशआर देखें जिससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि बदलते हुए सांप्रदायिक यथार्थ की धधक कवि के सीने तक पहुंच रही थी और वह लिख रहा था-
“सांप बसते नहीं हैं आज कल ज़मीनों में
अब वो रहने लगे हैं मज़हबी यकीनों में
ये कैसे दौर में ज़िन्दा हैं हम खुदा जाने
ये कैसी नफ़रतें भर भरके अपने सीनों में”
(सब इतना असमाप्त)
मुझे याद है कि कैसे ‘वाजश्रवा के बहाने’ पर समकालीन भारतीय साहित्य में छपने वाले लेख की चर्चा उनसे की थी तथा जब लिख कर सूचित किया कि इसका शीर्षक रखा है: ‘कविता के माथे पर तिलक’ तो लगा वे इससे प्रसन्न होंगे लेकिन ऐसा कुछ था जो उन्हें मथता रहा. मैंने सोचा यह उनके काव्य वैशिष्ट्य का उच्चतम सूचकांक है, शायद उन्हें पसंद आए. किन्तु अगले दिन सुबह ही उन्होंने टेलीफोन किया और कहा कि ओम, हो सके तो लेख का शीर्षक बदल दो. मुझे बात समझ में आ गयी और मैंने हां तो कर दिया पर संपादक को परामर्श देने के बावजूद अंक प्रेस में होने के कारण लेख तदनुकूल शुद्ध न हो सका. इस प्रसंग को मैंने ”यत्नेकृते यदि न सिदध्यति कोत्र दोष:” के खाते में डाल कर चुप रह गया तथापि, जब उन पर मेरी पुस्तक ‘कुँवर नारायण: कविता की सगुण इकाई’ आई तो उसमें लेख का शीर्षक् परिवर्तित किया. यह थी उनकी दृष्टि जो धार्मिक प्रतीकों को भी संशय की दृष्टि से देखती थी. तिलक शब्द उनके लिए ऐसा ही था. वे मज़हबी यकीनों की संकीर्णताओं में बँधे लेखक न थे.
जिन लोगों के लिए वे धुर कम्युनिस्ट लेखक नहीं है, वे भी यह देखें कि एक गैर कम्युनिस्ट किन्तु अपने समय का विचारक कवि कैसे धार्मिक प्रतीकों को मलिन मान कर उनके प्रयोग से बचना चाहता है और यह भी चाहता है कि उसके काव्य वैशिष्ट्य पर ऐसे प्रतीकों का मोर मुकुट न सजाया जाए.
कुँवर नारायण की पहचान के साथ अयोध्या जुड़ा है जो राम की जन्मभूमि कही जाती है तथा उनके अस्तित्व से शायद ही उन्हें इनकार रहा हो. कम से कम एक कवि-नायक के रूप में तो वे राम को जानते ही थे. तभी बाबरी प्रकरण के दिनों में उनके भीतर एक कवि की उद्विग्नता सांस ले रही थी. बाबरी विध्वंस के बाद लिखी उनकी कविता अयोध्या, 1992 खासा चर्चित हुई. कितने दुख से यह कविता उन्होंने राम को संबोधित करते हुए रची और लिखा-
“इससे बड़ा क्या हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रहा गया तुम्हारा साम्राज्य
अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है
मानस तुम्हारा चरित नहीं
चुनाव का डंका है!”
(कोई दूसरा नहीं)
उन्होंने इस नेता युग में राम से सविनय निवेदन किया कि प्रभु लौट जाओ. किसी पुराण- किसी धर्मग्रंथ में सकुशल सपत्नीक….अबके जंगल वो जंगल नहीं, जिनमें घूमा करते थे वाल्मीकि. (कोई दूसरा नहीं)
भूमंडलीकरण और धार्मिक उभारों के इस दौर में यह एक बड़े कवि का बड़ा हस्तक्षेप था. हालांकि इसी प्रसंग को छूती हुई एक कविता नरेश सक्सेना की भी बहुत लोकप्रिय हुई जो जयश्रीराम के नारे के नाम पर किए जा रहे हिंसक कारनामों का विरोध करती थी तथा बाबरी ध्वंस को सोमनाथ ध्वंस के समतुल्य ही मानती थी. तथापि कुँवर नारायण जिनकी कविता ने कभी लाउड होना तथा राजनीतिक प्रत्ययों के इस्तेमाल से राजनीतिक उद्देश्यों के लिए खर्च होना कभी स्वीकार नहीं किया इस कविता से वे एक बार हिंदुत्वादी चिंतकों के निशाने पर भी आए. लेकिन उनके सोचने और लिखने का अपना नजरिया था जो अप्रतिहत और अपरिवर्तनीय था.
तीन |
2002 में आई उनकी काव्यकृति ‘इन दिनों’, शीर्षक से ही जैसे इन दिनों के हालात के जायज़े का संकेत देती जान पड़ती थी. गो कि उनकी कविता न तो कभी बयानबाजी में खर्च हुई न राजनीतिक एजेंडे में. लेकिन 90 के बाद के दौर की सांप्रदायिकता, नफरत भरी कारगुजारियां, रथयात्राएं, हिुदत्ववाद के ध्रुवीकरण, देश के धार्मिक सदभाव के फैब्रिक को नष्ट करने की कोशिश उनकी निगाहों में थी. शायद यही सारी वजहें थीं कि उन्हें एक अजीब सी मुश्किल जैसी कविता लिखनी पड़ी जो कभी प्रेमरोग के नाम से छपी थी. पूरी कविता शमशेर की कविता अम्न का राग की तरह हमारे भीतर ध्वनित होती हुई हमारी प्रेमपूर्ण विरासत से हमें जोड़ती है. किस खूबसूरती से वे एक-एक नफरत एक-एक इकाइयों को हमारे सम्मुख रखते हुए कहते हैं कि मैं भी चाहता कि इनसे नफरत करूँ पर क्या करूँ, ऐसा करने चलता हूँ तो कोई न कोई कारण ऐसा आ धमकता है कि नफरत की हवा ही निकल जाती है. यानी नफरत करना चाहता हूँ पर नफरत करने की ताकत दिनों दिन क्षीण होती जा रही. पूरी कविता एक अजीब तरह से हमें कवि के मकसद से जोड़ देती है तथा कहती है कि कवि ठीक ही तो कह रहा. मुसलमानों से नफरत करने चलो तो गालिब आगे खड़े हो जाते हैं, अंग्रेजों से करो तो शेक्सपीयर जैसा कवि सम्मुख आकर खड़ा हो जाता है. सिखों से करो तो गुरुनानकजी आँखों में छा जाते. दक्षिण के लोगों से दुराव करने चलो तो कंबन, त्यागराज और मुत्तुस्वामी जैसे संत सामने आ जाते. नफरत करें तो कैसे? ऐसी कविता से कुँवर जी ने तत्कालीन समय को दर्ज किया. उस वक्त की नफरत को भी जो फिंजां में फैलाई जा रही थी और शायद अब भी यह कम नहीं हुई है.
मजहबी यकीनों के इस दौर में वे कविता लिखते हैं: आजकल कबीरदास. उनके संवाद भी है तथा संवाद की फलश्रुति भी. कबीर मजहबी ताने बाने के धुर विरोधी थे. जुलाहे होकर भी उनका ताना बाना सबसे अलग था. उनकी बुनी हुई झीनी झीनी बीनी चदरिया भी अलग थी. उनके लिए ही कहा जाता है ज्यों की त्यों धरि दीनी चदरिया. क्योंकि यह चादर उन्होंने बड़े जतन से ओढ़ी थी. अब मध्यकाल के कबीर से इक्कीसवीं सदी का एक बूढ़ा कवि बात करे तो भी क्या. जाहिर है यह बातचीत कविता की लय में जैसे घुल सी गयी है. वे उन दिनों मगहर रह रहे थे. जाहिर है तथाकथित ईश्वर से नाराज होकर ही ऐसा उन्होंने किया होगा . इस बातचीत में वे कबीर का एक पूरा पर्सोना सामने रख देते हैं यह कहते हुए कि
“आज भी यकीन नहीं होता कि वह जीवन द्रोही नहीं
एक सच्चा गवाह था जीवन का
जिसने जाते जाते कहा था- कहां जाऊँगा छोड़कर
इतनी बड़ी दुनिया को जो मेरे ही अंदर बसी है
हजारों वर्षों से.
यहीं रहूँगा-
इसी मिट्टी में मिलूँगा
इसी पानी में बहूँगा
इसी हवा में सांस लूँगा
इसी आग से खेलूँगा
इन्हीं क्षितिजों पर होता रहूँगा उदय-अस्त,
इसी शून्य में दिखूंगा खोजने पर.”
(इन दिनों)
इस महादेश में उत्तर भूमंडलीकरण सांप्रदायिक शक्तियों के अभ्युदय और विकास का दौर है तो दुनिया विश्वयुद्ध का सजता हुआ रंगमंच. अमेरिका से तो इस युद्ध लिप्सा को खाद पानी मिलती है, उसके शस्त्रों की खपत पूरे विश्व में होती है. अतीत में इराक की तबाही हम देख चुके हैं. फिलिस्तीन संकट भी. इन दिनों रूस यूक्रेन के युद्ध की वजह से पूरा यूरोप आर्थिक मंदी में चल रहा है. दोनों देश अपनी अपनी जिद पर अड़े हैं. 92 के बाद का विश्व भी युद्धोन्माद की ओर उन्मुख हुआ है. अनेक देशों के बजट का आधा हिस्सा रक्षा मद में जाता है बाकी वे विश्वबैंक के कर्जों पर जीवनयापन करते हैं. ऐसे में युद्ध का जो वातावरण पनपा और विकसित हुआ, परमाणु शक्तियों में होड़ की स्थिति जारी रही उसने तमाम देशों में परमाणु बम बनाने की लिप्सा जगाई. युद्ध ने अब धीरे-धीरे एक उद्योग की शक्ल ले ली है. ऐसी स्थिति में कुँवर नारायण की कविता शांति वार्ता शिल्प में नागार्जुन की याद दिलाती हुई सांप्रतिक विश्व की मनोग्रंथि का पूरा हाल बयान कर देती है. क्या बेहतरीन शुरुआत है इस कविता की-
“अल्लाहो अकबर बिनती है भगवन्
अगर दो तो अणुबम न ये गन न वो गन.
लड़ाकू विमानम् न अन्नम् न वस्त्रम्
करें शास्त्र चर्चा मगर होड़ शस्त्रम्
अंत में वे लिखते हैं-
परमाणु बम बम तुम तुम न हम हम
मिटाने औ मिटने में हम कम न तुम कम
न पश्चिम न पूर्वम नकारम भविष्यम्
विस्फोट सफलम् निराकार विश्वम्.”
(कोई दूसरा नहीं)
यह विश्व में व्याप्त युद्धोन्माद की कविता है जिसका प्रतिबिम्ब आज भी वैश्विक स्तर पर देखा व महसूस किया जा सकता है. बल्कि गत कोरोना विश्व महामारी के दौरान कुछ गुप्त प्रयोगशालाओं से जैविक विषाणुओं के प्रसार का संदेह भी जताया गया जिससे पूरी विश्व मानवता हताहत हुई. करोड़ो लोग काल के ग्रास बने. अचरज नहीं कि अनेक खतरनाक जैविक विषाणुओं की प्रयोगशालाओं में आज भी क्या कुछ हो रहा है यह हमें नहीं मालूम, पर गए कोरोना दौर में जिस तरह संदेह की सुई चीन जैसे देश और विश्व की फर्मास्युटिकल कंपनियों पर अँटकी रही, वह अपने आप में भयावह है. इस परिप्रेक्ष्य में कुँवर जी कविता सजगता से विश्व के देशों में बढ़ती परमाणु होड़ का एक खाका प्रस्तुत करती है, जैविक विषाणुओं के प्रसार से नरसंहार की मुहिम उसका ही आधुनिकतम विस्तार है.
और अब बाजारवाद का प्रभाव देखें. नब्बे के बाद की अर्थव्यवस्था जिसमें बैंकों की अनुपयोज्य आस्तियों का परिमाण इतना अधिक हो गया था कि कई बैंक देनदारियों की स्थगित वसूली के कारण घाटे में आ गए थे. नरसिंहम् कमेटी ने बैंकों से एनपीए के निर्धारण एवं उसकी आवधिक वसूली का एक रोडमैप बनाने को कहा. पूरी की पूरी बैंकिंग व्यवस्था उसके बाद अचानक बदल गयी. बैंकों ने करोड़ों के ‘लास ऐसेट’ को अपना एनपीए घोषित किया. लिहाजा सरकार ने उन्हें पुन: पूंजी मुहैया कराई ताकि बैंक न वसूली योग्य बकाया ऋण राशियों के प्रावधान के कारण घाटे में आने से एवं पूंजी के अभाव विफल न हों. इसके साथ पूरे विश्व में खुले बाजार की अर्थव्यवस्था ने अपने पांव पसारे. आयात निर्यात नीति में उदारताएं बरती गयीं जिससे विश्व के सारे देश खुले बाजार की होड़ में आगे आ सकें. इसका असर भारत पर हुआ और खूब हुआ. यहाँ की निर्माण इकाइयों की हालत पहले ही पतली थी, उदार अर्थव्यवस्था एवं खुले बाजार की नीति के कारण यहाँ लागत और कुशलता के अभाव में भारत के बाजार में विदेशी सर सामान तो खूब आए, पर भारत की अपनी निर्यात क्षमता उतनी चौकस न हो सकी. उदारीकरण ने इंटरनेट, सोशल मीडिया, प्रसारण चैनलों, यूट्यूब, इंस्टाग्राम, व्हाटसअप आदि के प्रसार में पर्याप्त मदद की. यहाँ तक कि बाजार बेकाबू हो उठा. लोग बाजारवाद की शिकायतें भी करते तथा ब्रांड के हिमायती भी होते. यह देशी उत्पाद के प्रति हिकारत के नजरिये का दौर भी रहा. यह बाजार कई रूपों में कवियों लेखकों के यहाँ प्रतिध्वनित हुआ.
कुँवर नारायण की एक कविता है: बाज़ारों की तरफ भी. इस कविता में वे लिखते हैं-
“कभी कभी टहलते हुए निकल जाता हूँ
बाजारों की तरफ भी :
नहीं, कुछ खरीदने के लिए नहीं,
सिर्फ देखने के लिए कि इन दिनों
क्या बिक रहा है किस दाम
फैशन में क्या है आजकल
वैसे सच तो यह है कि मेरे लिए
बाजार एक ऐसी जगह है
जहां मैंने हमेशा पाया हे
एक ऐसा अकेलापन जैसा मुझे
बड़े बड़े जंगलों में भी नहीं मिला
और एक खुशी
कुछ कुछ सुकरात की तरह
कि इतनी ढेर-सी चींजें
जिनकी मुझे कोई जरूरत नहीं.”
(इन दिनों)
लेकिन समाज में ऐसे सुकरात कितने होंगे जिन्हें बाजार के उत्पाद की कोई जरूरत न होगी. सच है कि बाजार तो हमेशा ही रहा है भले इस आक्रामक रूप में नहीं तथा वह कितना भी प्रभावी क्यों न हो, हमें क्रीतदास नहीं बना सकता यदि हम संयमी हों. पर एक कवि तो यह कह सकता है कि मुझे जरूरत ही नहीं इतनी सारी चीजों की तो बाजार भला मेरा क्या कर सकता है. किन्तु बाजार अपने समग्र प्रभाव में हमें लाचार बना देता है कि हम उसके प्रभाव में आ जाएं और गए दशक में पूरा विश्व इसी बाजारवाद की चपेट में है.
कहना न होगा कि भूमंडलीकरण और उदारीकरण के फलस्वरूप में पूरी दुनिया में पूंजी पुन: प्रभुत्व में आई है और इस बेलगाम पूंजी के साथ ही अनेक विकृतियां भी आईं. परिवारों में विघटन, भाईचारें में दरार, मैत्री में अलगाव इसी पूंजीवादी व्याधियों की देन है. ‘द्वारिका में सुदामा’ ऐसी ही उनकी कविता है जो कृष्ण और सुदामा की प्राचीन मैत्री के हवाले से आज की द्वारिका में कृष्ण की खोज में आ पहुंचे सुदामा की खोज खबर ली गयी है. कवि पूछता है किस माया नगरी में भटक रहे हो सुदामा? यह द्वारिका तो दिल्ली का एक छोटा सा मुहल्ला है. यहाँ ऐसा कोई नहीं जो तुम्हें जानता हो. यहाँ एक तरफ बेदिल दिल्ली की बेरुखी का आलम है तो दूसरी तरफ आज के दौर में बदलते संबंधों का जायज़ा भी. कवि कल्पित सुदामा को देख द्वारपाल ठहाका लगाते हुए कहता है:
“कैसी बांसुरी? कैसा नाच? कौन गिरधारी?
जिस महल को तुम भौचक खड़े देख रहे हो
वह तो उसका है
जिसकी कमर की लचकों में
हीरों की खान है
बहुत भोले हो सुदामा, नहीं समझोगे इस कौतुक को…
मत भूलो अपने गांवों को
जिनके विश्वासों की धूप-छांह में कहीं
अभी भी बची है
एक जगमगाती द्वारिका
जिसमें रहता है कहीं
तुम्हारा वह पुराना सखा
जिसके साथ तुम बचपन में खेला करते थे,
और जो केवल एक खिलौना नहीं !”
(हाशिए का गवाह)
चार |
कुँवर नारायण की हाल के वर्षों में जो डायरी प्रकाशित हुई है, दिशाओं का खुला आकाश, इसे देखने पर पता चलता है कि उन्होंने 1987 से लिखे अपने डायरी-अंश इसमें डाले हैं. यानी यह 90 के तनिक पहले का ही दौर है लेकिन राजनीति में धर्म और धर्म में राजनीति की घुसपैठ का भी यही दौर है जो नब्बे के बाद अपने प्रबल आवेग में आ जाता है. राजनीति धर्म, जाति, को अपनी-अपनी तरह से बांटने का काम करती है. वह वर्ण को उप वर्णों में, जातियों को उप जातियों में, धर्मों में हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई में बांटने का काम कर रही है. यह विविधताओं का सुख लेना नहीं, उसके बिखराव का सुख लेने वाली राजनीति है. राजनीति हर धर्म में एक कट्टरवादी रवैये वाला वर्ग पैदा करने की रुचि दिखाती है जिससे द्वंद्व बढ़े और राजनीति मतों का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण कर सके. कभी मध्ययुग में धर्म का बोलबाला और आंतक था, आज राजनीति ने यह स्वरूप हासिल कर लिया है. (दिशाओं का खुला आकाश)
कुँवर नारायण धर्म के उच्चतर मानवीय उद्देश्यों को महत्व देते हैं-आज के कर्मकांडी संकीर्णतावादी बनते जाने धर्म को नहीं. उनकी दृष्टि में जिस देश में चिंतन व दर्शन की इतनी महान परंपराएं रही हों वहां मंदिर मस्जिद गिरजाघरों आदि की क्या जरूरत. संत कवियों को अपने विचारों के प्रसार के लिए किसी मंदिर या मठ की जरूरत न पड़ी . यह काम धर्म को धंधे में बदलने वाली सत्ताओं ने किया .
कुँवर जी 28 फरवरी 1998 की एक टीप में लिखते हैं: मत बनाओ ये मंदिर, मस्जिद,गिरजे, आश्रम, संघ वगैरह. धर्मभावना मूलत: परित्यागी है. भारतीय धर्म- दर्शन एकांतोंमें पनपा है. वह आरण्यक है. उसे आकाश की स्वच्छता और स्वच्छंदता चाहिए.(वही)
उन्हें इस बात का मलाल था कि आज के सामाजिक राजनीतिक चारित्रिक पतन को कविता कभी विडंबना, कभी त्रासदी तो कभी भर्त्सना, कभी आक्रोश तो कभी हताशा से देखती तो है किन्तु फिर भी यह सभ्यता, अध्यात्म और संस्कृति का गुणगान करते नहीं थकती.(वही)
शायद यही कारण है कि कुँवर नारायण ने भारतीय संस्कृति की महानता का गाथाएं नहीं गाईं. ‘आत्मजयी’ में नचिकेता के रूप में उन्हें वह नायक मिला था जो भारतीय संस्कृति की दानवीरता का लोहा पीटने वाले पिता को प्रश्नांकित करता है और दंड स्वरूप यम के सम्मुख आने पर विवश होता है. पर उसकी निर्भयता नहीं जाती. यह तत्कालीन संस्कृति में दानशीलता का ढोंग रचने व बूढी पुरानी गायों को ही दान कर यश लूटनेवाली ताकतों पर प्रहार भी है. लेकिन नचिकेता का आत्मबल भी आज कितने युवाओं में बचा है. आज भी समाज में गऊदान का भोंडी परंपरा है जैसे कि सारे पापों से मुक्ति का वही एक पथ हो और इसके प्रतिकार का साहस युवाओं में नहीं है. यही कारण है कि उन्होंने हाथी घोड़ा पालकी जय कन्हैयालाल की- न लिख कर यह लिखना पसंद किया
कांधे धरी यही पालकी
है किस कन्हैयालाल की?
इस गांव से उस गांव तक
नंगे बदन, फेंटा कसे,
बारात किसकी ढो रहे?
किसी कहारी में फँसे ?
यह कर्ज पुश्तैनी अभी किश्तें हज़ारों साल की.
कॉंधे धरी यह पालकी है किस कन्हैयालाल की?
(कोई दूसरा नहीं)
याद रहे उनसे दो वर्ष छोटे किन्तु समकालीन रघुवीर सहाय जिनकी कविता राजनीतिक पृष्ठभूमि वाली रही है ने भी आजादी के संदर्भ में यह सवाल पूछा था: राष्ट्रगीत में भला कौन वह भारत भाग्य विधाता है. फटा सुथन्ना पहले जिसका गुन हरचरना गाता है?
कुँवर नारायण उस तरह से लोकतंत्र को प्रश्नांकित नहीं करते जिस तरह रघुवीर सहाय. कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि कुँवर जी राजनीतिक मंतव्य देने से बचना चाहते हैं और तमाम भौतिक राजनीतिक सामाजिक समस्याओं के बिल्कुल बगल से होकर गुजर जाते हैं, कविता में उसकी छाया भी नहीं पड़ने देते. कुँवर जी 1027 में जन्मे, रघुवीर सहाय 1929 में, श्रीकांत वर्मा 1931 में लेकिन तीनों कवियों के मिजाज में कितना अंतर है.
अकेली ‘रामदास की हत्या होगी’, जैसी कविता कुँवर नारायण के यहाँ नहीं है. उनसे छह सात साल बाद जन्मे धूमिल और कैलाश वाजपेयी और चार साल बाद जन्मे श्रीकांत वर्मा में समकालीनता को लेकर जितना तीखापन है, आवेग और आग है, वह कुँवर नारायण के यहाँ नहीं है. सिल सी गिरी है स्वतंत्रता और पिचक गया है पूरा देश- शायद कुँवर नारायण नहीं कह सकते थे, इसे कैलाश वाजपेयी ही कह सकते थे. यहाँ तक कि ‘ ‘संभव नहीं है कविता वह सब कह पाना जो घटा है बीसवीं शताब्दी में मनुष्य के साथ- यह भी केवल श्रीकांत वर्मा कह सकते थे.
यहाँ तक कि मोहभंग की जो छाया कविता में साठ के बाद दीख पड़ती है, उस छाया से भी कुँवर नारायण की कविता बहुत हद तक अछूती रही है. इसका यह अर्थ है कि या तो वे कविता में किसी भेड़चाल से बचना चाहते थे जिसका शिकार तब के अनेक कवि थे या वे अपने समय, अपने समय की राजनीतिक वास्तविकताओं और भूमंडलीकरण के प्रभावों से दूर रह कर शाश्वत और सनातन किस्म की कविताएं लिखना चाहते थे. हम देखते हैं कि कुँवर जी के काव्य काल में तत्कालीन विश्वयुद्ध से आगे का हताहत और युद्धोत्तर समय है, जिससे पूरा विश्व प्रभावित रहा है, आपात्काल गुजरा, खिचड़ी विप्लव का युग आया और गया, भूमंडलीकरण ने पांव पसारे, सांप्रदायिकता का बोलबाला बढ़ा, धर्मो, जातियों का राजनीतिक ध्रुवीकरण हुआ. ऐसे में उनकी कविता में जो इंदराज आने चाहिए थे, वे लगभग नहीं दिखते हैं या उनकी बहुत क्षीण छायाएं पड़ती हैं. ऐसा इसलिए भी हो सकता है कि कविता को ऐसी तात्कालिकताओं से बचाना चाहते रहे हों. पर चाहे दलगत उपेक्षा के कारण या एक कवि के नाते भी जिस तरह श्रीकांत वर्मा ने मगध में कहा कि मगध में शासक नहीं रहे या कोसल में विचारों की कमी है जो कि शासक पर एक तीखे सवाल की तरह था, ऐसा कुँवर नारायण के यहाँ नहीं दीख पड़ता.
आपातकाल की छाया अशोक वाजपेयी की कविता पर न पड़े, यह तो समझ में आता है पर कुँवर जी की कविता पर न पड़े, यह समझ से परे है. कुँवर जी का अपनी ही कविता का यह डिफेंसिव मेकेनिज्म कभी- कभी असमंजस में डालता है. हालांकि वे विचारधारा को अपनी कविता के लिए कभी ढाल नहीं बनाना चाहते थे, कवि के विचार को वे किसी भी विचारधारा से सदैव ऊपर रख कर देखते थे.
जैसा कि विदित है सोवियत संघ के पतन के बाद दुनिया बहुत बदली. एक तरफ पूंजी नए सिरे से संगठित हुई, दूसरी तरफ दुनिया ग्लोबल होती गयी. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में मल्टी नेशनल कारपोरेशन्स का आगमन हुआ और पूंजी व कारपोरेट के गठजोड़से एक नई दुनिया का आगमन हुआ. इनमें नौकरियां करना स्टेटस सिम्बल बनता गया. कम्प्यूटरीकरण का तेजी से विकास हुआ, दुनिया तेजी से डिजिटल हुई. अब रास्ता पूछने व बताने के लिए किसी मनुष्य की नहीं गूगल मैप की दरकार थी जो आज संभव है. कितना बंद समाज होता गया है कि हो सकता है किसी संकट में पड़े व्यक्ति को सहायता के लिए पुकारता देख कोई कारवाला बंद कांच के शीशे को ऊपर कर सहायता के लिए आगे न आए और आदमी रास्ते में ही दम तोड दे. कई देशों में सड़क पर आदम ही नहीं होते कि संकट में कोई उन्हें पुकार कर सहायता हासिल कर सके. ऐसे में कोई खड्ग सिंह रहे-सहे मानवीय विश्वास की धज्जियां उड़ा दे तो अचरज नहीं. कुँवर नारायण भी 2003 तक आते- आते ऐसा महसूस करने लगे थे . अपनी डायरी में वे लिखते हैं:
“21वीं सदी में प्रवेश करते-करते यह यकीन पक्का हो चला था कि हम एक ऐसे युग में आ गए हैं जो पूरी तरह व्यावसायिक है. पूरी दुनिया एक बहुत बड़े अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बदल गई है. कमाऊ और विकाऊ के बीच इतनी कम दूरी बची है कि आदमी और चीजों के बीच फर्क करना मुश्किल हो गया है. दिन ब दिन छोटे होते जाते घर गृहस्थी और बड़े होते बाजार- शायद यही है हमारे समय की एक औसत तस्वीर….”
(वही)
इससे बहुत पहले वे लिख चुके थे अपनी एक कविता ‘शिकायत’ में कि
“किसी को अपना सही परिचय देकर
खतरा मत उठाओ
हर जगह अपनी जेब का परिचय दो
अगर तुम मालामाल हो
तो हर आदमी एक बिकाऊ माल है
आज जबकि हर चीज का दाम सिर्फ बढ़ने की ओर है
आदमी की कीमत में भारी छूट का शोर है.”
(कोई दूसरा नहीं)
उदारीकरण और पूंजीवाद की इस आंधी में सच कहें तो नैतिकता का चीनांशुक उड़ गया. बेशर्मी, दलाली और झूठ आदमी के चरित्र में घर करती गयी. वह अपनों से भी मुनाफे की आशा करने लगा. ‘बदलते पोस्टर’ शीर्षक उनकी कविता नब्बे के बाद के उत्तर भूमंडलीकरण के हमारे समय के व्यावसायिक चरित्र पर एक श्वेतपत्र की तरह है. बहुत आगे चल कर लीलाधर जगूड़ी का संग्रह आज के विज्ञापनवाद की नींव पर टिके इस महादेश के चरित्र की बखिया अपने संग्रह ‘ खबर का मुंह विज्ञापन से ढका है’ में उधेड़ी है किन्तु कुँवर जी तो 92 के आसपास ही यह कविता लिख कर आज के बाजारू दौर की हकीकत को उधेड़ चुके थे कि हमारा समय अब किस दिशा में जा रहा है. मुलाहिजा हो यह कविता :
“एक ढहती दीवार पर
नये नये खुशरंग पोस्टर
पुराने पड़ने से पहले
बदलते रहते हैं अकसर
कभी लिरिल साबुन में नहाती सुंदरी
कभी डालडा वनस्पति से पनपते बच्चे,
कभी इफको खाद से लहलहाती फसलें
कभी सदाबहार पान के मसाले
कभी ऐटलस साइकिल पर सवार पग्गड़ किसान
कभी हाथ जोड़े खड़े धनवर्षा का संदेशा देते
धनकुबेर.
मगर वह गुमसुम उदास लड़का नहीं बदलता
जो ठेके पर सरकारी पोसटर लगाता है—
”बाप शराब पियेंगे
और बेटे भूखों मरेंगे….”
(कोई दूसरा नहीं)
पांच |
कुँवर जी सार्वभौम मानवीय चेतना के कवि थे. बहुपठित एव बहुश्रुत. किन्तु उनसे लिए गए साक्षात्कारों में शायद ही किसी ने भूमंडलीकरण, उदारीकरण एवं बाजारवाद के बढ़ते घटाटोप और उनकी कविता पर पड़े उनके प्रभावों पर सवाल पूछे हों या इसे लेकर किसी ने उनकी कविता को प्रश्नांकित किया हो. अधिकांश सवाल राजनीतिक सवालों से कन्नी काटते, बाजारवाद, भूमंडलीकरण की व्याधियों से अलग रास्ता अख्तियार करते नजर आते हैं तथा बहुत निजी व शाश्वत किस्म में सवालों तक ही सीमित रह जाते हैं. ऐसा लगता है कि कुँवर जी के प्रति लेखकों में एक अजीब किस्म का डिफेंसिव रुख और आदरास्पद भाव काम करता रहा है जब कि अब समय आ गया है कि राजनीति या बाजारवाद या भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में कवियों की भूमिका पर चर्चा की जाए.
अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी द्वारा साहित्य के मूल्यांकन में राजनैतिक दृष्टिकोण की प्रश्नांकित भूमिका पर पूछे गए एक सवाल के उत्तर में कुँवर जी का कहना था कि साहित्य की उत्कृष्टता या श्रेष्ठता का सवाल उसकी राजनीति से नहीं,उसकी साहित्यिक संवेदना और सोच समझ से तय होगा. (जिये हुए से ज्यादा, कुँवर नारायण के साथ संवाद, पृष्ठ 184) यों तो कवि अपने को परिभू स्वयंभू मानता ही है पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता फिर भी अनेक अवसरों पर बाधित होती रही है. एक वह दौर भी था जब निर्वासन के शिकार जर्मन कवि ब्रेख्त को लिखना पड़ा, मैंने जितने ज्यादा जूते नहीं बदले, उससे ज्यादा मुल्क बदले. हमारे देश में आपातकाल के दौरान अभिव्यक्ति पर सेंसर कायम किए गए. बाद के दिनों में कुछ कवियों को सच बोलने की सजाएं भी मिलीं- मृत्युदंड भी. कुँवर जी इन स्थितियों से निश्चय ही विचलित होते रहे हैं पर वे कभी दलगत चिंतन के वशीभूत होकर आक्रामक मुद्रा में नहीं आए न अपने लेखन में उसकी आवेगधर्मी अभिव्यक्ति की. उसे शालीनता से पचाया तभी कुछ कहा. पर कलाकार सीरज सक्सेना के एक सवाल के प्रत्युत्तर में, कि चित्रकार एमएफ हुसैन के निर्वासन के बारे में आपकी क्या राय है, उन्होंने कहा था, यह एक दुखद स्थिति है. पर यह भी कहा कि अभिव्यक्ति की आजादी का कायल हूँ.लेकिन इस आजादी का दुरुपयोग न हो. बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन कभी भी नहीं होना चाहिए. (वही)
संकेतों में उन्होंने कह ही दिया कि आजादी का दुरुपयोग न हो. तो क्या एम एफ हुसैन ने इस आजादी का दुरुपयोग किया. सवाल तो बनता ही है पर तानाशाही इस बिना पर कलाकार का दमन करे यह उनकी दृष्टि में उचित न था. बात अभिव्यक्ति की आजादी और सत्ता की निरंकुशता पर आती है तो मुझे उनके आखिरी संग्रह ‘सब इतना असमाप्त’ में संग्रहीत कविता ‘जितना ही खुश रखना चाहता हूँ’- का ध्यान हो आता है. यह कविता दाभोलकर,पानसरे और कलबुर्गी की हत्या के बाद लिखी गयी है और इस आशय का नोट भी दर्ज है. पर पूरी कविता जैसे एक उदास और हत्यारी धुन के साये में रची गयी हो.
“जितना ही खुश रहना चाहता हूँ
उतनी ही उदास होती जाती हैं मेरी कविताएं
विह्वल प्रार्थनाओं में बदल जाते हैं शब्द
….
नृशंस हत्याओं का रक्त
जल्दी सूखने से इनकार करता
उसकी चिनगारियां दूर तक पहुंचतीं
हमें आक्रांत करता
एक आदिम अंधेरा
होता जाता है गहरा
और गहरा.”
(सब इतना असमाप्त)
और हत्याओं का यह दौर पिछले कुछ दशक से एक उन्माद का रूप ले चुका है. पीछे सांप्रदायिकता इतनी भयावह कि मानव रक्षक कम थे गो रक्षक ज्यादा. कितनी निर्दोष हत्याएं गायों के नाम पर हुईं. आज भी जब तब हिंदू रक्षक स्वयंभू संविधान बन कर सम्मुख खड़े हो जाते हैं और पूरे समाज को हांकने लगते हैं. कैसा लगता है कुँवर नारायण जैसे कवि को जिसका स्वभाव ही एकांतिक हो. वह भी अखबार पढ़ते ही समाज में हो घट रहे परिदृश्य से वाकिफ हो उठता है और इस ब्योरे को दर्ज किए बिना नहीं रह पाता-
“अखबार पढ़ते घबराहट होती-
हत्याएं बलात्कार लूटपाट
शहरों में, बस्तियों में
रोज़ यही हादसा होता
कोई आदमखोर निकलता
और मां के बगल में सोयी
बच्ची को उठा कर ले जाता.”
(वही)
आज की विकासवादी सभ्यता में लोग खुद ही ज्यादा नंगे हो रहे हैं जबकि आदिम सभ्यताओं में भी उतने न रहे होंगे जब सभ्यता को ढँकने के लिए हमारे पास उतना कपास भी न रहा होगा. जंगल पर निगाह गड़ाने वाली पूंजीवादी रणनीति के मद्देनजर देखें या वेर्नर हेर्टजोग की फिल्म व्हेयर द ग्रीन ऐंट्स ड्रीम को याद करते हुए लिखी हुई कविता जंगली गुलाब, उनका कहना कितना मानीखेज़ लगता है-
“नहीं चाहिए मुझे
कीमती फूलदानों का जीवन
मुझे अपनी तरह खिलने और मुरझाने दो
मुझे मेरे जंगल और वीराने दो
….
नहीं चाहिए मुझे किसी की दया
न किसी की निर्दयता
काट छांट कर मुझे
सभ्य मत बनाओ
मुझे समझने की कोशिश मत करो
केवल सुरभि और रंगों से बना
मैं एक नाजुक ख़्वाब हूँ
कांटों में पहला जंगली गुलाब हूँ”
(वही)
यही वह विकलता है जो उनके भीतर आखिरी लम्हों तक धड़क रही थी. जमाना जंगल को उजाड़ने और उसे सभ्य बनाने की मुहिम पर लगा था. कारपोरेट और पूंजी के गठजोड़ की यह नई दुनिया थी जो उदारीकरण और पूंजीवादी सभ्यता की सोची समझी रणनीति के तहत आई. ऐसे में बहुत कुछ जमीनी तौर पर बदल जाना चाहिए था पर एक कवि अपने अंत:करण के आईने में देख रहा था कि कुछ भी तो नहीं बदला तो बदलना चाहिए था-
“ऊँची होती जा रहीं हमारे बीच की दीवारें
बाजारों में बदल गयी है दुनिया
जिनमें बिक जाते हैं देश के देश
कबाड़खानों में बदलते जा रहे हैं
पृथ्वी के हरे भरे प्रदेश
जिनमें पुरजा पुरजा हो जाए आदमी
ऐसे रोज़गारों को बदलना चाहिए
विज्ञापनों से ढक गई है जिंदगी
अब खरीददारों को बदलना चाहिए.
…. अब फटेहाली में जी रहे लोगों के
हालात भी बदलने चाहिए.”
(सब इतना असमाप्त)
सवाल यह है कि भूमंडलीकरण के बाद क्या बदला. विश्व बाजार की चौहद्दियां और बंदिशें टूटीं तो किसको फायदा हुआ. जो मैन्युफैक्चरर देश थे. निर्माता थे उत्पाद के. उन्हें नहीं जो तकनीकी उतरन पर जिंदा थे, महज उपभोक्ता थे. एनपीए की नई वर्गीकरण नीति से बैंक घाटे में थे जिन्हें सरकारी पूंजी के पुनर्निवेश से जिन्दा किया गया. क्रेडिट आफटेक की गति दयनीय थी. वसूली का कोई अनुशासन सरकार की ब्याजमाफी घोषणाओं से के कारण कारगर नहीं था. लिहाजा करोड़ों की ब्याज माफी, बकाया ऋण माफी, औने पौने पर समझौता प्रस्तावों से बैंक और वित्तीय व्यवस्थाओं को चौपट कर दिया. जब कृषि ऋण आठ या नौ फीसदी थी, कारों की सेल पर 6 या 7 प्रतिशत का ब्याज लगाया जा रहा था. किसानों के सामने ऊंचे ब्याज पर रकम लेना व उसे चुकाना एक चुनौती थी इसलिए यह दौर किसानों की सबसे ज्यादा आत्महत्याओं का दौर भी रहा है. इस सब की बहुत खुली छाया तो कुँवर जी के काव्य में नहीं है. लेकिन जब देश ऐसे हालात से गुजरता है तो आम आदमी में भी थोड़ी बहुत जुंबिश होती ही है.
रोम में प्रीमिओ फेरोनिआ सम्मान समारोह के अवसर पर अपने वक्तव्य में कुँवर नारायण ने कहा था कि कविता ने कठिन समय देखे हैं, फिर भी चाहे जैसे भी साहस और जीवन की इच्छा बनाए रखी. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान और उसके बाद विश्व भर में अनेक युद्धों तथा उथल पुथल के दौरान जब कभी लगा कि कविता लगभग लुप्त हो गयी है, यह भूमिगत रह कर या निर्वासन में भी जीवित रही. …कविता हम लोगों में उस शांत प्रतिरोध और नमनीयता को पुकारती है जो तूफान के गुजरने तक झुक तो सकती है पर कभी उम्मीद नहीं छोड़ती.
कहना न होगा कि उन्होंने माना है कि कविता की प्रासंगिकता और साहित्य मात्र की प्रासंगिकता मेरी समझ से समाज तथा मानव जाति पर इसकी संवेदनशील तथा पूर्वग्रह रहित चौकसी में है और इस चौकसी को कर पाने की पूर्ण आंतरिक आजादी में है. (शब्द और देशकाल)
छह |
कुँवर नारायण का प्रबंधकाव्य ‘वाजश्रवा के बहाने’ न केवल मिथक का आधुनिकतावादी प्रत्ययों के आईने में पुनर्वास है बल्कि अनेक समकालीन परिदृश्यों में इस मिथकीय परिघटना का क्या असर एक कवि पर पड़ता है यह भी इसका प्रमाण है. पीढ़ियों के अंतराल और अंतर्द्वंद्व को समझने का यह मंच तो है ही, दो पीढ़ियों के बीच सुलह संजीवनी का प्रस्तावन भी है. प्राणियों के मध्य आत्मीयता का पुनर्वास भी है, उसकी प्राण प्रतिष्ठा भी है. भूमंडलीकरण और उदारीकरण के दौर ने न केवल हमारी जीवन दृष्टियां बदली हैं बल्कि संबंधों को देखने के हमारे पुराने नज़रिये को भी छिन्न-भिन्न किया है.
वे कह ही चुके हैं कि अगर आप मालामाल हैं तो हर आदमी आपके लिए एक बिकाऊ माल है. ऐसे में उन्होंने जीवन दृष्टि में विनम्र अभिलाषाओं के होने और बर्बर महत्वाकांक्षाओं के न होने की अभिलाषा भी व्यक्त की है और चाहा है कि निकट संबंधों के माध्यम से बोलता हो पास पड़ोस, और एक सुभाषित, एक श्लोक की तरह सुगठित और अकाट्य हो जीवन विवेक. (वाजश्रवा के बहाने)
कभी धूमिल ने आजादी का मतलब पूछा था और ‘पटकथा’ में इस आजादी को चीथड़े होते हुए देखा भी. ऐसी तल्खी कुँवर जी में कभी नहीं रही. किन्तु वे अपने समकालीनों रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर, धर्मवीर भारती, केदारनाथ सिंह, विजय देव नारायण साही के मध्य अपनी अलग लीक खींचने के लिए प्रतिश्रुत रहे. इस आजादी को उन्होंने भी अपनी तरह से अनुभूत किया और एक कविता- पहला सवाल- में लिखा कि
“रात भर नारे लगते रहे कि आजादी मिले
रात भर मशालें जलती रहीं कि भेडिये भागें, रात भर इश्तहार बॅंटते रहे कि सुबह करीब है
रात भर जुलूस निकलते रहे कि लोग जागें
सुबह रात भर के जागे लोग थक कर सड़कों फुटपाथों पर सोये पड़े थे
कैसी विडंबना है कि जब वे जागे
उन पर गलत जगह गलत वक्त सोने का इल्जाम लगाया गया और जनता की सुविधा के लिए रास्ता साफ कराया गया. अब सोने और जागने का पूरा संदर्भ बदल चुका था—दीवारें बदल चुकी थीं-
इश्तहार बदल चुके थे–“
(कोई दूसरा नहीं)
यह भी आजादी की वेला है. आजादी के अमृत महोत्सव की वेला है. स्वराज है. लोकतंत्र है. असहमति के उठे हुए हाथ के स्वागत का बानक है. पर कहीं न कहीं शब्दों में हिंसा नजर आती है, पूंजीजन्य विकृतियां नजर आती हैं, सब कुछ एक तंत्र के अधीन जाता हुआ दिखता है. सत्ता पर उंगली उठाने को अन्यथा लिया जाता है. ऐसी ही हताशा के समय कभी श्रीकांत वर्मा ने ‘मगध’ में प्रत्याख्यान किया. उस दौर को इस रूप में चिह्नित किया कि ‘अनीति पर चलते रहें और नीति की चर्चा बनाए रखें.’ कुँवर नारायण जी भी 2017 तक आजादी के इतने वर्षों के साक्षी रहे हैं, उस मोहभंग के भी जिससे होकर हमारी हिंदी कविता की परंपरा के अनेक स्वर निकले. फटेहाल लोकतंत्र का सबूत देती रहीं रघुवीर सहाय की कविताएं तो कथित समाजवाद की धज्जियां उड़ाती रही धूमिल की कविताएं. नेहरूवियन मॉडल प्रश्नों के घेरे में रहा. रंगभेद विरोधी अफ्रीकी क्रांतिकारी कवियों को पढ़ कर हिंदी कविताओं ने विरोध का सलीका सीखा. आज परिदृश्य दूसरा है. नेहरु के विरोध का यह युग है पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का यह तथाकथित युग भी गांधारी हो चला है; अपनी आंखों पर पट्टी बांध न कुछ देखने की नीयत और तबीयत से मुक्त. ऐसे में क्या दिखेगा शासक को यदि वह आंखों पर पट्टी बांध ले और सचिवीय दृष्टि से उदारीकरण के फल को केवल कुछ लोगों द्वारा खाया जाता हुआ देखे. विज्ञापनों के माध्यम से इस देश और किसान मजदूरों की खुशहाली का जायज़ा लेकर रह जाए और बाजारवाद की आंधी में सब कुछ विकाऊ होने के लिए छोड दे. वे एक टीप में कहते हैं:
”मेरी इतिहास कविताएं मोटे तौर पर अतीत या अतीत वैभव की कविताएं नहीं हैं. कुछ चरित्रों पात्रों के माध्यम से भारतके सांस्कृतिक वैचारिक और साहित्यिक परंपरा के उन जीवित स्पंदनों को छूने की कोशिश हैं, जिन्हेंआम तौर पर बड़े शासकों और विजेताओं की वंशावली के हाशिए में रख कर सोचा जाता है.” (दिशाओं का खुला आकाश,)
कुँवर जी अपने साहितय और कविता को राजनीति की व्याधियों से भरसक बचाना चाहते थे. वे मिथकों में गए तो शायद इसीलिए कि वर्तमान की आंधी को कविता में समेटने की व्याधि से बचे रहें. मिथक एक ऐसा शरण्य भी है जहां होकर आप वर्तमान की थुक्का-फजीहत और सरलीकृत कविता के मलवे से बचे रह सकते हैं. वे क्लास के कवि हैं इसलिए उनके लिए पाठक कभी कोई समस्या नहीं रहा. वे आम पाठक के कवि भी नहीं हैं. इसलिए राजनीति में न वे कभी गहरे धँसे न उनकी कविता ने अपने समय का कोई मुकम्मल और साहसिक पाठ संभव किया. लोहिया और आचार्य नरेंद्र देव के सान्निध्य में रह कर भी उनके भीतर की वैष्णवता कभी हतप्रभ नहीं हुई. वह अपने भीतर मानवतावाद का विशद और समावेशी उद्देश्य सहेजे रही. उन्हें देख कर हम किसी पक्ष विशेष का पैरोकार कवि नहीं कर सकते थे. हाँ, मनुष्यता के पक्ष में एक नैतिक आग्रहों का कवि मान सकते थे जो कि वे थे भी. पर वे राजनीतिक आग्रहों के कवि कभी नहींरहे. पर नब्बे के बाद के भारत और विश्व की उथल पुथल को वे अपने अंत:करण से देखते पहचानते रहे किन्तु कविता में इन तत्वों को बरतने का उनका अपना तरीका व लहजा था. वे किसी स्मार्टनेस की प्रत्याशा में न तो प्रश्नों का हड़बड़ी में उत्तर देते थे न अपनी तहरीर को राजनीतिक एजेंडे से परिचालित मानते या बनाते थे. फिर भी उनकी कविता यह बताती है कि एक कवि की सरहद सीमातीत है उसकी संवेदना ट्यूनिशिया के कुंए के जल की तरह हर कुंए के जल से वाबस्ता है, तथापि उसे किस हद तक अपनी हदों से बाहर राजनीति, धर्म या न्यायपालिका, कार्यपालिका में घुसपैठ की जरूरत है.
इस तरह कुँवर नारायण की कविता भूमंडलीकरण उदारीकरण कारपोरेट व पूंजी के घटाटोप के युग में भी उस हद तक अप्रभावित रहती है जिस हद तक आम आदमी की सामान्य जीवनचर्या. लेकिन वह जगह ब जगह जहां अवसर मिलता है अपनी खुशी नाखुशी जाहिर करती चलती है. इसलिए उनके यहाँ स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, अस्मिता विमर्श के रंग उतने चटख नहीं दिखते या उत्तर भूमंडलीकरण की चोटों, व्याधियों या विशिष्टताओं के निशान उतने बड़बोले रूप में नहीं दिखते तो यह कुँवर नारायण की कविता का अपना मिजाज़ है जो स्वयं में ही अनुशासित दिखता है और कोई तात्कालिक राय कायम करने के लिए किसी को बाध्य नहीं करता. लेकिन उदारतावाद और पूंजीवादी विकृतियों और आधुनिकतावादी रहन सहन के प्रभावों ने मनुष्य मनुष्य के बीच का फासला बढ़ा दिया. उसे सोशल मीडिया के ताने बाने में उलझाया किन्तु वह निजी संबंधों से विरत होता गया. समाज में प्रेम खत्म हो गया, रिश्ते क्षीण होते गए, दिखावा बढ़ता गया, भारतीयता के प्रति सच्ची समझ जाती रही, पश्चिम का पिछलगुआपन हमें आक्रांत करता रहा. कुँवर नारायण की कविता में ये तत्व झीने झीने रूप में यत्र तत्र दिखते हैं लेकिन उसे कविताओं के बीच में गुंथे कवि के सूक्ष्म मंतव्यों से ही समझा जा सकता है. अंत में पुन: कुँवर नारायण की डायरी का वह अंश याद आ रहा है जो कविता के आज के संकट और असमंजस को पूरी तौर पर कह देता है:
”आज की हिंदी कविता का एक प्रमुख स्वर वह संकट भी है, जिससे भारतीय जीवन गुजर रहा है. राजनीति और समाज में नीचे से ऊपर तक व्याप्त चारित्रिक पतन का दस्तावेज़ है कविता, जो कभी न्याय तो कभी विडंबना, कभी त्रासदी तो कभी भर्त्सना, कभी आक्रोश तो कभी हताशा से देखती है अपने चारों तरफ. फिर भी यह सभ्यता, अध्यात्म और संस्कृति का गुणगान करते नहीं थकती. कविता को अक्सर लगता है कि आचरण और व्यवहार में आज यह इतनी क्षुद्र और चरित्रहीन कैसे हो गयी कि मानो किसी भी नैतिक चुनौती का सामना करने में ही अक्षम हो.”
(दिशाओं का खुला आकाश)
कुँवर जी की कविता अपनी निजता, नैतिकता और शिल्प के प्रभुत्व को खोए बिना अपने वक्त की उथल पुथल, उदारीकरण, पूंजीवाद और ग्लोबलाइजेशन के संकटों और चुनौतियों से अपनी तरह से टकराती रही है जिसे आप अपने वक्त की ठंडी कविता कह कर भले मुँह सिकोड़ें किन्तु कुँवर जी के कवित्व, चिंतन और उसकी रचनात्मक फलश्रुति का कवि विवेक ऐसा ही रहा है जो ‘कर्कश तर्क वितर्क के घमासान’ से बचता हुआ वेदना और करुणा के साथ अपने युग का क्रिटीक और सुभाषित लिखता रहा है.
उनकी कविता मध्यवर्गीय शिकायतों की आदत से लाचार कविता की सरणि से बचती और वास्तव में वह पथ अख्तियार करती है जिस पथ पर कम कवि चलना स्वीकार करते हैं. राजनीति अपनी चाल चलती है, उनकी कविता अपनी चाल. उनका तो कहना ही रहा है कि राजनीति ने साहित्य के गुण नहीं अपनाएं पर साहित्य राजनीति की व्याधियों से दूर न रह सका. इसलिए भी उनकी कविता राजनीति के पीछे नहीं भागती, उसका तफ्सरा नहीं करती, वह काम आम जनता या न्यायिक संस्थाओं का है. कवि का काम वह है जो राजनीति के बूते का भी नहीं. हां; राजनीति चाहे तो उनकी कविता के दर्पण में अपना चेहरा निहार सकती है. लेकिन मुझसे कोई कहे कि कुँवर जी की कविता को एक पद में उपनिबद्ध कर कहूँ तो कहना चाहूँगा: अरी ओ करुणा प्रभामय!
ओम निश्चल हिंदी के सुपरिचित कवि आलोचक एवं भाषाविद् हैं, दो दर्जन से ज्यादा कृतियों के लेखक हैं तथा हिंदी संस्थान उ.प्र. के आचार्य रामचंद्र शुक्ल आलोचना पुरस्कार, जश्नेअदब के शान ए हिंदी खिताब एवं विचार संस्था, कोलकाता के प्रो.कल्याणमल लोढ़ा साहित्य सम्मान से विभूषित हैं. सम्पर्क |
पूरा आलेख एक बार में पढ़ गया। कुँवर नारायण की एक उत्कृष्ट विवेचना की गई है।
एक बात पर मेरा ध्यान गया। प्रतीक हमारा सरलता से पीछा नहीं छोड़ते। तिलक से मूल आलेख में न सही पुस्तक में छुटकारा पाया गया और इस घटना की विवेचना में मोर-मुकुट आ गया।
यह बताता है कि हमारा अपने परिदृश्य पर विजय पाना कठिन बना हुआ है और यह भी कि इस सब के बाद भी ओम निश्चल जी एक बहुआयामी सरस आलेख लिखने में सफल रहे। बधाई।
एक कवि किस तरह अपने समय को देखता है। देश-काल में रहते हुए भी वह किस प्रकार देशकाल से छिन्न तटस्थता को सधते हुए होकर भी द्रष्टा भाव में रहकर असम्पृक्त रह सकता है। वह डूबकर भी सूखा है, सूखा है फिर भी आकंठ डूबा।आज कुंवरजी को यह आलेख वाक्यपुष्पांजलि से कम नहीं जिसकी सुवास समालोचन के माध्यम से हम तक पहुंची।
कवि के जन्मदिवस पर उनकी कविता यात्रा पर लिखा गया यह लेख ….”समय की मलिनताओं को निहारते कुँवर नारायण “आलोचक की सूक्ष्म एवं व्यापक दृष्टि , लेखनी की पैनी धार एवं तथ्यों को पिरोने की अद्भुत शैली के मंजुल सामंजस्य से अत्यंत सारगर्भित, समावेशी, एवं कालजयी बन गया है।
राजनीति या बाजारवाद या भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में कवियों की भूमिका पर चर्चा की जाए…यह पंक्ति निश्चित रूप से सोचने पर मजबूर करती है।
कवि के जन्मदिवस पर आलोचक का यह विशिष्ट उपहार सराहनीय है…. 👏👏👏👏👏दोनों को बहुत -बहुत बधाई एवं अनंत शुभकामनाएं 💐🙏